शिक्षाशास्त्र / Education

राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् की आवश्यकता | राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् की भूमिका | राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद का महत्त्व

राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् की आवश्यकता | राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् की भूमिका | राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद का महत्त्व

राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् की आवश्यकता

(Need of National Council of Teacher Education)

राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् की अनलिखित आवश्यकताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) न्यूनतम सुविधाओं की प्राप्ति (Attainment of Minimum Facilities)-  भारत की अधिकतर शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओं में दृश्य-श्रव्य सामग्री, आधुनिक सामान, प्रयोगशालाओं, भवनों तथा पुस्तकालयों इत्यादि मे भौतिक सुविधाओं का अभाव है। अनेक संस्थाएँ प्राइवेट प्रबन्ध के अधीन हैं और तथा धन की कमी के कारण न्यूनतम सुविधाएँ भी नहीं प्राप्त कर पाती हैं।

(2) प्रशिक्षित शिक्षकों की समस्या (Problems of Trained Teachers)— प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव भी एक समस्या रही है। अनेक राज्यों में प्रशिक्षित शिक्षक बेकार हैं और अनेक राज्यों को तो शिक्षक प्रशिक्षण स्कूल/कॉलेज बन्द करने पड़े हैं।

(3) शिक्षा का विस्तार (Extension of Education)— वर्तमान समय में भारत में प्रारम्भिक शिक्षा में बड़े पैमाने पर विस्तार तथा माध्यमिक शिक्षा में कुछ मौलिक परिवर्तन लाने का आयोजन किया जा रहा है। विद्यालयी शिक्षा को शिक्षा की बुनियाद मानकर तथा सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली में शिक्षक के योगदान के महत्व को सामने रखते हुए यह अनुभव किया गया है कि कोई अखिल भारतीय शिक्षा संस्था स्थापित की जानी चाहिए, जो सरकार को शिक्षक-शिक्षा की योजनाओं के बारे में उचित सलाह दे सके।

(4) शिक्षकों की शिक्षा (Education of Teachers)- विभिन्न राज्यों में प्रशिक्षित शिक्षकों के प्रतिशत में अन्तर है और यह अन्तर प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के समय तथा स्तर के अन्तर के अतिरिक्त है। राज्यों के प्रतिशत में यह अन्तर 18% से 99% है। शिक्षकों की योग्यताओं में भी अन्तर है। अनेक शिक्षक मिडिल पास हैं और अनेक हायर सेकण्डरी के बाद 2 वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त हैं।

राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् की भूमिका

(Role of N.C.T.E.)

अथवा

राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद का महत्त्व

(Importance of National Council of Teacher Education)

अध्यापक शिक्षा परिषद् ने शिक्षक-शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में बदलाव लाने का संकल्प लेकर शिक्षकों की शिक्षा में बढ़ते व्यापार तथा गिरते स्तर पर अंकुश लगाने का प्रयास किया है। परिषद् ने नये संस्थानों तथा पाठ्यक्रमों को चलाने के लिये मान्यता प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया है। इससे शिक्षा के स्तर निर्धारण में एक अध्याय जुड़ा है।

राष्ट्रीय संदर्भ में राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् की भूमिका निम्न प्रकार है-

(1) शिक्षक का स्तर- परिषद् यह प्रयास कर रही है कि शिक्षक शिक्षा का स्वरूप तथा स्तर दोनों ही मानकों पर खरे उतरने चाहिये। बी० एड० स्तर पर यह स्थिति अत्यन्त विकट है। विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में प्राय: बी० एड० विभाग एक कमरे में चलते हैं, जहाँ स्टाफ के बैठने तक की जगह नहीं होती। ऐसी स्थिति में परिषद् द्वारा किया गया नियन्त्रण प्रभावकारी सिद्ध होगा।

(2) अनुसंधान- शिक्षक शिक्षा का क्षेत्र व्यापक है और उसमें निरन्तर अनुसंधान आवश्यक है। इस अनुसंधान का लाभ शिक्षक-प्रशिक्षकों को अवश्य मिलेगा।

(3) सही शिक्षकों की तलाश- बेरोजगारी के इस जमाने में शिक्षक होने की दिशा में भीड़ बढ़ी है। ऐसी स्थिति में शिक्षण व्यवसाय, जिसमें भावी पीढ़ी के निर्माता की आशायें हैं, ये सही व्यक्ति शिक्षक बनें, इसके मानक, परीक्षण आदि का निर्धारण किया जाना आवश्यक है।

(4) सही परीक्षण- आजकल प्रायः प्रत्येक विश्वविद्यालय सही शिक्षकों का चयन प्रवेश परीक्षा द्वारा करता है। ये परीक्षायें प्रमापीकृत नहीं हैं और ये सही मायनों में वास्तविक शिक्षकों की संभावनाओं की खोज नहीं कर पाती। इस दिशा में प्रयास जारी होने चाहिये।

(5) नवीन पाठ्यक्रम- नवीन पाठ्यक्रमों के प्रति भी राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।

(6) दोहरी नीति के बीच- परिषद् के अधिनियम में यह स्पष्ट है कि शिक्षक शिक्षा का व्यापारीकरण नहीं होगा। परिषद् ने स्वविलपोषण के नाम पर अनेक संस्थाओं को बी० एड० के पाठ्यक्रम दिये हैं। ये संस्थायें मात्र 2000 रु० मासिक शिक्षकों को नियुक्त कर शिक्षक शिक्षा प्रदान करा रही हैं। इनमें स्तर को आशा नहीं की जा सकती।

(7) केवल विज्ञापन- समय-समय पर परिषद् के क्षेत्रीय कार्यालय मान्यताहीन पाठ्यक्रमों तथा संस्थाओं के प्रति अभ्यर्थियों को सचेत तो करती हैं, परन्तु उन संस्थाओं के विरुद्ध कार्यवाही नहीं होती।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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