इतिहास / History

19वीं शताब्दी में इंगलैण्ड की राजनीतिक दशा | इंगलैण्ड की वैदेशिक नीति | यूरोप में राष्ट्रवाद एवं उदारवाद का विकास

19वीं शताब्दी में इंगलैण्ड की राजनीतिक दशा | इंगलैण्ड की वैदेशिक नीति | यूरोप में राष्ट्रवाद एवं उदारवाद का विकास

19वीं शताब्दी में इंगलैण्ड की राजनीतिक दशा

(Political Condition of England in 19th Century)

19वीं शताब्दी के आरम्भ तक इंगलैण्ड में निर्वाचन क्षेत्रों तथा मतदान की योग्यता में बड़ी विषमता थी, कई स्थानों पर तो वहाँ की जनता केवल एक या दो ही सदस्य भेज सकती थी। परन्तु ये स्थान उजड़ गए थे, केवल चार-पांच झोपड़ियाँ ही वहाँ देखी जा सकती थीं, परन्तु फिर भी वहाँ से सदस्यों का चुनाव किया जाता था। कुछ स्थानों की जनसंख्या पहले से कई गुनी अधिक हो गई थी, परन्तु फिर भी वहाँ से कोई सदस्य चुनकर नहीं जाता था। इसका प्रमुख कारण यह था कि उनका नाम निर्वाचन क्षेत्र की सूची में नहीं था। इसी प्रकार मतदाताओं की योग्यता का भी कोई मापदण्ड नहीं था। कहीं से नगरपालिका के सदस्य तो कहीं से धन-सम्पन्न व्यक्ति और कहीं से सम्राट के रक्षित सदस्य ही मतदान कर सकते थे।

इंगलैण्ड में दो सदनों वाली संसद थी। पहला सदन हाउस ऑफ लार्ड्स (House of Lords) तथा दूसरा हाउस ऑफ कॉमन्स (House of Commons) कहलाता था। ऊँचे सदन के सदस्य सामन्त परिवार से तथा निचले सदन के सदस्य जनता द्वारा चुने जाते थे। सभी नियमों को सर्वप्रथम संसद पास करती थी। लोगों के साथ न्याय किया जाता था तथा समान न्याय के लिए न्यायालयों की स्थापना की गई थी। सम्पूर्ण इंगलैण्ड में जनता के लिए समान कानूनों का निर्माण किया गया था। ये कानून एक ग्रन्थ में लिपिबद्ध थे, जिन्हें हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति देख सकता था। सम्राट की शक्ति पर अंकुश लगाने के लिए समय-समय पर अधिकार बिल’ (Bili of Rights) पारित किए गए थे जिनके अनुसार इंगलैण्ड का सम्राट चलने के लिए बाध्य था। संसद की स्वीकृति के बिना उसे जनता पर किसी भी प्रकार का कर (Tax) लगाने का अधिकार नहीं था। संसद भवन में सदस्यों को अपने विचार प्रकट करने की पूरी स्वतन्त्रता थी, प्रत्येक व्यक्ति सम्राट के समक्ष अपना प्रार्थना-पत्र विचारार्थ प्रस्तुत कर सकता था।

सन 1688 ई० में इंगलैण्ड में रक्तहीन क्रांति हो चुकी थी, जिसकी अग्नि में राजाओं के स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश अधिकारों को भस्म किया जा चुका था। इस प्रकार इंगलैण्ड में संसद ने अपने अधिकारों की वृद्धि कर ली थी। सम्पूर्ण यूरोप इंग्लैण्ड की इस प्रकार की शासन-पद्धति को श्रेष्ठ समझता था तथा कुछ कानून तो यूरोप के देशों ने इंगलैण्ड की संसद द्वारा पारित कानूनों पर आधारित अपने यहाँ भी प्रचलित किए थे।

शासन-पद्धति में विषमता-

उस काल की श्रेष्ठ शासन पद्धति मानी जाने के साथ-साथ इंगलैण्ड की शासन-प्रणाली में विषमता के अंश भी पाये जाते थे जैसा कि हम् ऊपर वर्णन कर चुके हैं, इंगलैण्ड का निर्वाचन प्रणाली में अनेक दोष थे। मतदाता बनाने के लिए कुछ कठोर शतों को पूरा करना आवश्यक था। उदाहरण के लिए, स्काटलैण्ड की जनसंख्या के अनुपात में मतदाताओं की संख्या नगण्य थी, अधिकतर धनी व्यक्ति ही मतदाता थे। जब वे निर्वाचित होकर सदन में पहुंचते थे, तो निर्धन व्यक्तियों की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे। कम जनसंख्या वाले स्थानों से कई सदस्य चुने जाते थे परन्तु जहाँ जनसंख्या अधिक थी, वहाँ एक भी सदस्य नहीं चुना जाता था। इस प्रकार दोषपूर्ण निर्वाचन प्रणाली ने इंगलैण्ड की शासन-पद्धति में विषमता उत्पन्न कर दी थी। जो व्यक्ति सुधार की बात करता था उसे दण्ड दिया जाता था, वेलिंगटन के शब्दों में, “जो दंग निर्वाचन का है उसके बदले जाने की और कोई ध्यान नहीं है। प्रकृति क्या इतने बड़े परिवर्तन को मानने के लिए तैयार हो जायेगी। सम्भवत: नहीं होगी।”

(1) प्रथम सुधार बिल- इसी समय जॉन रसेल तथा अर्लये ने विगदल के मन्त्रिमण्डल का निर्माण किया। परिस्थिति परिवर्तित हो जाने के कारण प्रथम सुधार बिल लाया गया। जॉन रसेल ने सदन में लोकसभा की त्रुटियों को जनता के सामने रखा, जिससे लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ। मैकाले ने भी रसेल की बातों का समर्थन करते हुए कहा कि मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों का प्रभाव कम नहीं होगा और देश की परम्पराओं को कोई हानि नहीं होगी। फिर भी बिल पास न हो सका। सुधारवादी बराबर कहते रहे, “बिल सम्पूर्ण बिल पारित ही होगा।”

ऐसा दृश्य में प्रदर्शन किए गए, विद्रोह तथा धमकियों भरा वातावर्ण फैलाया गया-तब कहीं जाकर अन्त में जून 1837 को बिल को स्वीकृति मिली। इससे निर्वाचन-पद्धति में एक बड़ा परिवर्तन किया गया। जिन बरोज (Burrows), की जनसंख्या दो हजार से कम थी वहाँ से सदस्यों को निर्वाचन संख्या बन्द कर दी गई। जिन बरोज की जनसंख्या दो से चार हजार तक थी उनसे सदस्यों का निर्वाचन होना निश्चित हुआ।

इस नियम के अनुसार जो 143 स्थान खाली हुए वे 65 बहुसंख्यक वाली काउण्टियों तथा औद्योगिक नगरों को दे दिए गए। इसी प्रकार बरोज में मतदाताओं को हैसियत भी घटा दी गई। जो लोग बरोज में 10 पौण्ड वार्षिक किराए के स्वामी थे या किराया देते थे उन्हें मतदान का अधिकार प्रदान किया गया। जिन किसानों के पास 50 पौण्ड वार्षिक किराये की भूमि थी उन्हें भी मत देने का अधिकार प्रदान किया गया। देश में मतदान के समान क्षेत्र भी यथासम्भव निर्मित कर दिए गए। इस सुधार से मतदाताओं की संख्या 4,35,000 से केवल 6,56,000 की ही वृद्धि हुई। फिर भी विशेष अधिकार के वर्गों को यह पता चल गया कि उनके अधिकार की सीमा मतदान को बढ़ाकर भविष्य में आगे की जा सकेगी। इस बिल से जो निर्वाचन की व्यवस्था की गई थी उससे लिबरल तथा कन्जर्वेटिव सन्तुष्ट हो गए।

राबर्टपील के शब्दों में, “सुधार विल अन्तिम और साधारण जनता के सुधार का पक्षीय रूप था। इससे संवैधानिक सुधार का मार्ग खुला।”

लॉर्ड रसेल ने बिल के सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार प्रकट किए, “1867 का सुधार कानून लोकतन्त्रीय पद्धति में दूसरा सुधार अधिनियम था। अब समझा जाने लगा कि इंगलैण्ड प्रजातन्त्र की ऊंची सड़क पर पहुंच गया है और वे लोग जो सुधार का नाम लेने से डरते थे. निर्भय से हो गए।”

(2) चार्टिस्ट आन्दोलन- प्रथम सुधार बिल से श्रमिक वर्ग को संतुष्टि नहीं हुई। उसकी दृष्टि में कर तथा सम्पत्ति की सीमा की योग्यता का निर्धारण कोई उचित मानदण्ड नहीं था। अतः 1838 में श्रमिक वर्ग द्वारा चार्टर के ढंग की 6 मांगें रखी गई। ये लोग ‘चार्टिस्ट कहलाए।

मुख्य मागे ये थी-(1)  सार्वजनिक मतदान गुप्त प्रणाली द्वारा होना चाहिए। (2) संसद को वार्षिक अवधि निश्चित की जाये। (3) मासिक वेतन निश्चित किया जाए, जो लोकसभा के निर्वाचित प्रतिनिधियों को समय पर दिया जाना चाहिए। (4) मतदाताओं तथा प्रतिनिधियों की योग्यता सम्बन्धी शतों से भूमि या सम्पत्ति की सीमा हटा दी जाए। (5) सभी बालिग व्यक्तियों को मत देने का अधिकार प्रदान किया जाए। (6) समान निर्वाचन क्षेत्र घोषित किए जाएं। जब पहली बार इन मांगों को सदन में रखा गया तो ठनें स्वीकृति नहीं मिली।

चार्टिस्ट लोगों ने साहस नहीं छोड़ा, उन्होंने दुवारा सन 1848 में संसद के सामने सात लाख हस्ताक्षर करवाकर रखा। फिर भी अस्वीकार कर दिया गया । इस प्रकार चार्टिस्ट आन्दोलन को सफलता नहीं मिली। परन्तु इस आन्दोलन ने श्रमिकों को संगठित कर दिया। उसी समय चार्टिस्टों को जान बाइट जैसा प्रतिभाशाली नेता मिल गया। उसने इस सुधार बिल को पारित कराने के लिए उपयुक्त अवसर खोजा। डिजरैली ने इस सुधार पर ध्यान दिया और 1867 में इसे स्वीकृति मिल गई।

सुधार कार्य- (1) ग्रामों में निवास करने वाले वे व्यक्ति मतदान के अधिकारी हो गए जो कम से कम पांच पौण्ड वार्षिक किराये की सम्पत्ति के स्वामी थे या जो 12 पौण्ड वार्षिक किराया देते थे।

(2) नगरों में निवास करने वाले वे व्यक्ति, जो एक ही मकान में 12 वर्ष से रहते आ रहे थे उसी अवधि तक किराया देते रहते थे या उसके स्वामी थे, उन्हें मतदान का अधिकार प्रदान किया गया।

इस प्रकार इस बिल से इंगलैण्ड में मत देने वालों की संख्या दुगनी हो गई।

आलोचना- इस सुधार बिल के पारित हो जाने बाद भी देहातों के हजारों श्रमिक मतदान से वंचित रह गए। दूसरी बात यह कि इस बिल से ऊपरी सदन के अधिकार तो यथावत बने रहे परन्तु इंगलैण्ड को व्यवस्था के लिए यह दूसरा कदम था जिसका भविष्य किसी ने नहीं देखा था।

कुछ भी हो, इस बिल ने आने वाले युग के लिए सुधारों का मार्ग खोल दिया, जिसके फलस्वरूप सन् 1872 में गुप्तदान की प्रथा प्रारम्भ हुई। सन् 1884 में मजदूरों को मतदान का अधिकार मिल गया। सन् 1911 में लार्ड सभा के अधिकार कम कर दिए गए।

(3) स्थानीय शासन में सुधार-इस सुधार युग से पहले इंग्लैण्ड में स्थानीय स्वशासन का एक रूप नहीं था। इसकी व्यवस्था इंगलैण्ड के राजा द्वारा होती थी। नगरों का शासन मेयर मजिस्ट्रेट (Maver Magistrate) या एल्डरमैन (Elderman) करते थे। इनका चुनाव भी राजा द्वारा होता था। ये लोग प्रायः अपने उत्तराधिकारियों को नियुक्त कर देते थे। कुछ नगरों में टाउन काउंसल को फ्रीमैन (Freeman) बनाते थे। पर्दो को खरीदा तथा बेचा जाता था। इसके परिणामस्वरूप न तो गाँवों की सड़कें ठीक थीं और न नगरों की, करों की व्यवस्था भी बहुत त्रुटिपूर्ण थी, शिक्षा व प्रशासन की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया जाता था। शेपरो के शब्दों में ये स्थानीय संस्थाएँ एक प्रकार के बंद निगम थे जहाँ भ्रष्टाचार तथा अक्षमता का बोलबाला था।”

1833 में सदन द्वारा स्थानीय संस्थाओं की दशाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक आयोग की नियुक्ति की गई और उसकी रिपोर्ट के आधार पर सन् 1835 का म्यूनिसिपल कार्पोरेशन बिल स्वीकृत किया गया। इसके द्वारा सभी स्थानीय संस्थाओं के लिए एक संविधान का निर्माण किया गया। अब पुराने ढंग की सभाओं को हटा दिया गया और उनके स्थान पर नगरपालिकाएं बनायी गयीं, जिनके सदस्य स्थानीय कर देते थे।

(4) दण्ड-प्रक्रिया में सुधार- इंगलैण्ड में 19वीं शताब्दी के मध्यकाल में फौजदारी नियम तथा कारावास की दशा भी अच्छी नहीं थी। दण्ड-व्यवस्था में उस समय का लगभग 25% अपराध ऐसे माने जाते थे जिनके लिए प्राणदण्ड ही दिया जाता था। साधारण चोरी करने वाले को भी मृत्युदण्ड दे दिया जाता था। कारावास के लिए छोटी-छोटी कोठरियाँ थीं जिनमें सामूहिक रूप से स्त्री, पुरुष तथा बालक सभी को रखा जाता था। जेल के अधिकारियों को रिश्वत देना एक प्रकार से अनिवार्य-सी हो गई थी। जो लोग जेल के अधिकारियों की सेवा नहीं करते थे उन्हें मारा-पीटा जाता था। कैदियों की बीमारियों आदि की भी चिन्ता नहीं की जाती थी, जिससे कैदी प्रायः मृत्यु की गोद में चले जाते थे।

सुधार-कार्य- इस दुर्दशा की ओर बर्क, जान वेजली, सर सेम्युअल, रोमैली आदि विद्वानों ने सरकार का ध्यान आकार्षित करने का प्रयत्न किया। अतः सन् 1837 ई. में सदन ने एक नियम बनाया जिसके अनुसार अनेक अपराधियों को मृत्युदंड से हटा दिया गया। सन् 1861 तक केवल हत्या, समुद्री डकैती और राजद्रोह तीन ऐसे अपराध रह गए जिनमें मृत्युदंड को व्यवस्था रह गई। जेलों के जीवन को भी सुधारा गया। अब रोशनी तथा हवादार कमरों का निर्माण किया गया। जेलखानों के रहन-सहन, भोजन, वस्त्र आदि की सुव्यवस्था के लिए निरीक्षकों की नियुक्तियाँ होने लगीं। दंड देने की प्रक्रिया भी बदली गयी।

(5) आर्थिक जीवन में सुधार- इंगलैण्ड में व्यावसायिक क्रान्ति के साथ कल-कारखाने तो बढ़ गए परन्तु इन कारखानों तथा खानों में कार्य करने वाले श्रमिकों की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। पूंजीपति हर समय अपने व्यापार को अधिक से अधिक लाभ पहुंचाने के विषय में सोचते रहते थे, उन्हें हजारों की संख्या में काम करने वाले मजदूरों के बारे में बिल्कुल भी चिन्ता नहीं थी। वास्तव में इन श्रमिकों का जीवन बड़ा कष्टमय था, बालकों को भी कल-कारखानों में चिमनी आदि की सफाई के लिए रखा जाता था तथा उनको कोडे से मार लगाई जाती थी। पाँच वर्ष की आयु के बालकों को कोयलों से भरी गाड़ियां खींचनी होती थीं। वे भट्ठी के निकट बारह घंटे तक काम करते थे।

इस दयनीय दशा का मुख्य कारण यह था कि इन् श्रमिकों का सदनु में कोई भी प्रतिनिधि नहीं था, यहाँ तक कि माल्थस तथा रिकार्डो जैसे अर्थशास्त्री भी पूंजीपतियों का साथ देते थे। जान ब्राइट ने स्वयं लिखा है, “ये सुधार देश के लिए लाभप्रद न होगे। ये सुधार स्वतन्त्रता में बाधक तथा समझौते के विरुद्ध होंगे।

राबर्ट ओवन ने इस दशा के विरुद्ध सरकार तक आवाज पहुँचाई । अतः 1802 में यह नियम बनाया गया कि वालकों से एक सप्ताह में केवल 72 घंटे काम लिया जाए । 1819 में 9 वर्ष से कम आयु के बालकों को रूई के कारखानों में काम करने की मनाही कर दी गई। सोलह वर्ष के बालकों के लिए काम करने के घंटों का समय निश्चित कर दिया गया।

रिचर्ड ओस्लर, टॉमस सैडलर तथा लार्ड ऐशली आदि व्यक्तियों ने मजदूरों की स्थिति में सुधार करने के लिए प्रयत्न जारी रखे। सरकार ने मजदूरों की दशा सुधारने के लिए जाँच कमेटो नियुक्त कर दी। 1842 के नियम से यह निश्चित किया गया कि स्त्रियों और बालकों से खानों में काम न लिया जाये। इन सुधारों ने मजदूरों का काफी भला किया। धीरे-धीरे उन्होंने अपने संघ बना लिए।

(6) धार्मिक सुधार- इंगलैण्ड में धार्मिक आन्दोलनों तथा जनजीवन का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है, जिसके फलस्वरूप धर्म के क्षेत्र में अत्याचारों का बराबर उन्मूलन होता रहा है। इंगलैण्ड ने 19वीं शताब्दी के आरम्भ तक सभी धर्मावलम्बियें का धर्म के क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता दे दी थी। कैथोलिकों, यहूदियों तथा डिसेण्टरों को अब भी राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा जाता था।

इस समय तक आयरलैण्ड में कैथोलिकों के लिए भी कई बाधाएँ थीं जिनसे मुक्त होने के लिए अनेक आन्दोलन किए गए। इंगलैण्ड की सरकार ने 1829 में कैथोलिक एमेन्सीपेशन एक्ट (Catholic imancipation Act) पारित किया, जिससे कैथोलिकों पर लगाए गए प्रतिबन्ध हटा लिए गए। सरकारी पदों के लिए सिवाय, रिजेन्ट, लैण्ड चान्सलर और लैण्ड लियुटेनेण्ट आफ आयरलैण्ड के पदों ने, उनका मार्ग खोल दिया गया। सन् 1858 में यूहूदी दुःख निवारण कानून बनाया गया। सन् 1869 में कैथोलिकों से धार्मिक कर भी हटाकर समानता की दिशा को खोला गया।

शिक्षा संबंधी सुधारउपर्युक्त सभी सुधारों का उपयोग बिना शिक्षा सम्बन्धी सुधारों के निरर्थक था। 18वीं शताब्दी तक इंगलैण्ड में शिक्षा की व्यवस्था चर्चा या व्यक्तिगत प्रयासों के हाथ में थी जिससे समाज में अधिकांश व्यक्ति अशिक्षित रह जाते थे। विश्वविद्यालयों की शिक्षा समृद्ध परिवारों तक सीमित थी और आवश्यक शिक्षा पर सरकार का कोई ध्यान नहीं था। अतः जब विद्वानों ने सरकार का ध्यान शिक्षा सुधार की तरफ दौड़ाया तो सन् 1870 में शिक्षा का नियम बनाया गया। इस नियम के अनुसार शहरों तथा कस्बों में बोर्ड स्थापित किए गए, जिनके तत्वावधान में सरकारी पाठशालाएँ चलाई गई। आगे चलकर शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क करने के लिए, नियम बनाये गए। धीरे-धीरे शिक्षा का कार्य व्यापक हो गया।

शिक्षा सम्बन्धी सुधारों के फलस्वरूप इंग्लैण्ड में अच्छे लेखकों तथा कवियों ने बड़े महत्वपूर्ण कार्य किए। उस युग के कवियों तथा लेखकों में शैले (1792-1822), वायरन (1788-1824), कौट्स (1795-1821), कालरिज (1772- 1834), वुर्ड्सवर्थ (1770-1850), स्काट (1771-1832), मैकाले (1800-1859) आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

इंगलैण्ड की वैदेशिक नीति

जब तक नेपोलियन यूरोप का भाग्य विधाता रहा, इंगलैण्ड ने अपनी वैदेशिक नीति में कठोरता को ही स्थान दिया। परन्तु नेपोलियन के पतन के पश्चात् इस नीति में परिवर्तन किया गया-यह नीति तटस्थता की नीति कहलाती है। इंगलैण्ड ने अपना यह सिद्धान्त बना रखा था कि वह यूरोप के झगड़ों से अपने आप को दूर रखे। उस समय पवित्रु संघ तथा चतुर्मुख मण्डल की स्थापना से यूरोप के राज्यों का एक गुट बन गया था। इंगलैण्ड ने इन गुटों की सदस्यता तो स्वीकार की परन्तु सदा इस बात का ध्यान रखा कि इंगलैण्ड व्यर्थ के झगड़ों में न फंसने पाए। उसने यूरोप के शक्ति-संतुलन में भी कभी विषमता उत्पन्न नहीं होने दी। उस समय लॉर्ड कैसलरे ने अपने मंत्रित्व के समय यूरोपीय देशों के आन्तरिक मामलों में चतुर्मुख मित्रमंडल के सदस्यों के द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप की नीति का विरोध किया। उसने स्पेन के उपनिवेशों की स्वतन्त्रता को मान्यता दी। उसने टर्की के विरुद्ध भी रूस तथा फ्रांस के साथ रहकर पूर्वी समस्या में इंगलैण्ड के हित की चिन्ता की।

लॉर्ड कैनिंग के पश्चात् लॉर्ड पामर्स्टन इंगलैण्ड का विदेशमन्त्री बना। उसकी विदेश-नीति के अन्तर्गत छोटे-छोटे राज्यों को वैधानिक सहायता पहुंचाई गई, इंगलैण्ड के प्रभाव की सीमा को बढ़ाया गया। पामर्टन ने इटली, स्पेन, जर्मनी और हंगरी में होने वाले जन-आन्दोलनों को प्रोत्साहन दिया। रूस के विरुद्ध टर्की को क्रीमियन के युद्ध में सहायता पहुंचाकर इंगलैण्ड ने अपनी वैदेशिक-नीति के प्रभाव की श्रीवृद्धि की।

उसके पश्चात् लॉर्ड एबरडीन ने भी उसी नीति का पालन किया। गलैडस्टन ने शान्ति की नीति को अपनाया। अल्बामा के मामले में उसने संयुक्त राज्य अमेरिका को क्षतिपूर्ति की।

निष्कर्ष (Conclusion)

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि इस काल के पिछले समय में इंगलैण्ड की शान्ति-नीति साम्राज्यवाद की नीति में परिवर्तित हो गई जिसका मुख्य प्रवर्तक डिजरैली था। उसका उद्देश्य ब्रिटिश राज्य का प्रभाव विश्व में स्थापित करने का था, जिसकी पूर्ति के लिए उसने पूर्वी समस्या सम्बन्धी युद्धों में भाग लिया और रूसी आतंक का सामना किया।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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