रूसो की निषेधात्मक शिक्षा | निषेधात्मक शिक्षा क्या है रूसो के शब्दों में बताइये
रूसो की निषेधात्मक शिक्षा | निषेधात्मक शिक्षा क्या है रूसो के शब्दों में बताइये
रूसो की निषेधात्मक शिक्षा पर संक्षिप्त लेख लिखिये।
जिस समय रूसों का शिक्षा-क्षेत्र में पदार्पण हुआ, उस समय शिक्षा में अनेक दोष थे। तत्कालीन समाज आदर्शवादी था। लोगों की धारणा थी कि बच्चा पाप की सन्तान है इसलिए उसे शुद्ध बनाना आवश्यक है। उस समय लोगों का विश्वास था कि शिक्षा ग्रहण करने के पूर्व बालक में अनेक प्रकार के विकार रहते हैं। इन विकारों का उन्मूलन शिक्षा द्वारा ही किया जा सकता है। रूसो ने इस विचारधारा का विरोध करते हुए कहा कि बालक पवित्र होता है। उसके पास जो कुछ है वह प्रकृति प्रदत्त है। इसलिए बालक पवित्र तथा निर्विकार होता है, उसमें विकार उस समय आते हैं, जब वह समाज के सम्पर्क में आता है। उस समय के शिक्षाशास्त्रियों की यह धारणा थी कि बच्चा छोटा प्रोढ़ है, इसलिए बच्चे को बच्चा न समझकर प्रोढ़ की तरह शिक्षित किया जाता था और प्रौढ़ों को दी जाने वाली शिक्षा उसे प्रदान की जाती थी बालकों को इसलिए तेयार किया जाता था कि बाल्यकाल में ही वे प्रौढ़ों के कार्य करने लगे। उस समय की शिक्षा बाल मनोविज्ञान पर विचार नहीं करती थी। बच्चों के स्वभाव, रुचियों तथा आवश्यकताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। बालकों के विकास पर कोई बल नहीं दिया जाता था। बालका की बौद्धिक शक्ति का विकास करना शिक्षा का उद्देश्य था। बालकों को नैतिकता तथा चरित्र की शिक्षा दी जाती थी जो बालकों की प्रवृत्ति के विपरीत थी। इसलिए रूसों ने उस काल की शिक्षा का विरोध करते हुए लिखा है, “उस क्रूर शिक्षा के बारे में क्या सोचा जाय जो वर्तमान को अनिश्चित भविष्य की बलि पर चढ़ा देती है। बालकों के ऊपर अनेक प्रकार के बन्धन लाद देती है, उस काल्पनिक सुख के लिए जिसको वह शायद कभी न भोग सकेगा। बहुत पहले ही उसे दुखी बना दिया जाता है।”
अतः रूसो का मत है कि बालकों की क्रियाओं में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप कल्याणकारी नहीं है। 12 वर्ष तक उसे किसी प्रकार की शिक्षा, मौसखिक शिक्षा, पुस्तकीय ज्ञान, आदेश-निर्देश, प्रवचन तथा उपदेश देना व्यर्थ ही नहीं है अपितु उसके स्वाभाविक अन्तर्निहित गुणों तथा शक्तियों के विकास को अवरुद्ध कर देना है। किसी भी प्रकार का हस्तक्षप बालक को कुण्ठित कर देता है। बच्चे को एक निर्बन्ध झरने की भांति बहने दिया जाय और उसे गतिशील रहने दिया जाय। रूसो के अनुसार पढ़ने-लिखने की बात तो दूर है, 12 वर्ष तक की अवस्था एक एमील को पुस्तक का नाम भी नहीं जानना चाहिए। रूसो ने इस प्रकार की शिक्षा का ही निषेधात्मक शिक्षा कहा है और यह सलाह दी है कि पहली शिक्षा ऐसी हो जिसमें सत्य और गुण के सिद्धान्तों का अंश भी न हो परन्तु हृदय को बुराइयों से बचाने तथा दिमाग की त्रुटियां से रक्षा करने की व्यवस्था अवश्य हो। इसी बात का समर्थन करते हुए मुनरो ने भी कहा है, “The first education them should be purely negative. It consists not in teaching the principles of virtue or truth but in guarding the heart against vice and mind against errors.” रूसी ने कहा है कि मैं निषेधात्मक शिक्षा उसे कहता हूं जो प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान देने के पहले उन अंगों को पूर्ण बनाने का प्रयास करती है जो ज्ञान -प्राप्ति के उपकरण हैं और जो इन्द्रियों के समुचित अभ्यास द्वारा तर्क के लिए मार्ग प्रशस्त करते हें। निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ निकम्मेपन की कालावधि नहीं है बल्कि इसके विपरीत है। निषेधात्मक शिक्षा गुण नहीं देती अपितु पाप से बचाती है। सत्य का ज्ञान नहीं देती बल्कि भ्रम से बचाती है। वह बालक को सत्य की ओर ले जाने, समझने तथा अपनाने के लिए तैयार करती है। वह बच्चे को उस रास्ते पर ले आती है जो बड़ा होने पर उसे सत्य को समझने के योग्य बनाती है। जो ज्ञान उसे अच्छाई की और ले जाएगा और उसे अच्छाई को पहचानने और आत्मसात करने की क्षमता फ्रदान करगा।
इस प्रकार निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ है बालक को उसके स्वभाव, रुचि अर प्रकृति के विरुद्ध कुछ भी न सीखना। शैशव काल में केवल शिशु के शारीरिक विकास की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में अपनी क्रियाओं के स्वाभाविक परिणामों द्वारा नैतिक आदर्शों का ज्ञान प्राप्त करना ही निषेधात्मक शिक्षा है। निषेधात्मक शिक्षा में बालक के कोमल मन तथा बाल सुलभ भावनाओं के नैसर्गिक विकास पर बल दिया जाता है। वह हर प्रकार कृत्रिमता से मुक्ति का प्रयास है। बालक अनेक प्रकार के बन्धनों से जकड़ा हुआ है। रूसो ने अपनी निषेधात्मक शिक्षा द्वारा उसे हर प्रकार की मुक्ति दिलाकर उसके स्वाभाविक विकास का मार्ग प्रशस्त किया।
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