'विभाषा' का तात्पर्य

‘विभाषा’ का तात्पर्य | भाषा विज्ञान की परिभाषाएँ | वर्णनात्मक भाषा विज्ञान | बोली किसे कहते हैं? | भाषा संरचना के स्तर | भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार | भाषा और बोली में अन्तर

‘विभाषा’ का तात्पर्य | भाषा विज्ञान की परिभाषाएँ | वर्णनात्मक भाषा विज्ञान | बोली किसे कहते हैं? | भाषा संरचना के स्तर | भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार | भाषा और बोली में अन्तर

‘विभाषा’ का तात्पर्य

विभाषा- किसी प्रान्त या क्षेत्र विशेष में लोक व्यवहार अथवा साहित्य में प्रयुक्त भाषा को विभाषा’ कहते हैं। इसी को प्रान्तीय भाषा या उपभाषा भी कहा जाता है। अनेक विभाषाओं से ग्रहीत एक परिनिष्ठत शब्दावली ही भाषा बन जाती है। इस प्रकार विभाषायें ही भाषा को शब्द सम्पदा देकर पुष्ट करती हैं।

विभाषाओं से प्रभावित रहते हुए भी अपने रूप और स्वभाव को सुरक्षित रखती हैं। भाषा को अपना महत्वपूर्ण रूप राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक अथवा साहित्यिक आन्दोलनों से प्राप्त होता है उदाहरणार्थ प्राचीन भारत में ऐसी भाषायें प्रचलित थीं, जिनका साहित्य रूप ऋग्वेद में मिलता है। इन्हीं विभाषाओं में से एक को मध्य प्रदेश के विद्वानों ने राष्ट्रभाषा का रूप प्रदान किया था। कुछ समय तक भारत में इसी भाषा की प्रमुखता रही। यह भाषा संस्कृत थीं। जब विदेशी आक्रमण हुए और बौद्ध धर्म का प्रचार बढ़ा तो संस्कृत का स्थान अपभ्रंश ने ले लिया। उसमें सर्वप्रथम मागधी विभाषा उपदेशों की भाषा बनी और इसने यथेष्ठ महत्व प्राप्त किया। लगभग प्रत्येक अपभ्रंश ने इस भाषा का रूप ले लिया। इसी प्रकार ब्रज आदि विभाषाओं की भाषा खड़ी बोली या हिन्दी है। आज हिन्दी भाषा के अन्तर्गत अनेक विशेषतायें, जैसे ब्रज, राजस्थानी, अवधी, बिहारी आदि हैं। अतः यह सिद्ध होता है कि विभाषा ही भाषा बनती है और वह विभाषा के समान अपने जन्मदाता प्रान्त में ही नहीं रह जाती, वरन् अनेक कारणों के सहारे अपने क्षेत्र को काफी विस्तृत बना लेती है।

भाषा विज्ञान की परिभाषाएँ

विद्वानों द्वारा भाषाविज्ञान की अनेक परिभाषाएँ प्रस्तुत की गई है-

डॉ. श्यामसुन्दर दास ने- “किसी भी……… करने को भाषाविज्ञान माना है।”

डा.मंगलदेव शास्त्री के अनुसार-“भाषाविज्ञान उस विज्ञान को कहते हैं, जिसमें सामान्य मानवीय भाषा का किसी विशेष भाषा की रचना और इतिहास, प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों की विशेषताओं का पारस्परिक अध्ययन किया जाता है।”

डॉ. बाबूराम सक्सेना के अनुसार- “भाषाविज्ञान का अभिप्राय भाषा विश्लेषण करके उसका निदर्शन करना।”

डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार-“भाषा विज्ञान का अर्थ है भाषा का विशिष्ट ज्ञान कराने वाला विज्ञान। इस प्रकार भाषा का विस्तृत ज्ञान कराने वाले विज्ञान को भाषाविज्ञान कहते हैं।”

अतः इस प्रकार यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि भाषाविज्ञान की सामग्री और विषय अपनी सम्पूर्णता में भाषा है। अपनी अनन्त विविधता में मानवीय भाषा सभी रूपों का चाहे वह मनुष्य के मस्तिष्क और सुख से उच्चरित हो अथवा शिलालेखों ताम्र पत्रों के रूप में हो भाषा विज्ञान के अध्ययन का क्षेत्र है। जो बहुत ही महत्वपूर्ण है।

वर्णनात्मक भाषा विज्ञान

वर्णनात्मक भाषा विज्ञान में किसी विशिष्ट काल की किसी एक भाषा के संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, प्रत्यय, विभक्ति आदि रूपों की वर्णनात्मक समीक्षा करते हुए उनकी ध्वनि, वाक्य रचना एवं उनके साधु असाधु रूपों का सम्यक् अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन किसी एक भाषा के विशिष्ट कालीन विशिष्ट रूप के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी होता है क्योंकि इसके द्वारा उस काल में प्रचलित उस भाषा के सभी शिष्ट एवं अशिष्ट रूपों के निर्माण प्रचलन का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त हो जाता है। भाषाविज्ञान की इस पद्धति को भारतीय व्याकरणों के अन्तर्गत भली प्रकार देखा जा सकता है। इस क्षेत्र में पाणिनी की व्याकरण सर्वथा आदर्श माना जाता है क्योंकि इसमें संस्कृत भाषा का वर्णनात्मक अध्ययन बड़ी तत्परता एवं तल्लीनता के साथ किया गया है। आजकल भाषाविज्ञान के क्षेत्र में वर्णनात्मक पद्धति की बहुलता दृष्टिगोचर होती है।

बोली किसे कहते हैं?

बोली भाषा के ठेठ प्रतिदिन बोले जाने वाले रूप को कह सकते हैं। किसी स्थान विशेष के मनुष्यों की घरेलू भाषा को बोली कहते हैं। यह केवल बोलचाल की भाषा होती है, साहित्यिक नहीं। इसका क्षेत्र भी इसीलिए बहुत संकुचित होता है। जैसे शाहजहाँपुरी, फर्रुखाबाद की बलियाटि, सीतापुरी, बनारसी आदि बोलियाँ बनने का कारण मुख्यतः भौगोलिक होता है। जब एक ही भाषा भौगोलिक कारणोंवश अलग-अलग हो जाती है तो उनकी भाषा में ऐसी विशेषतायें विकसित हो जाती हैं कि वे विभिन्न रूप धारण कर लेती हैं वे ही बोलियाँ बन जाती हैं। अतः किसी भाषा के कुछ भागों का शेष से सम्बन्ध विच्छेद ही बोली के विकास का प्रधान कारण है। राजनैतिक तथा आर्थिक कारण भी होते हैं। बोली जब किसी साहित्यिक रूप को धारण कर लेती है तो विभाषा कहलाने लगती है। प्राचीनकाल में मध्य देशीय बोली साहित्य के लिए प्रयुक्त होती थी, अतः वह अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हो गयी और उसने पहले विभाषा फिर भाषा का रूप धारण कर लिया। नवविकसित सभी भाषायें प्रारम्भ बोली के रूप में रहती हैं। जबसे उसका विकास होता है और महत्व बढ़ता है तबसे विभाषा भाषा अथवा राष्ट्रभाषा का रूप धारण करती हैं लेकिन ऐसा नहीं होता। यह आवश्यक नहीं कि बोली साहित्यिक रूप अथवा प्रमुखता पाकर भाषा बन जाये। कभी-कभी साहित्य में इसका उपयोग अवश्य हो जाता है परन्तु रहती वह बोली ही है। इसका उदाहरण अब भी है जो हिन्दी की बोली है। ऐसा तब होता है जब किसी एक क्षेत्र में अनेक बोलियों में किसी एक बोली को आदर्श मान लिया जाता है।

भाषा संरचना के स्तर

ध्वनि प्रतीकों की संरचनात्मक व्यवस्था भाषा कहलाती है। इस व्यवस्था के कई स्तर होते हैं-ध्वनि स्तर, रूप-स्तर, वाक्य-स्तर आदि। प्रत्येक स्तर पर भाषा की इकाइयाँ अलग-अलग होती है। हाँकिट ने भाषिक संरचना के पाँच स्तर माने हैं- (1) व्याकरणिक, (2) स्वनिमिक, (3) रूप स्वनिमिक (4) आर्थी तथा (5) स्वनिक।

कतिपय विद्वान चार स्तर-वाक्य, रूप, ध्वनि और अर्थ मानते हैं। उनके अनुसार रूप स्वनिर्मिक स्तर पृथक स्तर नहीं अपितु रूप और ध्वनि दोनों से सम्बद्ध है। इसका क्षेत्र है-शब्दों, रूपों, उपसगों तथा प्रत्ययों आदि के योग से होने वाले ध्वनि परिवर्तन तथा इस परिवर्तन के फलस्वरूप अस्तित्व में आये नये शब्द अथवा रूप। डॉ. भोलानाथ तिवारी ने भाषिक संरचना के छः स्तर स्वीकार किये हैं अर्थ, प्रोक्ति, वाक्य, रूप शब्द और ध्वनि। उनके अनुसार भाषा को ध्यान से देखें तो ध्वनियों से शब्द बनते हैं, (तथा धातुओं) प्रोक्ति का विश्लेषण करें तो वाक्य मिलते हैं, वाक्यों के विश्लेषण से शब्दादि तथा उनके विश्लेषण से ध्वनियाँ इस प्रकार उनके अनुसार भाषा के छः स्तर स्वीकार किये गये हैं।

भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार

आचार्य किशोरी दास बाजपेयी के शब्दों में “विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्द समूह ही भाषा है जिसके द्वारा हम अपने मनोभाव दूसरे के प्रति सरलता से प्रगट करते हैं।” एक पाश्चात् भाषाविद् के शब्दों में “भाषा उन वाचिक प्रतीकों की यादृच्छिक व्यवस्था है, जिसके द्वारा एक समाज विशेष के सदस्य परस्पर व्यवहार और क्रिया प्रतिक्रिया में संलग्न रहते हैं। भाषाओं को प्रतीक व्यवस्थाओं का समावेशक माना गया है क्योंकि वे अनेक रूढ संकेतों तथा प्रतीकों को अपने अन्दर समेटे होती हैं। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषा की प्रतीक व्यवस्था विशुद्ध या यादृच्छिक रूढ़ि पर आधारित होती है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि संकेत तथा संकेतन वस्तु में परस्पर सुनिश्चित संबंध होता है डॉ. राजकिशोर शर्मा ने इस संदर्भ में लिखा है कि भाषा में प्रयुक्त शब्द प्रतीकों का संबंध उनके द्वारा सांकेतिक वस्तुतः विशेष के साथ नहीं होता है। प्रायः सभी भाषाओं में पाये जाने वाले अनुकरणानात्मक या ध्वनि अनुकरणानात्मक शब्दों का संबंध वस्तु विशेष के साथ कुछ निश्चित सीमा तक पाया जाता है।

डॉ0 शर्मा ने भाषा प्रतीकों की व्यवस्था के साथ भाषा व्यवहार पर भी विचार किया है। उनका कथन है कि भाषा की विविध परिभाषाओं से ही स्पष्ट है कि भाषा किसी समाज वर्ग के बीच प्रमुख रूप से व्यवहार का माध्यम हैं यह ऐसा व्यवहार है जिसे हंसने, रोने, उठने, बैठने आदि प्रवृत्यात्मक व्यवहारों की तरह सहज ही में नहीं प्राप्त किया जाता बल्कि उसे समाज के बीच में रहकर अर्जित करना पड़ता है। भाषा में धीरे-धीरे परिवर्तन आता रहता है। भाषा व्यवहार में वैयक्तिक विभेदों को भी प्रदर्शित करती है। चूंकि भाषा अनुकरण द्वारा सीखी जाती है। इसीलिए एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी में पहुंचकर उसका स्वरूप थोड़ा बहुत बदल जाता है। प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक युग की मानसिक और सांस्कृतिक व्यवस्था का अन्तर ही भाषिक अन्तर को जन्म देता है।

भाषा और बोली में अन्तर

भाषा और बोली में शुद्ध भाषा वैज्ञानिक स्तर पर भेद बताना कठिन है। इस बात को अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है। ये समान्यतः कुछ बातें कही जा सकती हैं- (क) जैसा कि ऊपर कहा गया है, भाषा का क्षेत्र अपेक्षाकृत बड़ा होता है तथा बोली का छोटा। (ख) एक भाषा की (या के अन्तर्गत) एक या अधिक बोलियाँ हो सकती हैं। इसके विपरीत, भाषा बोली के अन्तर्गत नहीं आती अर्थात् किसी बोली में एक से अधिक भाषायें नहीं हो सकती है। (ग) बोली किसी भाषा से ही उत्पन्न होती है। इस प्रकार भाषा-बोली में माँ बेटी का समन्वय है। (घ) बोधगम्यता के आधार पर ही इस सम्बन्ध में कुछ उपादेय बातें कहीं जा सकती हैं, यदि दो व्यक्ति जिनका बोलना ध्वनि, रूप आदि की दृष्टि से एक नहीं है, किन्तु वे एक दूसरे की बात काफी समझ लेते हैं तो उनकी बोलियां किसी एक भाषा की बोलियाँ है अर्थात् पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं होती या कम होती है। ये यह बोधगम्यता का आधार भी बहुत तात्विक नहीं है। उदाहरण के लिए हरयानी-भाषी, पंजाबी- भाषी को काफी समझ लेता है, किंतु अवधि-भाषी उस सीमा तक नहीं समझ पाता यद्यपि हरियानी एवं अवधी हिन्दी भाषा की बोलियाँ हैं और पंजाबी एक स्वतन्त्र भाषा है (ङ) भाषा प्रायः साहित्य, शिक्षा तथा शासन के कामों में भी व्यवहृत होती है, किन्तु बोली लोक-साहित्य, और बोलचाल में है।यद्यपि इसके भी कम नहीं मिलते, विशेषतः साहित्य में। उदाहरण के लिए आधुनिक काल से पूर्व का हिन्दी का सारा साहित्य ब्रज, अवधी, राजस्थानी, मैथिली आदि तथाकथित बोलियों में ही लिखा गया है।

भाषा विज्ञान – महत्वपूर्ण लिंक

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