शिक्षाशास्त्र / Education

सुकरात का शिक्षा दर्शन | सुकरात की शिक्षण पद्धति

सुकरात का शिक्षा दर्शन | सुकरात की शिक्षण पद्धति

सुकरात का शिक्षा दर्शन – सोफिस्टो ने मनुष्य को दार्शनिक विवेचन का केन्द्र माना था। सुकरात का भी विचार ऐसा ही था। वह भी नैतिक प्रश्नों को बड़ा महत्त्व देता था। फिर भी दोनों के विचारों में अन्तर था। सोफिस्टों ने सत्यम् एवं शिवम् को व्यक्ति की प्रतीति तक ही सीमित कर दिया था और सार्वजनिक सत्य का तिरस्कार किया था, जबकि सुकरात ने सत्यम् एव शिवम् को यथार्थ की नींव पर स्थापित किया। सुकरात ने “विशेषों” पर अधिक ध्यान केन्द्रित न कर “सामान्य” को ही अपने चिन्तन का केन्द्र बनाया। उसने प्रत्ययों के स्पष्टीकरण की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया। सदाचार क्या है? न्याय क्या है? दूरदर्शिता क्या है? इस प्रकार के प्रश्नों का वह उत्तर ढूँढ़ा करता था। सुकरात को प्रत्यय या लक्षण का जन्मदाता कहा जाता है। चिन्तन में प्रत्यय का बड़ा महत्त्व है। प्रत्यय का निर्माण “विशेषों” से होता है। मनुष्य कई प्रकार के हैं। उनके आकारों में भिन्नता है। उनके रंग भी भिन्न होते हैं। किन्तु जब हम “मनुष्य” कहते हैं। तो हमें इस या उस मनुष्य का बोध न होकर सामान्य मनुष्य का बोध होता है। सामान्य मनुष्य का बोध ही प्रत्यय है। “मनुष्य” का चिन्तन मनुष्य के प्रत्यय या लक्षण को निश्चित करने के लिए किया जाता है। प्रत्यय या लक्षण को निश्चित करने के लिए हम अनेक “विषयों को देखते हैं और फिर असमान गुणों को अलग करके समान गुणों पर ध्यान देते हैं। इसी प्रकार न्याय, सदाचार आदि का भी लक्षण करने के लिए हम ऐसे विविध कर्मों का चिन्तन करते हैं, जिन्हें न्यायमुक्त या सदाचारयुक्त स्वीकार किया जाता है। तत्पश्चात् न्याय की परिभाषा करते है। तर्कशास्त्र में इस विधि को “आगमन” कहते हैं। सुकरात को लक्षण और आगमन-दोनों का ही जनक कहा जाता है। इस दृष्टि से सुकरात का स्थान उच्च कोटि के दार्शनिकों में है।

सुकरात ने भद्र (अच्छाई) और अभद्र (बुराई) की नींव बुद्धि पर रखी। जो भद्र अथवा अच्छा है, वह सबके लिए भद्र है और जो अभद्र है वह सभी के लिए अभद्र है। सोफिस्टो के अनुसार भद्र व्यक्तिगत था। सुकरात के अनुसार भद्र और अभद्र में व्यक्तिगत पसन्द का कोई स्थान नही। सुकरात के अनुसार सदाचार ज्ञान पर आधारित है। कोई मनुष्य अपनी इच्छा से गलती नहीं करता। मनुष्य की गलती उसके अज्ञान का परिणाम है। मनुष्य गलती इसलिए करती है क्योकि वह यह जान नहीं पाता कि वह गलती कर रहा है। यदि वह भद्र और अभद्र का ज्ञान प्राप्त कर ले तो वह वही करेगा जो भद्र है। सुकरात ने केवल यही नहीं कहा कि भद्र का आधार ज्ञान है, वरन् यह भी कहा कि ज्ञान ही भद्र है। इस धारणा में दो बातें सम्मिलित हैं- (1) भद्र वही कर सकता है जिसे भद्र का ज्ञान हो, (2) जो व्यक्ति भद्र जानता है, उसके लिए भद्र ने करना असम्भव है। सुकरात के पहले विचार से प्रायः सभी लोग सहमत होंगे, किन्तु दूसरे विचार को मानने में कठिनाई है-तथापि इतना तो निश्चित ही है कि ज्ञानी व्यक्ति भद्र की ओर उन्मुख होता है।

अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसा ज्ञान प्राप्त कैसे हो सकता है? सुकरात के अनुसार इस ज्ञान की प्राप्ति आत्म-परीक्षण से होती है। सुकरात कहा करता था- “अपने को जानो।“ जीवन का रहस्य व्यक्ति के बाहर नहीं, अपितु अन्दर ही छिपा है। व्यक्ति आत्म- निरीक्षण के द्वारा इस रहस्य को जानने का प्रयत्न कर सकता है। सुकरात का यह सिद्धान्त एथेन्स के तत्कालीन सिद्धान्तो के विपरीत पंड़ता था। एथेन्सवासी संसार की बाह्य क्रियाओं में आनन्द लेते थे और उनकी समझ में सुख सांसारिक वस्तुओं में ही था। सुकरात के अनुसार बाह्य पदार्थों में सुख को मात्रा ही नहीं है। एथेन्सवासी सौन्दर्य के उपासक अवश्य थे, किन्तु वे बाह्य सौन्दर्य पर ही मुग्ध हो जाते थे, सुकरात के लिए आत्मा का सौन्दर्य ही मुख्य था। सुकरात के अनुसार व्यक्ति की अन्तरात्मा को नैतिक नियमों को खोजना चाहिए। सत्य, न्याय, ईमानदारी आदि नैतिक नियम किसी व्यक्ति की सम्मति पर आश्रित नहीं है। ये तो शाश्वत नियम हैं जो सदा एवं सर्वत्र सत्य है। इनकी नित्यता ही इनकी व्यापकता का आधार है। ये व्यक्तिगत व्यवहार से निश्चित नहीं होते, वरन् व्यक्तियों के व्यवहार को स्वयं ही निश्चित करते हैं। इन नियमों को खोजने के लिए व्यक्ति को अपने अन्दर की ओर निगाह फेरनी होगी।

सुकरात के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति होना चाहिए। सुकरात की दृष्टि में जीवन का उद्देश्य- भद्र आचरण करना है। भद्र का आचरण तब तक सम्भव नही, जब तक ज्ञान न हो-अतः ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। यह ज्ञान आत्म-परीक्षण से सम्भव होगा, अतः हर व्यक्ति में सोचने-विचारने की शक्ति का विकास करना होगा। शिक्षक का कार्य यह है कि वह बालकों में सोचने-समझने की शक्ति का विकास करने का प्रयत्न करे। शिक्षा का उद्देश्य यह नहीं है कि बालकों को निश्चित सूचनाएँ दे दी जायें, वरन् उनमें विचार करने की शक्ति उत्पन्न कर दी जाय ताकि वे सच्चे ज्ञान की उपलब्धि कर सकें।

सुकरात की शिक्षण-पद्धति –

सुकरात की शिक्षण-पद्धति भी निराली थी । उसकी पद्धति का उद्देश्य सत्य को प्रस्तुत करना न होकर, सत्य का अन्वेषण करना था। सुकरात की शिक्षण-पद्धति वार्तालाप पर आधारित थी। सुकराती शिक्षण-विधि में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सभी अच्छे कार्यों के मूल में ज्ञान है। सुकरात ने अपने शिष्यों को सोचने एवं तर्क करने की प्रेरणा दी। वह एक परिकल्पना से प्रारम्भ करता था और उस परिकल्पना को अच्छी तरह छान-बीन कर ही आगे बढ़ता था। उसके वार्तालाप का कोई निश्चित विषय नहीं था। बातचीत में न्याय, सदाचार, सत्य आदि जैसे हो प्रयुक्त होते, सुकरात तुरन्त पूछ पड़ता- सत्य क्या है? अथवा न्याय क्या है? और बस उस विषय पर तर्क-वित्क प्रारम्भ हो जाता। वार्तालाप का कोई निश्चित स्थान नहीं होता था। किसी भी सार्वजनिक स्थान पर सुकरात पहुँच जाता था और वहीं पर शिक्षण प्रारम्भ हो जाता था। इस वार्तालाप में भाग लेने वाले व्यक्ति भी कोई निश्चित नहीं होते थे, किन्तु नवयुवकों के मन को सुकरात ने अधिक आकर्षित किया था। इन वार्तालाप में ज्ञान का मार्ग प्रशस्त हो जाता था। अपने अनुभव्वों के विश्लेषण एवं परीक्षण के सहारे सुकरात किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए शिष्यों को प्रेरणा देता था । जब एक स्थिति का समाधान हो जाता था तो सुकरात दूसरी स्थिति प्रस्तुत कर देता था । इन सभी स्थितियों में जो धारणा समस्याओं के समाधान करने में समर्थ होता, उसे ही सामान्य परिभाषा का रूप दे दिया जाता था। इस विधि को डाइलेक्टिक” कहा जाता है। सामान्य प्रत्ययो के आधार पर एक सामान्य धारणा के निरूपण की प्रक्रिया को “डाइलेक्टिक” कहा जाता है। सुकरात अपने शिष्यों को डाइलेक्टिक का अभ्यास कराता था। यह चिन्तन की ऐसी विधि है, जिसके द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस विधि में तर्क-वितर्क खूब खुलकर होता था और “आगमन” विधि से लोग किसी व्यापक सत्य पर पहुँचने का प्रयत्न करते थे।

सुकरात के शिक्षा-दर्शन और उसकी शिक्षण-पद्धति का तत्कालीन शिक्षा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। लोग पाठ्य-वस्तु के रूप में ज्ञान के महत्त्व को समझने लगे थे । सोफिस्ट लोग भी ज्ञान देते थे, किन्तु वे व्यक्ति की आवश्यकताओं के आधार पर सांसारिक सफलता के लिए ही शिक्षा दे देते थे। सोफिस्टों को नैतिक मापदण्ड से कोई मतलब नहीं था। सुकरात ने नैतिक प्रत्ययो को केन्द्र-बिन्दु मानकर शिक्षा दी। सुकरात का प्रभाव यह हुआ कि लोग अब नैतिक नियमों की व्यापकता को समझने लगे और नित्य नियमों का ज्ञान प्राप्त करने की ओर उन्मुख हो गये शिक्षण-विधि में भी सुकरात का प्रभाव पड़ा और यूनानी नवयुवक अन्धविश्वास से ऊपर उठकर उन्मुक्त चिन्तन करने लगे। धामिक मान्यताओं के सम्बन्ध से भी लोग तर्क-वितर्क करने लगे। यह हम पहले ही देख चुके हैं कि सुकरात को अपने इस प्रभाव के लिए कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। जिस यूनान ने सुकरात को विष का प्याला दिया उसी यूनान को सुकरात ने अपने महान विचारों का अमृत प्रदान किया। शिक्षक-वर्ग शिक्षक-पद्धति तथा शिक्षा-दर्शन में सुकरात को देन को भूल नहीं सकता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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