इतिहास / History

1917 की रूसी क्रान्ति | 1917 की रूसी क्रान्ति के कारण | 1917 की रूसी क्रान्ति का सूत्रपात

1917 की रूसी क्रान्ति | 1917 की रूसी क्रान्ति के कारण | 1917 की रूसी क्रान्ति का सूत्रपात

1917 की रूसी क्रान्ति

1917 की रूसी क्रान्ति के पूर्व रूस की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दशा बड़ी शोचनीय थी। समाज में घोर सामाजिक असमानता व्याप्त थी। रूस का जार निकोलस द्वितीय निरंकुश शासक था तथा उसके दमनकारी शासन से रूसियों में तीव्र असन्तोष था। प्रशासन में बेईमानी, रिश्वत खोरी एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला था जिससे रूसी जनता की दशा दयनीय बनी हुई थी। 1905 में जार निकोलस द्वितीय के शासन काल में क्रान्ति हुई जिसने जार के अयोग्य और भ्रष्ट शासन का पर्दाफाश कर दिया। यद्यपि जार निकोलस द्वितीय ने1905 की क्रान्ति को कुचल दिया, परन्तु देशवासियों के दिलों में क्रान्ति की ज्वाला जलती रही। 1914 में प्रथम महायुद्ध शुरू हुआ, जिसमें रूसी सेनाओं को भारी क्षति उठानी पड़ी। अतः किसानों, मजदूरों, सैनिकों आदि सभी वर्गों के लोगों में जारशाही के विरुद्ध तीव्र आक्रोश व्याप्त था। अन्त में 1917 में रूसी जनता ने जारशाही के भ्रष्ट और दमनकारी शासन से मुक्ति पाने के लिए पुनः विद्रोह कर दिया।

1917 में रूस में दो क्रान्तियाँ हुई- एक मार्च, 1917 में तथा दूसरी नवम्बर 1917 में। इतिहासकार लिप्सन का मत है कि “क्रान्ति तो एक ही थी, परन्तु इसके अध्याय दो थे । क्रान्ति का राजनैतिक अध्याय ‘मार्च की क्रान्ति’ कहलाया-जिसमें निरंकुश जार को सिंहासन छोड़ना पड़ा। इस क्रान्ति का दूसरा अध्याय ‘नवम्बर की क्रान्ति’ कहलाया जिसे बोल्वेविक क्रान्ति भी कहते हैं और जिसके फलस्वरूप रूप में मजदूर जनतन्त्र का उदय हुआ’।

1917 की रूसी क्रान्ति के कारण

1917 की क्रान्ति के कारण निम्नलिखित थे-

(1) जारशाही की निरंकुशता-

रूस के जार निरंकुश और स्वेच्छाचारी थे। जार एलेक्जेण्डर प्रथम में समय से ही रूस के जार स्वेच्छाचारी शासन एवं दैवी अधिकार के सिद्धान्त में विश्वास करते थे। जार अलेक्जेण्डर द्वितीय(1855-1881) ने अपने शासन के प्रारम्भ में अवश्य ही उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया तथा कुछ महत्वपूर्ण सुधार किये, परन्तु सामन्तों तथा जमीदारों ने उसके सुधारों का इतना घोर विरोध किया कि उसने पुनः प्रतिक्रियावादी नीति अपना ली। अन्त में किसी आतंकवादी ने अलेक्जेण्डर द्वितीय की हत्या कर दी। अलेक्जेण्डर द्वितीय के मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अलेक्जेण्डर तृतीय गद्दी पर बैठा उसने भी दमनकारी और प्रतिक्रियावादी नीति अपनाई। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र निकोलस द्वितीय (1894-1917) गद्दी पर बैठा उसने भी कठोर एवं दमनकारी नीति का अनुसरण किया और जनता की इच्छाओं की पूर्ण रूप से अवहेलना की। उसी के शासन काल में1905 की क्रान्ति हुई तथा उसे ड्यूमा के निर्वाचन की घोषणा करनी पड़ी। इस क्रान्ति ने जार के अयोग्य एवं भ्रष्ट शासन का पर्दाफाश कर दिया।

निकोलस द्वितीय के समय निरंकुश शासन से रूसी जनता में तीव्र आक्रोश था। रूस के नागरिकों को भाषण, लेखन एवं सभाएँ संगठित करने का अधिकार नहीं था। समाचार-पत्रों एवं शिक्षण संस्थाओं पर कठोर प्रतिबन्ध लगे हुए थे। शासन में अयोग्य एवं भ्रष्ट अधिकारियों तथा सामन्तों का बोलबाला था। ये लोग जनता का शोषण करते थे तथा अपने स्वार्थों की पूर्ति करते थे। सरकार की आलोचना करनेवालों को कठोर दण्ड दिया जाता था। जार का प्रधानमंत्री स्टालीना भी घोर प्रतिक्रियावादी था। उसने क्रान्तिकारियों को दण्डित करने के लिए विशेष सैनिक न्यायालय स्थापित किये। इस न्यायालय द्वारा 8 महीनों में 1800 व्यक्तियों को मृत्यु दण्ड दिया गया। अतः जार के निरंकुश एवं दमनकारी शासन के विरुद्ध रूसी लोगों में तीव्र आक्रोश था।

(2) सामाजिक असमानता-

समाज में घोर सामाजिक असमानता व्याप्त थी। रूस में समाज मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित था-(1) अधिकारयुक्त वर्ग तथा (2) अधिकारहीन हीन वर्ग। अधिकारयुक्त वर्ग में जार और उसका परिवार, सामान्त, कुलीन, धर्माधिकारी और उच्च पदाधिकार थे तथा अधिकार-रहित वर्ग में किसान, मजदूर आदि थे। अधिकायुक्त वर्ग के लोग विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे और उन्हें सभी प्रकार की सुख सुविधाएं प्राप्त थीं। देश की अधिकार रहित वर्ग के लोगों की दशा खड़ी दयनीय थी। कठोर परिश्रम करने के बाद भी इन लोगों को भरपेट भोजन प्राप्त नहीं होता था। सामन्त, कुलीन आदि किसानों, मजदूरों का शोषण करते थे। अतः किसानों तथा मजदूरों में इस सामाजिक असमानता के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था।

(3) कृषकों की दयनीय दशा-

रूस के किसानों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। यद्यपि जार एलेक्जेण्डर द्वितीय के सुधारों से कृषक दास स्वतन्त्र हो गए, परन्तु इससे उसकी दशा में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ। अधिकांश भूमि पर जमीदारों का अधिकार था। रूस के एक तिहाई किसान भूमिहीन थे। जिन किसानों को भूमि प्राप्त हुई थी, वहाँ पैदावार कम होती थी। अतः अधिकांश किसानों को गरीब का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। कृषकों को अनेक प्रकार के कर भी देने पड़ते थे, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई थी। भूमिहीन किसानों को जमीदारी की भूमि पर काम करना पड़ता था और जमीदार मनमाने ढंग से उनका शोषण करते थे। जिससे किसानों पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगे हुए थे। कोई भी किसान पुलिस की अनुमति के बिना अपना गांव छोड़कर कहीं नहीं जा सकता था। किसानों में दरिद्रता निरन्तर बढ़ती जा रही थी। किसान गन्दी झोंपड़ियों में रहते थे तथा बड़ी कठिनाई से रूखे-सुखे भोजन की व्यवस्था कर पाते थे। अतः किसानों में शासन के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था। वे अपनी दशा सुधारने के लिए किसी भी आन्दोलन को सहयोग देने के लिए तैयार थे। 1902 में हारकोव के तथा पोल्टावा के किसानों ने विद्रोह कर दिया। क्रांतिकारी समाजवादी दल ने किसानों के असन्तोष से लाभ उठाया तथा उन्हें सरकार और जमींदारों के विरुद्ध उत्तेजित किया। 1905 में रूस में अनेक स्थानों पर किसानों के दंगे हुए। किसानों में जमीदारों की भूमि पर अधिकार कर लिया और उनके मकानों को जला डाला।

1906 तथा 1910 में कुछ भूमि सम्बन्धी सुधार किये गये, परन्तु वे अपर्याप्त थे। उनसे भूमिहीन किसानों की समस्या का समाधान नहीं हो पाया। ड्यूमा में किसानों के एक प्रतिनिधि ने कहा “सरकार हम किसानों को चूस लेती है। तीन सौ वर्षों तक रूस के रोमोनोव राजाओं ने किसानों के लिए कुछ भी न किया। हम लोगों के लिए किसी से आशा करना बेकार है। परन्तु हम लोग जबरदस्ती सब छीन लेंगे।” इस प्रकार रूस के किसानों में असन्तोष पनपता रहा। ऐसी स्थिति में किसानों का विद्रोह अवशायम्भावी हो गया। युद्धकालीन कष्टों ने किसानों के दबे हुए असंतोष को भडका दिया और रूस में क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया।

(4) मजदूरों में असन्तोष-

रूस के 25 लाख मजदूरों की दशा भी किसानों के समान दयनीय थी। रूस में जार अलेक्जेण्डर तृतीय के शासनकाल से औद्योगीकरण की गति तीव्र हो गई थी। अतः मजदूरों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही थी। अतः हजारों भूमिहीन किसान रोजगार की तलाश में औद्योगिक नगरों में पहुँचने लगे। कारखानों के मालिकों ने उनकी असहाय स्थिति का लाभ उठाकर उनका शोषण करना शुरू कर दिया वे उन्हें कम से कम मजदूरी देते थे तथा अधिक से अधिक काम लेते थे। उनकी मजदूरी इतनी कम थी कि इससे उनका जीवन निर्वाह करना भी कठिन था। उन्हें गन्दी बस्तियों को तंग कोठरियों या झोपड़ियों में रहना पड़ता था। मजदूरों को ‘श्रमिक संघ’ बनाने का भी अधिकार नहीं था। सरकार सदैव पूँजीपतियों का ही पक्ष लेती थी। और मजदूरों के हितों के विरुद्ध थी। अतः मजदूरों में  असन्तोष निरन्तर बढ़ता जा रहा था। क्रान्तिकारी समाजवादी दल ने मजदूरों को पूँजीपतियों के विरुद्ध संगठित होने की प्रेरणा दी। मजदूर समाजवादी दल के विचारों से प्रभावित होकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को तैयार हो गये। 1902-03 से ही मजदूरों की हड़ताले शुरू हो गयी। 1905 की क्रान्ति का सूत्रपात भी मजदूरों के जुलूस से हुआ। इस समय उनकी शक्ति यहाँ तक बढ़ गई थी कि सेट पीटस वर्ग में उन्होंने ‘श्रमिकों की सोवियत’ की भी स्थापना भी कर ली थी। वास्तव में इस समय तक समाजवादी दल के प्रभाव के कारण मजदूरों के आन्दोलन का स्वरूप मूलतः राजनैतिक हो गया था। मजदूर अपनी दयनीय अवस्था के लिए पूंजीपतियों तथा जारशाही के भ्रष्ट शासन को उत्तरदायी मानते थे। अतः उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था तथा जारशाही के भ्रष्ट और निरंकुश शासन को समाप्त करके सर्वहारा वर्ग की सरकार स्थापित करने का निश्चय कर लिया।

(5) गैर रूसी जातियों में असन्तोष-

रूस में अनेक अल्पसंख्यक गैर रूसी जातियां रहती थीं। जारशाही ने इन गैर रूसी जातीयों के साथ बड़ी कठोरता का व्यवहार किया और रूसीकरण की नीति अपनाई। गैर रूसियों पर रूसी सभ्यता और संस्कृति थोपने का प्रयास किया। एक भाषा, एक धर्म, एक कानून’ की नीति को कठोरता से लागू किया गया। 1863 में पोल लोगों ने रूसी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया परन्तु जारशाही ने इस विद्रोह को कठोरतापूर्वक कुचल दिया। विद्रोह का दमन करने के पश्चात् जार ने पोलैण्ड में रूसीकरण की नीति अपनाई जिससे पोल लोगों में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ। फिनलैण्ड के लोग भी रूसीकरण की नीति के शिकार हुए। फिनलैण्ड की विधानसभा के अधिकार अत्यन्त सीमित कर दिये गये। जिससे फिनलैण्डवासियों में असन्तोष उत्पन्न हुआ। यहूदियों और आर्मीनियनों पर भीषण अत्याचार किये गये। यहूदियों की धन-सम्पत्ति लूटी गई तथा उन पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये गये। जारशाही के अत्याचारों से परेशान होकर लगभग 15 लाख यहूदी रूस छोड़कर अन्य देशों में जा बसे।

(6) निहिलिस्ट आन्दोलन-

जारशाही की निरंकुश एवं दमनकारी नीति से रूस के सभी वर्गों में असन्तोष था। इनमें निहिलिस्ट लोग भी शामिल थे। निहिलिस्ट जारशाही के भ्रष्ट शासन के प्रबल विरोधी थे। वे प्राचीन सामाजिक एवं धार्मिक रूढियों को नष्ट करके एक नवीन और प्रगतिशील समाज की स्थापना करना चाहते थे। वे अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए हिंसात्मक साधन अपनाने के पक्ष में थे। वे जारशाही के जर्जरित राजनैतिक ढाँचे को ध्वस्त करने के लिए आन्दोलन चलाने लगे। 1881 में जार एलेक्जेण्डर द्वितीय की आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी गई। जारशाही ने एलेक्जेण्डर द्वितीय की हत्या के लिए निहिलिस्टों को दोषी ठहराया और उनका कठोरतापूर्वक दमन करना शुरू कर दिया। जारशाही की दमनकारी नीति के बावजूद निहिलिस्टों ने गुप्त रूप से अपनी गतिविधियां जारी रखीं।

(7) 1905 की क्रान्ति-

1905 की क्रान्ति जारशाही के निरंकुश और दमनकारी नीति के विरुद्ध रुसियों में असन्तोष व्याप्त था। किसानों और मजदूरों की दशा अत्यन्त शोचनीय हो रही थी। 22 जनवरी, 1905 को लगभग दो लाख मजदूरों ने फादर गेपन के नेतृत्व में जार निकोलस द्वितीय के राज प्रसाद के सामने प्रदर्शन किया और शासन में सुधारों की माँग की। परन्तु जार ने प्रदर्शनकारियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई और सैनिकों को प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलाने का आदेश दिया। सैनिकों की गोली वर्षा के कारण अनेक प्रदर्शनकारी मारे गये। गेपन भी घायल हो गया। निहत्थे मजदूरों की निर्गमतापूर्वक हत्या किये जाने से जारशाही में जनता की रही-सही आस्था भी समाप्त हो गयी। 22 जनवरी का वह रविवार जार की बर्बरता की प्रतीक बन गया। रूस के इतिहास में 22 जनवरी का रविवार ‘खूनी रविवार’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस घटना ने रूसियों को क्रुद्ध कर दिया और उन्होंने अनेक स्थानों पर विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। अनेक सामन्तों और जमीदारों की हत्या कर दी गई तथा उनके मकान जला दिये गये। यद्यपि सैन्य शक्ति के बल पर जारशाही ने1905 की क्रान्ति का दमन कर दिया परन्तु क्रान्ति की ज्वाला रूसियों के दिलों में जलती रही। क्रान्तिकारियों को सन्तुष्ट करने के लिए जारशाही को संवैधानिक सुधारों की घोषणा करनी पड़ी। यह क्रान्तिकारियों की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। वास्तव में 1905 की क्रान्ति ने 1917 की क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

(8) ड्यूमा के प्रभाव को नष्ट करने का प्रयास-

1905 की क्रान्ति में रुसियों का उग्र असन्तोष फूट पड़ा तथा क्रान्तिकारियों को सन्तुष्ट करने के लिए जार शाही ने 30 अक्टूबर, 1905 को अनेक शासन-सुधारों की घोषणा की। घोषणा के अन्तर्गत कहा गया कि ड्यूमा की स्थापना की जायेगी जिसके सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित होंगे तथा ड्यूमा की स्वीकृति से ही कानून बनाये जायेंगे। परन्तु जारशाही की ड्यूमा तथा लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में तनिक भी आस्था नहीं थी। अतः उसने ड्यूमा को असफल तथा निष्क्रिया बनाने का भरसक प्रयास किया। प्रथम ड्यूमा को 1906 में तथा द्वितीय ड्यूमा को 1907 में भंग कर दिया गया तथा एक नये नियम के अनुसार मताधिकार को अत्यन्त सीमित कर दिया गया। इसके पश्चात् 1907 में तीसरी ड्यूमा के लिए निर्वाचित हुए जिसमें अधिकांश प्रतिक्रियावादी ही चुने गये। इस प्रकार यह ड्यूमा जार निकोलस द्वितीय की हाँ में हाँ मिलाने वाली तथा उसके निरंकुश शासन की समर्थक बनकर रह गई थी, इससे जनता में तीव्र आक्रोश था। 1905 की क्रान्ति के फलस्वरूप रूसी लोगों ने जो अधिकार प्राप्त किये थे, वे सब छिन गये। जार की इस कार्यवाही से रूसी जनता में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ। वह पुनः क्रान्ति के पथ की ओर अग्रसर होने लगी।

(9) क्रान्तिकारी साहित्य-

रूसी लेखकों एवं साहित्यकारों ने भी 1917 की क्रान्ति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यद्यपि जारशाही ने पाश्चात्य विचारों के प्रसार पर रोक लगाने का भरसक प्रयास किया, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली तथा रूस में पाश्चात्य यूरोप के उदारवादी विचारों का प्रवेश होने लगा। रूस में ऐसे अनेक लेखक हुए जिनकी रचनाओं ने रुसियों के विचारों में उथल-पुथल मचा दी। टालस्टाय, तुर्गनेव, डोस्टोइबस्की, गोर्की, बाकुनिन आदि रूसी लेखकों की रचनाओं में रूसी बड़े प्रभावित हुए। टालस्टाय के विचारों से रूस में क्रान्तिकारी भावना के विकास में बहुत सहायता मिली। बाकुजिन ने अराजकतावादी विचारधारा का प्रचार किया। इन लेखकों की रचनाओं में रूसी जनता के विचारों को बड़ा प्रभावित किया, विशेषकर युवा वर्ग पर बहुत अधिक प्रभाव पडा। परिणामस्वरूप रूसी जनता भी सुधारों की माँग करने लगी। जब जारशाही ने सुधारों की मांग को ठुकरा दिया, तो जनता में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ।

(10) भ्रष्ट नौकरशाही-

रूस की नौकरशाही के उच्च पदाधिकारी निरंकुश शासन के समर्थक थे। ये अयोग्य तथा भ्रष्ट थे। ये लोग मनमाने ढंग से शासन करते थे। तथा जनता का शोषण करते थे। ये केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगे रहते थे तथा जनता की नौतिक एवं भौतिक उन्नति में उनकी कोई रूचि नहीं थी। अनेक जर्मन पदाधिकारी भी उच्च पदों पर आसीन थे जिन्हें जनता के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस नौकरशाही की अयोग्यता तथा उदासीनता के कारण रूसी सेना को भारी क्षति उठानी पडी इसने सेना की आवश्यताओं को पूरा भी नहीं किया। फलतः रसद तथा युद्ध सामग्री के अभाव में हजारों रूसी सैनिकों को व्यर्थ में ही मौत के मुँह में जाना पड़ा। अतः रूसी की अयोग्य नौकरशाही के कारण भी जनता में तीव्र आक्रोश व्याप्त था।

(11) मध्यम वर्ग तथा व्यवसायिक क्रान्ति-

रूस में आधुनिक शिक्षा के प्रसार से मध्यम वर्ग के लोगों के विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। पाश्चात्य साहित्य से रूस के मध्यम वर्ग के लोग बड़े प्रभावित हुए। अब उन्हें अपनी हीन दशा तथा शासन की बुराइयों का स्पष्ट ज्ञान हुआ और वे प्रजातन्त्रीय शासन की माँग करने लगे। इस मध्यम वर्ग ने मजदूरों में जागृति उत्पन्न करने को महत्वपूर्ण योगदान दिया।

रूस के औद्योगिक विकास तथा व्यावसायिक क्रान्ति ने भी क्रान्ति के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया औद्योगक क्रान्ति के कारण रूस में अनेक कल-कारखाने स्थापित हुए, तथा लाखों ग्रामीण नगरों में आकर बस गये। नगरों में रहते हुए तथा कारखानों में काम करते हुए उन्हें अनेक कष्ट उठाने पड़े। अतः आर्थिक कठिनाइयों एवं उत्पीड़न से परेशान होने के बाद उन्होंने अपने संगठन बनाये तथा अधिकारों की मांग करने लगे। परन्तु जब जारशाही ने उनकी मांग की उपेक्षा की, तो उनमें घोर असन्तोष उत्पन्न हुआ।

(12) जार निकोलस द्वितीय की अयोग्यता-

रूस का जार निकोलस द्वितीय निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी था। उसमें योग्यता तथा राजनैतिक सूझबूझ का अभाव था। वह अपनी रानी एलेक्जेण्डर के अत्यधिक प्रभाव में था। जार निकोलस द्वितीय में दृढ़ता का अभाव तथा  वह चारित्रिक दुर्बलताओं का शिकार बना हुआ था। जार की पत्नी एलेक्जेण्डरा पर एक अन्धविश्वास साधु रासपुतिन का अत्यधिक प्रभाव था। रासपुतिन एक भ्रष्ट तथा चरित्रहीन व्यक्ति था। राज्य की छोटी-बड़ी सभी नियुक्तियों में रासपुटिन की सलाह ली जाती थी। अयोग्य तथा भ्रष्ट व्यक्ति उच्च पदों पर नियुक्त थे जिन्हें रासपुतिन का संरक्षण प्राप्त था। अतः जार की उदासीनता, भ्रष्ट, नौकरशाही, रासपुतिन के अनुचित हस्तक्षेप आदि के कारण प्रशासन में बेईमानी, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का बोलबाला था। जनता जारशाही तथा नौकरशाही के अत्याचारों तथा उनकी शोषणकारी नीति से पीड़ित थी तथा उसमें तीव्र आक्रोश था। अन्त में 1916 में रासपुतिन की हत्या कर दी गई। इस प्रकार जार निकोलस द्वितीय रूस में उठते हुए असन्तोष को समझने में असफल रहा और यह असन्तोष 1917 में ‘क्रान्ति’ के रूप में अभिव्यक्त हुआ।

(13) समाजवाद का विकास-

रूस में किसानों और मजदूरों की जो दयनीय दशा थी तथा रूस की सामान्य जनता अभावों और कष्टों के मध्य जिस तरह जीवन-यापन कर रही थी, उन परिस्थितियों में समाजवाद का प्रभाव बढ़ना स्वाभाविक था। 1860 के पश्चात् कुछ बुद्धिजीवियों ने समाजवादी विचारधारा को आधार बनाकर एक आन्दोलन प्रारम्भ किया। इस आन्दोलन के समर्थकों को नारोदनिकी अथवा पापुलिस्ट कहा जाता था। ये लोग चाहते थे कि  किसानों को भूमि का स्वामी माना जाये और ग्राम सभाओं के माध्यम से भूमि का वितरण किया जाए। कुछ ‘नारोदनिक’ लोगों ने आतंकवादी उपायों से अपने उद्देश्य की प्राप्ति का प्रयत्न किया।

1883 से रूस में ‘मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव बढ़ने लगा। कुछ समय बाद रूस के समाजवादी दो दलों में विभाजित हो गए- (1) क्रान्तिकारी समाजवादी दल तथा (2) सोशल डेमोक्रेटिक दल । क्रान्तिकारी समाजवादी दल का नेतृत्व बुद्धिजीवियों के हाथ में था। यह दल किसानों को संगठित करके देश में क्रान्ति लाना चाहता था। इस दल के लोग अपना उद्देश्य प्राप्त करने के लिए आतंकवादी साधनों के उपयोग में भी विश्वास करते थे। सोशल डेमोक्रेटिक दल रूस में जारशाही को समाप्त करके सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्थापित करना चाहता था। 1903 में सोशल डेमोक्रेटिक दल दो भागों में विभाजित हो गया-

(1) बोल्शेविक तथा (2) मेन्शेविक। बोल्शेविक दल का नेता लेनिन था। यह दल सर्वहारा वर्ग का अधिनायक तन्त्र स्थापित करना चाहता था। मेन्शेविक दल श्रमिक वर्ग के साथ-साथ अन्य वर्गों के सहयोग से जनतन्त्र की स्थापना करना चाहता था।

(14) तात्कालिक कारण-

प्रथम विश्व युद-1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया तथा अगस्त, 1914 में रुस भी विश्व युद्ध में कूद पड़ा। प्रारम्भ में रूस की सेनाओं को कुछ सफलता मिली, परन्तु कुछ ही समय बाद जर्मनी के विरुद्ध रूस की सेनाओं को पराजय का मुँह देखना पड़ा। युद्ध साम्रगी, रसद तथा यातायात के साधनों के अभाव में मोर्चों पर रूसी सैनिक मौत के मुँह में जाने लगे। सेना के उच्च पदाधिकारियों की अयोग्यता प्रशासन में फैले हुए भ्रष्टाचार, जारीना, मन्त्रियों एवं प्रमुख सामन्तों के युद्ध कार्य में अनावश्यक हस्तक्षेप आदि के कारण रूस की सेनाओं को लगातार पराजित होना पड़ा। इन पराजयों की सूचना से जनता का मनोबल गिरने लगा तथा असन्तोष बढ़ने लगा।

रूस की सरकार ने युद्ध के प्रथम तीन वर्षों में लगभग 150 लाख सैनिक युद्ध क्षेत्र में भेज दिये थे। जिससे खेतों में काम करने वालों की कमी हो गई और कृषि उत्पादन कम हो गया। अतः सेना तथा नागरिकों के लिए पर्याप्त मात्रा में खाद्य-सामग्री की व्यवस्था करना कठिन हो गया। अन्य आवश्यक वस्तुओं की भी कमी हो गई।

रूस की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ती जा रही थी। युद्ध व्यय को पूरा करने के लिए सरकार ने मुद्रास्फीति का सहारा लिया। इसके परिणामस्वरूप कीमतें बढ़ने लगी और 1917 ई. तक निर्वाह व्यय 1919 की तुलना में लगभग700 गुना बढ़ गयी। दैनिक जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के भावों में इतनी अधिक वृद्धि हो गई कि लोगों का निर्वाह होना भी कठिन हो गया। इससे किसानों और मजदूरों में उत्तेजना बढ़ गई। अगस्त 1915 में रूस के हाथ से गेलेशिया तथा पोलैण्ड के प्रदेश निकल चुके थे तथा लगभग 20 लाख सैनिक मारे जा चुके थे। इस कारण सैनिकों में भी तीव्र आक्रोश था। सितम्बर, 1915 में जार ने रूसी सेनाओं की सर्वोच्च कमान अपने हाथ में ले ली परन्तु इससे स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ इस अवसर ड्यूमा के कुछ उदारवादी सदस्यों ने जार को सलाह दी कि वह उदार नीति अपनाये तथा उत्तरदायी पर सरकार की स्थापना करे परन्तु जार ने इस सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया। 1916 के अत्यन्त संकटमय समय में रूस का प्रधानमंत्री बोरिस स्टुर्मर सेना के कार्यों में इतनी अड़चने डाल रहा था कि ड्यूमा में उदारवादी नेता पर राजद्रोह का अभियोग लगा था।

क्रान्ति का सूत्रपात (मार्च, 1917 की क्रान्ति)-

क्रान्ति का तात्कालिक कारण रोटी की कमी थी। 9 मार्च, 1917 को मजदूरों ने भूख से व्याकुल होकर पेट्रोगाड में हड़ताल कर दी। मजदूरों की भीड़ सड़कों पर रोटी के नारे लगाते हुए लूटमार करने लगे। सरकार ने सैनिकों को क्रान्तिकारियों पर गोलियां चलाने का आदेश दिया, परन्तु सैनिकों ने इस आदेश का पालन करने से इन्कार कर दिया। दूसरे दिन भी उग्र प्रदर्शन होते रहे वे नगर की सड़कों पर ‘रोटी दो, युद्ध बन्द करो तथा अत्याचारी शासन का नाश हो’ आदि के नारे लगा रहे थे। 10 मार्च को पेट्रोगार्ड के समस्त कारखानों में हड़ताल हो गई और नगर के बाहरी भागों में मजदूरों ने पुलिस के हथियार छीन लिये। 11 मार्च, 1917 को जार ने ड्रयमा को भंग कर दिया। ड्यूमा के सदस्यों ने घटनाओं पर ध्यान देने के लिये एक समिति नियुक्त कर दी। 12 मार्च को सैनिक टुकड़ियों अधिकारियों के आदेश का उल्लंघन करके विद्रोहियों के साथ जा मिली। क्रान्तिकारियों, मजदूरों तथा सैनिकों ने मिलकर ‘सैनिकों एवं मजदूरों के प्रतिनिधियों की क्रान्तिकारी सोवियत’ की स्थापना की। 19 मार्च, 1917 को क्रान्तिकारी सोवियत (परिषद) और ड्यूमा के सदस्यों की एक समिति ने मिलकर एक ‘अस्थायी सरकार’ का गठन किया। जिसके नेता प्रिंस ल्वाव थे। 15 मार्च, 1917 को जार निकोलस द्वितीय ने सिंहासन का परित्याग कर दिया। इस प्रकार रूस में रोमोनाव वंश के शासन का अन्त हो गया तथा उसके स्थान पर नयी क्रान्तिकारी सरकार स्थापित हो गई।

अस्थायी सरकार के कार्य-

अस्थायी सरकार ने अनलिखित महत्वपूर्ण कार्य किये-

(1) अस्थायी सरकार ने भाषण तथा प्रेस की स्वतन्त्रता घोषित कर दी।

(2) राजनैतिक बन्दियों को मुक्त कर दिया गया। जिन राजनैतिक बन्दियों को निर्वासित कर दिया था, उन्हें पुनः देश में आने की अनुमति प्रदान कर दी गई।

(3) मजदूरों के संघ बनाने तथा हड़ताल करने के अधिकार को मान्यता दी गई।

(4) यहूदियों के विरुद्ध जितने कानून बनाये गए थे, उन्हें रद्द कर दिया गया।

(5) पोलैण्ड को स्वशासन का वचन दिया गया तथा फिनलैण्ड को वैध अधिकारों को मान्यता दे दी गई।

(6) देश का नया संविधान बनाने के लिए एक नवीन संविधान सभा की स्थापना की घोषणा की गई।

(7) ग्रीक चर्च के विशेषाधिकार समाप्त कर दिये गये।

अस्थायी सरकार की समस्याएँ-

(1) अस्थायी सरकार को एक ओर असफल युद्ध का संचालन करना था तथा दूसरी ओर आन्तरिक व्यवस्था स्थापित करनी थी। अस्थायी सरकार के मन्त्रियों की यह धारणा थी कि कुछ समय पश्चात् क्रान्ति का जोश समाप्त हो जायेगा तथा वे संवैधानिक राजतन्त्र की पुनः स्थापना कर सकेंगे। वे ऐसी उदार सरकार स्थापित करना चाहते थे जिसमें वैयक्तिक स्वतन्त्रता के साथ-साथ व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधिकार की गारण्टी भी हो और भूमि की समस्या को वैधानिक ढंग से सुलझाया जाये। परन्तु मजदूरों और सैनिकों की सोवियत चाहती थी कि जमींदारों की भूमि बिना मुआवजे के किसानों में बाँट दी जाए तथा सभी सम्पूर्ण उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए।

(2) अस्थायी सरकार मित्र राष्ट्रों के सहयोग से युद्ध जारी रखना चाहती थी, किन्तु मजदूरों – और सैनिकों को सोवियत चाहती थी कि युद्ध बन्द कर दिया जाए।

(3) पेट्रोग्राड की सोवियत तथा उनके नेता अस्थायी सरकार में विश्वास नहीं रखते थे। . अतः उन्होंने गाँव-गाँव में स्वतन्त्र सोवियत का निर्माण कर लिया था। अस्थायी सरकार तथा सोवियत में तीव्र मतभेद था।

(4) 15 मार्च को पेट्रोगार्ड की सोवियत ने अपना आज्ञा पत्र न. 1 प्रसारित किया। जिसमें जल सेना एवं थल सैनिकों से केवल उस आदेशों का पालन करने के लिए कहा गया जो सोवियत के आदेश के विपरीत न हों। अस्थायी सरकार ने इस आज्ञा का विरोध किया। इसी समय से दोनों में तनातनी शुरू हो गई।

जून, 1917 में पेट्रोग्राड सोवियत ने ‘अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस’ का सम्मेलन आयोजित किया। जिसमें क्रान्तिकारी, समाजवादी, बोल्तशेविक तथा मेन्शेविक दल के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। इस समय लेनिन के बोल्तशेविक तथा दल ने क्रान्तिकारी समाजवादियों तथा मेन्शेविक दल को सलाह दी कि वेल्वाव की मिली-जुली सरकार को समाप्त करके स्वयं अपना मन्त्रिमण्डल गठित करें। 9 जुलाई 1917 को मजदूरों ने प्रदर्शन किया तथा ‘युद्ध को समाप्त करो’, ‘पूँजीवादी मन्त्रियों को हटाओ’ तथा ‘सभी अधिकार सोवियत को दो’ के नारे लगाये। 3 जुलाई 1917 को सरकार के विरुद्ध एक बड़ा विद्रोह हुआ परन्तु सरकार ने सेना की सहायता से इस विद्रोह को दबा दिया। सरकार ने महसूस किया कि इस विद्रोह को भड़काने में बोल्तशेविक दल का हाथ था, इसी कारण सरकार ने बोल्शेविक नेताओं को बन्दी बनाने की आज्ञा दे दी। अतः लेनिन को रूस छोडकर भागना पड़ा।

करेन्स्की सरकार की स्थापना- ल्वाव की सरकार के विरुद्ध रुसियों में असन्तोष बढ़ता रहा। गेलेशिया में रूसी आक्रमण की विफलता के कारण तवाव की सरकार की कटु आलोचना की गई। अतः तवाव को प्रधानमंत्री के पद से त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद करेन्स्की के नेतृत्व में नई सरकार का गठन किया गया। बोल्शेविक करेन्स्की की सरकार का निरन्तर विरोध करते रहे तथा ‘शान्ति’, ‘भूमि’ और ‘रोटी’ के नारे लगाते रहे। समाजवादियों में आपसी मतभेद बढ़ने के कारण भी बोल्शेविक दल का प्रभाव बढ़ने लगा। दूसरी ओर सेनापति कार्नीलाव ने सत्ता हथियाने का प्रयल किया। कार्नीलाव ने 7 सितम्बर को रूसी कोसाक सैनिक टुकड़ी को पोट्रोग्राड पर अधिकार करने के आदेश दिये परन्तु करेन्स्की की सरकार ने बोल्शेविकों की सहायता से कार्नीलाव के विद्रोह को कुचल दिया। इससे बोल्शेविकों को अपना प्रभाव बढ़ाने का अच्छा अवसर मिल गया।

नवम्बर, 1917 की क्रान्ति- करेन्स्की की सरकार ने गठन के बाद भी देश की आन्तरिक स्थिति में किसी प्रकार का सुधार नहीं हो सका। अतः करेन्स्की की सरकार के विरुद्ध असन्तोष बढ़ता गया। 12-13 सितम्बर को लेनिन ने फिनलैण्ड से बोल्शेविक दल की कार्यकारिणी को गुप्त पत्र लिखा जिसमें यह कहा गया था कि अब सशस्त्र क्रान्ति द्वारा सत्ता प्राप्त करने का समय आ गया है। 23 अक्टूबर को वोल्सैविक दल की कार्यकारिणी ने लेनिन के आदेशानुसार सशस्त्र क्रान्ति द्वारा सत्ता प्राप्त करने का निर्णय किया। 6-7 नवम्बर की रात्रि को लालरक्षकों तथा नियमित सैनिकों की टुकड़ियों ने टेलीफोन केन्द्र डाकघर, बिजलीघर, रेलवे स्टेशन, नेशनल बैंक आदि प्रमुख स्थानों पर अधिकार कर लिया। 7 नवम्बर को प्रातःकाल करेन्स्की राजधानी छोड़कर निकल पड़ा। उसकी सरकार के सभी मन्त्री बन्दी बना लिये गये। इस प्रकार कुछ घण्टों में बिना रक्तपात के रूस की राजधानी पर बोल्शेविकों का अधिकार हो गया। राजधानी के प्रमुख स्थानों पर कुछ इश्तिहार चिपकाये गये जिनमें यह घोषित किया गया था कि “अस्थायी सरकार समाप्त कर दी गई है और उसके स्थान पर सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी समिति तथा पेट्रोग्राड के गेरीसन ने सत्ता ग्रहण कर ली है।” 8 नवम्बर, 1917 को नई सरकार के मन्त्रिमण्डल का गठन किया गया तथा लेनिन को मन्त्रिपरिषद का अध्यक्ष बनाया गया।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!