इतिहास / History

1905 की रूस की क्रान्ति के कारण | 1905 की रूस की क्रान्ति की घटनायें | 1905 की रूस के क्रान्ति की असफलता के कारण | 1905 की रूस की क्रान्ति के परिणाम | रूस की क्रान्ति के कारण | रूस की क्रान्ति की घटनायें | रूस की क्रान्ति की असफलता के कारण | रूस की क्रान्ति के परिणाम

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रूस की क्रान्ति (1905 ई.) के कारण

1905 ई. में रूस के जार निकोलस द्वितीय के काल में क्रान्ति हुई जिसके प्रमुख कारण थे-

(1) रूस के जारों का निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी शासन- 1905 की क्रान्ति के लिए अनुकूल वातावरण कई वर्षों पूर्व तैयार होना शुरू हो गया था। 1881 ई. में रूस के सिंहासनपर अलेक्जेण्डर उतीय बैठा, वह स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासक था, जो जनता को किसी भी प्रकार के अधिकार देने का पक्षपाती नहीं था। उसने प्रेस एवं विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को समाप्त कर दिया। उसने गैर-रूसी जातियों का जर्बदस्त रूसीकरण किया। उसकी जनता को जनतन्त्र सम्बन्धी कोई अधिकार नहीं थे।

उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र निकोलस द्वितीय 1894 ई.) रूस का जार बना। उसने भी अपने पूर्वजों की नीति का अनुसरण कर समस्त रूस में घोर आतंक का राज्य स्थापित किया। उसने प्रेस और प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगाया। उसने उदार विचारों के प्रचार में सहायक साहित्य जब्त कर लिया तथा समस्त रूस में गुप्तचरों का जाल बिछा दिया। उसने किसी भी व्यक्ति तथा संस्था को सरकार की आलोचना तथा निन्दा करने का अधिकार नहीं दिया। लोगों को दबाने के लिए पुलिस को विशेषाधिकार दिए गए। अनेक व्यक्तियों को केवल संदेह के कारण कारावास में डाल दिया जाता था तथा उन्हें कठोर यातनायें दी जाती थीं या साईबेरिया के कड़कती ठण्ड में मरने के लिए भेज दिया जाता था। गैर-रूसी जातियों की धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्वतन्त्रता छीन ली गई। संक्षेप में रूस के जारों की निरंकुशता तथा स्वेच्चाचारिता के कारण सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई थी।

(2) भ्रष्ट तथा दूषित शासन प्रबन्ध- रूस में शासन-प्रबन्ध भ्रष्ट तथा दूषित था। प्रशासनिक एवं सैनिक पदों पर केवल विशेषाधिकार वर्ग के व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाता था। उनकी नियुक्ति की एक ही योग्यता थी- जार के निरंकुश स्वेच्छाचारी तथा प्रतिक्रियावादी शासन के प्रति उनकी अन्धभक्ति । न्यायालय, सेना तथा प्रशासकीय विभागों में घूसखोरी का बाजार गर्म था। अफसरशाही जनता की भलाई के कार्यों में बिल्कुल रुचि नहीं लेती थी तथा उस पर मनमाने ढंग से अत्याचार करती थी।

(3) सामाजिक विषमता- 1905 ई. में रूस के समाज में भारी सामाजिक विषमता मौजूद थी। समाज में कुली वर्ग तथा पादरियों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे। यद्यपि1861 ई. में कृषि दासता समाप्त कर दी गई थी, किन्तु इससे किसानों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ था। उनके खेत अब भी बहुत छोटे-छोटे थे और उनमें भी सुधार के लिए उनके पास पूँजी का अभाव था। जिन छोटे-छोटे खेतों के वे स्वामी बने थे। उनके लिए भी उन्हें कई दशकों तक भारी विमोचन शुल्क देना पड़ा था। रूस में जमीन के लिए किसानों की भूमि एक प्रबल सामाजिक कारक थी। श्रमिक वर्ग संख्या में अधिक होने पर भी अधिकार रहित था। मध्यम वर्ग न होने के कारण रूस में औद्योगिक बहुत देर से यानी उन्नीसवीं शताब्दी की उत्तरार्द्ध में प्रारम्भ हुआ। उसके बाद इसका विकास काफी तेज गति से हुआ, किन्तु निर्देश के लिए आधी से अधिक पूँजी विदेशों से आयी। विदेशी निवेशकर्ताओं की दिलचस्पी जल्द से जल्द अधिकाधिक मुनाफा कमाने में थी, इसलिए मजदूरों की दशा की ओर उन्होंने तनिक भी ध्यान नहीं दिया। रूसी पूँजीपति स्वयं अपनी अपर्याप्त पूँजी के साथ विदेशी निवेशकर्ताओं से मजदूरों की मजदूरी कम कर प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। इसलिए कारखानों के मालिक चाहे विदेशी हो अथवा रूसी काम करने वालों की हालत बहुत ही भयावह थी। सर्वसाधारण तत्कालीन रूसी सामाजिक असमानता से तंग आ चुके थे और वे ऐसे दूषित समाज को तुरन्त बदलना चाहते थे।

(4) चर्च का राजनीतिक प्रभाव- रूस का चर्च भी रूदिवादी विचारों का पक्षपाती था। वह रूस के जार के निरंकुश तथा स्वेच्छाचार का समर्थक और लोकतन्त्रीय व्यवस्था तथा उदार विचारों का घोर विरोधी था। पादरी लोग  से विभिन्न बहानों से धन ऐठते थे। रूसी चर्च अब भी पुराने विचारों का राग अलापहजार के दैवी अधिकारों का पक्षपाती था। उसके इस समर्थन की आड़ में रूसी जार तथा अधिकारी वर्ग की मनमानी बढती गयी जिससे जनता में असन्तोष व्याप्त हुआ।

(5) जरीना और रास्पुटिन का अनुचित प्रभाव- जार निकोलस द्वितीय पर उसकी पत्नी जरीना तथा जरीना के कृपापात्र रास्युटिन नामक एक चतुर, किन्तु धूर्त तथा अत्याचारी व्यक्ति का अनुचित प्रभाव था। वह जार सभी महत्त्वपूर्ण मामलों तथा नीति निर्धारण के कार्य में रास्पुटिन से ही परामर्श लेता था। वह जार के अधिकांश अन्याय पूर्ण निर्णयों के लिए उत्तरदायी था। जनता उसके अत्याचारों से ऊबकर सत्ता का अन्त करना चाहती थी।

(6) रूस के जार की साम्राज्यवादी कार्यवाहियों तथा रूसीकरण की नीति- रूस के जारों ने यूरोप और एशिया के अनेक देशों को जीतकर अपना साम्राज्य बढ़ाया था। उन्हीं के विस्तारवादी नीति के क्रीमिया के युद्ध में रूस को पराजय का मुँह देखना पड़ा था। जिससे रूस के सम्मान एवं प्रभाव को भारी ठेस पहुंची थी। यही नहीं जारों ने विजित प्रदेशों के निवासियों को अपने साम्राज्यवादी भावना के हित में रूसी भाषा अपनाने और उन्हें अपनी राष्ट्रीय संस्कृतियों को बदलने के लिए विवश किया था। जार निकोलस के द्वितीय के शासन का मुख्य सिद्धान्त था- “एक जार, एक चर्च, एक रूस।” रूस के साम्राज्यवादी विस्तार के कारण अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ उसका टकराव और लड़ाइयाँ हुई। इन लड़ाइयों ने जारशाही राज्य के खोखलेपन को जाहिर कर दिया। रूस की जनता संघर्ष तथा लड़ाइयों के स्थान पर शान्ति चाहती थी।

(7) यहूदियों पर अत्याचार- जार निकोलस द्वितीय यहूदियों से घोर घृणा करता था। उसने उन पर कई प्रकार के अत्याचार किये। वे न तो भूमि खरीद सकते थे और न ही उन्हें व्यापार और व्यवसाय की स्वतन्त्रता थी। स्थानीय स्वशासन में उन्हें मताधिकार भी प्राप्त नहीं था जब क्रान्तिकारियों ने जार का विरोध किया तो यहूदियों ने भी उसका साथ दिया।

(8) रूस में विभिन्न राजनीतिक दलों की समस्यायें- जार के निरकुंश तथा स्वेच्छाचारी शासन से रूस की जनता असन्तुष्ट थी। उसने जार के विरुद्ध अनेक दल गठित कर रखे थे। इन सभी दलों को सन्तुष्ट करना जार के लिए कठिन कार्य था। यद्यपि इन दलों की कार्य प्रणाली विभिन्न प्रकार की थी, किन्तु उन सबका सामान्य लक्ष्य एक ही था अर्थात् सभी दल रूस में जार के शासन का अन्त करके लोकतन्त्र की स्थापना करना चाहते थे। इस समय प्रमुख दल निम्नलिखित थे-

(i) उदारवादी दल अथवा संवैधानिक राजसत्तावादी दल- यह दल रूस में इंग्लैण्ड के जैसा संवैधानिक राजतन्त्र स्थापित करने के पक्ष में था। यह संसदीय लोकतन्त्र का समर्थक था। इस दल के विचारानुसार रूस में संसद का निर्माण वयस्क के मताधिकार के आधार पर हो तथा मन्त्रिमण्डल संसद के प्रति ही उत्तरदायी हो। यह दल चाहता था कि रूस में एक सर्वोच्च निष्पक्ष कार्य कर सकने वाला न्यायालय हो ताकि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हो सके। इस दल को बड़े-बड़े पूंजीपतियों, जमीदारों, कुलीनों तथा उच्च मध्यम श्रेणी के लोगों का समर्थन प्राप्त था।

(ii) समाजवादी दल- इस दल को औद्योगिक तथा अन्य मजदूरों का समर्थन प्राप्त था। उन पर कार्ल मार्क्स के समाजवादी विचारों का पूर्ण प्रभाव था। यह मार्क्स के सिद्धान्तों के आधार पर रूस में समाजवादी विचारों का पूर्ण प्रभाव था। यह मार्क्स के सिद्धान्तों के आधार पर रूस में समाजवादी राज्य की स्थापना करना चाहता था। इस दल का नेता प्लेखानाव था। यह दल चाहता था कि देश की सत्ता मजदूरों के हाथ में हो तथा किसी भी वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हो। 1898 ई. में इस दल में अन्य बहुत से समाजवादी गुट मिल गये तथा इसे “रशियन सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी” कहा गया। किन्तु संगठन और नीति के सवालों पर मतभेद के कारण यह नया दल विभक्त हो गया। इनमें से एक गुट मेनशविक नाम से जाना गया क्योंकि वह अल्पसंख्यक टुकड़ा था। यह टुकड़ा वैद्य शासन का समर्थक था। इसका आदर्श फ्रांस तथा जर्मनी की समाजवादी पार्टियाँ थीं। इन देशों में पार्टियाँ संसदीय चुनाव में हिस्सा लेती थी जबकि दूसरा गुट बोल्शेविक कहलाया। बोल्शेविक का अर्थ होता है। बहुसंख्यक। यह दल सशस्त्र क्रान्ति में विश्वास करता था। इस दल का नेता बलादिमीर इलिच उलिथानोव था जो लेनिन के नाम से लोकप्रिय हुआ।

(iii) निहिलिस्ट साम्यवादी क्रान्तिकारी दल- रूस के अनेक नौजवान तथा किसानों ने जार के अत्याचारों, स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन से दुःखी होकर साम्यवादी क्रान्तिकारी दल का निर्माण किया। यह दल सशस्त्र क्रान्ति, आतंक तथा बल प्रयोग करके जार तथा उसके समर्थकों को उखाड़ फेंकना चाहता था। इस दल का कहना था कि कृषकों के सहयोग के बिना कोई भी क्रान्ति सफल नहीं हो सकती। इस दल ने अत्याचारी अधिकारियों की एक सूची बना रखी थी। जिनका वध एक योजनाबद्ध तरीके से करता रहता था। इस दल के लोगों को निहिलिस्ट अथवा विनाशकारी कहा जाता था।

(3) क्रान्ति का तात्कालिक कारण (या रूस-जापान युद्ध का प्रभाव)- 1904 ई. में पूर्व एशियायी देशों में पारस्परिक हितों के टकराव के कारण युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में रूस की पराजय हुई। रूस के लोग प्रारम्भ में ही युद्ध के विरुद्ध थे। जापान जैसे छोटे देश से पराजित हो जाने के कारण रूस की सैनिक दुर्बलता का रहस्य सारी दुनिया पर प्रकट हो गया। उसके अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान एवं प्रभाव को भारी आघात पहुँचा लोग इस पराजय के लिए जार निकोलस द्वितीय के निरंकुश, स्वेच्छाचारी तथा दुर्बल शासन को ही उत्तरदायी ठहराने लगे और उन्होंने उसके तख्त को उलटने के लिए आन्दोलन का सहारा लिया जो शीघ्र ही एक क्रान्ति में बदल गया।

1905 की क्रान्ति की घटनायें

1905 की क्रान्ति की घटनाओं को निम्नलिखित सूत्रों के अन्तर्गत वर्णित किया गया है-

(1) क्रान्तिकारियों द्वारा प्रदर्शन तथा हत्यायें- रूस-जापन युद्ध में रूस की पराजय हो  जाने से रूस के क्रान्तिकारियों का उत्साह बढ़ गया शीघ्र ही क्रान्तिकारियों ने अत्याचारी सरकारी कर्मचारियों तथा अधिकारियों की हत्यायें शरू कर दी। इन सरकारी अधिकारियों में  प्लीहों का नाम उल्लेखनीय है। स्थान स्थान पर जबर्दस्त हड़तालें तथा प्रदर्शन हुए। लोगों ने जुलूस निकाले जिनमें क्रान्तिकारी युद्ध बन्द करो एकतन्त्र तथा निरंकुशता का अन्त हो ‘क्रान्ति जिन्दाबाद’ आदि नारों से आकाश गूंज उठा। क्रान्तिकारियों ने चारों ओर मार-काट का बाजार गर्म कर दिया। लेकिन जार का रवैया नहीं बदला तथा उसने दमन जारी रखा।

(2) 22 जनवरी, 1905 का हत्याकाण्ड या खूनी रविवार-22 जनवरी 1905 ई. को श्रमिकों का एक विशाल जुलूस फादर गोपों के नेतृत्व में अपनी कठिनाइयाँ सुनाने के लिए राज प्रासाद के समीप पहुँचा। सैनिकों ने उनको गोलियों से भून दिया। भीषण नरसंहार हुआ। जार ने स्वयं भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दिया था। राजमहल के सामने लाशों का ढेर लग गया। उसके इतिहास में यह दिन खूनी रविवार के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस दुर्घटना की सर्वत्र घोर निन्दा की गई। सारे यूरोप में सनसनी फैल गई। खूनी रविवार की दुर्घटना का सारे रूस पर व्यापक प्रभाव पड़ा। क्रान्तिकारियों ने जार निकोलस द्वितीय के इस दमन का प्रत्युत्तर राज कर्मचारियों की हत्या करके दिया। देश में हड़तालों एवं विद्रोह की बाढ़ सी आ गई अनेक गांवों में जमीदारों की सम्पत्ति लूट ली गई और उनके मकान जलाकर राख कर दिये गये। जार निकोलस के द्वितीय के चाचा ग्राण्ड ड्यूक सर्जियस की हत्या कर दी गई। वह रूस का एक प्रख्यात प्रतिक्रियावादी था। वह प्रायः कहा करता था कि रूस की जनता डण्डे से ठीक की जा सकती है। सारे साम्राज्य में इस समय अव्यवस्था फैल गई। वारसा में पोल लोगों ने विद्रोह कर दिया। फिनलैण्ड, लिथुएनिया आदि ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। अनेक स्थानों पर सेना तथा जल सेना ने भी क्रान्तिकारियों का साथ देना शुरू कर दिया। चारों ओर तुरन्त सुधारों की मांग की जाने लगी। जार ने शक्ति के बल पर इस क्रान्ति का दमन करने का प्रयास किया, लेकिन वह असफल रहा।

1905 की क्रान्ति की असफलता के कारण

1905 की क्रान्ति की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

(1) एकता का अभाव- रूस में 1905 की क्रान्ति की असफलता का प्रथम कारण यह था कि इससे सम्बन्धित क्रान्तिकारियों में एकता का अभाव था। रूस में कई दल थे जिनकी कार्यप्रणाली तथा सिद्धान्त एवं कार्यक्रम अलग-अलग थे।

(2) राष्ट्रीयता का अभाव- रूस क्षेत्र की दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा देश है। यहाँ उस समय भी अनेक जातियों, भाषाओं तथा सांस्कृतियों के लोग रहते थे। उनमें राष्ट्रीयता का अभाव था। इसलिए उन्होंने एकत्र होकर एक साथ सर्वत्र क्रान्ति का संचालन नहीं किया। उनकी आपसी विभिन्नतायें जार के लिए लाभकार सिद्ध हुई।

(3) योग्य नेता का अभाव- क्रान्तिकारियों का एक सर्वमान्य योग्य नेता नहीं था। इसलिए उनमें केन्द्रीय व्यवस्था की कमी थी और वे प्रभावशाली ढंग से क्रान्ति का संचालन नहीं कर सके।

(4) सेना का सहयोग- कुछ ही स्थानों को छोड़कर सर्वत्र स्थल तथा जल सेना जार के प्रति पूर्णतया वफादार रही। उसने जार का पूरा-पूरा साथ दिया। फलतः जार सेना की मदद से 1905 की क्रान्ति को कुचल सका।

(5) विदेशी सहायता- 1905 की क्रान्ति का दमन करने के लिए जार को फ्रांस से ऋण  के रूप में वित्तीय सहायता मिल गयी यही नहीं जर्मनी तथा आस्ट्रिया के शासकों ने जार के प्रति अपनी-अपनी सहानुभूति प्रकट की तथा उसे पूर्ण सहयोग देने का वायदा किया।

1905 की क्रान्ति के परिणाम

यद्यपि रूस की 1905 की क्रान्ति असफल रही फिर भी रूस में क्रान्ति के परिणाम महत्वपूर्ण रहे। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित थे-

(1) जार निकोलस इस बात को भली भाँति समझ गया कि उसकी निरंकुशता तथा स्वेच्छाचारिता अब अधिक दिनों तक नहीं चल सकती।

(2) क्रान्ति के परिणामस्वरूप ही रूस में ड्यमा की स्थापना की गई, जो वैधानिक शासन की स्थापना में एक महत्वपूर्ण कदम था। प्रथम ड्यूमा के चुनाव मार्च, अप्रैल 1906 ई अपना कार्य शुरू किया। जार ने इसे शीघ्र ही भंग कर दिया। दूसरी ड्यूमा मार्च, 1907 को बुलायी गयी, लेकिन जार से मतभेद होने के कारण इसे भी शीघ्र ही भंग कर दिया गया। जार ने मताधिकार सीमित करके तीसरी ड्यूमा का चुनाव मार्च-अप्रैल, 1907 में कराया, लेकिन इसका अधिवेशन नवम्बर 1907 में हुआ। यद्यपि इसके अधिकांश सदस्य अनुदार, रूढ़िवादी तथा प्रतिक्रियावादी थे। तो भी यह मानना पड़ेगा कि यह 1912 ई. तक भंग नहीं कि गयी।

(3) इस क्रान्ति के कारण जार के प्रति लोगों की श्रद्धा में कमी आई और राजसत्ताक नैतिक शक्ति को भारी धक्का लगा।

(4) 1905 की क्रान्ति के दौरान संगठन का एक नया रूप विकसित हुआ जो 1917 ई. के उथल-पुथल में निर्णायक सिद्ध हुआ। यह रूप था ‘सोवियत’ या मजदूरों के प्रतिनिधियों की परिषद् । प्रारम्भ में उनकी स्थापना हड़तालों के संचालन के लिए समितियों के रूप में हुई। आगे चलकर वे राजनीतिक सत्ता के उपकरण बन गए। किसानों की सोवियतों का भी निर्माण हुआ। इन्हीं सोवियतों के फलस्वरूप 1917 ई. की अक्टूबर क्रान्ति सफल हुई तथा जार का तख्ता उल्ट गया।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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