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सगुण भक्ति काव्य की सामान्य विशेषताएँ | सगुणोपासक कवियों की समान्य प्रवृत्तियाँ

सगुण भक्ति काव्य की सामान्य विशेषताएँ | सगुणोपासक कवियों की समान्य प्रवृत्तियाँ

सगुण भक्ति काव्य की सामान्य विशेषताएँ

सगुण भक्ति के अंतर्गत ब्रह्मा के निराकार स्वरूप को यद्यपि अस्वीकार नहीं किया गया है तथापि व्यावहारिक दृष्टि से उसके साकार-सगुण स्वरूप की प्रतिष्ठा की गई है। सगुण भक्ति की काव्य धारा दो शाखाओं में प्रवाहित हुई- राम-भक्ति शाखा और कृष्ण-भक्ति शाखा।

सगुण भक्ति काव्य की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार हैं-

(1) सगुणोपासना-

सगुण भक्ति काव्य धारा के कवियों ने ब्रह्मा को साकार एवं सगुण माना है और उसके इसी रूप के प्रति अपने उद्गार व्यक्त किये हैं। इनके पूर्व यद्यपि निर्गुण भक्ति मार्गीय कबीर आदि संत कवि भक्ति का प्रतिपादन कर चुके थे- परंतु वह भक्ति ऐसे निर्गुण ब्रह्मा के प्रति थी जो ‘पुहुप बास से पातरा था।’ न ऐसा ब्रह्म जनता की अनुभूति में अमा सकाऔर न उसकी उपासना की समाई ही बनता में आ सकी। सगुण भक्ति कवियों ने ब्रह्मा के लोकप्रिय रूप को लेकर उसको लोक-ग्राह्य बना दिया।

(2) ब्रह्मा के निर्गुण एवं सगुण दोनों रूपों को मान्यता-

सगुण भक्त कवियों ने ब्रह्म के निर्गुण रूप को स्वीकार किया। परंतु इनका कहना यह था कि निर्गुण की उपासना के लिए सगुण का माध्यम अनिवार्य है। लाइनदार कागज पर लिखने का अभ्यास करने के उपरांत ही बिना लाइन के कागज पर लिखना संभव है। गोस्वामी तुलसी दास ने निर्गुण और सगुण रूपों को सापेक्ष बताया, यथा-

ज्ञान कहे अज्ञान बिनु तम बिनु कहै प्रकास।

निर्गुण कहे सगुणबिनु सो गुरू तुलसीदास।

कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास का कहना है कि सगुण साकार रूप भाव गम्य एवं बुद्धि ग्राह्य है। चंचल मन के लिए आधार अथवा आलंबन अनिवार्य है, यथा-

अविगत गति कछु कहत न आवै।

रूप-रेख -गुन जाति जुगुति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।

सब विधि अगम विचारहिं ताते सूर सगुन लीला पद गावै।

(3) रूप की उपासना-

सगुण भक्त कवियों ने भगवान के रूप सौंदर्य की उपासना पर बल दिया है। प्रत्येक भक्त कवि ने भगवना के बाल रूप के सौंदर्य के वर्ण को जी खोलकर तथा पूरी तन्मयता के साथ किए हैं। कृष्ण भक्त कवियों से तो भगवान के जगाने, कलेवा करने, गाय चराने, छाछ खाने, शयन करने, डिडोला झूलने नाचने आदि का लक्ष्य करके अनेकानेक रचनाएँ लिखी हैं।

(4) भक्ति भावना की प्रधानता-

प्रेम और श्रद्धा के योग का नाम भक्ति है, अर्थात् भक्ति की भावना की पूर्णी अभिव्यक्ति तब होती है जब आलंबन के सौंदर्य के अतिरिक्त उसके विशिष्ट गुणों- शक्ति एवं शील- का भी निरूपण किया जाए। इन भक्त कवियों ने ऐसा ही किया है। इनका स्पष्ट मत है कि भक्ति के अभाव में वे संसार उद्धर की कल्पना ही नहीं कर सकते हैं। सगुण भक्ति कवियों की एक विशेषता द्रष्टव्य है- वे भक्ति को साधन और साध्य दोनों मानते हैं। भक्ति के बदले वे भक्ति की ही याचना करते हैं- भुक्ति अथवा मुक्ति की नहीं। “सगुणोपासक मोक्ष न लेहीं। तिन कहूँ राम भगति निज देहीं।’ भक्ति के लिए नित्य दर्शन ही सर्वस्व है। उसके सम्मुख मोक्ष, निर्वाण आदि सब कुछ त्याज्य है।

(5) अवतार भावना-

सगुण भक्त कवि सिद्धांत रूप से परम प्रभु को निर्गुण मतावलंबियों की भाँति अजर-अमर, अजन्मा तथा अखंड मानते हैं, परंतु इसके साथ वे यह भी मानते हैं कि भगवान् अपने भक्तों का, साधु-संतों का कल्याण करने के लिए, पृथ्वी का भार उतारने के लिए अपने लीला विस्तार द्वारा यथावसर सगुण साकार रूप धारण करते हैं, इस मही तल पर अवतरित होते हैं। यह मान्यता अत्यंत प्राचीन है। भागवत धर्म की स्थापना के समय तक तो यह मान्यता सर्वथा परिपुष्ट हो चुकी थी-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानांय धर्मस्य तदात्मान् सृजाम्यहम।

परित्राणाय साधुनाम् विकशाप च दुष्कृतानाम् ।

धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युग-युगे।

हिंदी के भक्त कवियों ने ही इस मान्यता का जन-भाषा में घर-घर प्रचार किया-

जब जब होय धरम कै हानी।

बाढहिं असुर अधम अभिमानी।

तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा।

हररिं कृपानिधि सज्जन पीरा।

असुर मारि थापहिं सुरन्ह बाँधहिं श्रुति सेतु।

जग बिस्तारहितं विमल जस राम जन्म करि हेतु।

(गोस्वामी तुलसीलदास)

भगवान् के अवतार का एक अन्य हेतु भी माना जाता है। लीलाओं द्वारा भक्त जन को आनंदित करना। सूरदास आदि कृष्ण भक्तों ने तो पुष्टि मार्गीय भक्ति के आधार पर यह माना है कि जो भक्त भगवान की कृपा द्वारा पुष्ट हो जाता है, वही उनकी लीलाओं का आनंद प्राप्त करता है। वृंदावन भगवान् कृष्ण की नित्य लीला का धाम है।

(6) गुरू की महिता-

सगुणोपासक भक्त कवियों ने कबीर आदि निर्गुण भक्त कवियों की भांति गुरू के महत्व को स्वीकार किया है। गुरू के बिना भक्ति के सच्चे स्वरूप का ज्ञान असंभव है। भक्त कवियों ने गुरू की स्तुति में अनेक भावपूर्ण द्वंद लिखे हैं। अपने गुरू श्रीवल्लभाचार्य जी की स्तुति में लिखा हुआ सूरदास का यह पद अत्यंत प्रसिद्ध है- “श्रीवल्लभ गुरू तत्व सुनायो लीला भेद बतायो तथा श्रीवल्लभ नख चंद छटा बिनु सब जग माहिं अंधेरो’ आदि।

(7) ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की श्रेष्ठता का प्रतिपादन-

भक्त कवियों ने ज्ञान की अपेक्षा भक्ति के मार्ग को अधिक सरल, मनोवैज्ञानिक, व्यावहारिक तथा श्रेष्ठ बताया। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस के उत्तर कांड में ज्ञान को दीपक तथा भक्ति को मणि बताया है, सूरदास का भ्रमरगीत तो ज्ञानकेंद्र पर भक्ति का जयघोष है ही। ज्ञान मार्तण्ड से झुलसे हुए उद्धव भक्ति की सुधा वृष्टि से सरस सुहाए बन कर लौटते हैं। अस्तु।

(8) मोक्ष की अवहेलना-

जैसा हम अन्यत्र निवेदन कर चुके हैं, भक्तजन भुक्ति, मुक्ति आदि किसी वस्तु की कामना यह याचना नहीं करते हैं। उन्हें तो केवल प्रभु की अनन्य भक्ति चाहिए। इसके लिए वे मोक्ष, निर्वाण पद आदि सब कुछ अस्वीकार कर देते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास ने तो स्पष्ट लिखा है-

सगुणोपासक मोक्ष न लहीं।

तिन कहूँ राम भगत बिन देहीं।

(9) वधा वैष्णव भक्ति का प्रतिपादन-

भक्त कवियों ने वेदशास्त्र द्वारा निर्धारित भक्ति एवं साधना के स्वरूपों का अपनाया और उन्हीं का प्रतिपादन किया, यथा-

श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ संजुत विरति विवेक।

जे परिहरहि विमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक। (गोस्वामी तुलसीदास)

इन भक्त कवियों के काव्य में हमको भक्ति के समस्त परंपरानुमोदित एवं प्रचलित रूपों का समावेश मिलता है। श्रवण, कीर्तन, मनन, गुणकयन आदि नवधा भक्ति का निरूपण तो प्रायः प्रत्येक भक्त कवि ने किया है।दीनता, मान मर्षता, भर्त्सना, भय-दर्शन श्रादिक भक्ति की भूमिकाओं का वर्णन इन कवियों ने जी खोलकर किया है। इसके अलावा शरणागति के नियमों का तथा नारद द्वारा कथित की आसक्तियों का वर्णन इन भक्त कवियों ने बड़े ही उत्साह के साथ किया है।

उपसंहार-

समस्त भक्त काव्य स्रोत संस्कृत के प्रचीन धर्म ग्रंथ हैं। इन कवियों ने अपनी बात को ऋजु सरल भाषा में कहा। इस कारण इनकी वाणी का रहस्यात्मक उक्तियों को तथा कबीर की भाँति अटपटी वाणी का अभाव है।

मर्यादा के निर्वाह के फलस्वरूप राम-भक्ति काव्य तो मर्यादित बना रहा, परंतु कृष्ण काव्य में वासना का समावेश हो गया। भक्त कवि वस्तुतः लोक कवि थे। इसी कारण वे आज भी पूरी तरह से जीवित हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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