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पालि भाषा की व्युत्पत्ति | पालिभाषा का प्रदेश | पालि-साहित्य | पालि की विशेषताएं

पालि भाषा की व्युत्पत्ति | पालिभाषा का प्रदेश | पालि-साहित्य | पालि की विशेषताएं

पालि भाषा की व्युत्पत्ति (उदभव एवं विकास)

आचार्य बुद्धघोष ने ‘अट्ठ कथाओं में ‘पालि’ शब्द का प्रयोग ‘बुद्ध-वचन’ या ‘मूल-त्रिपिटक के पाठ’ अर्थ में किया है। यथा-‘इमानि ताव पालियं अट्ठकथायंपन’ (विसुद्धमग्ग)। इसी प्रकार दीपवंस, चळवंश आदि में ‘पालि’ शब्द का प्रयोग ‘बुद्ध-वचन’, ‘मूल-त्रिपिटक’ अर्थ में किया है।

महामहोपाध्याय विधुशेखर भट्टाचार्य ने ‘पालि’ शब्द का विकास ‘पंक्ति’ शब्द से किया है। ‘पालि’ शब्द का क्रमिक विकास निम्न प्रकार से है-‘पंक्ति > पन्ति >पत्ति > पल्लि > पालि’। भिक्षु जगदीश कश्यप ने इस मत का खण्डन करते हुए कहा कि ‘पालि’ शब्द ‘पंक्ति’ अर्थ में त्रिपिटकों में प्रयुक्त नहीं है। यदि ‘पालि’ शब्द का अर्थ ‘पंक्ति’ होता तो ‘अट्ठकथाओं में उसका बहुवचन में प्रयोग अवश्य मिलता; इसके विपरीत कथाओं में ‘पालि’ का मौलिक स्वरूप तक नहीं मिलता।

भिक्षु सिद्धार्थ ने ‘पालि’ शब्द का मूल संस्कृत ‘पाठ’ शब्द माना है। उनकी अवधारणा है कि वेदपाठी ब्राह्मण जब बौद्ध हए तो पूर्व परिचित ‘वेदपाठ’ के लिए प्रयुक्त ‘पाट’ का प्रयोग बुद्ध-वचनों के लिए भी करने लगे। क्रमशः वही ‘पाठ’ शब्द ‘पाळ > पळि > पालि’ हो गया । उक्त अवधारणा के लिए आवश्यक है कि ‘पाळ’ शब्द का प्रयोग पालि-साहित्य में हो, किन्तु भिक्षु जो ने इस दिशा में कोई उद्धरण नहीं दिया है।

भिक्षु जगदीश कश्यप के अनुसार ‘पालि’ शब्द का प्राचीनतम रूप ‘परियाय’ शब्द के रूप में मिलता है । त्रिपिटकों में “परियाय’ शब्द का अनेकधा प्रयोग मिलता है, यथा-‘को नाम अयं भन्ते धम्मपरियायोति’, ‘भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासिती’ आदि। उक्त स्थलों में परियाय’ शब्द का आशय ‘बुद्धोपदेश’ से है।

परियाय > पलियाय > पालियाव > पालि।

अतः ‘पालि’ शब्द ‘बुद्ध-वचन’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ।

जर्मन विद्वान् डा. मैक्स वेल्सन ने ‘पाटलि’ या ‘पाडलि’ अर्थात् पाटलिपत्र की भाषा का संक्षिप्त रूप ‘पालि’ माना है, किन्तु अपनी अवधारणा के पुष्टीकरण में ठोस प्रमाण नहीं दिया है।

पालि भाषा के कोश-ग्रन्थ ‘अभिधानप्पदीपिका’ में ‘पालि’ शब्द के व्युत्पत्ति इस प्रकार है-

‘पालेति रवखतीति पालि’ अर्थात् जो पालन करती है, रक्षा करती है, उसे पालि कहते हैं । यह व्युत्पत्ति ‘महावंस’ की निम्न अवधारणा को पुष्ट करती है-‘जब भिक्षुओं ने, जो समग्र विपिटक और अट्ठकथाएँ कण्ठस्थ कर ले गये थे, एकत्र होकर जनता के कल्याण के लिए उन्हें लेखबद्ध किया था। अमरकोश के टीकाकार राय मुकुट के अनुसार ‘पा रक्षणे’ धातु से ‘नातन्यज्जि’ सूत्रानुसार ‘बाहुलकात’ ‘आलि’ प्रत्यय करके पालि शब्द बना है। अमरकोश के दूसरे टीकाकार भानुजी दीक्षित ने पालि’ शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से बतलाई है-‘पाल रक्षणे’ धातु से ‘अच इ.’ सूत्रानुसार ‘इ’ प्रत्यय होकर ‘पालि’ शब्द बना है । पाणिनीय सूत्र ‘राजदन्तादिषु परम्’ (212131) में वर्णित राजदन्तादि गण में ‘गोपालिधानपूलासम’ से ‘पालि’ शब्द का संस्कृत भाषा में व्यवहार प्राचीन काल से व्यवहृत है।

समग्रतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वह भाषा, जिसमें बुद्धोपदेश सुरक्षित हो या पंक्तिबद्ध बुद्धवचन जनमानस तक बिना विकृत हुए पहुंच जाय, उसे ही पालिभाषा कहते हैं।

पालिभाषा का प्रदेश-

महायानियों के अनुसार बुद्धोपदेशों की रक्षा ‘मूलसर्वास्तिवाद’ के ग्रन्थ संस्कृत में, ‘महासाधिक’ के प्राकृत में, ‘महासम्मतीय’ के अपभ्रंश में तथा ‘स्थाविर सम्पदाय’ के पैशाची में रक्षित हुए । हीनयानियों के अनुसार बुद्धोपदेश पालिभाषा में ही दिये गये। इसी आधार पर श्रीलंका के भिक्षुओं ने मागधी भाषा को ही पालिभाषा समझ कर मगध को पालिभाषा का भूभाग माना। मागधी भाषा का पालि भाषा से तुलनात्मक अध्ययन करने पर अनेक मौलिक भिन्नताएँ परिलक्षित होती हैं। इस सन्दर्भ में पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों ने अनेक विचारणीय मत प्रस्तुत किये हैं-

(1) डा. ओल्डेनवर्ग के अनुसार ‘पालि’ कलिङ्ग की भाषा थी। सिंहल में ‘महिन्द’ द्वारा बौद्ध धर्म का प्रचार भारत एवं सिंहल के अनेक वर्षों के सम्पर्क से हुआ होगा। खारवेल के खण्डगिरि- अभिलेख की भाषा पालिभाषा के समान है। अतः कलिङ्ग से श्रीलंका तक के प्रदेशों में बौद्ध-धर्म का प्रचार हुआ होगा। कलिठ की भाषा पालि के समान प्रतीत होती है।

पालिवाङ्मय में रचनाएं-

इसमें त्रिपिटकादि साम्प्रदायिक ग्रन्थों अतिरिक्त वृत्तोदयादि छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थ, कच्चायनादि व्याकरणशास्त्र के ग्रन्थों की रचना की गई । संस्कृत-वाङ्मय की तरह सर्वाङ्गपूर्ण रचनाएँ पालि-भाष उपलब्ध नहीं है। पालि-वाङ्मय का वर्गीकरण नव अठों में किया गया।

पालि-साहित्य

  • सुत्त
  • गेम्स
  • वेय्याकरणगाथा
  • उदान
  • इतिवृत्तक
  • जातक
  • अब्भुतधम्म
  • बेदल्ल

गद्य में भगवान् बुद्ध के उपदेशों को ‘सुत्त’ तथा गद्य-पद्य मिश्रित अंश को ‘गेय्य’ कहते हैं । मात्र पद्य में रचित साहित्य को ‘गाथा’ कहा गया है । भगवान् बुद्ध के मुख से निःसृत भावाभिभूत प्रीतिपरक उद्गारों को ‘उदान’ कहते हैं।

सुत्तपिटक- भगवान् बुद्ध के उपदेश इस पिटक में निहित हैं। यह दो पदों ‘सुत्त’ तथा ‘पिटक’ से बना है। ‘सुत्त’ का आशय ‘धागा’ एवं ‘पिटक’ का ‘पिटारी’ से है। पण्डित राहुल सांकृत्यायन ने ‘पिटक’ का अर्थ ‘वेद की परम्परा’ या ‘वचन-समूह’ किया है। अर्थात् इस ग्रन्थ में ‘बुद्ध-वचनों की परम्परा’ निहित है।

धम्मपद- 26 वर्गों में विभाजित 423 गाथाओं वाले ‘खुद्दकनिकाय’ के इस ग्रन्थ में बौद्ध- दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। भारतीय संस्कृति के प्रचलित सिद्धान्तों एवं नैतिक आदर्शों का जितना उत्कृष्ट संग्रह इस ग्रन्थ में किया गया है, उतना पालि-सहित्य में कहीं नहीं है। डा. लाहा ने इसके अनेक पदों की तुलना उपनिषद्, गीता एवं मनुस्मृति के अंशों से की है।

सुत्तनिपात- खुद्दकनिकाय का यह भी एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। अशोक के बभ्रु-शिलालेख में अंकित सप्त-बुद्धोपदेशों में से तीन सुत्तनिपात में ही मिलते हैं। भाषा एवं छन्दों की दृष्टि से यह वैदिक-संस्कृत के निकट प्रतीत होता है। विषय-वस्तु की दृष्टि से इसके पाँच विभाग हैं-उरगवग्ग, चुल्लवग्ग, महावग्ग, अट्ठकवग्ग तथा पारायणवग्ग।

जातक- खुद्दकनिकाय का अतिविपुल ग्रन्थ जातक है, जिसमें भगवान् बुद्ध के बुध्दत्व -प्राप्ति के पूर्व के जन्मों का वर्णन किया गया है। बुद्धत्व-प्राप्ति के पूर्व-जन्मों में भगवान बुद्ध ‘बोधिसत्त्व’ थे, जिसका आशय है—’ज्ञान के लिए प्रयत्नशील प्राणी’। पूर्व-जन्मों में बुद्धत्व-प्राप्ति के साधनों का अभ्यास एवं योग्यता को बोधिसत्त्व प्रमाणित करते थे। समस्त क्रिया-कलाप बोधिसत्त्व के सम्पादन के घटक थे। अतः बुद्धत्व-प्राप्ति के पूर्व भगवान बुद्ध के विविध कर्त्तव्य-पालन की कथाएँ जातकों में संगृहीत हैं।

विनयपिटक- बुद्ध-शासन का चरम उत्कर्ष यहाँ वर्णित है। बुद्धसंघ की व्यवस्था, भिक्षु- भिक्षुणियों के नित्य-नैमित्तिक क्रियाकलापों, भोजन-वस्वादि सम्बन्धी नियम, संघभेद होने पर संघ- सामग्री सम्पादित करने के नियम आदि नियमसमूहों का इसमें वर्णन किया गया है।

अभिधम्मपिटक- बुद्धघोष ने ‘अभिधम्म’ का अर्थ ‘विशेष या उच्चतर धर्म’ किया है । इस पिटक का मुख्य वर्ण्य-विषय सुत्तन्त पर अवलम्बित है । इसमें व्यक्ति के साथ भौतिक सम्बन्धों की व्याख्या 12 आयतनों में की गई है । इसके अतिरिक्त स्कन्ध वर्णन में रूप, वेदना एवं संस्कार स्कन्धों के अङ्गों का वर्णन किया है।

पालि की विशेषताएं-

पालि भाषा में केवल बौद्ध-धर्म से सम्बन्धित साहित्य मिलता है। गौतम बुद्ध के मूल उपदेश त्रिपिटक के रूप में पालि भाषा में ही हैं। ईसा से सौ वर्ष पूर्व से त्रिपिटक पर जो अट्ठकथाएँ (अर्थ-कथाएं, टीकाएं, व्याख्याएँ) लिखी गयीं वे सभी पालि भाषा में ही हैं बौद्ध धर्म का कुछ साहित्य संस्कृत में भी मिलता है, पर पालि भाषा में जो भी साहित्य उपलब्ध है, वह केवल बौद्ध-धर्म का ही है। पहले पालि शब्द का प्रयोग बुद्धवचनों अथवा उनके पाठ के लिए हुआ। बाद में पालि शब्द उस भाषा का वाचक बन गया जिसमें बुद्ध के उपदेश हैं।

महात्मा गौतम बुद्ध के उपदेशों से ओत-प्रोत एवं लगभग दो हजार वर्ष तक एशिया के अधिकांश लोगों की धार्मिक भावना को प्रभावित करनेवाले पालि-साहित्य की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ हैं-

  1. जनभाषा- गौतम बुद्ध का उपदेश जनसाधारण के लिए था। वे केवल विद्वानों अथवा उच्च कुल के विभिन्न लोगों को ही अपनी बात नहीं बताना चाहते थे, उन्हें जन-सामान्य की चिन्ता थी। गौतम बुद्ध के उपदेश अथवा शिक्षाएँ दलित, शोषित, निर्धन एवं दुःखी लोगों के लिए थीं। ऐसे लोग सामान्य जन ही हो सकते थे। गौतम बुद्ध ने अपनी बात जन-साधारण तक पहुंचाने के लिए उन्हीं की भाषा पालि में उपदेश दिया। उस समय संस्कृत विद्वान् ब्राह्मणों की भाषा थी जो धार्मिक शोषण और अत्याचार में सर्वेसर्वा थे। इसलिए गौतम बुद्ध ने अपना उपदेश संस्कृत में नहीं दिया। आज जनवादी साहित्य का बहुत हल्ला मचा है। गौतम बुद्ध ने बहुत पहले ही जनवादी भावनाओं को‌ समझा था। बौद्ध साहित्य इसीलिए जनवादी भाषा पालि में रचित है।
  2. सरल एवं व्यास शैली- जो साहित्य जन-साधारण के लिए लिखा जाता है, उसकी शैली सरल एवं सभी बातों को विस्तार से बताने की होती है। ऐसे साहित्य का तात्पर्य अपना पाण्डित्य दिखाना नहीं, अपितु दूसरों को अपनी बात समझाना होता है। लगभग सभी बातों को बताने के लिए पालि भाषा के साहित्य में किसी प्राचीन कथा या किसी कहानी का आश्रय लिया गया है अथवा संवाद के द्वारा बात समझायी गयी है।

कहानी के रूप में संसार के जाल में फंसे गृहस्थों की दुर्दशा बताने के लिए ‘गरहित जातक’ में जो कहानी कल्पित की गयी है, वह इस प्रकार है-

एक बन्दर कुछ दिनों के लिए मनुष्यों के बीच आकर रहा। बाद में वह अपने साथियों के पास गया। साथियों ने उससे पूछा-‘आप मनुष्यों के समाज में रहे। उनका व्यवहार जानते हैं। हमें भी कहें। हम उसे सुनना चाहते हैं।’

‘मनुष्य की करनी मुझसे मत पूछो।’

‘कहें, हम सुनना चाहते हैं।’

3. विविध स्थानों पर रचना- जिस प्रकार बौद्ध धर्म भारत तक सीमित न रहकर चीन, लंका, वर्मा आदि देशों में फैला, उसी प्रकार पालि साहित्य का निर्माण भी भारत तक ही सीमित नहीं रहा। चीन, वर्मा, लंका, स्याम आदि देशों में भी इसकी रचना हुई, किन्तु विशेषता यह है कि भाषा उसकी पालि ही रही।

  1. गद्य की बहुलता- पद्य की अपेक्षा गद्य को समझना सरल होता है। पद्य की उपयोगिता यह है कि उसे स्मरण करने में सुविधा रहती है। पालि में पद्य बहुत कम हैं। त्रिपिटक साहित्य में पद्य केवल गाथा नामक छोटे छन्द के रूप में हैं जो किसी विस्तृत कथा अथवा प्रसंग की कुंजी है। यह कहानी अथवा प्रसंग उस गाथा की व्याख्या है। बाद में जो अनुपालि अथवा अनुण्टिक साहित्य लिखा गया, उसमें कुछ काव्य-रचनाएँ अवश्य हैं। उदाहरण के रूप में ‘संसुमार जातक’ को यह गाथा ली जा सकती है-

महती बत ते बोन्दि न पञ्जा तदूपिका,

संसुमार! बंचितासि गच्छ दानि यथा सुखन्ति।

(केवल तेरा शरीर ही विशाल है। तेरी बुद्धि तेरे शरीर के अनुरूप विशाल नहीं है। हे मगर! मैंने तुम्हें धोखा दे दिया है। जब जहाँ इच्छा हो वहाँ जाओ।)

इस गाथा के सहारे उस मगर और वानर की कहानी सहज ही स्मरण की जा सकती है जो मगर जामुन के स्वादिष्ट फल अपनी पत्नी के लिए ले गया था और जिन्हें खाने के बाद मगर की पत्नी ने उस वानर का कलेजा माँगा था जो नित्य ही ऐसे स्वादिष्ट फल खाया करता था। वानर को मगर अपना घर दिखाने के बहाने ले गवा और रास्ते में उसे सच्ची बात बता दी। प्रत्युत्पन्नमति वानर यह बहाना करके बच गया कि मैं तो हृदय वृक्ष पर टाँग देता हूँ, जिससे छलांग लगाते समय गिर न पड़े। वापस लौट चलो। मैं अपना हृदय ले आऊँ।

  1. सरल छन्द- पहले संकेत किया जा चुका है कि त्रिपिटक में केवल गाथा छन्द का प्रयोग हुआ है जो संस्कृत छन्द अनुष्टुप के समान ही बहुत छोटा और सरल छन्द है। केवल गाथा के अन्त में इति का पालि रूप ‘ति’ जोड़ दिया गया है। यह ‘ति’ सभी गाथाओं के अन्त में मिलेगा। इससे गाथा छन्द के नियम का भी उल्लंघन हआ है. जैसे

यस्स सम्मुख चिण्णेन मित्त धम्मेन लब्धति,

अनुसुथ्य अनक्कोसं सणिकं तम्हा अपक्कोमे ति।

(जिसके सामने अच्छा कार्य करने से मैगी धर्म प्राप्त नहीं होता, उसके पास दा और आक्रोश न करता हुआ धीरे-धीरे दूर हट जाय।)

  1. अलंकार का अभाव- बाद में पालि भाषा में जो काव्य-ग्रन्थ लिखे गये, उनमें विविध छन्दों के साथ ही अनेक अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है, पर त्रिपिटक में अलंकारों की पूरी तरह, उपेक्षा की गयी है। अलंकार चाहे काव्य की शोभा बढ़ाते हो, पर अर्थ को जनसाधारण के लिए दुरूह बना देते हैं। विपिटक में जो गाथाएँ आयी हैं, उनमें केवल उपमा और उदाहरण जैसे स्वाभाविक अलंकार ही मिलते हैं। जैसे-

नाच्चन्त किति पञ्जे निकत्या सुखमेधति,

आराधे निकतं पजे वको कक्कटा भिवा ति।

(अत्यन्त कृतघ्न बुद्धि वाला अपनी कृतघ्नता के कारण अधिक समय तक सुखी नहीं रहता. जिस प्रकार कृतघ्न बद्धि वाला बगुला केकडे द्वारा मारा गया)।

इस प्रकार पालि साहित्य में अनेक विशेषताएं हैं, जिनके कारण वह बहुत समय तक एशिया के अधिकांश धर्मप्राण जनों का कण्ठहार बना रहा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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