अर्थशास्त्र / Economics

विश्व बैंक की उपलब्धि | विश्व बैंक की आलोचना

विश्व बैंक की उपलब्धि | विश्व बैंक की आलोचना

विश्व बैंक की उपलब्धि

1947 तक विश्व बैंक का कार्य पुनर्निर्माण से सम्बन्धित रहा। उसने 4 पुनर्निर्माण ऋण दिए, जिनकी कुल राशि 497 मि० डालर थी और वे फ्रांस, नीदरलैण्ड, डेनमार्क और लक्समबर्ग को दिए गए थे। 1947 के बाद सभी ऋण विकास कार्यों के लिए ही दिए गए हैं। इनका अधिकांश भाग अल्प विकसित एवं अविकसित देशों को मिला और यह उचित भी था क्योंकि इन देशों में केवल निर्मित माल आयात करने हेतु धनाभाव की समस्या नहीं थीं वरन् उन्हें सामाजिक पूँजी का भी निर्माण करना था जिसके लिए न तो उनके पास धन था, न अनुभव और न तकनीकी ज्ञान ही था। अत: बैंक ने बिजली, यातायात, कृषि, उद्योग तथा अन्य उपयोगी एवं आवश्यक कार्यों के लिए ऋण दिए। अधिकांशऋण बिजली, यातायात और उद्योग के विकास हेतु दिए गए हैं। इससे स्पष्ट है कि विश्व अर्थव्यवस्थाओं के पिछड़ेपन को दूर करके आधुनिक स्तर पर लाने का प्रयत्न कर रहा है।

विश्व बैंक द्वारा दिए गए लगभग 70% ऋण एशिया अफ्रीका और दक्षिणी व केन्द्रीय अमेरिका के पिछड़े हुए क्षेत्रों में दिया गया। एशिया में जापान के अतिरिक्त अन्य सब देश प्रत्येक क्षेत्र में अविकसित दशा में थे। राजनैतिक जागरण के बाद पिछड़े हुए देशों की आर्थिक विकास सम्बन्धी माँग बढ़ गई हैं जिसे वह यथाशक्ति पूरा करने के लिए प्रयत्नशील है। 1975-76 में विश्व बैंक ने एक नई व्यवस्था लागू की, जिसे ‘तीसरी खिड़की’ की संज्ञा दी गई है। इसके अनुसार बैंक ने एक सहायता कोष बनाया है, जिसमें विकासोन्मुख देशों को सरल शर्तों पर ऋण दिए जाते हैं। इसके लिए साधन सदस्यों और गैर सदस्यों के अनुदान से जुटाये जाते हैं और बैंक भी रकम डालता है। इस कोष से उन देशों को ऋण मिलते हैं जिनकी प्रति व्यक्ति आय कम है और जो कि विकास के लिए भारी प्रयत्न कर रहे हैं। भारत को इस कोष से सहायता मिली है।

विश्व बैंक की आलोचना

विश्व बैंक ने जिस प्रकार से कार्य किया है उससे कुछ लोग सन्तुष्ट नहीं हैं और उन्होंने उस पर निम्नांकित आरोप लगाए हैं-

  1. अपर्याप्त पूँजी- विश्व बैंक के साधन इसके कार्यों विशेषतया अर्द्धविकसित देशों की आवश्यकताओं को देखते हुए अपर्याप्त हैं। यह आलोचना अब मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि बैंक के साधन हाल के वर्षों में काफी बढ़ गए हैं।
  2. ऋण की कठोर शर्ते- कुछ आलोचकों का कहना है कि बैंक के ऋण देने सम्बन्धी ढंग एवं नियम कुछ ऐसे हैं कि उनसे अर्द्ध-विकसित देशों को बड़ी कठिनाई होती है, जैसे- (i) बैंक उधार लेने वाले को ऋण देने से पूर्व उसकी ऋण भुगतान करने की क्षमता (Repaying Capacity) पर अधिक बल देता है, जो कि अनुचित है, क्योंकि ऋण लौटाने की क्षमता तो ऋण के उत्पादक प्रयोग के बाद पैदा होती है, पहले नहीं, (ii) बैंक केवल सुनिश्चित, अत्यावश्यक एवं उत्पादक प्रयोजनाओं के लिए ऋण देता है, जो एक त्रुटिपूर्ण नीति है, क्योंकि कई बार किन्हीं प्रायोजनाओं की सुनिश्चित करना और उनकी आवश्यकता व उत्पादकता को सिद्ध करना कठिन हो जाता है; (iii) बैंक इस बात पर भी बल देता है कि ऋणी देश उसी मुद्रा में ऋण को लौटाये जिसमें लिया था। यह शर्त अर्द्ध विकसित देशों के लिए बहुत अधिक कठिन है, क्योंकि उनको दुर्लभ मुद्रायें कभी-कभी सुलभ नहीं हो पातीं। (iv) बैंक अंश पूँजी के लिए ऋण नहीं देता। यह निषेध सार्वजनिक वाली प्रायोजनाओं के सम्बन्ध में बहुत खटकने वाला है। क्योंकि इनके लिए साधारण विनियोक्ताओं को ऋण नहीं मिल पाता, एवं (v) बैंक के ऋण प्राप्त करने में बहुत समय लग जाता है। यह विलम्ब ऋण लेने वाले देश के लिए बहुत असुविधाजनक होता है।
  3. पक्षपातपूर्ण नियुक्तियाँ-आलोचकों का कहना है कि बैंक ने अधिकारियों की नियुक्ति में पक्षपात से काम लिया है और कम विकसित देशों को इसमें पर्याप्त भाग नहीं दिया है। यह आलोचना भी सही नहीं है, क्योंकि स्वयं कम विकसित देशों में ही प्रशिक्षित एवं अनुभवी अधिकारियों का अभाव है, जिस कारण बैंक को विवशतः विकसित देशों पर अधिक निर्भर होना पड़ा है।
  4. ऋण देने में पक्षपात- बैंक के विरुद्ध ऋण देने के मामले पर भी पक्षपात का आरोप लगाया जाता है, जो वास्तव में असत्य है, क्योंकि अधिकतर ऋण एशिया, अफ्रीका और केन्द्रीय व दक्षिणी अमेरिका के देशों को ही दिए गए हैं।
  5. ऊँची ब्याज- कहा गया है कि बैंक अपने दिए हुए ऋणों पर ऊँची ब्याज लगाता है। यह आलोचना भी गलत है। संसार के किसी भी देश में दीर्घकालीन ऋणों के लिए ब्याज की दर 9% से कम नहीं है। आलोचकों के इस अनुरोध में तो सार है कि एक विश्व संस्था होने के नाते विश्व बैंक की अविकसित देशों के प्रति, जो कि इसके ब्याज को देने में कठिनाई अनुभव करते हैं, उदारता दिखानी चाहिए। इस हेतु वह अपना कमीशन (जो कि 1% वार्षिक है) लेना बन्द कर सकता है। वैसे भी ब्याज दर एवं ऋणों की कठोरता सम्बन्धी शिकायतें अन्तर्राष्ट्रीय विकास परिषद (IDA) की स्थापना से दूर हो गई है।
  6. ऋणी देशों के साथ पक्षपात- विश्व बैंक के सदस्यों में ऋणी देशों की संख्या ऋणदाता देशों की अपेक्षा कहीं अधिक है, जिससे ऋणदाता देशों के हितों की अवहेलना होती है। किन्तु यह आलोचना भ्रम वश की गई है क्योंकि बैंक द्वारा दिए गए ऋणों के लिए उत्तरदायित्व सब सदस्यों पर संयुक्त एवं पृथक-पृथक हैं अर्थात ऋणों के लिए जोखिम सभी राष्ट्रों पर समान है। फिर ऋणियों को सुगम शर्तों पर ऋण दिया जाना कोई अनुचित बात भी नहीं है, क्योंकि ऐसी शर्तों के अभाव में उनका विकास करना कठिन होता है।
  7. निजी विनियोग अधिक अच्छे- कहा जाता है कि विश्व बैंक जैसी मध्यस्थ संस्था के अभाव में निजी विनियोक्ता अधिक उदार शर्तों पर ऋण देते और कम परेशानी होती। किन्तु यह आलोचना भी ठीक नहीं है। कारण विश्व बैंक निजी विनियोक्ताओं के विनियोगों में अड़चन नहीं डालता। वह तो तभी ऋण देता है जबकि निजी विनियोजक आगे नहीं बढ़ते। फिर बैंक के ऋण अधिक लम्बी अवधि के और कम ब्याज दर वाले होते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि विश्व बैंक विकासोन्मुख देशों को आर्थिक एवं तकनीकी सहायता देकर उसको विकास के पद पर बढ़ने में अपूर्व सहयोग दे रहा है। वह एक ऐसे पुल के रूप में कार्य कर रहा है, जिसके द्वारा विश्व के धनी और विकसित देशों की सहायता सुव्यवस्थित एवं निष्पक्ष ढंग से स्वतन्त्र विश्व के निर्धन देशों को प्राप्त हो रही है, ताकि ये भी विकास कर सकें और इस प्रकार विश्व में आर्थिक विकास समानता एवं भाईचारे की वृद्धि हो सके।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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