वर्तमान तुलनात्मक राजनीति की विभिन्न पद्धती | Various Methods of Current Comparative Politics in Hindi
वर्तमान तुलनात्मक राजनीति की विभिन्न पद्धती | Various Methods of Current Comparative Politics in Hindi
वर्तमान तुलनात्मक राजनीति की विभिन्न पद्धती – तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में विभिन्न अध्ययन-पद्धतियों का जन्म हुआ, जिनमें से मुख्य निम्नलिखित प्रकार हैं:-
- मार्क्सवादी-लेनिनवादी ढाँचों का जन्म,
- आधुनिकीकरण और राजनैतिक विकास के ढाँचों का जन्म,
- संरचनात्मक कार्यात्मक दृष्टिकोण,
- राजनीति का सांस्कृतिक दृष्टिकोण,
- व्यवस्था विश्लेषण सम्बन्धी दृष्टिकोण ।
(1) मार्क्सवादी-लेनिनवादी ढाँचों का जन्म
(Origin of Marxist and Leninist Framework)
मार्क्सवाद के केन्द्र बिन्दु को ‘द्वन्द्ववाद’ कहा जा सकता है। इसी के आधार पर उसके समस्त विचारों का जन्म हुआ। इनमें ‘वर्ग-संघर्ष’ ऐतिहासिक अध्ययन की भौतिकवादी व्याख्या और साम्यवाद की स्थापना मुख्य है। मार्क्स के अनुसार द्वन्द्ववाद का सिद्धान्त प्रत्येक युग में कार्य करता है और उत्पादक शक्तियों से मनुष्यों में विभिन्न वर्गों का जन्म होता है। ये वर्ग ही विचार और विरोधी विचार के रूप में सदा उपस्थित रहते हैं तथा नए वर्ग समन्वय के रूप में कार्य करते हैं। वर्गविहीन समाज की स्थापना के साथ इस वर्ग-संघर्ष का अन्त होगा तथा इसके साथ ही पूँजीवाद का अन्त भी स्वयं हो जाएगा। मार्क्स ने यह भी स्पष्ट किया है कि द्वन्द्ववाद के सिद्धान्त में आर्थिक शक्तियों में वास्तविकता निहित होती है।
मार्क्सवादी ढाँचा (Marxist Framework)- मार्क्सवादी विचारधारा में आर्थिक द्वन्द्ववाद को वास्तविक बताकर विशेष बल दिया गया है। मार्क्स ने आर्थिक नियतिवाद की रूपरेखा में भी इस भावना पर बल दिया है कि समाज में पूँजीवादी और श्रमिक वर्ग सदा ही विद्यमान रहता है तथा पूँजीवादी वर्ग ने सदा ही श्रमिक वर्ग का शोषण किया है। वास्तव में ये दोनों वर्ग सामाजिक तथा राजनैतिक क्षेत्र में शक्ति प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं, जिसमें अन्ततः पूँजीवादी वर्ग का विनाश ‘सर्वहारा वर्ग’ की विजय अवश्यम्भावी है। इसके लिए वह शोषित वर्ग को क्रान्ति के लिए भी प्रेरित करता है। मार्क्सवादी ढाँचा सर्वहारा वर्ग की स्थापना और वर्गीय अधिनायकत्व की ओर ध्यान देने के साथ-साथ राज्य की सत्ता को पूर्णरूप से समाप्त करने की भी चर्चा करता है।
लेनिनवादी ढाँचा (Lenins Framework)- लेनिन भी मार्क्स का पूर्ण अनुयायी था। परन्तु लेनिन का विचार था कि पूँजीवाद का अन्त सर्वहारा वर्ग द्वारा राजनैतिक साधनों के प्रयोग और बलपूर्वक हिंसा तथा क्रान्ति के आयोजन से सम्भव हो सकता है।
(2) संरचनात्मक कार्यात्मक दृष्टिकोण
(Structural Functional Approach)
यह दृष्टिकोण अमेरिकी विद्वानों की देन है तथा इसका प्रयोग तुलनात्मक अध्ययन के लिए विभिन्न व्यवस्थाओं के विषय में अपनाया जा रहा है।
संरचनात्मक कार्यात्मक दृष्टिकोण को कुछ विद्वानों ने ‘व्यवस्थामूलक विश्लेषण’ भी कहा है। इस दृष्टिकोण का मुख्य लक्ष्य किसी राजनैतिक व्यवस्था की रचना तथा उसके द्वारा प्रतिपादित अनेक कार्यों के साथ-साथ यह भी है कि यह व्यवस्था किन तत्वों से मिलकर हुई तथा उनके क्या कार्य हैं और ये संगठित होकर कौन से सामूहिक कार्यों को क्रियान्वित करने में ‘योग देते हैं। यह दृष्टिकोण एक राजनैतिक व्यवस्था के ‘इनपुट्स’ और ‘आउटपुट्स’ का ज्ञान कराता है और उनकी प्रक्रिया प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। इस दृष्टिकोण की विभिन्न विद्वानों-आलॅमण्ड, ईस्टन, एप्टर तथा हैरी एक्सटरीन आदि ने अलग-अलग प्रकार से व्याख्या की है।
(3) सैद्धान्तिक दृष्टिकोण
(Normative Approach)
वस्तुतः सैद्धान्तिक दृष्टिकोण वास्तव में सिद्धान्त पर निर्भर है। एक लेखक ने इस सम्बन्ध में कहा है-“तुलनात्मक राजनीति के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण का मुख्य बिन्दु विस्तृत और सम्पूर्ण समाज का अध्ययन है, जिसमें एक विशेष राजनीतिक व्यवस्था कार्यशील है।” दूसरे शब्दों में इस दृष्टिकोण को ‘मूल्यों का अध्ययन’ कहा जा सकता है।
सैद्धान्तिक दृष्टिकोण के आधार पर दार्शनिक पृष्ठभूमि का अभाव नहीं है। विश्लेषणात्मक दृष्टि से इसकी पृष्ठभूमि खोजने पर ज्ञात होता है कि लक्ष्यस्वरूप जिन मूल्यों को प्राप्त करने का उद्देश्य प्रत्येक राजनैतिक व्यवस्था के लिए निर्धारित किया गया है, उन्हें परस्पर बाँटने अथवा उनके क्रियान्वयन में भाग लेने तथा आधुनिकीकरण की समस्या का समाधान तथा प्रजातन्त्र की सफलता को पूर्व आवश्यकता आदि कहा जाता है। इसी कारण वर्तमान युग में प्रत्येक राजनैतिक व्यवस्था की मुख्य प्रक्रिया राजनीति के क्षेत्र में भी समाजीकरण की प्रक्रिया है। वास्तव में इस दृष्टिकोण में सिद्धान्तों के आधार पर कुछ मूल्यों को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। इस दृष्टिकोण के मानने वालों के अनुसार इन मूल्यों को प्राप्त करना आवश्यक है।
(4) व्यवहारवादी दृष्टिकोण
(Behavioral Approach)
वास्तव में व्यवहारवादी दृष्टिकोण को राजनीति में क्रान्तिकारी विचारों का जन्दृष्टिकोण गया है। इसने राजनैतिक वादों में दार्शनिक पृष्ठभूमि को निभाने के साथ-साथ राजनीति के अध्ययन में नये विचारों को ग्रहण करने के लिए विशेष पद्धतियों को जन्म दिया । इस दृष्टिकोण की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार हैं:-
(i) व्यवहारवादी दृष्टिकोण मूलतः अनुभवप्रधान दृष्टिकोण है तथा इसके अन्तर्गत अनुभवजन्य पद्धतियों के आधार पर अध्ययन करना अच्छा समझा जाता है।
(ii) व्यवहारवादी दृष्टिकोण वैज्ञानिक पद्धति का भी अनुसरण करता है। वैज्ञानिकों द्वारा संचित किए गए तुलनात्मक राजनीति के लिए निरूपित सिद्धान्तों का वैज्ञानिक पद्धति द्वारा निरन्तर विकास किया जा रहा है
(iii) यह दृष्टिकोण वैज्ञानिक पद्धति के लिए आवश्यक विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है।
(iv) व्यवहारवादी दृष्टिकोण अध्ययन की छोटी तथा गम्भीर अध्ययनयुक्त इकाइयों पर विशेष बल देता है।
व्यवहारवादी दृष्टिकोण द्वारा अपनाये गये विश्लेषण, गहन अध्ययन, वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग इसके मुख्य गुण हैं। इस दृष्टिकोण में अनेक दोष भी पाए जाते हैं, जैसे कि इस दृष्टिकोण में वैधानिकता का पूरा विकास नहीं हो सकता; क्योंकि इसके अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण में तटस्थता प्राप्त नहीं है। व्यहारवादियों द्वारा प्रयोग, परीक्षण स्थलों तथा विधियों से सम्बन्धित बहुत अधिक प्रतिबन्ध होते हैं। व्यवहारवादियों द्वारा प्रयुक्त साधन-यन्त्रों का विकास चरम सीमा तक पहुँचने पर भी उनको इस क्षेत्र में अधिक सफल नहीं कहा जा सकता । व्यवहारवादी अपने अध्ययन के लिए विभिन्न अध्ययन इकाइयों, विधियाँ तथा क्षेत्र निर्धारित करता है, इससे परीक्षणों तथा प्रयोगों और उनके विश्लेषण द्वारा परिणामों में भी विभिन्नता दिखाई देती है।
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि व्यवहारवादी दृष्टिकोण में अनेक अवगुण हैं, परन्तु फिर भी इसकी महत्ता को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
(5) व्यवस्था-विश्लेषण
(Systems Analysis)
प्राचीन युग में ‘राष्ट्र’, ‘सरकार’ या ‘राज्य’ आदि कही जाने वाली वस्तु वर्तमान युग में राजनैतिक व्यवस्था कही जाती है। ऑलमण्ड तथा पॉवेल के अनुसार प्राचीन युगीन शब्द वैधानिक’ तथा ‘संस्थात्मक’ भावना में विशेष रूप से लिये जाते हैं, जो प्राचीन एवं रूढ़िवादी विचारधारा है। परन्तु वर्तमा, युग में ‘राजनीति व्यवस्था’ की मान्यता अधिक प्रचलित हो गई है, इस कारण इसमें अधिक व्यापकता आ गई है।
कार्यात्मक दृष्टिकोण आधुनिक न होकर परम्परावादी विचारों से प्रभावित है। परन्तु वर्तमान युग में इन कार्यों का विश्लेषण आधुनिक है। क्योंकि राजनैतिक व्यवस्थाओं के कार्यों का विश्लेषण ‘समाजशास्त्रीय’ अवधारणाओं पर आधारित है।
राजनैतिक व्यवस्थाओं के विश्लेषण के लिए अनेक विद्वानों ने पर्याप्त आधारों की व्याख्या की है। ये व्याख्याएँ निम्नलिखित प्रकार हैं। ऑलमण्ड तथा पॉवेल ने सर्वप्रथम क्षमता को महत्व दिया है। नियामक, निस्सारक, वितरणात्मक तथा उत्तरदायी क्षमता की अवधारणाओं से हमें ज्ञात होता है कि एक व्यवस्था अपने वातावरण में किस प्रकार क्रियाशील है तथा यह वातावरण को किस प्रकार ढाल रही है तथा वातावरण में स्वयं किस प्रकार ढल रही है।
राजनैतिक क्षमताओं से सम्बन्धित द्वितीय आधार रूपान्तरकारी प्रक्रिया या परिवर्तनकारी प्रक्रिया है। ऑलमण्ड तथा पॉवेल ने इस सम्बन्ध में कहा है कि “राजनैतिक व्यवस्थाओं की प्रवृत्ति है कि वे इन परिवर्तनकारी कार्यों द्वारा इनपुट को आउटपुट में परिवर्तित कर देती है। इसी से क्षमताओं तथा परिवर्तनकारी प्रक्रियाओं में परस्पर सम्बन्ध हैं। दोनों आधारों के जोड़ने से विश्लेषण की प्रक्रिया और भी अधिक स्पष्ट हो गई है। वे छः उपायों तथा पद्धतियों एवं माँगों से सम्बन्धित विश्लेषण निम्नलिखित प्रकार हैं। ये इन परिवर्तनकारी प्रक्रियाओं तथा उस राजनैतिक व्यवस्था का अन्य राजनैतिक व्यवस्था से तुलना करने का आधार निर्मित करती हैं; जैसे-
(i) माँगें उत्पन्न किया जाना,
(ii) माँगों का कार्य के वैकल्पिक माँगों के रूप में संयुक्तीकरण,
(iii) इन नियमों का प्रयोग तथा लागू किया जाना,
(iv) आधिकारिक नियमों का निर्मित होना,
(v) नियमों एवं कानूनों का प्रयोग तथा व्यक्तिगत मामलों में निर्णय लिया जाना,
(vi) विभिन्न गतिविधियों का राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत तथा राजनैतिक व्यवस्था और उसके वातावरण के मध्य संचालन होना। इस विश्लेषण द्वारा व्यवस्था आदि का परिचय दिया जा सकता है।
व्यवस्था विश्लेषण प्रक्रिया का अन्तिम आधार किसी व्यवस्था के वे कार्य हैं, जिनके द्वारा वह स्वयं की रक्षा तथा उनके अनुसार अनुकूलन करता है। ऑलमण्ड तथा पॉवेल ने इन कार्यों को ‘व्यवस्था रक्षा सम्बन्ध और अनुकूलनकारी कार्य’ कहा है।
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