आदर्शवाद की परिभाषा

आदर्शवाद की परिभाषा | आदर्शवाद के मूल सिद्धान्त

आदर्शवाद की परिभाषा
आदर्शवाद की परिभाषा

आदर्शवाद की परिभाषा | आदर्शवाद के मूल सिद्धान्त

आदर्शवाद को विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है। यहाँ उन सब परिभाषाओं को प्रस्तुत करना सम्भव नहीं। उस सबके विषय में हम इतना अवश्य कहना चाहेंगे। कि उनमें आदर्शवाद के किसी एक अथवा कुछ मूल सिद्धान्तों पर ही बल दिया गया है, वे उसको उसके सम्पूर्ण रूप में प्रस्तुत नहीं करती। पाश्चात्य विद्वान हेंडरसन द्वारा दी गई परिभाषा से अधिकतर विद्वान सहमत हैं। उनके शब्दों में-

आदर्शवाद मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष पर बल देता है, क्योंकि आदर्शवादियों के अनुसार अध्यात्मिक मूल्य मनुष्य के और जीवन के सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहलू है। एक तत्वज्ञानी आदर्शवादी यह विश्वास करता है कि मनुष्य का सीमित मन उस असीमित मन के निकलता है, व्यक्ति और यह संसार दोनों बुद्धि (विचार) की अभिव्यक्ति हैं और भौतिक संसार की व्याख्या मानसिक संसार के आधार पर की जा सकती है।

परन्तु यह परिभाषा स्वयं में इतनी गुम्फित है कि इसके प्रत्येक पद (शब्द) की व्याख्या की आवश्यकता है। आदर्शवाद की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमासा और मूल्य एवं आचार मीमांसा के आधार पर हम उसे निम्नलिखित रूप में परिभाषित कर सकते हैं-

आदर्शवाद पार्चात्य दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर द्वारा निर्मित मानती हैं और यह मानती है कि इस वस्तु जगत की अपेक्षा आध्यात्मिक जगत श्रेष्ठ है। यह ईश्वर को अन्तिम सत्य और आत्मा को ईश्वर का अंश मानती है और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति है, जिसे आध्यात्मिक जीवन जीने अर्थात् शाश्वत मूल्यों और नैतिक नियमों के पालन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

आदर्शवाद के मूल सिद्धान्त

आदर्शवाद की तत्व मीमांसा, ज्ञान एव तर्क मीमांसा और मूल्य एव आचार मीमासा को यदि हम सिद्धान्तों के रूप में क्रमबद्ध करना चाहें तो निम्नलिखित रूप में कर सकते हैं-

  1. यह ब्रह्माण्ड ईश्वर द्वारा निर्मित है –

आदर्शवादियों का विश्वास है कि इस ब्रह्माण्ड की कोई नियामक सत्ता अवश्य है और यह सत्ता अनादि तथा अनन्त है और इसका स्वरूप आध्यात्मिक है। प्लेटो की दृष्टि से यह सत्ता ईश्वर है जो किचारों की सहायता से सृष्टि की रचना करता है। हींगल के अनुसार ब्रह्माण्ड के मूल में दो मूल तत्व है-एक आत्मा (मनस्, Mind) और दूसरा प्रकृति (पुद्गल, Matter) । उनके अनुसार परमात्मा (परम मन, Super Mind) पदार्थ (Matter) से इस ब्रह्माण्ड की रचना करता है।

  1. भौतिक जगत की अपेक्षा आध्यात्मिक जगत श्रेष्ठ है –

प्लेटो ने इस ब्रह्माण्ड को दो जगतों में बाँटा है-विचार जगत और वस्तु जगता उनका स्पष्टीकरण है कि विचार नित्य और अपरिवर्तनशील है इसलिए वे सत्य हैं और उनसे बना विचारों का जगत भी सत्य है । इसके विपरीत पदार्थ अनित्य और परिवर्तनशील हैं इसलिए असत्य हैं और उनसे बना जगत भी असत्य है। उनके अनुसार यह भौतिक संसार विचारजन्य संसार की अभिव्यक्ति मात्र है। हीगल भी दो जगत मानते थे-आत्मिक जगत और पदार्थ जगत। अन्तर इतना है कि वे आत्मा के साथ-साथ पदार्थ की सत्ता भी स्वीकार करते थे। उनकी दृष्टि से दोनों जगत ही सत्य हैं। परन्तु इनता व भी मानते थे कि आत्मिक जगत इस पदार्थ जगत से श्रेष्ठतर है।

  1. आत्मा एक आध्यात्मिक तत्व है और परमात्मा सर्वश्रेष्ठ आत्मा है –

यद्यपि, आत्मा के सम्बन्ध में सभी आदर्शवादी एक मत नहीं हैं, कुछ उसे परमात्मा का अश मानते हैं और कुछ उसकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करते हैं; परन्तु यह सभी मानते हैं कि आत्मा अनादि और अनन्त है। उनका कहना है कि आत्मा को इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता, इसे बुद्धि द्वारा समझा जा सकता है। परमात्मा के विषय में भी आदर्शवादी एकमत नहीं हैं। अधिकतर आदर्शवादी उसे सर्वश्रेष्ठ आत्मा के रूप में देखते हैं।

  1. मनुष्य संसार की सर्वश्रेष्ठ रचना है –

आदर्शवादी मनुष्य को सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट रचना मानते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य के पास अन्य प्राणियों की भाँति भौतिक शक्तियाँ तो होती है, उनके साथ-साथ उसमें आध्यात्मिक शक्तियाँ और होती हैं। ये आध्यात्मिक शक्तियाँ ही उसे सभ्यता, संस्कृति, कला, नीति और धर्म को जन्म देने और उनका विकास करने में सहायक होती है जिनसे उसका भौतिक जीवन सुखमय होता है और आध्यात्मिक अनुभूति के लिए आध्यात्मिक पर्यावरण तैयार होता है।

  1. मनुष्य का विकास उसकी भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों पर निर्भर करता है –

आदर्शवादियों के अनुसार ज्ञान का स्वरूप भौतिक एवं आध्यात्मिक दो प्रकार का होता है। उनका स्पष्टीकरण है कि भौतिक ज्ञान की प्राप्ति भौतिक शक्ति (इन्द्रियों) द्वारा होती है। और आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति आध्यात्मिक शक्ति (आत्मा) द्वारा होती है और इस प्रकार मनुष्य का भौतिक विकास उसकी भौतिक शक्तियों के आधार पर होता है और आध्यात्मिक शक्तियों के द्वारा वह सभ्यता, सस्कृति, कला, नीति और धर्म का निर्माण करता है और उनकी सहायता से अपने भौतिक पर्यावरण पर नियन्त्रण करने और आत्मानुभूति करने में सफल होता है।

  1. मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति अथवा ईश्वर प्राप्ति है –

आदर्शवादी मनुष्य जीवन को महत्वपूर्ण और सप्रयोजन मानते हैं। उनका विश्वास है कि मनुष्य के अन्दर आत्मा का निवास है। यह आत्मा सूक्ष्म, अनादि और अनन्त है। प्रत्येक प्राणी इस दुष्टि से पूर्ण है। परन्तु अज्ञानता के कारण वह इस पूर्णता को समझ नहीं पाता और इसलिए ज्ञान और शक्ति का अनन्त भण्डार होते हुए भी वह अपने को ज्ञानहीन और शक्तिहीन समझता है। मानव शरीर द्वारा पूर्णता की अनुभूति होती है। अत: मनुष्य योनि पाकर हमें उसकी अनुभूति करनी चाहिए, तब हम संसार के कष्टो से बच जाएँगे और हमें परमानन्द की अनुभूति होगी। कुछ आदर्शवादी इसी को आदर्श व्यक्तित्व की प्राप्ति कहते हैं। इस प्रकार आदर्शवादियों के अनुसार मनुष्य के जीवन का चरम उद्देश्य आत्मानुभूति, ईश्वर प्राप्ति परम सत्य अथवा परम आनन्द की प्राप्ति है।

  1. आत्मानुभूति अथवा ईश्वर प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक मूल्य सत्यं, शिवं और सुन्दरम् की प्राप्ति आवश्यक होती है –

प्लेटो तीन सनातन मूल्यों में विश्वास करते थे। ये मूल्य हैं- सत्यं, शिव और सुन्दरम्। हम जानते हैं कि कुछ आदर्शवादी प्रत्यय पर अधिक बलदेते हैं और कुछ आत्मन् पर और इन दोनों का परम रूप परमात्मा है। सत्यं, शिवं और सुन्दरम् आत्मा तथा परमात्मा रूपी रवे की तीन सतह है जिन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। जो सत्य है और जो शिव है वही सुन्दर है। इसी प्रकार जो सुन्दर है वही शिव है वही सत्य है। यदि हम विचार कर देखें तो इन तीन आध्यात्मिक मूल्यो-सत्य, शिव और सुन्दरम् का आधार मानव मस्तिष्क और उसकी प्रकृति ही है। मनोविज्ञान की दृष्टि से मानव मस्तिष्क की तीन प्रक्रियाएँ हैं-जानना, संवेग अथवा अनुभूति और वाछा अर्थात् कुछ करने की इच्छा। मनुष्य किसी वस्तु अथवा क्रिया के विषय में जानकर सत्य-असत्य में भेद करता है और सत्य को अपनाता और असत्य को त्यागता चलता है। ज्ञान के आधार पर ही वह सुन्दर और असुन्दर का भेद करता है, सुन्दरता की अनुभूति से आनन्द लाभ करता है और असुन्दर एवं कुरूप वस्तुओं तथा क्रियाओं को त्याग देता है। इस प्रकार मानव मस्तिष्क की प्रवृत्ति सत्यं, शिव और सुन्दरम् की प्राप्ति की ओर होती है।

  1. आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति के लिए नैतिक आचरण आवश्यक है –

सत्यं, शिंव और सुन्दरम् आध्यात्मिक मूल्य हैं। इनको इस शरीर से ही प्राप्त किया जाता है, इसलिए इस शरीर को उसके योग्य बनाना आवश्यक है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य ससार के अन्य प्राणियों की भाँति ही लड़ते-झगड़ते रहते हैं और पशुओं की भाँति जीवन व्यतीत करते हैं। सामाजिक भावना उन्हें एक-दूसरे के निकट लाती है और वे एक-दूसरे के सुख की बात सोचने लगते हैं। आदर्शवादियों ने हमें बताया कि हम सब आत्माधारी हैं इसलिए समान हैं, और इसलिए एक प्राणी के दूसरे प्राणी के प्रति कुछ कर्त्तव्य हैं। कर्त्तव्यों को सामाजिक मूल्य, धर्म, नीति और आदर्श अनेक रूपों में संगठित किया गया है। आदर्शवादियों का कहना है कि मनुष्य, मनुष्य के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करने में ही सत्यं, शिव और सुन्दरम् के दर्शन कर सकता है। इस प्रकार आदर्शवाद मनुष्य के इहलोक और परलोक दोनों को सुखमय बनाने के लिए आधार प्रस्तुत करता है।

  1. राज्य एक सर्वोच्च सत्ता है –

प्राय: सभी आदर्शवादी राज्य को व्यक्ति से उच्च स्थान देते हैं। यूनानी दार्शनिक प्लेटो जब सत्य एवं पूर्ण विचार करने वाले व्यक्तियों की कल्पना न कर सके तो उन्होंने सत्य विचार (नियम, Law ) को ही राज्य स्वीकर किया। हीगल और फिश्टे ने भी राज्य को आदर्श और सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकार किया है।

Disclaimersarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *