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क्रोचे के अभिव्यंजनावाद | क्रोंचे के अभिव्यंजनावाद पर समीक्षात्मक निबन्ध | अभिव्यंजनावाद के सम्बन्ध में क्रोंचे की मान्यता

क्रोचे के अभिव्यंजनावाद | क्रोंचे के अभिव्यंजनावाद पर समीक्षात्मक निबन्ध | अभिव्यंजनावाद के सम्बन्ध में क्रोंचे की मान्यता

क्रोचे के अभिव्यंजनावाद

क्रोंचे ने अपने ग्रंथ ‘एस्थेटिक’ नामक ग्रंथ में दार्शनिक हेगल से प्रभावित होकर अभिव्यंजनावाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। वे काव्य में अभिव्यंजना को ही सर्वस्व स्वीकार  करते हैं। उनकी दृष्टि से अभिव्यंजना सौंदर्य है, और सौंदर्य ही अभिव्यंजना है।

क्रोंचे के अभिव्यंजनाबाद की पृष्ठभूमि में सौन्दर्यशास्त्र की एक लम्बी परम्परा काम कर रही है। 7वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्वछन्दतावाद का प्रभाव बढ़ रहा था। लेसिंग, ब्रिकलमेन, कॉण्ट, गेटे आदि इनका नेतृत्व कर रहे थे। लेसिंग के सौन्दर्य सिद्धान्त के अनुसार कलाएँ आत्म-सौन्दर्य को अभिव्यक्त करती हैं। वह भावाभिव्यंजना को काव्य का मुख्य उद्देश्य मानता है। ब्रिकलमेन ने इस सिद्धान्त को और आगे बढ़ाया। वह कला की अभिव्यंजना के अन्तरंग में सन्तुलन चाहता है। काण्ट ने कला का स्थान विशुद्ध ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान का मध्यवर्ती माना। उसने कला क्षेत्र की स्वतन्त्रता की मांग उठाई उसने कवि को किसी बाह्य नियम से शासित नहीं माना। स्वच्छन्दतावादी के प्रारम्भ में कला में व्यक्तिवाद की प्रमुखता थी, कबि के भावजगत् को सार्वजनिक वस्तु नहीं माना गया। गेटे ने अभिव्यंजना को व्यक्तिगत धरातल से उठाकर सार्वजनिक भाव-भूमि प्रदान की। इस पृष्ठभूमि में क्रोंचे ने अभिव्यंजना को एक शास्त्रीय रूप प्रदान किया।

मानव दर्शन के विवेचन में क्रोंचे ने मन के दो आधार माने हैं- ज्ञान (प्रज्ञा) और क्रिया (संकल्प)। एक सिद्धान्त है, दूसरा व्यापार। उसने ज्ञान के भी दो भाग किये-प्रातिम ज्ञान, प्रमेय ज्ञान ।

बुद्धि की क्रिया के बिना मन में अपने आप उठने वाली मूर्त भावना को प्रातिभ ज्ञान या सहजानुभूति कहते हैं। कल्पना द्वारा हम जगत् के नाना रूपों और क्रियाओं का एक बिम्ब अन्तः करण में उपस्थित करते हैं। इसे हम कल्पना में उद्भूत ज्ञान कह सकते हैं।

प्रमेय ज्ञान का सम्बन्ध तर्कशास्त्र से है। तर्क से हम प्रातिभ ज्ञान की तुलना समीक्षा करते हैं। यह निश्चयात्मक बुद्धि द्वारा उपलब्ध ज्ञान है। यह पृथक्-पृथक् व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान है।

क्रोंचे कला में प्रातिभ ज्ञान की प्रधानता मानते हैं। प्रातिभ ज्ञान के साँचे में दलकर व्यक्त होना ‘कल्पना’ है और वही मूल अभिव्यंजना है। सौन्दर्य उक्ति में होता है। वास्तविक वस्तु में सौन्दर्य नहीं होता. सौन्दर्य होता है उसकी अभिव्यंजना में। क्रोचेने स्पष्ट कहा है-‘उक्ति की सुन्दरता प्रतिभा  ज्ञान द्वारा ही सम्भव है। कल्पना ही मूर्ति विधान करती है। क्रौंचे ने कल्पना को विचार से पृथक् माना है। उसके अनुसार कल्पना मन की स्वतन्त्र सत्ता है। वह विचार का सम्बन्ध बुद्धि से मानता है। सौन्दर्य का बोध कराने वाली कल्पना है न कि विचार क्रोंचे कला पर कल्पना का स्वछन्द शासन मानता है। कवि की कल्पना जितनी तीव्र होगी, वह उतना ही अच्छा कवि होगा। मन पर दृश्य जगत् की जो छाया पड़ती है उसे कल्पना द्वारा न बिम्ब प्रदान कर अभिव्यंजित करना ही कविकर्म है। कालिदास के मन पर शकुन्तला के रूप की जो छाया पड़ी उसे वह अपनी कल्पना द्वारा तीन बिम्बों के माध्यम से व्यक्त करते हैं—सूक्ष्मतम, सूक्ष्मतर और स्थूल। पहले वह कहते हैं अनाघ्रात पुष्पमित्र। दुनिया में कौन ऐसा भावुक, सहृदय होगा, जो सूंघे हुए और बिना सूंघे हुये फूल का अन्तर बता सके। छुये हुये और अनछुये फूल को छुआ नहीं, उनके पास नासिका से जो कर थोड़ी दूर से ही सूंघ लिया, तो उस सूंघे हुए बिना सूंघे हुए फूल का अन्तर बताना, अनुभव करना सहृदय की चरम स्थिति ही है तो फिर अनचले मधु में अन्तर बताना क्या सहज है और अन्त में वह एक स्थूल बिम्ब की कल्पना करता है, ‘किमल ममुन कररू’, बिना तखक्षत लगे हुए किसलय के समान। नई ‘कोपल कितनी कोमल होती है, और उस पर हल्की सी नख सी खरोंच कैसी उभर जाती है-यह कवि कालिदास की तीसरी स्थूल कल्पना है। अन्धे सूरदास ने राधा की चरण तली को ‘बिडाल-रसना’ के समान कहा। आँख वालों ने तो आज तक अनुभव नहीं किया होगा कि बिल्ली की जिह्ना कितनी कोमल होती है? उस अन्धे ने देखा रहा होगा। यह है कवि की कल्पना।

क्रोंचे के अनुसार सहजानुभूति कला का बोध-पक्ष है और विचार तर्क का बोध-पक्ष। सहजानुभूति में बिना मन के आभास के चित्र अंकित होता है। ऊपर सहजानुभूति के उदाहरण दिये गये हैं कवि के सिद्धान्त को हम स्थूल रूप में इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं।

(i) कला-सम्बन्धी ज्ञान प्रातिम ज्ञान या सहजानुभूति है।

(ii) सहजानुभूति की ही अभिव्यंजना होती है।

(iii) सौन्दर्य अभिव्यंजना में होता है वस्तु में नहीं।

(iv) मूलतः अभिव्यंजना अन्तर में होती है।

क्रोंचे के अनुसार साधारण अनुभूति और कलात्मक अनुभूति में अन्तर होता है। कला आत्मदर्शन की प्रक्रिया है। यह आत्मदर्शन स्वयमेव अभिव्यक्त होता है। अभिव्यंजनात्मक के अभाव में सहजानुभूति नहीं, मात्र ऐन्द्रिय अनुबोध होता है। सहजानुभूति अखण्ड होती है, उसकी अभिव्यक्ति के लिए विचार सहजोपलब्ध होता है। अभिव्यंजना को अनुभूति से पृथक् नहीं किया जा सकता। सहजानुभूति का आध्यात्मिक आलोक अवचेतन की अव्यक्त, अस्पष्ट स्थिति से चेतन मन की चिन्तन-विष्ट स्थिति को प्राप्त करता है। सहजानुभूति और आभव्यंजना एकात्म है। उनका आविर्भाव और तिरोहण एक साथ होता है। सहजानुभूति की स्थिति में सम्भावनाएँ स्वयं सुन्दर, मधुर बनकर अभिव्यक्त हो जाती हैं।

क्रोंचे की कुछ अपनी परिसीमाएं हैं

(i) क्रोंचे बाह्य अभिव्यंजना को अनावश्यक मानकर कलाकार को ऐसी स्वच्छन्दता दे देता है कि अराजकता और अव्यवस्था फैलती है।

(ii) क्रोचे का कथन स्वतः विरोधी है। एक ओर तो वह कला को सहजानुभूति बताकर वैयक्तिक मानता है दूसरी ओर भावुकता को भी सहजांनुभूति की बात करता है।

(iii) क्रोँचे कला शब्द का प्रयोग उस अर्थ में नहीं करता जो सर्वमान्य है।

(iv) अभिव्यंजना पर अधिक बल देने के कारण तथा विषय-वस्तु की उपेक्षा के कारण कला में अनेक विकृतियों के समावेश की सम्भावना है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अभिव्यंजना और विषय-वस्तु की एकात्मकता दोनों ही दृष्टिकोणों का खण्डन किया है। अभिव्यंजनाबाद पर आचार्य शुक्ल के मुख्य तीन आक्षेप हैं-

(i) क्रोंचे ने कल्पना-पक्ष को प्रधानता देकर उसका रूप ज्ञानात्मक कहा है, जबकि हमारे यहाँ उसका मूलरूप भावात्मक या अनुभूत्यात्मक है।

(ii) कल्पना आत्मा की अपनी क्रिया नहीं है। जिसे क्रोचे आत्मा के कारखाने से निकले हुए रूप कहता है, वे वास्तव में बाह्य जगत् से प्राप्त हुए रूप हैं।

(iii) अभिव्यंजनावाद बेलबूटों और नक्काशियों के सम्बन्ध में तो बिल्कुल ठीक लगता है, पर काव्य की सच्ची मार्मिक भूमि से यह बहुत दूर रहता है। यह काव्य की तह में जीवन का कोई सच्चा मार्मिक तथ्य सच्ची भावानुभूति नहीं तो उनका मूल्य खेल तमाशे के अतिरिक्त कुछ नहीं।

आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी के भी कुछ आक्षेप अभिव्यंजनावाद पर हैं-

(i) क्रोंचे काव्य को कवि की जिस आध्यात्मिक प्रक्रिया का परिणाम मानता है, उसका सम्बन्ध काव्य के श्रोताओं तथा पाठकों से बिल्कुल नहीं रखा गया है।

(ii) यह कविता जबकि अग्रिम अवस्था में अनुभूतियों के प्रकाशन का व्यापार है, तो उक्त आधार के सुन्दर या असुन्दर होने का प्रश्न कैसे उठ सकता है ? कोई काव्य समाज की नैतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है या नहीं, इसका निर्णय कैसे होगा?

(iii) उसने काव्य-व्यापार का निरूपण करते हुए जीवन और जगत् से उसका सम्बन्ध स्थापित नहीं किया।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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