शिक्षाशास्त्र / Education

शैक्षिक अर्थशास्त्र का क्षेत्र | scope of educational economics

शैक्षिक अर्थशास्त्र का क्षेत्र | scope of educational economics

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सर्वप्रथम जीवन-स्तर ऊँचा होने के साथ-साथ परिवार में ऐसी मनोवैज्ञानिक एवं भौतिक अवस्थाएँ पैदा हो जाती हैं जो नच्चों को और अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन देती हैं। इस दृष्टिकोण से देखने पर शिक्षा को उपभोग की एक ऐसी वस्तु माना जा सकता है जिसका उपभोग जीवन-स्तर के अनुपात में बढ़ता है। मोटे तौर पर हम यह कह सकते है कि शिक्षा के प्रसार की अनुभूति अधिकांशत: आर्थिक प्रगति के अनुरूप होती है। साथ ही तकनीकी प्रगति मनुष्य को छोटे-छोटे कामों से छुटकारा दिलवाती और नवयुवकों को विद्यालय में अधिक समय व्यतीत करने की सुविधा भी करती है। तकनीकी प्रगति के कारण पूरी अर्थव्यवस्था की अवधि में कुशल एवं उच्च-शिक्षित जनशक्ति की मांग होने लगती है। इस प्रकार आर्थिक प्रगति के साथ-साथ सम्पूर्ण श्रम शक्ति की सामान्य शिक्षा का उच्च स्तर बनाये रखने की तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण देने की आवश्यकता होती है। अत: जीवन को नवीन स्वरूप देना शिक्षा का ही कार्य है।

मोर्डल (1962) विकास-प्रक्रिया द्वारा विकसित होने वाले आधारभूत तत्वों को तीन शब्दों में समाहित किया है- गतिशीलता, उद्यम, तथा तर्कसंगत।

  1. गतिशीलता (Mobility) – पुरातनपंथी सामाजिक ढांचे के मनुष्य को भौतिक, सामाजिक एवं मानसिक गतिशीलता प्रदान करती है। इसे समरूपता अर्थात् परिवर्तन ग्राक्षता तथा नई परिस्थितियों में सार्थक कार्य करने की क्षमता भी कहा जा सकता है।
  2. उद्यम (Enterprise) – किसी नये कार्य के लिए पहल करने में, अपने पर्यावरण के विकास करने में तथा सामाजिक विकास के लिए आवश्यक ऊर्जा-शक्ति जुटाने में शिक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  3. तर्कसंगत (Rationality) – केवल शिक्षा हमें इस बात के लिए प्रेरित करती है कि जाँच-परख के बाद ही किसी बात पर विश्वास करें। किसी भी बात को बिनां सोचे-समझे न स्वीकार करें। हम पहले उसका बारीकी से विश्लेषण करें तथा भविष्य के प्रति सजग रहते सभी विकल्पों को सामने रखकर सही मार्ग चुनें।

शिक्षा का आर्थिक तथा सामाजिक विकास का आवश्यक एवं वास्तविक कारक मानते हुए शुचोडोल्स्की (1966) ने लिखा है कि-

“आधुनिक सभ्यता की प्रगति एवं विकास केवल उच्च स्तरीय एक दीर्घ अवधि पर आधारित शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है । ऐसी शिक्षा केवल सज्जा की वस्तु नहीं हो सकती, अपितु शिक्षा को देश के सामाजिक जीवन में एक यथार्थ कारक तथा प्रगति का आवश्यक अंग बनना चाहिए।”

हरबिसन तथा मायर्स, 1970 ने 70 विकसित देशों के अपने अध्ययन में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) तथा लेखकों द्वारा निर्धारित मानव साधन निर्देशकों के मध्य 888 को परस्पर सम्बन्ध पाया है।

इस प्रकार आस-पास के समाज को अलग अलग रखकर हम कोई भी राजनीतिक तथा आर्थिक प्रश्न हल नहीं कर सकते। शिक्षा की परिभाषा के अन्तर्गत पाठशाला में शिक्षा, सेवा काल में प्रशिक्षण, विस्तार सेवाएँ तथा जनसंचार मात्र को सम्मिलित करने से मानव जीवन के अन्य पहलू छूट जाते हैं। वास्तव में शिक्षा औपचारिक स्कूली शिक्षा के अतिरिक्त भी कार्यशील है। बोमैन तथा एडरसन ( 1942) के अनुसार- संसार के देशों के विकास में एक अत्यधिक महत्वपूर्ण कारक अर्थात मानव-संसाधन को जुटाने में शिक्षा की अद्वितीय भूमिका है। शिक्षा मनुष्य की जागरूकता तथा सम्प्रेषण -क्षमता को बढ़ाती है तथा उसे आवश्यक व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करती है। इस प्रकार शिक्षा उत्पादन के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण कारक बन गकती है तथा देश के आर्थिक विकास एवं आधुनिकीकरण में सक्रिय योगदान दे सकती है। अतः स्पष्ट है कि-

शिक्षा वर्तमान समय में वास्तव में आधुनिकीकरण की कुंजी है उसमें भाग लेने वाला समाज अर्थात् ऐसा समाज जिसके नागरिक विद्यालयों में पढ़े हों, समाचार-पत्र पढ़ते हो, मजदूरों और विपणन अर्थव्यवस्था के अंग हों, चुनाव के द्वारा राजनीति में भाग लेते हो तथा सार्वजनिक महत्व के मामलों पर अपनी सम्मत्ति बदलने की क्षमता रखते हों। शहरीकरण, साक्षरता, जनसंचार, माध्यम की भूमिका तथा राजनीतिक भूमिका कारकों में परस्पर बहुविधि सह-सम्बन्ध है। इसमें से प्रत्येक कारण अन्य तीन कारकों से सह-सम्बन्धित है। परम्परागत से संक्रमणशील समाज के निर्माण की प्रक्रिया में साक्षरता की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण एवं परिवर्तनीय कारक के रूप में है। साथ ही साक्षरता समाज को संक्रमणशील से प्रतिभागी समाज बनाने में भी मुख्य भूमिका निभाती है। (लर्नर 1958 ) के अनुसार विकास की धारणा में सदा से परिवर्तन होता रहा है। प्रारम्भिक धारणा के अनुसार विकास का अर्थ था उत्पादन के क्षेत्र में विज्ञान एवं तकनीकी प्रयोग करके अपने नागरिकों के लिए प्रणालीबद्ध विधि से सामान तथा सेवाओं को जुटाने की क्षमता में वृद्धि करना।

फुयुएनजेलिडा (Fuenzailda1985), के मत में विकास की वर्तमान धारणा के अनुसार यह विश्व के स्तर पर समाज के परिवर्तन की एक ऐसी प्रक्रिया है जो-

(1) सरकारों तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से तथा सम्बद्ध क्षेत्र के निवासियों की सहमति एवं योगदान से नियोजित की जाती है।

(2) संसार के विभिन्न क्षेत्रों में, सम्बद्ध क्षेत्र के निजी एवं आर्थिक प्रणालियाँ तंत्रों के योगदान से पूरी की जाती है।

(3) सम्बद्ध क्षेत्र में माल तथा सेवाओं की सतत वृद्धि करने की क्षमता पैदा होती है।

(4) प्रभावित समुदाय की सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखती है।

(5) सुविचारित ढंग से ऐसे संसाधनों के उपभोग का नियमन करती है जो पुन: पैदा नहीं किये जा सकते तथा इस बात को सुनिश्चित करती है कि पुनः उत्पादन के योग्य संसाधनों का वास्तव में पुनः उत्पादन हो सके।

(6) इस प्रकार उत्पादित नई सम्पदा का उचित भाग इस प्रक्रिया में भाग लेने वाले लोगों, परन्तु विशेषतः प्रभावित समुदाय के सबसे निर्धन सदस्यों को प्रदान करती है।

प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि अविकसित देशों में शिक्षा वहाँ के राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में असफल रही है । ऐसे देशों की आर्थिक विकास की तीव्र प्रगति के मार्ग में अनभिज्ञता, निरक्षरता, श्रमशक्ति के प्रशिक्षण का अभाव इत्यादि बाधाओं का व्यापक रूप से पाया जाना है। आर्थिक विकास आवश्यक रूप से तकनीकी प्रगति से सम्बन्ध रखती है तथा तकनीकी प्रगति पर्याप्त संख्या में आवश्यक कुशल श्रमशक्ति की उपलब्धता पर निर्भर करती है। यूरोप तथा अमरीका जैसे विकसित देशों की आर्थिक प्रगति वहाँ के विज्ञान तथा तकनीकी प्रगति तथा आधुनिक कुशलता एवं वैज्ञानिक जानकारी से युक्त श्रमशक्ति के निर्माण के कारण है। जापान, नीदरलैण्ड तथा स्विट्जरलैण्ड जैसे अनेक देशों का अनुभव यह बताता है कि जिस देश के पास एक उच्च कुशल श्रमशक्ति है वह देश बिना अधिक संसाधनों के भी ऊँचा स्तर प्राप्त कर सकता है। अत: अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि विकासशील देशों में एक सीमा तक पूँजी-निर्माण के अन्य तरीकों की अपे्षा मानव संसाधन पर निवेश करना अधिक लाभदायक सिद्ध होता है।

अतः इस धारणा के अनुसार मानव संसाधन को पूँजी के रूप में निवेशित करने की महत्ता अग्रणी हो जाती है। अब मानव-पूँजी का योगदान भौतिक पूँजी के समान महत्वपूर्ण माना जाने लगा है तथा अधिकांश उत्पादन दर की व्याख्या मानव-पूँजी के सन्दर्भ में की जाने लगी है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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