शिक्षाशास्त्र / Education

शिक्षा में प्रकृतिवाद | प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य | प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

शिक्षा में प्रकृतिवाद | प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य | प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

शिक्षा में प्रकृतिवाद

प्रकृतिवाद के रूपों पर प्रकाश डालते हुए हमने थोड़ा-सा प्रकाश शिक्षा के सम्बन्ध में भी डाल दिया है। यह सही है कि मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुरूप अपने को शिक्षित करने में समर्थ होता है। मनुष्य की निजी प्रकृति और उसके चारों ओर की प्रकृति का प्रभाव उसके अनुभव ज्ञान लेन-देन को प्रक्रिया को अच्छी तरह प्रभावित करती है। जैसे शोर-गुल के वातावरण से चिन्तन-मनन की क्रिया विचलित होना स्वाभाविक है, अतः शान्त वातावरण ही शिक्षा के लिए आवश्यक है और इसको उपलब्ध करना शिक्षा- व्यवस्था की दृष्टि से होना चाहिए। यहाँ प्रकृतिवाद की छाप दिखाई देती है। अब हम शिक्षा के विभिन्न अंगों के साथ प्रकृतिवादी प्रभाव बताने का प्रयत्न करेंगे।

(i) प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य-

शिक्षा का सम्बन्ध मनुष्य की प्रकृति से होता है अतएव प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य है मानव प्रकृति का उदात्तीकरण Education means sublimation of human nature)। इस विचार से शिक्षा वह प्रक्रिया और साधन हैं जो मनुष्य में स्वाभाविक रूप से पाय जाने वाले गुणों को ऊँचा उठाती है, विकसित करती है और आगे बढ़ाती है अथवा आन्तरिक गुणों को बाहर प्रकट करती है। प्रकृतिवाद के तीनों रूपों के अनुसार शिक्षा के ऊपर कथित तात्पर्य की व्याख्या तीन ढंग से होती है। जीव विज्ञानियों के अनुसार शिक्षा मनुष्य को अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन में सहायता देती है तभी वह उच्च गुणों से युक्त होता है। जीवन की सभी परिस्थितियों में मनुष्य अपने आपको समर्थ बनाता है, अपनी रक्षा करता है, ऐसी दशा में शिक्षा जीवन के लिए तैयारी मात्र न होकर स्वयं जीवन बन जाती है। इसी आधार पर विकास होता है। अतएव प्रो० रॉस ने लिखा है कि “शिक्षा केवल प्राकृतिक विकास को बढ़ाना है और सच्ची शिक्षा तभी होती है जब बालक की प्रकृति, शक्तियाँ और प्रवृत्तियाँ न्यूनतम निर्देशन के साथ स्वतन्त्र ढंग से विकसित होती हैं ।”

जीव विज्ञानी प्रकृतिवाद का प्रभाव शिक्षा पर अधिक पड़ा है और उसने शिक्षा का तात्पर्य किस ढंग से बनाया है इसे हमें जानना चाहिए। जीव वैज्ञानिक दृष्टिकोण से शिक्षा का तात्पर्य मनुष्य के द्वारा अपने पर्यावरण के साथ उचित अनुकूलन होता है। इस विज्ञान के दो बड़े पोषक हुए हैं-डार्विन और लेमार्क। इन लोगों ने जीवन-रक्षा के लिए प्रयत्न और पर्यावरण के साथ अनुकूलन पर जोर दिया है। ऐसी दशा में मनुष्य यह प्रयल करता है कि वह अपने आपको जीवित रखने के लिए सभी परिस्थितियों एवं समस्याओं से संघर्ष कर उन्हें हल कर और आगे बढ़े। अतएव इस दृष्टि से शिक्षा का तात्पर्य उस प्रयत्न से होता है जो जीवन के लिए किया जाये! दूसरे शब्दों में शिक्षा और जीवन समानार्थी होते हैं।

जीव विज्ञान विकासवादी दृष्टिकोण रखता है अतएव कुछ विचारकों ने विकास को ध्यान में रख कर शिक्षा का तात्पर्य बताया है। शनिवार से शिक्षा केवल प्राकृतिक विकास को बहुत ही सरल और स्पष्ट ढंग से बढ़ाती है। इस सम्बन्ध में प्रकृतिवाद के पाश्चात्य प्रतिनिधि रूसो का विचार है कि “प्रकृति द्वारा शिक्षा प्राकृतिक सरल मनुष्य को पुनः ला देगी जिसका एकमात्र कार्य एक मनुष्य होना है।”

इस प्रकार इस दृष्टि से शिक्षा का तात्पर्य मनुष्य को सरल मनुष्य बनाने की क्रिया है। इस क्रिया के ‘द्वारा मनुष्य की शक्तियों का स्वतन्त्र विकास होगा, उसमें सभी शारीरिक, बौद्धिक तथा भावात्मक गुण अपने आप विकसित होंगे। इससे शिक्षा मानव के विकास की क्रिया होती है।

प्रकृतिवाद ने स्वतन्त्र विकास को सामने रख कर समाज में जनतन्त्रवादी दृष्टिकोण को भी आगे बढ़ाया है और रूसो इसका प्रतिपादक माना गया है। जनतन्त्रवादी शिक्षा मानवतावादी भी मानी गई है। अतएव इस आधार पर शिक्षा वह क्रिया मानी जाती है जिससे मानव में स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व का विकास होता है।

भारतीय प्रतिनिधि हम टैगोर को लेते हैं। इन्होंने प्रकृतिवाद की ओर जो सुझाव दिखाया है उसके अनुसार शिक्षा का तात्पर्य भी हमें समझना चाहिए। इनका कहना है कि “सच्ची शिक्षा तो संग्रहीत सामग्री के सही प्रयोग में, उसकी वास्तविक प्रकृति को जानने में और उसे जीवन के साथ एक वास्तविक जीवन रक्षा के रूप में निर्माण करने में होती है।”

वास्तव में टैगोर भी रूसो के समान शिक्षा को वह क्रिया मानते थे जिससे “पूर्ण मनुष्यता” का निर्माण हो। शिक्षा इस प्रकार मनुष्यता के विकास की सरल और प्राकृतिक प्रक्रिया है।

(ii) प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य-

शिक्षा का तात्पर्य जानने के बाद हम उसके उद्देश्य को भी समझें। प्रकृतिवाद के अनुसार हमें शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य मिलते हैं:-

(1) मनुष्य की आन्तरिक प्रवृत्तियों का मार्गान्तरीकरण और उदात्तीकरण- पूर्ण मनुष्यता के लिए यह उद्देश्य आवश्यक है। मनुष्य को सरल एवं प्राकृतिक ढंग से आगे बढ़ाने में यह उद्देश्य माना गया है। इससे वांछित मार्ग पर मनुष्य बढ़ता है।

(2) जीवन की परिस्थितियों का सामना करने, हल करने में मनुष्य की योग्यता तथा शक्ति का विकास- यदि यह उद्देश्य न रखा जाये तो मनुष्य जीवन धारण करने में असमर्थ होगा। अतएव शारीरिक एवं मानसिक तौर पर मनुष्य को सभी परिस्थितियों को जीतने के लिए तैयार करना शिक्षा का उद्देश्य है।

(3) अनुकूलन की क्षमता का विकास- विकासवादी शिक्षाशास्त्रियों ने इस उद्देश्य पर जोर दिया है क्योंकि मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो अपने आपको पर्यावरण के साथ अनुकूलन करने में समर्थ बनाता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास उचित रूप से नहीं हो पाता है।

(4) मनुष्य की प्राकृतिक शक्तियों का पूर्ण रूप से विकास- पेस्टालोजी तथा उसके पूर्व रूसो ने लिखा है कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य की प्राकृतिक शक्तियों का पूर्ण विकास होना चाहिए | पूर्ण विकास में इन लोगों ने स्वतन्त्र और स्वाभाविक विकास को रखा है।

(5) सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करने की योग्यता का विकास- कुछ प्रकृतिवादी इस उद्देश्य पर बल देते हैं। हर्बर्ट स्पेन्सर ने “जीवन की तैयारी” और जॉन डीवी ने “जीवन और शिक्षा’ की बात की है। इन दोनों के विचारों को मिला देने से सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करने की योग्यता आती है और प्रकृतिवाद इस उद्देश्य की ओर ध्यान देता है।

(6) मनुष्य की जातीय विशेषताओं का विकास- प्रो० बर्नार्ड शा जैसे प्रकृतिवादी विचारक ने बताया है कि हमें जो गुण अपनी शारीरिक आनुवांशिकता से नहीं मिल पाते हैं उन्हें हम शिक्षा के द्वारा पूरा करते हैं। ऐसी दशा में शिक्षा का उद्देश्य जातीय विशेषताओं और गुणों को मनुष्य में विकसित करना होता है। इसीलिए शिक्षा का कार्य जातीय अनुभवों को सुरक्षित रखना है और समयानुसार उन्हें हस्तान्तरित भी करना है।

(7) मनुष्य की व्यक्तिगत शक्तियों का विकास- प्रकृतिवाद व्यक्ति के विकास पर जोर देता है अतएव शिक्षा का उद्देश्य अलग-अलग मनुष्य की निजी मूलशक्तियों, क्षमताओं, योग्यताओं, रुचियों एवं रुझानों का विकास प्रकृतिवाद के अनुसार माना गया है। इसका दो साधन है-आत्मानुभूति और आत्म-प्रकाशन जैसा कि प्रो० नन ने बताया है।

प्रकृतिवाद के पाश्चात्य प्रतिनिधि रूसो को लिया जा सकता है। इन्होंने शिक्षा के उद्देश्य के बारे में इस प्रकार बताया है, “शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक को उसकी अपनी समस्त नैसर्गिक एवं जन्मजात शक्तियों, प्रवृत्तियों और इच्छाओं के विकास में सहायता करना है।”

प्रकृतिवाद के भारतीय प्रतिनिधि टैगोर हैं जिन्होंने प्रकृतिवादी दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य इस प्रकार बताया है, “इस समय हमारा ध्यान आकर्षित करने वाली प्रथम और महत्वपूर्ण समस्या हमारी शिक्षा और हमारे जीवन में सामंजस्य स्थापित करने की है। अतः हमारी शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को वह योग्यता तथा क्षमता प्रदान करना है जिससे कि वह जीवन के साथ पूर्ण सामंजस्य लाने में समर्थ हो सके।”

इन दोनों विचारकों की बातों को ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि दोनों की दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की प्राकृतिक क्षमताओं का प्राकृतिक ढंग से विकास करके मनुष्य को ऊँचा उठाना है।

(iii) प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम-

प्रकृतिवाद के उद्देश्यों के अनुरूप उसके पाठ्यक्रम (Curriculum) की भी रचना हुई है। प्रकृतिवाद भौतिकवाद का एक अंग है और कुछ लोगों ने तो उसे “आधुनिक भौतिकवाद” (Modern Materialism) ही माना है। इस विचार से भौतिक जीवन पर आधारित पाठ्यक्रम भी रखा गया है। भौतिक तथा सांसारिक जीवन के लिए आवश्यक विज्ञान, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, शिल्प, उद्योग के विषय इसमें शामिल किये गये। दूसरी विशेषता वैयक्तिकता सम्बन्धी है। इस विचार से पाठ्यक्रम का आधार मनोविज्ञान बनाया गया है और शिक्षार्थी की रुचि, योग्यता, सामर्थ्य, शक्ति, बुद्धि, अनुभवादि के आधार पर विभिन्न क्रियाएँ एवं विषय पाठ्यक्रम में आ गये। मनोरंजन और ज्ञान का सामंजस्य किया गया। भौतिकवादी दृष्टिकोण से प्रकृतिवादी शिक्षाशास्त्री पाठ्यक्रम में उन विषयों एवं क्रियाओं पर अधिक बल देते हैं जिससे मनुष्य की इन्द्रियों का प्रशिक्षण पूरी तौर से होवे । ऐसी दशा में भौतिक-विज्ञान, रसायन-विज्ञान, प्रकृति-विज्ञान, प्रकृति-अध्ययन तथा विभिन्न प्रकार के कौशल एवं श्रम के विषय, प्रायोगिक कार्य, स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी क्रियाएँ सभी पाठ्यक्रम में महत्वपूर्ण माने गये हैं और इन्हें स्थान भी दिया गया है। पाठ्यपुस्तकों के अनुभव की क्रियाओं पर विशेष बल दिया गया है। अन्त में प्रकृतिवाद धर्म निरपेक्ष (Secular) दृष्टिकोण अपनाता है अतएव नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक विषय एवं क्रियाओं को पाठ्यक्रम से बिल्कुल अलग ही रखा गया है। धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, दर्शन एवं अध्यात्मशास्त्र ये सभी विषय पाठ्यक्रम में नहीं हैं। प्रकृतिवादियों ने, पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा पर भी बल दिया है।

ऊपर के विचारों से हमें प्रकृतिवादी शिक्षा के पाठ्यक्रम में नीचे लिखे विषय एवं क्रियाएँ मिलती हैं-

(1) विज्ञान- भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, बनस्पति विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, मनोविज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, गृह विज्ञान, भूगोल ।

(2) भाषा- विज्ञानों के समझने के लिये एक आवश्यक माध्यम के रूप में। मातृभाषा के लिए विशेष ध्यान |

(3) गणित- विज्ञानों के साहचर्य में अध्ययन का विषय, दैनिक आवश्यकता में सहायता देने के विचार से ।

(4) इतिहास- पुराने लोगों के अनुभवों की जानकारी से परिस्थितियों से लाभ उठाने के विचार से।

(5) राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र- समाज की परिस्थितियों के साथ सामंजस्य के विचार से।

(6) खेल-कूद, व्यायाम, भ्रमण, मनोरंजन की क्रियाएँ, प्रायोगिक एवं व्यावहारिक कार्य, सभा गोष्ठी, आदि।

पाश्चात्य प्रकृतिवादी प्रतिनिधि ने विभिन्न अवस्थाओं के अनुसार पाठ्यक्रम निर्धारित किया है। शैशवावस्था में उनके अनुसार खेल-कूद, दौड़-धूप, क्रिया तथा दैनिक जीवन के आचरणों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाये। बाल्यकाल में भौतिक विज्ञान, सामान्य विज्ञान, गणित, ज्यामिति, भूगोल, भाषा, ज्योतिष-नक्षत्र विज्ञान, खेल-कद तथा व्यायाम पाठ्यक्रम में रखा जाये। बाल्यकाल में इन विषयों का उच्चतर ज्ञान दिया जावे | युवावस्था में यौन-शिक्षा, समाज-शिक्षा, उद्योगों-व्यवसायों तथा संगीत-कला के विषयों को पाठ्यक्रम में रखा जावे । स्त्री वर्ग की शिक्षा के पाठ्यक्रम में रूसो ने गृह विज्ञान, गृह-व्यवस्था और अर्थशास्त्र जैसे विषयों को रखा है। स्त्री-शिक्षा में इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान, दर्शन आदि को नहीं रखा गया है।

भारतीय प्रकृतिवादी टैगोर के विचार पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में कुछ अधिक व्यापक दिखाई देते हैं। उन्होंने पाठ्यक्रम का सम्बन्ध मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से रखा है। इस आधार पर सभी विषय एवं क्रियाओं को पाठ्यक्रम में स्थान दिया है। उनके अनुसार पाठ्यक्रम में सभी महत्वपूर्ण भाषाएँ, गणित, सभी विज्ञान, इतिहास, भूगोल, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, कला, संगीत, नृत्य, कृषि, तकनीकी विषय, दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान तथा खेल-कूद, अभिनय, भ्रमण तथा सांस्कृतिक-सामाजिक क्रियाएँ होनी चाहिए | दृष्टिकोण प्राकृतिक ढंग से सम्पूर्ण मनुष्यता के विकास का होना चाहिये, इस बात पर रूसो तथा टैगोर दोनों ने जोर दिया है।

(iv) प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा की विधियाँ-

प्रकृतिवादी शिक्षा में हमें दो विशेष पहलुओं पर विचार मिलते हैं-एक दार्शनिक पहलू है और दूसरा मनोवैज्ञानिक। ऐसी दशा में इन दोनों को ध्यान में रखकर क्रमशः शिक्षा के उद्देश्यों और शिक्षा की विधियों को निर्धारित किया गया है। उक्त दोनों बातों के अनुसार हमें प्रकृतिवादियों द्वारा प्रतिपादित निम्नलिखित शक्षण विधियाँ मिलती हैं :-

(1) स्वानुभव की विधि जिसमें अपने आप स्वतन्त्र होकर शिक्षार्थी सीखता है, अनुभव ग्रहण करता है।

(2) क्रियाविधि जिसमें शिक्षार्थी व्यावहारिक ढंग से कार्य करता है और शिक्षा लेता है।

(3) खेल विधि जिसमें आनन्द एवं स्वतन्त्रता के साथ शिक्षार्थी आत्मानुभूति एवं आत्मप्रकाशन का अवसर प्राप्त करता है।

(4) स्वयं-खोज या यूरिटिक विधि जिसमें शिक्षार्थी अपनी जिज्ञासा की पूर्ति करता है।

(5) निरीक्षण विधि जिसमें वह विभिन्न वस्तुओं को अच्छी तरह से देखता-समझता है।

(6) वस्तुओं से सीखने की विधि जिसे आज श्रव्य-दृश्य सामग्री से सीखने की विधि कहा गया है।

(7) भ्रमण विधि जिसमें विभिन्न स्थानों तथा संस्थानों में जाकर शिक्षार्थी स्वयं ज्ञान प्राप्त करता है।

पाश्चात्य प्रतिनिधि रूसो ने भी शिक्षा-विधि पर अपने विचार दिये हैं उन्होंने बताया है कि “प्रकृति की ओर लौटो” तथा “प्रकृति के समान क्रिया करो” (Return to Nature and act as the Nature does)| अतएव रूसो द्वारा प्रतिपादित शिक्षा की विधियाँ हैं-क्रिया और खेल-विधि, वस्तुओं के द्वारा शिक्षा की विधि, निरीक्षण की विधि, स्वानुभव की विधि, स्वयं खोज की विधि, प्रयोग और अभ्यास की विधि, स्थूल से सूक्ष्म की विधि, निषेधात्मक शिक्षा की विधि। इन विधियों को अलग-अलग विषयों की शिक्षा के लिए भी रूसो ने बताया है जैसे भूगोल शिक्षा के लिए निरीक्षण विधि, भाषा के लिए वार्तालाप की विधि, विज्ञान के लिए निरीक्षण व प्रयोग की विधि ।

प्रकृतिवाद के भारतीय प्रतिनिधि टैगोर ने अपने शैक्षिक विचार देते हुए निम्नलिखित शिक्षा की विधियों की ओर संकेत किया है जिनमें अधिकतर विधियाँ रूसो की विधियों से मिलती-जुलती हैं:-

क्रिया-विधि, वस्तु-विधि, स्वाध्याय-विधि, प्रयोग-विधि, अनुदेश-विधि, निर्देशन-विधि, विवेचन-विधि, प्रश्नोत्तर-विधि, भ्रमण-विधि ।

ऊपर के विचारों से स्पष्ट है कि प्रकृतिवादी शाब्दिक एवं निष्क्रिय शिक्षा विधि के विरुद्ध हैं। क्योंकि इससे स्वानुभव एवं प्रत्यक्ष ज्ञान का अवसर नहीं मिलता है। प्रकृतिवादी ऐसी शिक्षा विधि के पक्ष में हैं जो प्रसन्नतापूर्ण, स्वक्रियात्मक, सृजनात्मक और प्रयोगात्मक हो।

(v) प्रकृतिवाद के अनुसार अनुशासन-

अनुशासन व्यक्ति के व्यवहारों के प्रतिपादन का एक तरीका है (Discipline is a manner of expressing individual behaviors) | प्रकृतिवाद व्यक्ति को इस प्रकार के व्यवहार प्रतिपादन में पूर्ण स्वतन्त्रता का पोषक है। अतः स्पष्ट है कि प्रकृतिवाद अनुशासन के मुक्तिवादी सिद्धान्त को स्वीकार करता है। मुक्तिवादी सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपने आप स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छा को प्रकट करता है। इससे आत्मप्रकाशन का पूरा-पूरा अवसर मिलता है। किसी के द्वारा हस्तक्षेप न होने से आन्तरिक शक्तियों का पूर्ण विकास भी होता है।

प्रकृतिवादी अनुशासन के लिये दो नियमों का पालन करते हैं- (1) प्राकृतिक परिणामों का नियम और (2) सुखवादी नियम। प्राकृतिक परिणाम का नियम कारण प्रभाव के नियम से बँधा है। जो जैसा करेगा वैसा पावेगा। लड़का दौड़ेगा तो गिरेगा, धूप में घूमेगा तो बीमार पड़ेगा। यह प्राकृतिक परिणामों का नियम है। इसमें सभी क्रियाओं का दण्ड-पुरस्कार समान रूप से मिलता है। हक्सले ने इस सम्बन्ध में थोड़ा सा सुधार सुझाया है कि व्यक्ति को विकास की स्वतन्त्रता रहे परन्तु उसे सन्तुलन एवं उपयुक्त ढंग से काम करने का कुछ संकेत भी किया जाये। सुखवादी नियम के अनुसार व्यक्ति जिस काम में सुख पावेगा उसे करेगा और इस प्रकार अनुशासन सीखेगा। कक्षा में बैठकर शान्ति से पढ़ना आनन्द देता है अतएव विद्यार्थी शान्ति के साथ अध्ययन करने में लगते हैं। जीवन के अन्य कार्य में भी यह नियम लागू होता है । इससे अनुशासित व्यवहार का अभ्यास व्यक्ति में होता है।

रूसो प्रकृतिवाद के एक प्रतिनिधि के रूप में प्राकृतिक परिणामों के द्वारा अनुशासन स्थापित करने के पक्ष में है। उसकी निषेधात्मक शिक्षा में इस नियम का संकेत मिलता है। अन्य प्रकृतिवादी भी रूसो के विचारों से सहमत हैं। भारतीय प्रकृतिवादी प्रतिनिधि रवीन्द्रनाथ टैगोर का विचार है कि अनुशासन स्थापित करने में कठोरता का पालन हो । स्वतन्त्रता, आनन्द, क्रियाशीलता, उत्तरदायित्व और आत्म-चिन्तन की सहायता से व्यक्ति को अनुशासित किया जावे । दण्ड से अनुशासन स्थापित नहीं होता है। टैगोर ने स्वतन्त्रता के उपचार की प्रणाली तथा प्रायश्चित प्रणाली का प्रयोग शान्ति निकेतन में सफलता के साथ किया था। यह अनुशासन की प्रणाली इस प्रकार रूसो की प्राकृतिक परिणामों की प्रणाली से बिल्कुल भिन्न थी यद्यपि दोनों का आधार मानव प्रकृति है एक प्राकृतिक है और दूसरी आत्मिक है। (One is naturalistic and the other is psychic)।

(vi) प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षक, शिक्षार्थी और विद्यालय-

अनुशासन का सम्बन्ध शिक्षक एवं शिक्षार्थी के परस्पर व्यवहार करने से होता है। अतएव इनके बारे में भी थोड़ा-सा विचार करना जरूरी है। प्रकृतिवाद में शिक्षक प्रकृति को ही माना गया है। प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षक प्रकृति के समान उदार, व्यापक, शान्त एवं सहायक हो। वह शिक्षार्थी के साथ समानता, स्वतन्त्रता एवं भ्रातृभावना का व्यवहार करे। उसके कार्यों में शिक्षक हस्तक्षेप न करे। विकास करने में सहायक बने। अतएव अपनी बुद्धि, योग्यता, क्षमता, अनुभव से वह विद्यार्थी के लिए ऐसा वातावरण तैयार करे कि उनका विकास अपने आप सम्भव हो सके। प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षक ‘स्टेज का निर्माता है और उस पर आकर विद्यार्थी आत्मानुभूति के साथ आत्म प्रकाशन करता है। विद्यार्थी को प्रेरणा देने वाला होता है, उत्तरदायित्व के साथ स्वयं कार्य करने में सहायता देने वाला होता है, इस प्रकार वह जीवन के ड्रामा में स्टेज के पीछे कार्य करने वाला होता है, ऐसा रॉस के विचारों में मिलता है।

शिक्षार्थी प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा का मुख्य बिन्दु होता है। रुचि, योग्यता, शक्ति तथा प्रवृत्ति में सभी शिक्षार्थी समान नहीं होते हैं। इस व्यक्तिगत भेद को शिक्षक द्वारा जानना-समझना जरूरी है। इसके अतिरिक्त जन्म से शिक्षार्थी (बालक) शुद्ध प्रकृति का होता है, जन्म से उसमें अच्छाइयाँ पायी जाती हैं। इस अच्छाई को स्थापित रखने के लिये शिक्षक को उसे अच्छा पर्यावरण प्रदान करना चाहिये। शिक्षार्थी को अपनी रुचि, योग्यता, शक्ति के अनुसार स्वतन्त्र ढंग से बढ़ने देना चाहिए। विद्यार्थियों के विकास हेतु शिक्षा की व्यवस्था करना शिक्षक का कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व माना जाता है। प्रकृतिवादियों ने शिक्षार्थी (बालक) “स्वर्ग के वैभव के साथ संसार में आने वाला” माना है, उसे विकासशील कहा है, उसे क्रियाशील माना है, वह अपनी ही विधि से काम करता है न कि प्रौढ़ की विधि से, वह बिना हस्तक्षेप के स्वाभाविक ढंग से काम करना पसंद करता है। इन सभी विशेषताओं को ध्यान में रखकर विद्यार्थी की शिक्षा की व्यवस्था शिक्षक को करनी चाहिए।

विद्यालय के सम्बन्ध में प्रकृतिवाद का विचार है कि विद्यालय वह स्थान है जहाँ वह हानिकारक प्रभावों से दूर रहे। इसके अलावा विद्यालय में सभी विद्यार्थी ऐसे ढंग से मिल-जुल कर रहें और काम करें जो स्वतन्त्र और स्वाभाविक समाज की तरह हों। विद्यालय विद्यार्थियों को क्रियाशील बनाने के साधन हों और उनके विकास में सहायक हों। ऐसी स्थिति में विद्यालय उत्तम पर्यावरण से पूर्ण एवं सभी अच्छे साधनों से युक्त हों। अन्त में विद्यालय सभी कृत्रिमताओं और औपचारिकताओं से मुक्त रहे। (School should be free from all artificialities and formalities)। इस आधार पर कोई कक्षा, वर्ग, समयसारिणी, नियमों की पाबन्दी, पाठ्यक्रमीय नियन्त्रण तथा परीक्षा का विधान न हो। खुली जगह में पवनमुक्त विद्यालय (Open air school) हो। प्रकृतिवादी सह-शिक्षा के विद्यालय पसन्द करते हैं। इससे मानव मानव को अच्छी तरह समझ पाता है और उसकी मूल प्रवृत्तियों का स्वभाविक रूप से उदात्तीकरण होता है। अतएव प्रकृतिवाद विद्यालय को बन्धनमुक्त शिक्षा का साधन मानता है जहाँ विद्यार्थी सब कुछ अपने आप करता और सीखता है।

रूसों ने ‘प्रकृति की ओर लौटो’ का नारा लगा कर विद्यालय को प्रकृति की गोद में स्थापित करने के लिए कहा। परन्तु इस नारे पर विचार करने से ज्ञात होता है कि रूसो के अनुसार विद्यालय विद्यार्थी के स्वतन्त्र, सुखद, शान्त, सच्चे विकास का स्थल है जहाँ अपने प्रकृति-स्वभाव के अनुसार वह आन्तरिक प्रेरणा से अपने विकास के लिए सब कुछ स्वयं करे, सत्य की खोज करे, स्वानुभव एवं ज्ञान ग्रहण करे।

भारतीय शिक्षाशास्त्री प्रकृतिवादी रूसो से कुछ भिन्न विचार रखते हैं। टैगोर ने रूसो के नारे “प्रकृति की ओर लौटो” के स्थान पर “आश्रम की ओर लौटो” का नारा लगाया। भारतीय आश्रम भी जंगल में प्रकृति की सुन्दर स्थली पर बने होते थे। वहाँ शिक्षा लेने की स्वतन्त्रता, शान्ति एवं सुविधा थी। आश्रम की कल्पना करके पुनः टैगोर ने विद्यालय में विभिन्न स्तरों एवं कक्षाओं का बन्धन रखा है। यह तथ्य उनके शान्ति निकेतन की व्यवस्था को देखने से ज्ञात होता है जिसमें बहुत से विभाग हैं। अतः रूसो तथा टैगोर के विद्यालय सम्बन्धी विचार भिन्न । यद्यपि मूलतः दोनों प्राकृतिक ढंग से शिक्षा देने के स्थान पर जोर देते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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