शिक्षाशास्त्र / Education

आदर्शवाद का अभिप्राय | पाश्चात्य और भारतीय दृष्टि से आदर्शवाद का अभिप्राय | आदर्शवाद की विशेषताएँ | भारतीय आदर्शवाद की विशेषतायें

आदर्शवाद का अभिप्राय | पाश्चात्य और भारतीय दृष्टि से आदर्शवाद का अभिप्राय | आदर्शवाद की विशेषताएँ | भारतीय आदर्शवाद की विशेषतायें

जीवन और उसके समस्त कार्यकलापों के प्रति हमेशा से मनुष्य ने एक निजी दृष्टिकोण एवं विचार-दृष्टि अपनाया और उसी के अनुसार कार्यों को सम्पादित किया है। फलस्वरूप प्राचीन काल से आज तक मनुष्य की चिन्तनशीलता ने विभिन्न दृष्टिकोण उत्पन्न किया और यही मानवीय दृष्टिकोण को विद्वानों ने एक विशेष नाम दिया; यह नाम ‘दर्शन’ है। अस्तु दर्शन मानवीय दृष्टिकोण है जो समस्त ब्रह्माण्ड के प्रति मनुष्य रखता है और अपने जीवन तथा कार्य को उसी के अनुकूल आगे बढ़ाता है। ऐसे दर्शन और दृष्टिकोण कई हैं जो विभिन्न देशों व कालों में अलग-अलग स्वरूप धारण किए हैं। शिक्षा की क्रिया के प्रति भी ऐसे दृष्टिकोण अपनाये गये और सामान्य जीवन दर्शन ने उसे भी प्रभावित ही नहीं किया बल्कि उसके स्वरूप का निर्धारण भी किया। ऐसे दर्शन हैं आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, प्रयोजनवाद, यथार्थवाद, अस्तित्ववाद आदि ।

  1. आदर्शवाद का अभिप्राय

आदर्शवाद का सीधा-सीधा अर्थ है ऐसी दार्शनिक विचारधारा जो ‘आदर्श’ पर आधारित हो। आदर्श क्या है? आदर्श वह मूल्य, सद्गुण, मानक, विश्वास है जिसे मनुष्य अपने विचार में हमेशा रखता है और उसी के संकेत पर सभी व्यवहार और आचरण करता है।

इससे स्पष्ट है कि अदर्शवाद विचारमूलक दार्शनिक दृष्टिकोण है। इस आधार पर कुछ दार्शनिक जगत का निर्माण विचार के द्वारा बताते हैं और संसार की सभी चीजों का शाश्वत अस्तित्व विचार निर्भर करता है न कि उसकी भौतिक स्थिति के कारण। विचार (Ideas) मनुष्य के मन और आत्मा की सर्वोत्तम क्रिया है, अस्तु विचार जगत ही सर्वोत्तम एवं सर्वश्रेष्ठ माना गया है, यह आदर्शवाद का कहना है। उदाहरण के लिए ‘सत्य’, ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, आदि के विचार आदर्शवाद के अनुसार सर्वोत्तम एवं सर्वोच्च माने गए हैं।

आदर्शवाद को अंग्रेजी में Idealism कहा जाता है। इसका सम्बन्ध विचार (Idea) से होता है इसलिए कुछ विद्वान उसे विचारवाद (Idealism) भी कहा करते हैं। विचार सूक्ष्म निष्कर्ष है (Idea is abstract conclusion) जो मनुष्य संसार के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करता है और ऐसा निष्कर्ष बुद्धि और तकना के बल पर अन्तिम स्थिति में प्राप्त होता है। जैसे ईश्वर सबसे अन्तिम विचार है (God is the ultimatc idea) अतएव हम मनुष्यों का वह ‘आदर्श’ (Idea) हो जाता है, मान्य हो जाता है, विश्वास योग्य हो जाता है। जैसे विचार शाश्वत होते हैं और सत्य तथा अस्तित्ववाद होते हैं। विचारवाद अयवा आदर्शवाद इन्हीं सबसे सम्बन्धित चिन्तन का विशेष दृष्टिकोण है। इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों के विचार दिए जा रहे हैं।

प्रो० एस० जी० हेन्डरसन “आदर्शवाद मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष पर बल देता है क्योंकि आदर्शवादियों के अनुसार आध्यात्मिक मूल्य मनुष्य और जीवन के अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू हैं।….सीमित मन असीम मन से उत्पन्न होता है, व्यक्ति और संसार दोनों बुद्धि की अभिव्यक्तियाँ हैं, भौतिक जगत की व्याख्या मानसिक जगत से की जावे।”

(“Idealism emphasises the spiritual side of man because to the idealists spiritual values are the most important aspects of man and of life…finite mind springs from the infinite mind, both the individual and the world are expressions of intelligence, the material world is to be explained by the mental.”)

प्रो० डी० एम० दत्त- “आदर्शवाद वह सिद्धान्तवाद है जिससे कि अन्तिम वास्तविकता आध्यात्मिक होती है।”

प्रो० हार्न- “आदर्शवाद एक दर्शन के रूप में उन सभी विचारधाराओं के विपरीत है जो प्रकृति या मनुष्य में केन्द्रित है।”

प्रो० सी० बी० गुड- आदर्शवाद वह विचारधारा है जिसमें यह माना जाता है कि पारलौकिक सार्वभौम तत्वों, आकारों या विचारों में वास्तविकता निहित होती है और वे ही सत्य ज्ञान की वस्तुएँ हैं जबकि बाह्य रूप इन्द्रिय अनुभवों एवं विचारों में निहित होते हैं जो विचारों की छाया या अनुकृतियाँ होती है।

प्रो० आर० आर० रस्क-“आदर्शवाद एक दार्शनिक विचारधारा है। यह विचारधारा व्यक्तिगत और वस्तुगत दोनों है। यह वैज्ञानिक खोज की स्वतन्त्रता को तो स्वीकार करती है पर भौतिक जत्रत की जास्तविकता को अपूर्ण अभिव्यक्ति मानती है। इसको पूरा करने के लिए आध्यामिकता की आवश्यकता होती है। आदर्शवाद, की प्रकृति की विशिष्टता पर बल देकर मानव जीवन को सम्मान देता है। पर विश्वास करता है कि मनुष्य में ऐसी तार्किक, नैतिक और सौंदर्यात्मक शक्तियाँ होती हैं जो किसी जीवधारी में नहीं हैं। ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार करता है।”

निष्कर्ष रूप से हम कह सकते हैं कि आदर्शवाद वह दार्शनिक विचारधारा है जो विचारों में विश्वास करती है, ईश्वर में विश्वास करती है, आदर्शो, मूल्यों, नैतिकताओं, सौन्दर्य, सत्य, अच्छाई, बुद्धि, ज्ञान, आत्मा को मनुष्य के जीवन में ऊँचा स्थान देती है और इस आधार पर मनुष्य जीवन को सम्मान देती है तथा संसार की भौतिक वस्तुओं को अपूर्ण मानती है।

  1. पाश्चात्य और भारतीय दृष्टि से आदर्शवाद का अभिप्राय

पाश्चात्य देशों में प्राचीन काल में आदर्शवाद का प्रचार यूनान में सबसे पहले हुआ जिसका प्रतिनिधित्व प्लेटो ने किया। प्लेटो के विचार में आदर्शवाद वह विचारधारा रही जिसमें सद्गुणों-सत्यं, शिवं, सुन्दरं-को मान्यता दी गई, नैतिकता पर बल दिया गया तथा तर्क-चिन्तन-ज्ञान के लिए मनुष्य को प्रयल करना चाहिए और सर्वोच्च सत्य की प्राप्ति उसका लक्ष्य होता है। बाद में डेकार्टे ने ईश्वर, मन और मानव बुद्धि के सम्बन्ध में विचारों को आदर्शवाद माना । पुनः लाइबेनीज ने परम आध्यात्मिक चिद्-बिन्दु का विचार, आध्यात्मिकता सम्बन्धी चिन्तन, शाश्वत तथा क्षणिक तत्वों के अस्तित्व पर विचार को अपने आदर्शवाद की संज्ञा दी। इमैनुएल काण्ट ने असीम और ससीम के चिन्तन और अस्तित्व से सम्बन्धित विचारों को अपने आदर्शवाद में रखा। इसका प्रभाव उसके बाद के दार्शनिकों-हीगेल, शेलिंग, शापेनहावर, बर्कले, वर्गसन, क्रोचे, जेन्टाइल, ग्रीन, इमर्सन, फ्रोबेत आदि-पर पड़ा। सभी ने आध्यात्मिक सत्ता को परम सत्य सिद्ध किया, ईश्वर में विश्वास किया, मानव को ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना कहा । मनुष्य में आत्मा, मन, चेतना, बुद्धि की अनिवार्यता बताई। इन सभी पर जिस दार्शनिक प्रणाली ने विचार प्रकट किये वह आदर्शवाद कहा गया।

भारतीय क्षेत्र में आदर्शवाद का अभिप्राय ईश्वर में विश्वास, ब्रह्म के लिए चिन्तन, प्रयत्न, उसकी प्राप्ति तथा मानव । सद्गुणों की उपस्थिति से लिया गया है । वैदिककाल में परम तत्व बहुमुखी माना गया, परन्तु ब्राम्हणकाल में एकतत्ववादी विचार ने आदर्शवाद को घेर लिया। एकतत्ववादी आदर्शवाद ने फैला एवं उनके धर्म पर भी प्रभाव डाला तथा इसके फलस्वरूप उसके ऊपर विश्वास रहा आध्यात्मिक जीवन के लिये मनुष्य को प्रयत्नशील बनाया गया। इसके साथ-साध मनुष्य का लक्ष्य आध्यात्मिक तत्व को प्राप्त करना रहा। आधुनिक काल में शंकराचार्य रामानुजाचार्य, कबीर, नानक, विवेकानन्द, अरविन्द, टैगोर, राधाकृष्णन, गांधी, जाकिर हुसैन आदि आदर्शवादी विचारक हुए हैं जिन्होंने ईश्वर को सर्वोपरि माना, मनुष्य का कर्तव्य अपने शुद्ध आचरण से प्रेम शक्ति के साथ उसे प्राप्त बताया और प्राण कि धर्म बना कि ईश्वर, आत्मा, अपने-आप, अन्य प्राणियों ने समनाम, सद्भाव एक प्रेमनाव रख। इन सभी की व्याख्या, सभी के बारे में बिचार, सभी के लिए मनन-चिन्तन-प्रयत्न आदर्श माना गया। अतएव स्पष्ट है कि पाश्चात्य तथा भारतीय दृष्टि से आदर्शवाद का अभिप्राय प्रायः समान है। भारतीय दृष्टि से आदर्शवाद का तात्पर्य ईश्वर, ब्रह्म, आत्मा, संसार, मनुष्य, शुद्ध, सच्चा जीवन आदि के बारे में गूढ़ चिन्तन एवं निष्कर्ष है जबकि पाश्चात्य लोगों की दृष्टि से आदर्शवाद केवल निरपेक्ष विचार (Absolute Idea) के चिन्तन की प्रणाली है। यह अवश्य है कि दोनों दृष्टियों से आध्यात्मिक तथ्य, विचार जगत एवं सद्गुणों से युक्त मानव व्यक्तित्व को महत्वपूर्ण माना गया है।

  1. आदर्शवाद की विशेषतायें

आदर्शवाद दर्शन में हमें नीचे लिखी विशेषताएँ मिलती हैं-

(i) विचार और आध्यात्मिक जगत की वास्तविकता, विचार से वस्तु जगत का निर्माण।

(ii) ‘विश्व सार्वभौमिक मन का बाह्य प्रकाशन मात्र’-(फिचनर)। भौतिक तत्व साररूप में आध्यात्मिक है—(लाइबेनीज)।

(iii) ईश्वर की सर्वोत्तम कृति मनुष्य- (रॉस) मनुष्य परमात्मा की बनाई समस्त वस्तुओं का राजा-(साल्म)।

(iv) जड़ वस्तु की अपेक्षा विचार अधिक महत्वपूर्ण, प्रधान और शाश्वत ।

(v) मनुष्य जीवन के तीन शाश्वत मूल्य-सत्यं, शिवं, सुन्दरं, अपने आप में उपस्थित, अपने आप में पूर्ण अपने आप में वांछनीय ।

(vi) मनुष्य को आत्मानुभूति द्वारा सभी गुणों का उन्नयन, जीवन का परम लक्ष्य ।

(vii) विभिन्न तत्वों को एक साथ रखने वाली एकता में विश्वास, एक तत्व सर्वोपरि, सर्वोच्च, परम शक्ति, असीम ।

(viii) ईश्वरत्व, दैवत्व, परमपूर्णता, रहस्यमयता जैसी अलौकिक बातों में विश्वास ।

(ix) मूल्य, सद्गुण, मान्यता, मानक, पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, दण्ड, देव- विपाक में विश्वास

(x) बुद्धि, तर्क, विवेक, तितिक्षा, संयम, नियन्त्रण, नियम पालन, अनुशासन के प्रति अटूट श्रद्धा, इन्हें जीवन में धारण करना अत्यावश्यक समझना।

(xi) आत्मा, संकल्प की स्वतन्त्रता पर बल, मुक्ति, मोक्ष में दृढ़ विश्वास।

(xii) धर्म में आस्था, धार्मिक क्रियाशीलता पर अत्यधिक बल, आध्यामिकता के लिये धर्म साधन होना।

(xiii) आध्यात्मिकता जीवन का सार-तत्व माना जाना।

(xiv) आदशों का पूर्व निमित्त, शाश्वत, सर्वव्यापी, अन्तिम बिन्दु होना मनुष्य द्वार इनकी खोज और प्राप्ति।

(xv) मनुष्य अपने सांस्कृतिक, नैतिक, आध्यात्मिक धारकों से प्राकृतिक और सामाजिक वातावरण पर नियन्त्रण करने में समर्थ ।

प्रो० टॉमस तथा लैंग ने आदर्शवाद की विशेषताओं पर जो विचार दिये हैं उन्हें भी- यहाँ देने से हमें इसके बारे में विस्तारपूर्वक ज्ञान होगा :-

(i) सच्ची वास्तविकता आध्यात्मिकता और विचार में होती है।

(ii) मनुष्य के लिये मानसिक जगत का ज्ञान आवश्यक है।

(iii) विचार और प्रयोजन की वास्तविकता ही सत्य है।

(iv) संसार का स्वरूप मस्तिष्क के द्वारा वास्तविक बनता है।

(v) ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट और सर्वोच्च स्वरूप अन्तर्दृष्टि में पाया जाता है।

(vi) सच्चे जीवन का सारतत्व आत्मा का निर्णय होता है।

(vii) इन्द्रियों से सच्ची वास्तविकता का बोध नहीं किया जा सकता है।

(viii) भौतिक जगत जो कुछ दिखाई देता है वह सब मिथ्या है, भ्रम है।

(ix) अन्तिम और असीम वास्तविकता अभौतिक ही होती है।

(x) हमारे चारों ओर का संसार हमारी आत्मा और मन का प्रकाशन मात्र है।

(xi) ईश्वर का सम्बन्ध मनुष्य के मन-मस्तिष्क से होता है जिससे वह अन्य प्राणिधारियों का ज्ञान कराता है।

(xii) मानव व्यक्तित्व उसके विचारों एवं प्रयोजनों का एक जटिल मिश्रण है। विचार एवं प्रयोजन वास्तविक हैं।

(xiii) मनुष्य का आत्मा अपने रूपान्तर के अतिरिक्त अन्य कुछ जानने में असमर्थ होता है।

(xiv) भौतिक जगत अपूर्ण होता है, अपूर्णता की अभिव्यक्ति यहाँ पाई जाती है।

(xv) निरपेक्ष मन का अपने आप अस्तित्व होता है, अन्य का अपने आप अस्तित्व नहीं होता है।

(xvi) विचार, ज्ञान, कला, नैतिकता और धर्म मानव जीवन के सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहलू हैं।

(xvii) सत्य ज्ञान प्राप्त करने का साधन मनुष्य का विवेक और आध्यासिक अन्तदृष्टि है।

  1. भारतीय आदर्शवाद की विशेषतायें

(i) परमसत्ता यद्यपि एक है फिर भी अनेक रूप में अभिव्यक्ति होता है। ब्रह्म, प्रकृति, पुरुष, माया, ये रूप परमसत्ता के ही रूप हैं।

(ii) ईश्वर, ब्रह्म, और उसकी शक्ति से सृष्टि की उत्पत्ति होती है।

(iii) ब्रह्म और जीवन में सर्वव्यापी चेतना पाई जाती है। आत्मा अमर है, ज्ञान से मुक्त है।

(iv) जीवन का परम लक्ष्य मुक्ति है जो ज्ञान भक्ति ..र कर्म से प्राप्त होती है।

(v) परम पुरुष प्रेम स्वरूप- (टैगोर) । परमपुरुष से तादात्म्य करने का एक मात्र साधन प्रेम है। उसकी अनुभूति परमशान्ति देने वाली है। इसकी प्राप्ति रो चरम मूल्यों की प्राप्ति होती है।

(vi) अन्तर्दृष्टि में आस्था से परमतत्व की प्राप्ति सम्भव है- (अरविन्द और राधाकृष्णन्) । अन्तर्दृष्टि ब्रम्हा की खोज में लगाती है तथा सत चिद्-आनन्द की ओर ध्यान दिलाती है। यह साधना का मूल है।

(vii) धर्म में विश्वास भारतीय आदर्शवाद की एक विशेषता है। “धर्म समग्र यथार्थ सत्ता के प्रति समग्र मानव की प्रतिक्रिया है”- (राधाकृष्णन)।

(viii) मनुष्य और उसकी सत्ता में विश्वास होना एक अन्य विशेषता है। मानव शरीर में आत्मा या ब्रह्म का निवास होता है। मनुष्य ईश्वर सर्वोत्तम कृति है जो विचारवान है, मननशील है, व्यवहारशील है। इसीलिए भारतीय आदर्शवाद में विचारों की प्रधानता होती है।

(ix) मानव जीवन में नैतिकता, पवित्रता, आध्यात्मिकता, अनुशासनपूर्णता पर बल देना भी भारतीय आदर्शवाद की एक दूसरी विशेषता बताई गई है।

(x) ईश्वर और जगत दोनों सत्य हैं, शाश्वत हैं, विश्वसनीय हैं। ईश्वर से जगत, जीवन, प्रकृति सभी कुछ उत्पन्न है इसलिए ईश्वर के अनुरूप ही जगत होगा ऐसा विश्वास भारतीय आदर्शवाद में मिलता है।

प्रो० रॉस ने लिखा है कि आदर्शवाद दर्शन के बहुत से तथा भिन्न रूप होते हैं। (Idealistic philosophy takes many and varied forms)। बात सही है और जो रूप है वे नीचे दिये जा रहे हैं। इनको हम पाश्चात्य और भारतीय दृष्टि से समझाने का प्रयत्न करेंगे।

(अ) पाश्चात्य दृष्टि से- (i) सुकरात और प्लेटो का नैतिक आदर्शवाद जिसमें सत्यं शिवं सुन्दरं जैसे सद्गुणों पर अत्यधिक बल दिया गया है।

(ii) लाइबेनीज का चिबिन्दु का आदर्शवाद जिसमें सर्वोच्च चिद्-बिन्दु (Monard) ईश्वर है और अन्य चिद् बिन्दु संसार के समस्त प्राणी हैं। कुछ दार्शनिकों ने इसे अनेकवाद भी कहा है।

(iii) बर्कले का आत्मनिष्ठ आदर्शवाद जिसमें संसार आत्मा में निष्ठ है, उसका अस्तित्व आत्मा के कारण अपने-आप नहीं।

(iv) काण्ट का प्रपंचवादी आदर्शवाद जिसमे अनुभव, अन्तरात्मा, नैतिक मूल्य, कर्तव्य का जगत वास्तविक माना जाता है।

(v) हीगेल का निरपेक्ष आदर्शवाद जिसमें ईश्वर मनस् का चरम रूप है और पुद्गल (पदार्थ) से जगत का निर्माण करता है, ऐसा विश्वास मिलता है।

(vi) फेकनर का अवयवी आदर्शवाद ईश्वर को सर्वश्रेष्ठ सर्वव्यापक आत्मा कहा गया है और यह जगत उसकी तर्कपूर्ण अवयवधारी रचना माना जाता है।

(vii) यूरेन का व्यक्तिगत आदर्शवाद जिसमें प्रकृति जगत को परिवर्तनशील माना गया है। दैवी संकल्प के कारण व्यक्तित्व का विकास होता है ऐसा विश्वास इसमें पाया जाता है।

(viii) जोन्स का गणितीय आदर्शवाद जिसमें मनुष्य के तर्क की वैज्ञानिकता पर बल लिया जाता है। आइन्स्टीन के विचारों में भी हम इसी ज आदर्शवाद की छाप पाते हैं।

(ब) भारतीय दृष्टि से- (i) अद्वैतवादी आदर्शवाय जिसमें केवल एक ही तत्व ही सत्य, शाश्वत और सर्वस्रष्टा माना जाता है; इसे परमात्मा, परब्रह्म, ईश्वर जो कुछ भी कहें।

(ii) द्वैत्वादी आदर्शवाद जिसमें ईश्वर और जीव दोनों तत्व सत्य एवं शाश्वत है।

(iii) बहुत्वपादी आदर्शवाद जिसमें संसर के अनेक तत्वों को स्वतन्त्र सत्ता दी गई है और परमतत्व इन तत्वों के योग से सृष्टि की रचना करता है। यहापि अनेक तत्व होते है फिर भी सभी तत्वों में एकता और योग का पूर्ण सम्भावना पाई जाती है |

(iv) विशिष्ट द्वैतवादी आदर्शवादी जिसमें जीवन जड़ और ईश्वर तीन तत्व हैं और इनमें ईश्वर जीव और जड़ से विशिष्ट मूल तत्व हैं। जीव और जड़ दोनों उसके अंग हैं।

(v) द्वैताद्वैतवादी आदर्शवाद जिसमें जीव और प्रकृति परमात्मा से युक्त माने जाते हैं।

(vi) वैदिक आदर्शवाद जिसमें ईश्वर की परम सत्ता स्वीकार की जाती है और वही सर्वव्यापी होकर जगत का निर्माणकर्ता माना जाता है।

(vii) औपनिषिदिक आदर्शवाद जिसमें ईश्वर को सर्वव्यापी, सर्वद्रष्टा, सर्वशक्तिमान कहा जाता है और मनुष्य के लिए वह अनुकरणीय आदर्श होता है।

(viii) गीता का कर्मवादी आदर्शवाद जिसमें निष्काम कर्म में आस्था रखकर ईश्वर की भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्त करना मनुष्य का कर्तव्य धर्म है |

(ix) योगवादी आदर्शवाद जिसमें मन, इन्द्रियों और शरीर पर नियन्त्रण करके ईश्वर की प्राप्ति पर बल दिया गया है। कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग से सम्बन्धित आदर्शवाद कहे जाते हैं। इसी प्रकार से हठयोग का आदर्शवाद भी है जिसमें शारीरिक नियन्त्रण एवं योगासन की क्रियाओं पर एकमात्र बल दिया जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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