शिक्षा अनुदान प्रणाली की प्रवृत्तियाँ | अनुदान प्रणाली के गुण | अनुदान प्रणाली के दोष तथा उनके सुधार हेतु सुझाव
शिक्षा अनुदान प्रणाली की प्रवृत्तियाँ | अनुदान प्रणाली के गुण | अनुदान प्रणाली के दोष तथा उनके सुधार हेतु सुझाव
स्वतंत्र भारत में अनुदान प्रणाली (Grant in Aid System in Free India)
स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले अनुदान देने के उद्देश्य आदि निश्चित करने की ओर बहुत कम ध्यान दिया जाता था। सन् 1939 में 11 से 18 प्रान्तों में अनुदान देने का मुख्य उद्देश्य संस्थाओं में शिक्षा धर्मनिरपेक्ष तथा विकास था। कुछ राज्यों में अनुदान सम्बन्धी नियमों को व्यवस्थित करके कोड के रूप में रखे गये तथा अन्य राज्यों में इन्हें मैनुअल या शिक्षा के नियमों की पुस्तकों में शामिल किया गया। प्रारम्भ में अनुदान देने का मुख्य उद्देश्य समाज द्वारा निश्चित किए गए शिक्षा के उद्देश्यों को बतलाना था पर अब शिक्षा के सिद्धान्तों आदि का समुचित विवेचन भी अनुदान के नियमों के साथ किया जाता है। वर्तमान समय में अनुदान देने सम्बन्धी निम्न प्रवृत्तियाँ भारत में पाई जाती हैं-
(1) स्थानीय सहयोग होना आवश्यक माना जाता है- स्थानीय सहयोग पर बल इसलिए दिया जाता है कि जनता की रुचि शिक्षा में बनी रहे। मध्य प्रदेश, सौराष्ट्र, मैसूर, पंजाब उ.प्र. आदि राज्यों में अनुदान प्राप्त करने के लिए स्थानीय सहयोग किसी न किसी मात्रा में आवश्यक है। सौराष्टर के अनुदान कोड में यह स्पष्ट लिखा है कि शासकीय अनुदान देने का उद्देश्य स्थानीय सहयोग को बढ़ावा देना है। जिससे जनता समाज सुधार तथा शिक्षा जैसे कार्यों में शासन का हाथ बँटाए। मैसूर राज्य में किसी भी पाठशाला को चन्दा या दान के रूप में नियमित स्थानीय आय के बिना अनुदान नही दिया जाता है। पंजाब में फीस, चन्दा तथा दान आदि के द्वारा जब तक इतनी आय नहीं होती कि शासकीय सहायता मिलने पर संस्था चल सके, तब तक अनुदान नहीं दिया जाता है। उत्तर प्रदेश में रक्षित कोष में निश्चित, समय से रकम जमा करना आवश्यक है। यह रकम बिना विभागीय मंजूरी के खर्च नही की जा सकती है। पर कुछ राज्यों में आवश्यक कमी की पूर्ति विधि भी अपनाई जाती है। फलस्वरूप स्थानीय जनता से चन्दा या दान को प्रोत्साहन नहीं मिला पर इस विधि की भावना या उद्देश्य यह नहीं है।
(2) कार्यकुशलता का अच्छा स्तर होना आवश्यक होता है- वास्तव में किसी भी पाठशाला को अनुदान उसकी कार्यकुशलता के अच्छे स्तर पर ही दिया जाता है। पहले पाठशाला की प्रशासकीय सहायता उसका स्तर गिरने पर बन्द कर दी जाती थी पर अब स्तर बुद्धि को निरफेक्षता की दृष्टि से देखा जाने लगा है अर्थात् यदि स्तर बहुत कम है तो अधिक अनुदान सुधार के लिए दियां जाता है। कई राज्यों, जैसे- पंजाब, सौराष्ट्र में पाठशालाओं को श्रेणीबद्ध किया गया है तथा उन्हें उस अनुपात में शासकीय अनुदान दिया जाता है। बिहार में तो अच्छे कार्य पर सामान्य रकम से अधिक रकम भी दी जाती है। वहाँ कार्यकुशलता के विभिन्न क्षेत्रों पर अलग-अलग नम्बर दिए जाते हैं तथा कुल अंक सौ होते है। जिन पाठशालाओं को 60 प्रतिशत या अधिक अंक मिलते हैं उन्हें 60 रुपये प्रतिमाह, 35 प्रतिशत से 59 प्रतिशत अंक मिलने पर 45 रुपये प्रतिमाह अधिक मिलते हैं। इस प्रकार कार्यकुशलता तथा स्तर सुधार के लिए प्रभावी कदम उठाये जाते हैं।
(3) अुनदान के लिए कुछ खर्चे मंजूर किये जाते हैं- पहले मंजूर खर्च के अन्तर्गत केवल कुछ ही मद या खर्च रखे जाते थे पर अब इन मदों की संख्या अधिक होती जा रही है। इसका कारण यह है कि शिक्षा के वर्तमान दृष्टिकोण में परिवर्तन आता जा रहा है तथा शिक्षा के साधनों की भी वृद्धि होती जा रही है। पर कई राज्यों में इसके कारण पाठशाला की प्रबन्धकारिणी तथा शासन में भेद बढ़ जाता है। मंजूर खर्चों में शिक्षक, फर्नीचर, पुस्तकें तथा अन्य उपकरण आदि ही होते हैं।
विभिन्न राज्यों में इनके सम्बन्ध में विभिन्न नियम हैं, जैसे मध्यप्रदेश तथा बिहार में शिक्षक तथा कक्षा या सेक्शन का अनुपात 1 : 1 हैं। मुम्बई में यह अनुपात 1:3 से 1:5 रखने की सिफारिश माध्यमिक शिक्षा समिति ने की थी। मैसूर में शिक्षकों को पढ़ाने को दिए हफ्ते के घंटों के आधार पर शिक्षकों की संख्या अनुदान के लिए मान्य की जाती है। उत्तर प्रदेश में विषयों के आधार पर यह संख्या निश्चित- की जाती है।
कार्यालय कार्य की वृद्धि के कारण माध्यमिक पाठशालाओं में अब अधिक लिपिक तथा ‘अन्य चतर्थ श्रेणी के कर्मचारी मंजूर किए जाने लगे हैं। वास्तव में यदि पाठशाला में अच्छा लिपिक नहीं है तो शिक्षकों को कई काम कार्यालय में करने पड़ते हैं। तथा शिक्षण कार्य में बाधा उत्पन्न होती है। मैसूर में छः सेवशनों पर दो लिपिक सात से नौ सेक्शनों में तीन तथा नौ से अधिक सेक्शनों पर चार लिपिक मंजूर किए जाते हैं। अन्य छोटे कर्मचारियों के सम्बन्ध में भी मैसूर में अधिक उदार रुख अपनाया गया। भारत में प्रयोगशाला उद्योग के लिएं अटेण्डेण्ट के अतिरिक्त दो या अधिक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मंजूर किए जाते हैं।
कन्टेन्जेन्सी के सम्बन्ध में भी बहुत विभिन्नता पायी जाती है क्योंकि विभिन्न राज्य इसका लेखा विभिन्न प्रकार से करते हैं। कई राज्यों जैसे-बंगाल में कन्टेन्जेन्सी को बहुत महत्व नहीं देते हैं। सौराट्ट्र कन्टेन्जेन्सी के लिए अधिक उदारता से रकम देता है। बम्बई कोड भी पुस्तकों, मरम्मत आदि पर 50 प्रतिशत खर्च ही मंजूर करता है पर कन्टेन्जेन्सी के लिए उदारतापूर्ण रुख रखता है। लेखा रखने, पर रकम को निश्चित करने की दृष्टि से मध्यप्रदेश, मैसूर आदि राज्यों में अपनाई जाने वाली प्रति सेक्शन रकम मंजूर करने की विधि सरल है, पर पाठशालाओं को बड़ी असुविधा हो गयी।
इन मदों को छोड़कर अन्य मदों के खर्च जैसे इमारत की मरम्मत, इन्श्योरेन्स, टैक्स, किराया, अन्य अलाउन्स आदि अन्य खर्चों में शामिल किए जाते हैं। इनके सम्बन्ध में भी विभिन्न राज्यों में विभिन्न प्रणालियाँ अपनाई जाती है। पंजाब ने किराया मंजूर करने के लिए एक अनोखी विधि अपनाई है। इस विधि में किराया मंजूर करने से आठ सौ प्रति सैक्शन प्रतिमाह या दो सौ रुपये से अधिक किराया अनुदान के लिए मंजूर नही किया जाता है।
(4 ) वर्तमान अनुदान-प्रणाली के दोष-
(i) घाटे की वित्त व्यवस्था होने पर स्थानीय सहयोग कम होता जा रहा है। लोग सोचते है कि सभी सरकार पूरा करती हैं अत: चन्दा लेना अनुपयुक्त है।
(ii) कार्यकुशलता के आधार पर अनुदान देने से अविकसित पाठशालाओं को हानि होती है, वे धन की कमी के कारण उन्नति नहीं कर पाती और अधिक अनुदान भी नहीं ले पातीं।
(ii) अनुदान की रकम में भविष्य के विकास के लिए कोई धन मिलने का प्रावधान नहीं होता, अत: विकास अवरुद्ध होता है।
(iv) अनुदान के लिए मंजूर खर्चो में शोध कार्य, प्रयोग आदि के खर्चे मंजूर करने का प्रावधान नहीं होने से प्रयोग कार्य को प्रोत्साहन नहीं मिलता ।
(v) अनुदान के लिए कन्टेन्जेन्सी की रकम निश्चित होने से किराये आदि में ही वह रकम व्यय हो जाती है तथा अन्य कार्य रुक ही जाते हैं।
(vi) कई राज्यों में अनुदान की रकम का अधिक भाग शिक्षकों के वेतन के लिए ही व्यय किया जाता है। इसलिए अन्य मदों के हिसाब से कम धन व्यय हो पाता है। इस तरह शिक्षा के अन्य उपकरण तथा साधनों की उपेक्षा होती है।
(vii) अनुदान तिमाही या छमाही मिलने से कठिनाई हो जाती है।
(vii) कई राज्यों में अनुदान की रकम निश्चित करने तथा उसकी प्रगति की विधि बड़ी क्लिष्ट है। अनुदान की विधि सरल तथा कम से कम समय लगने वाली होनी चाहिए।
(5) अनुदान प्रणाली में सुधार के सुझाव- अन्य देशों में कौन-कौन सी विधियाँ अपनायी जा सकती हैं?
(i) इंग्लैण्ड की एल.ई. व्यवस्था तथा केन्द्र की भागीदारी वाली नीति का अवलम्बन भारत में किया जाना उपयोगी होगा इससे केन्द्र तथा स्थानीय संस्थाएँ अपना उत्तरदायित्व कहन करने हेतु सचेष्ट रहेंगी।
(ii) अमेरिका का फाउंडेशन प्रोग्राम वाला सिद्धान्त अपनाने में एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा सभी पाठशालाओं में विकसित हो सकेगी।
(iii) शिक्षा के समान अवसर देने के लिए पिछड़ी तथा अविकसित पाठशालाओं को अधिक अनुदान देने की व्यवस्था होनी चाहिए जैसा कि अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में है।
(iv) अनुदान स्थानीय प्रयासों के सहायतार्थ ही होना चाहिए।
(v) अनुदान के नियम तथा शर्तों में अनुदान परिवर्तन करके इस विधि को सरल तथा सीधा बनाया जाए।
(vi) अनुदान के नियमों में ऐसा सुधार किया जाए कि पाठशाला की शैक्षणिक गतिविधियों को अधिक से अधिक धन प्राप्त कराया जा सके।
(vii) इमारत बनाने तथा उपकरण खरीदने के लिए बॉण्ड या ऋण बिना ब्याज के देन की व्यवस्था करनी चाहिए। यह रकम जैसे कार्य होता जाये वैसे ही दी जाने वाली व्यवस्था भी होनी चाहिए। अमेरिका जापान, ईरान आदि देशों में ऐसी व्यवस्था है।
(vii) अनुदान तिमाही या माहवार देने की व्यवस्था हो तो अच्छा हो।
(ix) शिक्षा के स्तरों में प्राथमिकता निश्चित करके प्राथमिकता के आधार पर अधिक या कम रकम अनुदान के रूप में दी जाए जैसे प्राथमिक शिक्षा, कक्षा शिक्षक, शिक्षक प्रशिक्षण टेक्नीकल शिक्षा आदि को अधिक रकम अनुदान में दी जायें।
भारत में अनुदान प्रणाली सन् 1854 ई. में बुड सुझावों के आधार पर प्राम्भ की गई थी और वर्तमान समय में केन्द्रीय राज्य एवं स्थानीय सरकारों के संयुक्त प्रयास आवश्यक हैं और तभी किसी संस्था को अनुदान देना चाहिए। भारत में स्थानीय प्रयास अधिक सन्तोषजनक नहीं है अतः उनके प्रयासों को अनुदान के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
हमारे देश में में आवर्तक तथा अनावर्तक दोनों प्रकार के व्यय को पूरा करने के लिए केन्द्रीय राज्य तथा स्थानीय सरकारों द्वारा निश्चित अनुपात में अनुदान दिया जाता है। भारत में प्रत्येक राज्य के लिए केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय सरकारों के मध्य अनुदान देने का अनुपात भिन्न-भिन्न है ।
अच्छी अनुदान प्रणाली के गुण (Models of Good Grants in Aid-System)
सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न अनुदान प्रणालियों को अपनाया जा रहा है किन्तु कुछ अनुदान प्रणलियाँ शिक्षा विकास के लिए अच्छी है जिनके आवश्यक गुण इस प्रकार है।
(1) अनुदान की मात्रा निर्धारित करने तथा उसे देने की विधि सरल होनी चाहिए।
(2) अनुदान देने तथा उसे निर्धारित करने में रूढ़िवादिता को स्थान नहीं देना चाहिए।
(3) विद्यालयों की आवश्यकताओं, परिस्थितियों एवं साधनों आदि के आधार पर अनुदान का धन निर्धारित होना चाहिए।
(4) अनुदान प्रणाली लचीली होनी चाहिइए अर्थात् यदि किसी संस्था के विकास हेतु अधिक अनुदान की आवश्यकता हो तो सरलता से दिया जा सके।
(5) अनुदान की मात्रा इतनी होनी चाहिए जिससे विद्यालय की आर्थिक कठिनायों का निवारण किया जा सकें।
(6) अनुदान की मात्रा इतनी हो जिससे लोकतंत्र तथा संस्कृति का विकास हो सके।
(7) अनुदान निश्चित उद्देश्यों के आधार पर दिया जाना चाहिए।
(8) अनुदान मिलने पर संस्था का शैक्षिक स्तर तथा कार्य क्षमता में वृद्धि होनी चाहिए।
(9) अनुदान प्राप्त करने वाली संस्था में सदुपयोग किया जाना चाहिए।
(10) अनुदान प्राप्त करने वाली संस्था नियमानुसार अपना कार्य करने में स्वतंत्र होनी चाहिए। उसके ऊपर कठोर नियंत्रण नहीं होनी चाहिए वरन् अनुदान द्वारा प्रगति के लिए प्रेरित करना चाहिए।
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