प्रकृतिवाद में रूसो का योगदांन

प्रकृतिवाद में रूसो का योगदांन | रूसो की प्रकृतिवादी विचारधारा

प्रकृतिवाद में रूसो का योगदांन | रूसो की प्रकृतिवादी विचारधारा

प्रकृतिवाद में रूसो का योगदांन

महान दार्शनिक रूसो ने “कन्फेशन” नामक पुस्तक के रूपे में अपनी जीवनी लिखी थी। इसमें उसने अपने जीवन की वास्तविक एवं रोमांटिक घटनाओं का वर्णन किया था। उसने लिखा था कि बचपन में ही वह माँ के स्नेह और प्रेम से वचित हो गया था। पिता और अध्यापकों द्वारा दिये गये कठोर दण्ड और दमनात्मक उत्पीड़न ने उसके जीवन को नीरस और कठोर बना दिया था । उस पर विद्यालय के कृत्रिम और बनावटी वातावरण ने भी उसे निराशा के गर्त में धकेल दिया था। आवारागर्दी और अव्यवस्थित जीवन जीने के कारण उसमें एक प्रकार का विराग उत्पन्न हो गया था। ऐसे में वह प्रकृति की शरण में आ गया। यहाँ आकर उसे अपार शांति और आत्मीयता का अनुभव हुआ। प्रकृति की गोद में मिली नैसगिक सात्वना से उसमें प्रकृति के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा उत्पन्न हो गई। यही निष्ठा आगे चलकर उसक प्रकृतिवादी दर्शन की आधार शिला बनी। अपने निजी अनुभवों के आधार पर ही उसने कहा था-“प्रकृति के निर्माता के यहाँ से सभी वस्तुएं अच्छे रूप में आती हैं, किन्तु मनुष्य के हाथों में आत ही वह दूषित हो जाता है।”

रूसो की प्रकृतिवादी विचारधारा

रूसो एक महान प्रकृतिवादी था। उसके प्रकृतिवाद में समाज को उसके स्वाभाविक रूप में ही स्वीकार किया गया है। उसमें किसी प्रकार का बनावटीपन अथवा औपचारिकता का समावेश नहीं किया जाना चाहिये। उसने मानव के मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यक्ति की आन्तरिक प्रवृत्तियों, रुचियों, योग्यताओं और क्षमताओं को ही महत्त्व प्रदान किया था। प्रकृति के माध्यम से मानव के स्वाभाविक विकास पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उसने कहा था – “शिक्षा हमारे पास प्रकृति के माध्यम से ही आती है। हम प्रकृति में विद्यमान अन्य मनुष्यों और वस्तुओं के द्वारा ही कुछ सीखते हैं। हम आन्तरिक शक्तियों और शारीरिक अंगों के द्वारा ही कुछ सीखते हैं। हमारी आन्तरिक शक्तियों और शारीरिक अंगों का विकास वैसा ही होता है जैसा प्रकृति कराती है। इस विकास का प्रयोग किस प्रकार किया जाय, यह शिक्षा हमें मनुष्यों के सम्पर्क में आने पर अपने अनुभवों तथा पारिस्थितिक प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप मिलती है।” यही कारण है कि रूसो ने समस्त मानव जाति का आह्वान करते हुए “प्रकृति की ओर लौटो” का सन्देश दिया था।

रूसो के प्रकृतिवादी शैक्षिक विचार

शिक्षा की परिभाषा करते हुए रूसो ने कहा था-“वास्तविक शिक्षा वही है जो व्यक्ति के अन्दर से प्रस्फुटित होती है। यह व्यक्ति के अन्दर छिपी हुई शक्तियों का प्रकटीकरण है।”

उक्त परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि बालक की प्राकृतिक शक्तियों का विकास करना ही रूसो की दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य है।

रूसो ने जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया था, उस पर भी प्रकृतिवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उसने प्राकृतिक विज्ञान, भूगोल, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज-विज्ञान, भाषा, साहित्य, नृत्य, खेलकूद, भ्रमण, वास्तुकला, शिल्प आदि विषयों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का सुझाव दिया था। ये सभी विषय प्रकृति से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं और बालक के प्राकृतिक विकास में सहायक हैं।

प्रकृतिवादी प्रभाव के कारण ही रूसो ने प्रचलित औपचारिक शिक्षा पद्धति का विरोध किया था और उसके स्थान पर निषेधात्मक शिक्षा की वकालत की थी। प्रचलित शिक्षा की बुराइयों को बताते हुए उसने कहा था-“उस क्रूर शिक्षा के सम्बन्ध में हम क्या बात करें जो बालकों के अनिश्चित भविष्य के लिए उसके वर्तमान को नष्ट कर देती है। बालक पर तरह-तरह के बंधन लाद देती है, उस काल्पनिक सुख के लिए जिसे वह सम्भवत: कभी प्राप्त नहीं कर सकेगा।”

अपनी निषेधात्मक शिक्षा के बारे में वह कहता है-“मैं निषेधात्मक शिक्षा उस शिक्षा को कहता हूँ जो उन अंगों को पूर्णता की ओर प्रवृत्त करती है, जो हमारे ज्ञान के साधन हैं। यह वह शिक्षा है जो इन्द्रियों के समुचित अभ्यास से तर्क बुद्धि को विकसित करती है।….. . यह बालक को उस मार्ग पर चलने के लिए स्वतंत्रता प्रदान करती है, जो उसे वास्तविक सत्य का ज्ञान कराये। जब बालक उस आयु तक पहुच जाता है कि वह सत्य को समझने लायक हो सके, तो वह उसको पहचानने और उससे प्रेम करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है।”

शिक्षण-विधि के रूप में भी रूसो अनुभव द्वारा तथा करके सीखने की विधि का ही समर्थन करता है। यह विधि पूर्णत: प्रकृतिवादी सिद्धान्तों पर आधारित है। अनुशासन पर रूसो के विचार पूर्णतया प्रकृतिवाद का समर्थन करते हैं। वह प्राकृतिक दण्ड व्यवस्था का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहता है-“बालकों को कभी दण्ड नहीं देना चाहिये। यह तो प्रकृति का काम है जो प्राकृतिक परिणामों के रूप में छात्रों को स्वत: मिल जाता है।”

उक्त समस्त विवेचन रूसो को एक प्रबल प्रकृतिवादी दार्शनिक सिद्ध करता है। एडम्स ने भी इसी बात का समर्थन करते हुए कहा है-“शिक्षा के सम्बन्ध में लिखने वाला रूसो ही कदाचित सुप्रसिद्ध प्रकृतिवादी था।”

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