राष्ट्रीय शिक्षा की माँग

राष्ट्रीय शिक्षा की माँग | राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धांत | राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धांत की विशेषताएँ | राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना

राष्ट्रीय शिक्षा की माँग | राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धांत | राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धांत की विशेषताएँ | राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना

राष्ट्रीय शिक्षा की माँग

(Demand of National Education)

बंगाल के विभाजन ने राष्ट्रीय आन्दोलन और राष्ट्रीय शिक्षा की माँग को गति प्रदान की। जैसे-जैसे राष्ट्रीय आन्दोलन की गति तेज होती गई, वैसे-वैसे शिक्षा के राष्ट्रीयकरण अथवा स्वदेशीकरण की माँग बढ़ती गई और भारतीय शिक्षा के अंग्रेजीकरण के विरूद्ध देशप्रेमियों की आवाज भारत के कोने-कोने में गूँजने लगी। अंग्रेजी शिक्षा की जवर्दस्त निंदा करने वाले में से प्रमुख थे-“महात्मा गाँधी और श्रीमती ऐनी बेसेण्ट”।

महात्मा गांधी ने”यंग इण्डिया” में आपने लेख प्रकाशित करके भारतीय शिक्षा के विदेशी स्वरूप पर प्रचण्ड प्रहार किया। उन्होंने इस शिक्षा के अप्रलिखित 4 गंभीर दोष बताकर, भारतीयो के लिए इसका अनोचित्य सिद्ध किया

(1) यह शिक्षा, अन्यायपूर्ण शासन से सम्बन्धित है।

(2) यह शिक्षा, विदेशी संस्कृति पर आधारित है और इसमें भारतीय संस्कृति को कोई स्थान नहीं दिया गया है।

(3) इस शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य-मस्तिष्क का विकास करना है। इसमें हस्तकला के लिए कोई स्थान नहीं है और यह हृदय को प्रभावित नहीं करती है।

(4) इस शिक्षा का माध्यम- अंग्रेजी है। अंग्रेजी, विदेशी भाषा होने के कारण वास्तविक ज्ञान प्रदान नहीं कर सकती है।

श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने भारतीय शिक्षा के अंग्रेजीकरण की निंदा और राष्ट्रीय शिक्षा की माँग करते हुए कहा- “राष्ट्रीय जीवन और राष्ट्रीय चरित्र को अधिक शीघ्रता और अधिक निश्चित रूप में निर्बल बनाने के लिए इससे अधिक उत्तम उपाय और कोई नहीं हो सकता है, कि बालकों की शिक्षा पर विदेशी प्रभावों और विदेशी आदर्शों का प्रभुत्व हों।”

राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धांत अथवा विशेषताएँ

(Principles or Characteristics of National Education)

शिक्षा की माँग की, उसके प्रमुख भारत के नेताओं और शिक्षाविदों ने अपने देश के लिए जिस सिद्धांत अथवा विशेषताएँ अग्र प्रकार हैं-

(1) भारतीय नियंत्रण (Indian Control)

राष्ट्रीय नेताओं ने भारतीय शिक्षा पर विदेशियों के नियंत्रण को सर्वथा अनुचित बताया और कहा कि इस शिक्षा पर भारतीयों का पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए। इस संबंध में भारतीयों के विचारों का प्रकाशन करते हुए श्री मती ऐनी बेसेण्ट ने कहा – “भारतीय शिक्षा-भारतवासियों द्वारा नियंत्रित, भारतवासियों द्वारा निर्मित और भारतवासियों द्वारा संचालित की जानी चाहिये।”

“Indian education must be controlled by Indians, shaped by Indians, carried on by Indians.” -Mrs. Annie Besant.

(2) शिक्षा के आदर्श (Ideals of Education)-

राष्ट्रीय शिक्षा के आदर्शों को स्पष्ट करते हुए, श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने कहा- “भारतीय शिक्षा को भक्ति , ज्ञान एवं नैतिकता के भार्तीय आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए और उसमें भारतीय धार्मिक भावना का समावेश होना चाहिए।”

(3) भारतीय भाषाओं पर बल (Stress on Indian Languages)-

देश के नेताओं ने घोषित किया कि राष्ट्रीय शिक्षा में भारतीय भाषाओं के अध्ययन पर बल दिया जाना चाहिये और उन्हीं भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिये। अत: उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि पाठ्यक्रम में अंग्रेजी के महत्त्व को समाप्त कर देना चाहिए।

(4) मातृभूमि के लिए प्रेम (Love for Motherland)-

भारत की तत्कालीन शिक्षा प्रणाली, में राजभक्ति की शिक्षा दी जाती थी। श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने इस शिक्षा को पूर्णतया अनुपयुक्त बताया। उन्होंने यह विचार व्यक्त किया कि छात्रों को ऐसी शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए जिससे उनमें अपनी मातृभूमि के लिये प्रेम और आदर की भावनाओं का आविर्भाव हो।

(5) ब्रिटिश आदर्शों की समाप्ति (End of British Ideals)-

अंग्रेजी शिक्षा भारतवासियों के सम्मुख अंग्रेजी आदर्शों को प्रस्तुत करती थी। ये आदर्श उनके लिये अत्यधिक अहितकर थे। अत: इनका विरोध करते हुये भारतीयों के लिए भारतीय आदर्शों को ही उपयुक्त बताते हुए श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने कहा – “ब्रिटिश आदर्श, ब्रिटेन के लिए अच्छे हैं, किन्तु भारत के लिए भारत के आदर्श ही अच्छे हैं।”

“British ideals are good for Britain, but it is India’s ideals that are good for

India.” –Mrs. Annine Besant, Qouted by Lala Lajpat Rai

(6) राष्ट्रीय चरित्र का विकास (Development of National Character)

तत्कालीन शिक्षा, भारतीयों के राष्ट्रीय चरित्र का विकास करने में असमर्थ थी। अत: श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया और उसके उद्देश्य को राष्ट्रीय चरित्र का विकास करना वताते हुए कहा-” राष्ट्रीय शिक्षा को राष्ट्रीय चरित्र का विकास करना चाहिए।”

(7) व्यावसायिक शिक्षा पर बल (Stress on Vocational Education)-

राष्ट्रीय आन्दोलन को एक मुख्य विशेषता थी-स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग। यह तभी संभव हो सकता था जब व्यावसायिक शिक्षा को उचित व्यवस्था करके, भारतीय उद्योगों को उन्नतिशील बनाया जाता। इसके अतिरिक्त, व्यावसायिक शिक्षा से देश की आर्थिक समस्या का और भारतीयों की निर्धनता का समाधान हो सकता था। इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर राष्ट्रीय नेताओं ने राष्ट्रीय शिक्षा में औद्योगिक और व्यावसायिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था पर बल दिया।

राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना

(Establishment of National Educational Institutions)

सन् 1905 में कर्जन की नौकरशाही ने बंग-भंग की घोषणा करके, सम्पूर्ण देश में असंतोष का साम्राज्य स्थापित कर दिया। भारतीयो और विद्यार्थियों ने अपने असंतोष को अभिव्यक्त करने के लिए सभाएँ कीं और जुलूस निकाले। कठोर शासन में विश्वास करने वाले कर्जन के लिए, उनके इन कायों को सहन नहीं कर सका। अत: उसने अपना दमन-चक्र आरंभ किया और छात्रों को राजनीति से पृथक् रहने की आज्ञा दी। उसने स्पष्ट कर दिया कि उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले विद्यार्थियों को शिक्षा संस्थाओं से निकाल दिया जायेगा। विद्यार्थियों ने उसका उत्तर स्वयं शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार करके दिया।

इन उत्साही और देश-प्रेमी विद्यार्थियों की शिक्षा का समुचित प्रबंध करना- राष्ट्रीय कर्त्तव्य माना गया।अतः भारत के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की गई। इस कार्य में पहला कदम बंगाल में उठाया गया। वहाँ गुरूदास बनर्जी की अध्यक्षता में “राष्ट्रीय शिक्षा-प्रसार-समिति'” (Society for the Promotion of National Education) की स्थापना की गई। इस “समिति” ने सम्पूर्ण बंगाल में 51 हाईस्कूलों का नव-निर्माण किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर, रासबिहारी बोस और अरविन्द घोष के संयुक्त प्रयासों के परिणाम-स्वरूप “नेशनल-कॉलेज” की स्थापना हुई।

राष्ट्रीय शिक्षा-आन्दोलन का एक अन्य रूप भी दिखाई दिया। सन् 1901 में रवीन्द्रनाथ टैंगोर ने शांति-निकेतन नामक स्थान में एक ‘ब्रम्हचर्य आश्रम’ की स्थापना की, जो आज”विश्वभारती” के नाम से प्रसिद्ध है। इसी समय के आस-पास “आर्य प्रतिनिधि सभा” ने हरिद्वार और वृंदावन में गुरूकुलों की स्थापना की।

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