इतिहास / History

उत्तर वैदिककाल में वर्णव्यवस्था | उत्तर वैदिककाल में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति | उत्तर वैदिककाल में वर्णव्यवस्था का विकास

उत्तर वैदिककाल में वर्णव्यवस्था | उत्तर वैदिककाल में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति | उत्तर वैदिककाल में वर्णव्यवस्था का विकास

उत्तर वैदिककाल में वर्णव्यवस्था

तत्कालीन भारत के विविध सांस्कृतिक विकास, राजनैतिक सुदृढ़ता, दार्शनिक दृष्टिकोण की परिपक्वता तथा आर्य सभ्यता के प्रसार तथा अनार्यों से नित नये सम्बन्धों की स्थापना के कारण अब वर्ण अथवा जातियों की समस्यायें सामने आने लगी थीं। फलस्वरूप अब सामाजिक स्तर के स्पष्टीकरण की आवश्यकता अनुभव होने लगी थी। वर्ण व्यवस्था कोई अनोखी चीज नहीं है, अच्छी हो या बुरी हो, वह सब देशों और सब युगों में पायी जाती है परन्तु उत्तर वैदिक काल में जो चातुर्वर्ण्य बना अर्थात् जात-पात की जो व्यव था दृष्टिगोचर हुई, वह एक विचित्र संस्था है। वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति एवं विकास का वर्णन निम्नलिखित है-

उत्पत्ति

वैदिक साहित्य में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति ईश्वर से मानी गई है। ऋग्वेद में कहा गया है कि- “सृष्टि के आरम्भ में एक पुरुष प्रकट हुआ। उसके सौ सिर, सौ आँखें और सौ पैर थे। उसने चारों ओर से पृथ्वी को ढक लिया तथा दस अंगुल बाहर भी फैल गया। जो कुछ हो रहा है जो कुछ होने को है वह सब ही है।……………… उसके चौथाई में सब प्राणी हैं, तीन चौथाई में स्वर्ग का अमर जीवन है। सारी प्रकृति पुरुष से ही पैदा हुई है।………….जब पुरुष के भाग किए गए तब कितने भाग हो गए ? उसके मुँह को और बाँहों को क्या कहते हैं उसकी जांघों और पैरों को क्या कहते हैं ? ब्राह्मण उसका मुख था, उसकी दोनों बाहों से राजन्य बना। उसकी जांघे वैश्य बन गईं तथा उसके पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।” वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का यह दैवी सिद्धान्त था जिसमें हमें केवल एक कथा मात्र का बोध होता है। समसामयिक परिस्थितियों तथा तार्किक दृष्टिकोण के आधार पर वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का विकास क्रमिक था। उसका सम्बन्ध आर्य-अनार्य के भेद तथा भावना, जाति मिश्रण से बचाव के प्रयत्न, पार्थक्य तथा रंगभेद एवं प्रारम्भिक आर्यों की अल्प संख्या के साथ था।

विकास

वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति एवं अंकुरण तो ऋग्वैदिक काल में ही हो चुका था और अब उसका विकास हो रहा था। अब यह वर्गीकरण साधारण से जटिल की ओर विकसित हो रहा था। धार्मिक अनुष्ठानों के बढ़ते हुए महत्व तथा जीवन के प्रति बदलते हुए दृष्टिकोण के कारण वर्ण सम्बन्धी भावनायें तेजी से उभर रही थीं। वैवाहिक नियम कुछ कठोर होने लगे थे। मिश्रण के भय के कारण स्त्रियों की स्वतन्त्रता का हास हो रहा था तथा सामाजिक नियम रूढ़िवादी होते जा रहे थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य सुसंगठित वर्णों का रूप धारण करते जा रहे थे। वर्ण व्यवस्था का विकास क्रम शुरू हो गया था किन्तु अभी तक इसे पूर्णत्व नहीं प्राप्त हो पाया था। उत्तर वैदिक काल इस क्रम का माध्यमिक चरण था।

इस काल में विभिन्न क्षेत्रों के समान स्तर वाले व्यक्तियों में संगठन की भावना उत्पन्न हो रही थी। यह एक स्वस्थ्य प्रवृत्ति थी। हितों की रक्षा, नियमों की स्पष्ट व्याख्या, कर्तव्य सीमा का निर्धारण, कार्य विभाजन का सीमांकन तथा उत्तरदायित्व का भार आदि निश्चित कर देने से वस्तुतः समाज को लाभ ही होता उत्तरवैदिक काल में भी ऐसा ही हुआ। वर्ण भेद का आधार कर्मगत था जन्मगत नहीं। तत्कालीन वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत चतुर्वर्ण का विवरण इस प्रकार है-

(1) ब्राह्मण- तैत्तिरीय संहिता तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार, “ब्राह्मण दिव्य वर्ण वाला है,” “वह पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देवता है तथा जिसमें समस्त देवता वास करते हैं।” पंचविंश ब्राह्मण के अनुसार, “ब्राह्मण इतना पवित्र है कि उसके विषय में कोई पूछ-ताछ नहीं करनी चाहिए।” इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि इस काल में ब्राह्मण के पद तथा प्रतिष्ठा में भारी बढ़ोत्तरी हो गई थी। शतपथ ब्राह्मण में स्पष्टतः कहा गया है कि ब्राह्मण क्षत्रियों से श्रेष्ठ है। डा० बेनी प्रसाद के अनुसार- “जिस किसी देश या युग में धार्मिकता की अधिकता होती है उसमें पुरोहितों का दौर दौरा होता है। जैसे-जैसे आर्यों की दृष्टि परलोक की ओर अधिक जाने लगी और यज्ञ का विधान बढ़ने लगा, वैसे-वैसे ब्राह्मणों का महत्व बढ़ा और उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ी। ब्राह्मणों को विद्या का बल था। ऐतरेय ब्राह्मण कहता है कि विद्या बड़ा पुण्य है। जिसके पास विद्या है वह इस लोक और परलोक दोनों में सुख पाता है। सारे इतिहास में मस्तिष्क का बल एक प्रधान सामाजिक शक्ति रहा है। पढ़ने-लिखने, उपदेश और यज्ञ में लगे रहने से ब्राह्मण समाज के सिरताज हो गए थे।’ ब्राह्मणों के कार्य क्षेत्र में वेदों का पठन-पाठन, यज्ञादि का सम्पादन, धर्म अनुष्ठान तथा राजा को मन्त्रणा देना था। शिक्षा का संचालन भी मुख्यतः उन्हीं के हाथों में था, वे अपने तपस्वी, त्यागपूर्ण तथा आदर्श जीवन के कारण श्रद्धा तथा आदर के पात्र थे। उत्तर वैदिक काल में ब्राह्मण वर्ण नैतिकता का प्रतिनिधि समझा जाता था।

(2) क्षत्रिय वर्ण- देश की रक्षा, समाज एवं राज्य को सुव्यवस्था प्रदान करना, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना तथा सीमाओं का विस्तार करना क्षत्रिय वर्ण का कर्म था। शतपथ ब्राह्मण के एक प्रसंग में क्षत्रियों को ब्राह्मणों से श्रेष्ठ कहा गया है। प्रतीत होता है कि इस समय अनेक क्षत्रिय गहन अध्ययन करके ब्राह्मणोचित कर्म भी करने लगे थे। तत्कालीन साहित्य में यह कथन भी मिलता है कि ब्राह्मण तथा क्षत्रिय मिल कर संसार का भार उठाते हैं। राजनैतिक प्रभुता के कारण क्षत्रियों को अपने पद का और भी अधिक गर्व हो गया था।‌

(3) वैश्य वर्ण- उत्तरवैदिक काल में बहुसंख्यक साधारण आर्य- जो न तो ब्राह्मण थे और न ही क्षत्रिय तथा जो अपना जीविकोपार्जन कृषि कर्म द्वारा करते थे-वैश्य वर्ण में रखे गये। यद्यपि वैश्यों को अपेक्षाकृत कम महत्व प्राप्त था परन्तु अपनी धन समृद्धता के कारण वे पर्याप्त सम्मान के अधिकारी थे। वैश्यों के लिये ‘यथा कामज्येय’ (जितना चाहो काम लो) शब्द का प्रयोग किया जाता था। भौगोलिक तथा आर्थिक कारणों से वैश्य वर्ण की अनेक उपजातियाँ बन चुकी थीं। उत्तर वैदिक साहित्य में स्वर्णकार, लौहकार, बढ़ई, रथकार आदि वैश्यों के लिये ‘अन्यस्य बलिकृत’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इस शब्द से स्पष्ट होता है कि वैश्यों का स्थान ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के बाद था।

(4) शूद्र वर्ण- उपरोक्त तीन वर्गों के अतिरिक्त अनार्य तथा समिश्रित जातियों को वर्ण व्यवस्था के बाहर रखा गया था आर्यों ने अपने आगमन पर जिन अनार्यों को पराजित किया था- वे सभी शूद्र कहे जाते थे। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, ‘शूद्र आर्यों के भृत्य हैं, इच्छानुसार रखे या निकाले जा सकते हैं, उनका वध तक किया जा सकता है।” शूद्र स्त्री से विवाह तथा सम्पर्क निषिद्ध था। वे भूमि के स्वामी नहीं हो सकते थे तथा उन्हें अस्पृश्य समझा जाता था। चाण्डाल, निषाद, पौल्कस, उग्र, आयोगव, मागध तथा वहदेव आदि शूद्रों की उपजातियाँ थीं।

विभिन्न वर्गों के पारस्परिक सम्बन्ध

उत्तरवैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था वर्ण विकास का दूसरा चरण थी। अभी इसमें पर्याप्त कठोरता नहीं आ पाई थी। ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ण के बीच कोई विषम भेद नहीं था। क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण के सम्बन्ध भी उदार थे। शूद्रों की दशा असन्तोषजनक थी। संहिताओं तथा ब्राह्मणों के उल्लेखों से विदित होता है कि वर्गों के क्रम की निश्चित व्याख्या की जा चुकी थी।

आश्रम धर्म अथवा वर्णाश्रम

वैज्ञानिक एवं धार्मिक आधारों पर प्रतिपादित आश्रम व्यवस्था अपने परिणामों तथा परिणामों में विशिष्टगुण सम्पन्न थी। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का अद्भुत समन्वय तथा निश्चितीकरण के कारण इस व्यवस्था ने व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास के साथ-साथ उत्तर-वैदिक कालीन समाज को दृष्टिकोण की स्पष्टता तथा अनुशासनबद्धता प्रदान की। आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत चार आश्रमों का विधान था- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास। डा० बेनी प्रसाद के अनुसार “इस काल में आश्रमों का सिद्धान्त निकला, जो फिर सदा हिन्दूशास्त्रों में माना गया। पर यह समझना भूल होगी कि आश्रम के नियमों का पालन सब लोग करते थे।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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