इतिहास / History

पूर्वी रूमानिया का वलगारिया के साथ मिलाप | अमोनिया का हत्याकाण्ड | यूनान-टर्की युद्ध | तरूण तुर्क क्रान्ति तथा उसके परिणाम

पूर्वी रूमानिया का वलगारिया के साथ मिलाप | अमोनिया का हत्याकाण्ड | यूनान-टर्की युद्ध | तरूण तुर्क क्रान्ति तथा उसके परिणाम | Union of Eastern Rumania with Bulgaria in Hindi | Armenian Massacre in Hindi | Greeco-Turkish war in Hindi | Turkish Revolution and its results in Hindi

(i) पूर्वी रूमानिया का बलगारिया के साथ मिलाप

(Union of Eastern Rumania With Bulgaria)-

सान स्टीफेनो की सन्धि के अनुसार बृहत् बलगारिया (Great Bulgaria) को निर्मित किया गया था, परन्तु 1878 में हुई बलिन कांग्रेस (Berlin Congress) के निर्णयों द्वारा उसे फिर से अनेक टुकड़ों में विभक्त कर दिया गया था। इंगलैण्ड बृहत् बलगारिया को रूस की शक्ति में वृद्धि मानकर उसका विरोधी था। इसीलिये डिजरायइली (Disraeli) द्वारा टर्की (Turkey) और रूस (Russia) के बीच दो राज्यों की स्थापना की गई । मेसीडोनिया (Macedonia) को पुनः तुर्क सुल्तान के साम्राज्य का एक भाग बना दिया गया तथा पूर्वी रूमानिया का गवर्नर् एक तुर्क अधिकारी को नियुक्त किया गया। बलगारिया के विशाल राज्य का आकार छोटा करते हुये उसे बलकान पर्वतों तथा डेन्यूब नदी (River Danube) के मध्यवर्ती प्रदेश में सीमित कर दिया गया। बलगारिया के इस संक्षिप्त रूप पर रूस का नियन्त्रण स्वीकार किया गया। बलगारिया की जनता इस विभाजन के विरुद्ध थी तथा पूर्वी रूमानिया (Eastern Rumania) के निवासियों को अपना जाति भाई समक्षते हुये उन्हें अपने साथ मिलाने के पक्ष में थी। वह इस प्रकार दोनों राज्यों का संयोग करके स्वयं को शक्तिशाली और प्रभावपूर्ण बनाना चाहती थी।

बलगारिया का संविधान (Constitution of Bulgaria)-बलगारिया में उस समय रूसी कर्मचारियों का शासन था। अतः वलगारिया का नवीन संविधान गणतन्त्रात्मक तथा एक तन्त्रीय शासन का मिश्रण था। इस प्रकार के संविधान को बनाने का प्रधान उद्देश्य बलगारिया पर जार के शासन को स्थिर रखना तथा वहाँ के शासन और लोकसभा दोनों को एक-दूसरे के नियन्त्रण में रखना था। संविधान में एक विधान सभा की व्यवस्था की गई तथा मत देने का अधिकारी प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को माना गया। मन्त्रीमण्डल को विधान सभा के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाया गया तथा जार को संविधान सभा को भंग करने का अधिकार प्रदान किया गया। 1869 ई० में उस संविधान को बलगारिया में लागू किया गया, तथा रुस के जार के भतीजे एलेक्जेण्डर (Alexander) को, जो जर्मनी के ब्रिटेनवर्ग (Brettenburg) राज्य का राजकुमार था, बलगारिया के शासक का पद प्रदान किया गया। वह जार का पक्का समर्थक था।

बलगारिया के शासक की कठिनाइयाँ (Difficulties before Alexander the ruler of Bulgaria)-  बलगारिया के शासक एलेक्जेण्डर के समक्ष अनेक कठिनाइया, थी, जिनका निराकरण करना उसके लिये अत्यावश्क था। रूसी कर्मचारी बल्गारिया-निवासियों को कठोर नियन्त्रण में रखें थे तथा स्वयं को बलगारिया के शासक के बजाय रूस के जार के अधीन मानते थे। अत: वे प्रशासनिक कार्यों में ऐलेक्जेडर के आदेशों का उल्लंघन करते रहते थे! उनके इस व्यवहार का विरोध करते हुए एलेक्जेण्डर ने कहा था कि जार के प्रति में पूर्ण रूप से श्रद्धा से रखता हूँ तथा कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहता हूँ जो रूस-विरोधी माना जाए। परन्तु मुझे इस बात का बहुत दुख है कि बलगारिया में रूसी कर्मचारी बड़े अनुत्तर दायी ढंग से कार्य कर रहे हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जिस दिन मुझे रूसी मांगों को स्वीकार न करना पड़ता हो।” बल्गारिया को संविधान सभा भी रूस का विरोध कर रही थी। अत: इस स्थिति से निपटने के लिए एलेक्जेण्डर ने प्रकट किया कि या तो उसे सभी प्रकार के प्रशासनिक कार्यों को करने का पूर्ण अधिकारी समझा जाए या फिर मेरा त्याग-पत्र स्वीकार किया जाये। उनके साथ ही उसने नवीन संविधान तथा संविधान सभा को भंग कर दिया और शासन सम्बन्धी समस्त कार्यों पर अपने नियन्त्रण की कठोरता के साथ स्थापना की।

पूर्वी रूमानिया का बलगारिया के साथ मिलाप (Union of Eastern Rumania with Bulgaria)-  सन् 1884 ई० में स्टीफना स्टेम्बुलाफ (Stelano Stembulaf) को फिर से निर्वाचन कराकर विधान सभा का अध्यक्ष बनाया गया। उनके प्रभावशाली भाषणों ने यस और बलगारिया में मतभेदों की खाई बहुत गहरी कर दी। उधर रूमानिया की जनता ने बलगारिया (Bulgaria) के साथ मिलने का आन्दोलन आरम्भ किया, जिसे बलगारिया के देशभक्तों ने पूरी तरह से अपना सहयोग प्रदान किया। 18 दिसम्बर 1885 ई० के दिन तुर्क गवर्नर गोमिल पाशा (Gomil Pasha) रूमानिया की जनता के विद्रोह से डरकर रूमानिया से भाग गया। रूमानिया की जनता के नेताओं ने बलगारिया (Bulgaria) के साथ मिलाप की उसी दिन घोषणा कर डाली। बलगारिया के शासके एलेक्जेण्डर को सोच-विचार में पड़ा देखकर स्टीफेन स्टेम्बुलाप (Stefen Stembular) द्वारा एलेक्जेण्डर के सामने दो शर्ते रखी गई तथा उनमें से किसी एक को तुरन्त स्वीकार करने का आग्रह किया। वे दो शर्ते इस प्रकार थीं-(1) संयुक्त बलगारिया का निर्माण करके राजमुकुट को धारणा करना । (2) राजसिंहासन से त्याग-पत्र देना। एलेक्जेण्डर को विवश होकर प्रथम शर्त स्वीकार करनी पड़ी जिसके अनुसार 21 दिसम्बर, 1885 को पूर्वी रूमानिया और बलगारिया को आपस में मिलाकर संयुक्त राज्य बना दिया गया।

(2) यूरोपीय शक्तियों की प्रतिक्रिया (Reaction of European Powers)-  रुस के जार ने संयुक्त बलगारिया के निर्माण का भारी विरोध किया और तुर्क सुल्तान (Porte) को वलगारिया पर आक्रमण करने का परामर्श दिया। तर्क मुल्तान ने यूरोपीय शक्तियों के विरोध की आशंका से भयभीत होकर बलगारिया पर आक्रमण नहीं किया इंगलैण्ड (England) द्वारा संयुक्त बलगारिया के निर्माण का स्वागत किया गया क्योंकि वह समझ गया था कि संयुक्त बलगारिया के रूप में रूस के एक कट्टर विरोधी का यूरोपीय राजनीति में उदय हो गया है । परन्तु सर्बिया (Serbia) ने रूमानिया (Rumania) और बलगारिया (Bulgaria) के इस संयोग का बहुत अधिक विरोध किया। इसके पश्चात् सर्विया ने बलगारिया पर आक्रमण कर दिया। बलगारिया की सेना द्वारा सर्विया के सैनिकों को पराजित कर दिया गया। अब बलगारिया द्वारा सर्बिया पर आक्रमण कर दिया गया। आस्ट्रिया के सम्राट को विवश होकर आक्रमण का विरोध करना पड़ा। उसने बलगारिया को “कठोर चेतावनी” देते हुए कहा कि-“बलगारिया को अपनी सेनाएं तुरन्त सर्बिया से हटा लेनी चाहिये । आस्ट्रिया किसी भी दशा में सर्बिया को पराजित होना सहन नहीं करेगा।” बलगारिया को अपनी सेना सर्बिया से हटा लेनी पड़ी और युद्ध की समाप्ति हो गई। तुर्क सुल्तान ने भी 1886 ई० में संयुक्त बलगारिया को मान्यता प्रदान की।

अलेक्जेण्डर का त्याग-पत्र तथा फडीनेण्ड की राजपद पर नियुक्ति- 11 अगस्त 1886 ई० को रात्रि के समय कुछ रूसी सैनिक बल्गारिया के शासक अलेक्जेण्डर को पकड़कर रूस के जार के समक्ष ले गये। जार ने अलेक्जेण्डर को भय दिखाकर उससे त्यागपत्र लिखा लिया। अलेक्जेण्डर को लिखना पड़ा कि- “रूस ने मुझे राजमुकुटु प्रदान किया था, अब उस राजमुकुट को रूस के सम्राट को वापिस करने के लिये तैयार हूँ।” बलगारिया के देशभक्तों को जब इस त्यागपत्र की सूचना मिली तो वे बहुत अप्रसन्न हुए। उन्होंने 1 जुलाई, 1887 ई. को विधान सभा से प्रस्ताव पास कराया कि बलगारिया के राजसिंहासन को बर्थ गोथा के राजकुमार फडनिण्ड को दिया जाये। रूस द्वारा इस प्रस्ताव का विरोध किया गया, परन्तु जर्मनी और आस्ट्रिया का समर्थन प्राप्त करके राजकुमार फडीनेण्ड ने प्रस्ताव कर अपनी स्वीकृति बलगारिया की संविधान सभा के पास भेज दी। 14 अगस्त, 1887 ई० को बड़ी धूम-धाम के साथ राजकुमार फडीनेण्ड Ferdinend संयुक्त बलगारिया के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। उसके पश्चात् 1895 ई. तक प्रशासनिक कार्यों का संचालन स्टोफन स्टेम्बुलाफ (Stefen Stembulal) द्वारा किया जाता रहा। राजा फडीनेण्ड ने उकताकर 1895 ई० में स्टेम्बुलाफ का वध करा दिया। अब बलगारिया के शासन पर फडीनेण्ड का पूर्णरूप से अधिकार हो गया। इसी वर्ष उसने रूस के साथ समझौता करके अपने शासक होने की स्वीकृति जार से भी प्राप्त कर ली। 1896 ई० में तुर्क सुल्तान ने भी फडीनेण्ड को बलगारिया के शासक के रूप में मान्यता प्रदान की।

इस प्रकार रूमानिया और बलगारिया का मिलाप पूर्ण हुआ और संयुक्त बलगारिया के विशाल और शक्तिशाली राज्य की स्थापना हुई।

(ii) आर्मीनिया का हत्याकाण्ड

(Armenia Massacre)-

बर्लिन कांग्रेस के निर्णय के अनुसार आर्मीनिया (Armenia) तुर्क् सुल्तान के साम्राज्य में ही रहने दिया गया। इंगलैण्ड (England) द्वारा तुर्क सुल्तान से आश्वासन प्राप्त किया गया कि आर्मीनिया की ईसाई पूजा के साथ सुल्तान के कर्मचारी अच्छा व्यवहार करेंगे तथा वहाँ के शासन में भी प्रजा को लाभ पहुंचाने के लिये सुधार लागू किये जायेंगे। परन्तु तुर्क सुल्तान (Portc) द्वारा इस आश्वासन को फाड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। उसने आर्मीनिया के ईसाइयों का कठोरता के साथ दमन करने का निश्चय किया। अतः सुल्तान के संकेत पर सरकारी कर्मचारी आर्मीनिया की ईसाई प्रजा को तरह-तरह से कष्ट पहुँचाने लगे।

हत्याकाण्ड का आरम्भ (Beginning of Massacre)-  तुर्क सुल्तान का विचार था कि बलगारिया के समान ही एक न एक दिन आर्मीनिया (Armenia) से भी हाथ धोने पड़ेगें। अत: उसने अमीनिया की ईसाई प्रजा को जड़ मूल से ही नष्ट करने का कार्य आरम्भ किया। 1894 और 1895 ई० में आर्मीनिया के लाचार ईसाइयों के रक्त की नदियाँ बहाई गई। लगभग 50 सहस्त्र ईसाइयों को, जो आर्मीनिया के विभिन्न भागों में बसे थे, लूटमार और हत्याकाण्ड का शिकार बनाया गया। 1896 ई० में कत्लेआम का केन्द्र तुर्की (Turkey) राजधनी कुस्तुन्तुनिया (Constantinople), को बनाया गया । वहाँ को ईसाई पूजा ने यूरोपीय शक्तियों द्वारा आर्मीनिया की ईसाई जनता की रक्षार्थ कुछ न किया जाते देखकर तुर्के सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। तुर्क सुल्तान ने विद्रोहियों का कठोरता के साथ दमन कराया। अत: राजधानी की गलियों में केवल एक ही दिन में छह सहस्त्र से भी अधिक ईसाई स्त्री, पुरुषों और बालकों का वध कर दिया गया। इस कत्ले आम का यूरोपीय शक्तियों द्वारा कोई विरोध नहीं किया गया जिसका प्रधान कारण रूस और इंगलैण्ड में मत भेदों का प्रबल होना था। रूस् आरम्भ से ही आर्मीनिया का विरोधी बना हुआ था, क्योंकि आर्मीनिया की जनता ने रूस के निहिलिस्टों (Nihilists) के कार्यों का समर्थन किया था। इसके अतिरिक्त रूस और आमीनिया के ईसाइयों का धर्म भी एक सा न था। अतः धार्मिक विभिन्नता के कारण भी रूस को आर्मीनिया के साथ सहानुभूति नहीं थी। रूस ने बलगारिया का निर्माण किया था, किन्तु उसकी कृतघ्नता के कारण वह अब कोई और नवीन एवं कृतघ्न देश यूरोप में स्थापित किये जाने के पक्ष में नहीं था। उस समय वह अपने साम्राज्य का विस्तार पूर्व की ओर करने में लगा हुआ था। अत: उसका ध्यान आर्मीनिया की घटनाओं की ओर आकर्षित नहीं हुआ। इन्हीं कारणों से रूस ने आर्मीनिया में तुर्क सुल्तान द्वारा कराये हत्याकाण्ड का प्रभावशाली ढंग से विरोध नहीं किया।

उधर जर्मनी के सपाट से तुर्क सुल्तान के साथ मित्रता के सम्बन्ध स्थापित हो गए थे। अतः उसने तुकी का विरोध करना उचित नहीं समझा। आस्ट्रिया का सम्राट भी जर्मन सम्राट विलियम द्वितीय का मित्र होने के कारण आमीनिया के हत्याकाण्ड की आलोचना नहीं कर सका । फ्रांस और इंगलैण्ड में उस समय मिस (Egypt) के प्रश्न पर आपसी सम्बन्धों में बिगाडु उत्पन्न होने लगा था। अतः फ्रांस इस प्रश्न पर चुप हो रहा और उसने आर्मोनिया में कराये गये तुर्क सुल्तान के कुकर्मों और अत्याचार का विरोध नहीं किया । इंगलेण्ड भी उस समय युद्ध कर्ने की स्थिति में नहीं था। अत: उसने भी केवल मौखिक विरोध ही किया। तुर्क सुल्तान यूरोपीय शक्तियों की इस फूट से परिचित था। अत: उसने इंगलैण्ड के विरोध को चिन्ता न करते हुए आर्मीनिया में अत्याचारों को जारी रखा। आर्मीनिया को जनता को भौषण यातनायें सहन करनी पड़ी। इंगलैण्ड के प्रधान मन्त्री लार्ड सेलिसबरी (Lord Salisbury) को यह कहना पड़ा कि-“टी का समर्थन करके इंगलैण्ड ने गलत घोड़े पर दांव लगाया है।

(iii) यूनान टर्की युद्ध

(Greece Turkey War)

यूनान के असन्तोष में वृद्धि के कारण (Causes of Increment in dissatisfaction of Greece)-  1878 को बर्लिन कांग्रेस के समय यूनान को अपने प्रदेशों में वृद्धि की जाने की पूर्ण आशा थी, परन्तु बर्लिन की कांग्रेस द्वारा यूनान की अभिलाषा की पूर्ति नहीं की गई। अतः यूनान में असन्तोष की मात्रा प्रबल होने लगी, जिससे उसका तुर्की के साथ युद्ध आरम्भ होने की सम्भावना उत्पन्न हुई।

युद्ध की धमकी (Ultimatum of War)-  यूनान ने अपनी असन्तुष्टि के दौर में तुर्क सुल्तान के साथ युद्ध करने का निर्णय किया और सुल्तान को युद्ध करने की चेतावनी दो, परन्तु यूरोपीय शक्तियाँ उस समय बलकान प्रदेश में किसी भी दशा में युद्ध नहीं होने देना चाहती थीं। अतः उनके द्वारा यूनान (greece) को तुर्की के विरुद्ध हथियार उठाने से रोक दिया गया। इंगलैण्ड के प्रधानमन्त्री ग्लैडस्टोन (Gladstone) द्वारा यूनान को शान्त करने के लिये तुर्क सुल्तान से 1891 ई० में एपिरस (Epirus) तथा थेजले (Thessley) के कुछ भाग यूनान को दिला दिये गए।

क्रीट का यूनान को प्राप्त न होना (Non to get Cretc)-यूनानियों और क्रीट टापू के निवासियों की संस्कृति और धर्म एक दूसरे से मिलते-जुलते थे। इसके अतिरिक्त क्रीट का विशाल द्वीप यूनान मुख्य भूमि से कुछ ही अन्तर पर स्थित था। अत: यूनान की यह प्रमुख इच्छा थी कि वह क्रोट को अपने राज्य में मिला ले। उधर क्रीट की जनता भी यूनानियों के साथ मिलना चाहती थी। 1830 ई. से 1930 ई० तक क्रोट वासी 14 बार तुर्क शासन का जुआ अपने कन्धों से उतार फेंकने के लिये विद्रोह कर चुके थे। 1896 ई० और 1897 ई० में भी कीट में तुर्क सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा ऊंचा किया गया परन्तु सुल्तान द्वारा सुधारों का आश्वासन देकर विद्रोह को शान्त कर दिया गया। अतः यूनान टर्की युद्ध का प्रमुख कारण क्रोट का यूनान में न मिलाया जाना था।

तत्कालीन कारण (Immediate Cause)-  क्रीट के अत्यधिक प्रभावशाली नेता का नाम वेनीजेलोस (Venezelos) था। वह भी क्रीट और यूनान के संयोग का समर्थक था। उसने अपने उत्तेजनात्मक भाषणों द्वारा कीट की जनता से तुर्क शासन के विरुद्ध विद्रोह करा दिया। यूनान की सरकार ने अपनी सेना क्रीटवासियों की सहायतार्थ भेज दी जिसके परिणामस्वरूप 1897 ई० में यूनान (Greece) और तुर्की (Turkey) के मध्य युद्ध आरम्भ हो गया।

युद्ध की घटनायें (Events of War)

तुर्क सुल्तान (Porie) द्वारा यूनान के विरूद्ध युद्ध की घोषणा करके युद्ध आरम्भ कर दिया गया। यह युद्ध केवल 30 दिनों तक लड़ा गया था। यूनान का युद्ध की तैयारी किये बिना ही युद्ध-क्षेत्र में अपनी सेनाएं भेजनी पड़ी थीं। तुर्क सुल्तान की जर्मन सैनिकों को प्रशिक्षण देने वाले प्रशिक्षकों से युद्ध कला की शिक्षा मिली थी। अतः युद्ध-कला में प्रशिक्षित एवं आधुनिक हथियारों से सुसज्जित तुर्क सेना को यूनानी सेना को हटाने में अधिक परेशानी नहीं उठानी पड़ी। अत: एक माह की अवधि के अन्तर्गत यूनानी सेना को कई मोचों पर तुर्क सेना से बुरी तरह पराजित होना पड़ा। उस समय यूनान पर तुर्क सुल्तान का अधिकार होना सभी को सम्भव दिखाई देने लगा था। परन्तु यूरोपीय राष्ट्र यह नहीं चाहते थे कि इस युद्ध का प्रसार सम्पूर्ण बुलकान प्रायः द्वीप पर हो जाय । अत: उनके द्वारा दोनों पक्षों पर युद्ध बन्द करने के लिये दबाव डाला जाने लगा और दोनों को युद्ध बन्द करना पड़ा।

युद्ध के परिणाम (Consequence of War)-  दोनों पक्षों में एक सन्धि सम्पन्न हुई. जिसके अनुसार यूनान् को युद्ध को क्षतिपूर्ति के रूप में पर्याप्त धनराशि तुर्क सुल्तान को देनी पड़ी। यूनान को सन्धि के आधार पर थेजले (Thessley) का कुछ भाग तुर्की (Turkey) को देना पड़ा। क्रीट के विषय में निर्णय किया गया कि उसे तुर्क सुल्तान के संरक्षण में स्वतन्त्रता प्रदान की जाये। कीट में तुर्क अत्याचारों को रोकने के उद्देश्य से यूनान के राजा के पुत्र जार्ज (George) को कीट का राज्यपाल (Governor) नियुक्त किया गया तथा यूरोपीय शक्तियों के प्रतिनिधियों के एक आयोग की नियुक्ति करके उसे जार्ज को क्रीट के प्रशासनिक कार्यों में सहायता देने के लिये भेज दिया गया। परन्तु क्रीट-निवासियों को यूरोपीय शक्तियों द्वारा की गई इस व्यवस्था से सन्तोष की प्राप्ति नहीं हो सकी, वे विद्रोह करते ही रहे। अतः 1913 ई० में क्रीट को यूनान के साथ मिला दिया गया।

(iv) तरुण तुर्क क्रांति तथा उसके परिणाम

(Young Turkish Revolution & its Results)-

युवक तुर्क दल की स्थापना (Establishment of young Turkish Party)-  प्रसिद्ध इतिहासकार हेजेने के शब्दों में-“1908 ई० को ग्रीष्म ऋतु में पूर्वी समस्या ने एक नवीन और विस्मयजनक रूप धारण किया। तुर्क सुल्तान अब्दुल रहीम द्वितीय (Abdul Rahim II) ने शासक बनने के उपरान्त 1876 ई० में अपने साम्राज्य के लिये उदार संविधान (Liberal Constitution) तैयार कराया। प्रतिक्रियावादी शक्तियों (Reactionary forces) के उपद्रवों के कारण तुर्क सुल्तान उस उदार संविधान को लागू नहीं कर सका। इसके पश्चात् उसने अपने साम्राज्य के हर्जेगोविना (Herzegovina) और बोसनिया (Bosania) प्रान्तों में बसे ईसाईयों पर अकथनीय अत्याचार कराये। उसके शासन में ही उसके साम्राज्य में राष्ट्रीयता, स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व भावना (Nationality, – Freedom Equality & Fraternity) आदि के फ्रांस की राज्य क्रांतिकारी विचारों का प्रसार होने लगा था। इन विचारों से प्रभावित एक प्रगतिशील वर्ग का तुर्की में उद्य हुआ। इस वर्ग के सदस्यों द्वारा 1891 ई० में जेनेवा में अपने दल की स्थापना की गई,जो “युवक तुर्क दल’ (Young Turk Party) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके सदस्यों ने तुर्क साम्राज्य की पतन के गर्त में गिरने से बचाने के लिये अपने दो प्रधान उद्देश्य निश्चित किये-(1) देश में प्रजातंत्रीय संविधान की स्थापना की जिसके अनुसार सभी व्यक्तियों को अपनेइच्छित धर्म का पालन करने तथा अपने विचारों को जनसाधारण के सामने व्यक्त करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो तथा (2), तुर्की की विदेश नीति पर विदेशी शक्तियों का प्रभाव न पड़े और वह स्वतन्त्रतापूर्वक अपने कार्य सम्पन्न कर सके। इस प्रकार के कार्यों द्वारा युवक तुर्क दल (Young Turk Party) अपने देश को स्वतन्त्र, शक्तिशाली एवं अन्तर्राष्ट्रीयता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण बनाने का इच्छुक था।

गुप्त संस्थायें (Secret Institution)-   नवयुवक तुर्को ने अनेक गुप्त संस्थाओं को देश के विभिन्न भागों में स्थापना कर ली थी। इन गुप्त समितियों में उनके द्वारा मंत्राणाएं की जाती तथा क्रांति प्रबल करने के लिये योजनायें बनाई जाती थीं। अनेक युवकों को सुल्तान अब्दुल हमीद द्वारा देश से निर्वासित कर दिया गया था। 1905 ई. में ‘युवक तुर्क दल की गुप्त समितियों का टर्की में एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाल सा बिछ गया था तथा लाखों तुर्क युवक उन गुप्त समितियों के सदस्य बने हुए थे।

तुर्क क्रान्ति का आरम्भ (Beginning of Young Turk Revolution)-  उस समय मकदूनिया (Mecedonia) में अराजकता का अत्यधिक प्रसार था। यूरोपीय शक्तियां मकदूनिया के प्रश्न पर तुर्क साम्राज्य में हस्तक्षेप करने के लिये तैयार थी। ऐसी स्थिति में युवक तुर्क दल (Young Turk Party) द्वारा नियाज्ये (Niaz Bey) की कमान क्रान्ति कर दी गई। नियाजवे ने सेलोनिका (Salonica) से घोषणा की कि-‘टकी में आज से 1876 ई० का संविधान लागू किया जाता है जिसकी घोषणा सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय (Abdul Hamid II) द्वारा राजसिंहासन प्राप्त करने के कुछ समय पश्चात् की गई थी तथा जिसे केवल दो वर्ष पश्चात् सुल्तान द्वारा स्थगित कर दिया गया था।” तुर्क सेना ने भी क्रांतिकारियों का साथ देते हुए घोषित किया कि-“या तो सुल्तान आत्मसमर्पण कर दें नहीं तो कुस्तुनतुनिया पर हमारे द्वारा आक्रमण कर दिया जायेगा। सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय ने आत्मसमर्पण कर दिया तथा 1876 के संविधान को लागू करने के लिये उस पर अपने हस्ताक्षर कर दिये। उसने घोषणा की कि –“संगठन और सुधार करने वाले दल द्वारा जा घोषणा की गई है उसके साथ हमारी पूर्णरूप से सहानुभूति है।” इस तरह बिना एक बूंद भी रक्त बहाये तुर्क क्रांति पूर्ण हुई और तुको (Turkey) में वैधराजसत्ता के शासन का आरम्भ हुआ। प्रजा को अपने विचार व्यक्त करने तथा इच्छित धर्म का पालन करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई। समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता को मान्यता प्रदान की गई तथा 40 सहस्त्र गुप्तचरों की विशाल सेना की, जो जनता के समाचारों को सुल्तान के कानों तक पहुंचाने का कार्य करती थी, भंग कर दिया गया। दिसम्बर 1908 ई० में निर्वाचन कराकर कुस्तुनतुनिया (Constantinople) में निर्वाचित सदस्यों की संसद का अधिवेशन कराया गया। नवयुवक तुर्क दल के नेता कमाल पाशा (Kemal Pasha) को प्रधान मन्त्री बनाया गया ।

(iv) क्रांति के दौर का फिर से आरम्भ

(Beginning of the Revolution again)-

सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय ने फिर से प्रतिक्रियावादी नीति (Reactionary Policy) का पालन करते हुए कमाल पाशा को प्रधानमन्त्री पद से पृथक् कर दिया तथा नवीन संविधान को फिर स्थगित कर दिया। अतः नवयुवक तुर्क दल ने फिर से क्रांति का आह्वान किया। मई, 1909 ई० में युवक तुर्क दल की सेना कुस्तुनतुनिया में प्रविष्ट हुई। उस सेना ने राजमहल को घेर लिया तथा सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय को राजगद्दी से उतारकर उसके भ्राता मुहम्मद पंचम (Muhammad V) को तुर्क सुल्तान के राजसिंहासन पर बिठाया। नए सुल्तान ने 1918 ई० तक राज्य किया। इस काल में तुर्की में वैध राजसता स्थिर रही और युवक तुर्क दल की तानाशाही में तुर्की को उन्नति पथ पर आगे बढ़ाया जाने लगा। तुर्क नेताओं द्वारा तुर्कीकरण (Turkification) की नीति का अनुसरण किया गया। उन्होंने साम्राज्य के विभिन्न भागों में बसी ईसाई प्रजा पर भीषण अत्याचार किये, तुर्की भाषा को राजभाषा बना दिया गया तथा सभी टर्की-निवासियों के लिये उसका अध्ययन अनिवार्य कर दिया गया। देश भर में राष्ट्रीय स्कूलों की भारी संख्या में स्थापना की गई तथा सभी के लिये सैनिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। तुर्की सभ्यता का सम्पूर्ण टी में द्रुतगति से प्रसार किया जाने लगा तथा विरोधियों को कठोर दण्ड दिये गये। युवक तुर्क दल की नीति के परिणाम निम्न प्रकार से प्रकट हुए-

(1) बलगारिया की स्वतन्त्रता (Freedom of Bulgaria)-बलगारिया ने टर्की के आन्तरिक विद्रोह से उत्साहित होकर 5 अक्तूबर, 1908 ई० के दिन अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर डाली वहाँ के शासक फडनिण्ड (Ferdinand) ने जार की उपाधि धारण करके बलगारिया में अपने शासन का आरम्भ किया। तुर्क् सुल्तान ने यूरोपीय शक्तियों से हस्तक्षेप करने का आग्रह किया, परन्तु यूरोपीय शक्तियों के इस ओर ध्यान न देने के कारण तुर्क सुल्तान को क्षतिपूर्ति की कुछ धन राशि प्राप्त करके बलगारिया की स्वतन्त्र सत्ता को मान्यता प्रदान करनी पड़ी।

(2) बोसनिया और हर्जेगोविना पर आस्ट्रिया का अधिकार (To take possession of Bosania & Herzegovina by Astria)-  टर्की के आन्तरिक विद्रोह से उत्साहित होकर आस्ट्रिया-हंगरी के सम्राट ने अपनी सेना भेजकर 7 अक्तूबर, 1908 ई० के दिन बोसनिया और हर्जेगोविना को अपने साम्राज्य में सम्मिलित हो जाने पर आस्ट्रिया के साम्राज्य की सीमा का विस्तार इंजियन सागर (Aegian Ses) के किनारे तक हो गया, जिससे उसे विदेशों में अपने व्यापारिक माल को बेचने तथा वहाँ से कच्चा माल लाने की सुविधा हुई।

(3) इटली का टर्की से युद्ध (War between Italy and Turkey)-  इटली ने भी टर्की के गृहयुद्ध से लाभान्वित होने के लिये 1911 ई० में टर्की के साम्राज्य में सम्मिलित अफ्रीका महाद्वीप पर स्थित ट्रिपोली (Tripoli) पर आक्रमण कर दिया। इटली की सेना ने त्रिपोली (Tripoli) डिस्ना, (Disna) और बेन्गाजी (Bengazi) नामक समुद्र तट पर स्थित नगरों पर अधिकार कर लिया। हेजेन ने इस आक्रमण के विषय में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि-“इटली का त्रिपोली पर आक्रमण अत्यन्त महत्वपूर्ण और सामाजिक था। इटली की नौसेना ने टर्की को अनेक स्थानों पर पराजित किया। यह युद्ध 1912 ई० तक चलता रहा तथा यूरोपीय शक्तियों के हस्तक्षेप के प्रभाव में तुर्क सेना को कई क्षेत्रों में पराजित होना पड़ा।” 1912 ई० में तुर्क सुल्तान को एक नवीन संकट का सामना करना पड़ा, जो बलकान राज्यों के संगठित आक्रमण के रूप में उपस्थित हुआ। अत: तुर्क सुल्तान को विवश होकर इटली के साथ लॉसेन की संन्यि (Treaty of lausenc) करके त्रिपोली पर इटली के अधिकार को मान्यता प्रदान करनी पड़ी तथा इटली को एक नवीन उपनिवेश की प्राप्ति हुई।

(4) बलकान युद्ध का आरम्भ (Beginning of Balkan War)-  युवक तुर्क क्रांति का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण परिणाम बलकान युद्ध का आरम्भ था। युवा तुर्क आन्दोलन के नेताओं ने तुर्क साम्राज्य में बसी ईसाई जातियों को जबरदस्ती अपनी सभ्यता में ढालना आरम्भ कर दिया था। उनके द्वारा मकदूनिया तुर्क सुल्तान (Macedonia) में जिन ईसाई धर्म के अनुयाइयों ने मुसलमान बनना अस्वीकार किया, उनकी सामूहिक हत्या की गई। तुर्की के इस अनाचार के विरूद्ध बलकान राज्यों में प्रतिक्रिया प्रारम्भ हुई और उन्होंने संगठित होकर तुर्की के विरुद्ध अचानक ही 1912 ई० में युद्ध के नगाड़े बजा दिये। वे तुकों को इतना समय नहीं देना चाहते थे कि वे युद्ध की तैयारी कर सकें। इस संगठन में बलकान प्राय:द्वीप के चार प्रमुख राज्य यूनान (Greece)] बलगारिया (Bulgaria),

माण्टीनीग्रो (Montenegro) और सर्विया (Serbia) सम्मिलित थे। जिस समय तुर्क सेना अफ्रीका में इटली के साथ युद्ध में फंसी हुई थी, उस समय चारों बलकान राज्यों को संगठित सेना ने अपनी बलकान लीग (Balkin League) बनाकर 15 अक्तूबर 1912 ई० के दिन तुर्की के विरुद्ध युद्ध-घोषणा करके तुर्की को चारों ओर से घेर लिया। यूनानी सेना द्वारा मकदूनिया (Macedonia) में घुसकर वहाँ के प्रमुख नगर सेलोनिका (Sulonica) पर अधिकार कर लिया । माण्टीनीपों तथा सर्बिया की सेनाओं को भी कई क्षेत्रों में तुर्क सेना पर विजय प्राप्त हुई। वलगारिया की सेना थेस (Thress) में प्रविष्ट होकर कुस्तुन्तुनिया (Constantionple) पर आक्रमण करने के लिये द्रुतबेग से आगे बढ़ी। वह तुर्कों की राजधानी कुस्तुनतुनिया से केवल 25 मील की दूरी पर रह गई। सर्बिया की सेना ने नोवी बाजार के संजक (Sanjak of Novi Bazar) पर अधिकार कर लिया और माण्टीनीग्रो की सेना ने तुर्क सेना को हराकर अल्बानिया (Albania) पुर अधिकार कर लिया। उस समय समस्त यूरोपीय शक्तियों को तुर्को का पतन दिखाई देने लगा। प्रसिद्ध इतिहासकार ग्यूशॉफ को बलकान लीग की सफलता का विवरण देते हुए लिखना पड़ा कि-“एक आश्चर्य उत्पन्न हुआ एक माह की छोटीसी अवधि के भीतर ही बलकान संघ ने तुर्क साम्राज्य को नष्ट कर डाला। एक करोड़ की जनसंख्या वाले चार छोटे राज्यों ने ढाई करोड़ की आवादी वाली महान् शक्ति को धूल-धूसरित कर दिया। यूरोपीय शक्तियों ने तुर्क साम्राज्य को पूर्णतया नष्ट हो जाने से बचाने के लिये दिसम्बर 1912 ई. में इंगलैण्ड की राजधानी लन्दन (London) में एक सम्मेलन का आयोजन किया। यह सम्मेलन असफल रहा क्योंकि तुर्क सुल्तान तो एड्रियानोपिल (Adrianople) देने के लिए तैयार नहीं हुआ और बलगारिया (Bulgaria) बिना एड्रियानोपिल लिये सन्धि करने के लिये तैयार नहीं हुआ।

फलतः मार्च, 1913 ई० में युद्ध फिर से आरम्भ हो गया। तुर्क सुल्तान को एक-एक करके जनीना (Janina), एड्रियानोपिल (Adrianople) तथा स्कूतरी (Skutari) से हाथ धोने पड़े तथा बलकान संघ को सेनाएँ उन पर अधिकार करती चली गईं। यूरोपीय शक्तियां दोनों के युद्ध का दृश्य देखती रही। अन्त में विवश होकर तुर्क सुल्तान (Porte) को 30 मई 1913 ई० के दिन लन्दन सन्धि (Treaty of London) पर हस्ताक्षर करके अपने प्राण बचाने पड़े। इस सन्धि के अनुसार तुर्क साम्राज्य की राजधानी कुस्तुन्तुनिया (Constantionple) और धेस (Thress) के कुछ भागों के अतिरिक्त तुर्क साम्राज्य में सम्मिलित सम्पूर्ण यूरोपीय प्रदेश तुर्क सुल्तान से ले लिये गये। प्रसिद्ध इतिहासकार हेजेन के शब्दों में यूरोप स्थित तुर्क सुल्तान का साम्राज्य लगभग पूर्णरूप से नष्ट हो गया । पाँच शताब्दियों के गर्वीले अधिकार के उपरान्त तुर्क सुल्तान ने स्वयं को यूरोप से लगभग निष्कासित दशा में पाया । अब उसके पास केवल मात्र कुस्तुन्तुनिया और उसके आस-पास स्थित प्रदेश ही शेष रह गये थे।”

(5) द्वितीय बालकान युद्ध (Second Balkan War)-  द्वितीय बलकान युद्ध का प्रधान कारण मकदूनिया (Macedonia) की समस्या के रूप में उदय हुआ। वहाँ अनेक ईसाई जातियाँ बसौं हुई थी जिन पर एक ही राज्य का शासन किसी प्रकार भी नहीं चलाया जा सकता था। युद्ध आरम्भ होने से पूर्व ही बलगारिया और सर्बिया ने निर्णय कर लिया था कि मकदूनिया (Macedonia) के बड़े भाग पर ब्लगारिया को अधिकार प्राप्त होगा तथा सर्बिया को एड्रियाटिक सागर (Adriatic Sea) के किनारे अलवानिया (Albania) के क्षेत्र पर अधिकार दे दिया जायेगा। परन्तु अलबानिया राज्य स्थापना के कारण बलगारिया को केवल उस प्रदेश की प्राप्ति हुई जो चारों ओर से स्थल से घिरा हुआ था। अतः इस विभाजन से बल्गारिया को सन्तोष प्राप्त नहीं हो सका। अत: इसी प्रश्न को लेकर बलगारिया और सर्विया में मतभेद बढ़ने लगे। सर्बिया का कथन था कि टर्की को पराजित करने में बालकान के चारों राज्यों ने भाग लिया था। अतः जीते हुए प्रदेशों का विभाजन चारों राज्यों में होना चाहिये। उधर बलगारिया का कहना था कि उसकी विशाल सेना ने ही तुर्क सुल्तान को पराजित किया है तथा मकदूनिया में बलगार जाति के लोग रहते हैं। अत: मकदूनिया पर उसी का अधिकार होना चाहिये। उसे इस बात का भी दृढ़ विश्वास था कि वह अपनी सेना के बल पर यूनान और सर्विया की सम्मिलित सैनिक शक्ति को सरलता के साथ पराजित कर सकता है। उस समय वह इस बात को भूल गया कि उसकी सीमा पर स्थित रूमानिया (Rumania) का राज्य भी उसका शत्रु बना हुआ है। अत: 9 जून 1913 ई० को यूरोपीय शक्तियों ने बलकान युद्ध को ज्वालाओं को फिर से प्रज्जवलित होते देखा । बलगारिया की सेनाओं ने अचानक ही रूमानिया (Rumania) यूनान (Greece) और सर्विया (Serbia) पर आक्रमण करके द्वितीय बलकान युद्ध आरम्भ कर दिया। उधर तुर्क सुल्तान ने भी इसे उपयुक्त अवसर समझकर बलगारिया के विरूद्ध तुर्क सेना को युद्ध-भूमि में भेज दिया। इस तरह अकेले बल्गारिया को स्त्रिया (Serbia) माण्टीनीग्रो (Montenegro), यूनान (Greece) और तुको (Turkey) से युद्ध करना पड़ा। युद्ध का परिणाम स्पष्ट था, अकेला बलगारिया किसी प्रकार भी चारों राष्ट्रों की सेनाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता था। अत: 9 जुलाई 1913 को रूमानिया ने बलगारिया की राजधानी सोफिया (Sophia) पर, 20 जुलाई को तुकी ने एड्यिानोपिल (Adrianople), पर तथा इसी प्रकार यूनान और माण्टीनीग्रो की सेनाओं ने भी उसे युद्ध में पराजित कर कई भू-भागों पर अधिकार कर लिया। 10 अगस्त 1913 ई० के दिन बलगारिया को बुखारेस्ट की सन्धि (Treaty of Bucharest) करके द्वितीय बलकान युद्ध की समाप्ति करनी पड़ी। इस सन्धि से यूनान और सर्विया को बहुत अधिक लाभ प्राप्त हुआ। उत्तरी बलगारिया के दोब्रुजा (Dobruja) और सिलिस्ट्रिया (Silistrja) प्रदेश रूमानिया को तथा मकदूनिया Macedonia के अधिकांश भाग सर्बिया, माण्टेनीयो और यूनान को प्राप्त हुए। तुर्क सुल्तान को एड्रियानोपिल और थ्रेस (Thress) को प्राप्त हुए। इस प्रकार द्वितीय वलकान युद्ध के पश्चात् बलगारिया एक छोटा-सा राज्य रह गया तथा रूस को पुनः बलकान राज्यों के संरक्षक का पद प्राप्त हुआ। इस युद्ध के ही परिणामस्वरूप ही आस्ट्रिया, और सर्विया में उस वैमनस्य की वृद्धि हुई, जिसके कारण सर्विया के किसी युवक द्वारा 23 जून 1914 ई० के दिन आस्ट्रिया के राजकुमार आर्कड्यूक फर्डनिण्ड (Archduke Ferdinand) की बम मारकर सपत्नी हत्या कर दी गई। और प्रथम विश्व युद्ध का आरम्भ हुआ।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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