पूर्व मध्यकालीन भारत में सामाजिक परिवर्तन

पूर्व मध्यकालीन भारत में सामाजिक परिवर्तन | राजपूत शासकों का काल | गुजरात के चालुक्यों के काल में सामन्तों का अभ्युदय

पूर्व मध्यकालीन भारत में सामाजिक परिवर्तन | राजपूत शासकों का काल | गुजरात के चालुक्यों के काल में सामन्तों का अभ्युदय

राजपूत शासकों का काल (पूर्व मध्यकालीन भारत में सामाजिक परिवर्तन)

सातवीं से बारहवीं सदी के बीच भारत में जिन प्रान्तीय राजाओं का प्रादुर्भाव हुआ, वे राजपूत कहलाते हैं। हर्ष के समय तक के शासक क्षत्रिय कहलाए, जबकि इस काल के शासक राजपूत कहलाए। राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में इतिहासकारों में काफी मतभेद हैं। ये राजपूत अपनी वीरता, स्वाभिमान, रणकौशल और युद्धप्रियता के लिए इतिहास में प्रसिद्ध हैं। दुर्भाग्य से इन्हें ही ग्यारहवी. सदी के मुसलमान हमलों का सामना करना पड़ा और ये असफल हुए।

राजपूतों ने इन शताब्दियों में हिन्दू-धर्म व राष्ट्र की रक्षा का प्रयत्न किया। उन्होंने भारतीय संस्कृति की प्राचीन परम्पराओं को जारी रखा। उनको प्रोत्साहन भी दिया। उन्होंने हिन्दू धर्म के विभिन्न मतों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की। ललित कलाएँ, साहित्य और सभ्यता उसके संरक्षण में फली- फूली। दुर्ग, भवन, मन्दिर तथा मूर्ति कलाओं ने राजपूतों के शासन काल में विशेष प्रगति की।

राजपूतों और उनके सामन्तों में उत्कट देश प्रेम था। वीरता, साहस, औदार्य आदि अनेक गुणों का उनमें समावेश था। परन्तु ये क्षेत्रीयता की भावनाओं से ग्रसित थे। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ईश्वरी प्रसाद का यह कथन ठीक ही है कि “वे (राजपूत) राष्ट्रीय एकता के महान् आदर्श कभी भी ग्रहण नहीं कर पाए। वे अपने प्राचीन आदर्शों को भूल गए। इसी कारण से देश को पतन का द्वार देखना पड़ा।

इस काल में चौहान, राठौर, चालुक्य, सिसोदिया, परमार वंशों ने अपने-अपने राज्यों की देश के विभिन्न भागों में स्थापना की थी। गहड़वाल, सोलंकी, चन्देल, सेन और पालों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर राज्य किया। परन्तु इन राजाओं के आपसी संघर्षों ने जल्दी-जल्दी राज्यों के उत्थान और पतन को जन्म दिया। देश के इतिहास का तारतम्य सामन्तवाद के इस युग में टूट गया। संघर्षों ने अमूल्य साक्ष्यों को नष्ट कर दिया। इतिहास की एकरूपता समाप्त हो गई।

इतना होते हुए भी राजपूतों ने युद्ध, शान्ति और अन्य कालों में जिस नैतिकता का परिचय दिया उसका उसके शत्रुओं में अभाव था। राजपूत सभी दृष्टि से ग्यारहवीं और बाद की सदियों के मुसलमान हमलावरों से श्रेष्ठ थे। छल, कपट, अनैतिकता और धोखाधड़ी का उनमें अभाव था। अतः असफलता के बाद भी वे अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण आदर्श बने रहे।

गुजरात के चालुक्यों के काल में सामन्तों का अभ्युदय-

गुजरात मौर्य व गुप्तकाल में उनके साम्राज्य के अन्तर्गत था। हर्षवर्धन के समय में गुजरात में ध्रुवसेन शासन कर रहा था। वल्लभी इसकी राजधानी थी। सम्भवतः यह दक्षिण के राष्ट्रकूट नरेश पुलकेशिन द्वितीय के अधीन था। बाद में उसने हर्ष का प्रभुत्व मान लिया। धुर्वसेन की मृत्यु के पश्चात् कन्नौज के प्रतिहारों ने गुजरात जीत लिया। इनके पतन के बाद चालुक्यों अथवा सोलंकियों के राज्य की स्थापना हुई।

चालुक्यों का योगदान-

चालुक्यों के शासन में गुजरात की सांस्कृतिक प्रगति अच्छी हुई। मूलराज, भीम प्रथम, जयसिंह, सिद्धराज और कुमारपाल सभ्य और सुसंस्कृत थे। ये अत्यन्त ही उदार, दानशील और धर्मप्रिय थे। वे हिन्दू धर्म को मानते थे। परन्तु जैनों के प्रति इन्होंने उदार नीति का पालन किया। उनके संरक्षण में साहित्य का काफी विकास हुआ। आयू आदि में कई जैन मन्दिर और उपाश्रय बने । अपभ्रंश भाषा का विकास हुआ। आचार्य हेमचन्द सूरि ने अपभ्रंश में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। चालुक्यों के काल में ही महमूद के हमले के बाद सोमनाथ के मन्दिर का पुनः निर्माण किया गया। चालुक्यों ने गुजरात के वैभव में बड़ा योग दिया।

सामन्तों का अभ्युदय-

इस काल के नरेशों की शक्ति के आधार उनके अधीनस्थ सामन्त थे और ये स्वतन्त्र होने का प्रयत्न करते रहते थे। चालुक्यों के सामन्त बघेल थे। जब चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने लगी तो वे स्वाधीन हो गए। इसी प्रकार बंगाल में सेनों ने अपनी सत्ता पालों की दुर्बलता का लाभ उठा कर स्थापित की थी। बुन्देलखण्ड में चन्देलों और त्रिचुरी के कलचुरियों ने भी यही काम किया। इसके निम्न कारण थे-

  1. सामन्त एक प्रकार से अपनी जागीरों में प्रारम्भ से ही अर्द्ध-स्वतन्त्र थे। केन्द्रीय सत्ता का नाम मात्र का उन पर अंकुश था।
  2. प्रत्येक सामन्त महत्वाकांक्षी होता था। वह स्वयं राजा, महाराजा बनकर अपना उत्कर्ष करना चाहता था।
  3. सामन्तों में स्वामिभक्ति की भावना क्षीण रहती थी वे अवसर की ताक में रहते थे। अवसर पाते ही स्वाधीन हो उठते थे।
  4. केन्द्रीय राजाओं की शक्ति सामन्तों पर ही आधारित थी। इसलिए वे सैनिक दृष्टि से कमजोर थे। कमजोर शासकों के समय में ये सामन्त विद्रोह कर बैठते थे।
  5. सामन्तों की अपनी सेनाएँ और राजसेवाएँ होती थीं ? अतः वे स्वयं शासक थे। सैनिक दृष्टि से भी स्वाधीन थे। अवसर का लाभ वे सदैव अवश्य उठाया करते थे। ठिकाने का शासन चलाने के लिए उनके अपने सेवक थे।
  6. सामन्तवादी प्रथा के कारण देश कई छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया। इससे राजनैतिक व राष्ट्रीय एकता को धक्का पहुँचा। सामन्तों ने अलगाव की भावना को बढ़ाया।
  7. सामन्तों ने विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा दिया।

इस काल का जन-जीवन-

जन-जीवन में भी राजनैतिक जीवन की झलक के दर्शन होते हैं। जिस प्रकार राजनैतिक स्तर पर फूट और अलगाव की प्रवृत्तियाँ काम कर रही थीं, उसी प्रकार से जन-जीवन में भी विघटन की प्रवृत्ति थी। इसके कारण जन-जीवन छिन्न-भिन्न हो गया। इतिहासकार डा० ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, “शासन की शक्तिहीनता का दूसरे क्षेत्रों पर भी प्रभाव पड़ा।” समाज में रूढ़िवाद और अन्धविश्वास का बोलबाला हो गया। उसकी प्रगतिशीलता अवरुद्ध हो गई। उसमें स्थिरता, अवरोध और संकुचितता का विकास हुआ। इस काल का भारतीय समाज गतिहीन हो गया।

सामाजिक जीवन-

तत्कालीन समाज व्यवस्था में हमें कुछ नई प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। समाज में पुरातनवादी तत्त्वों का प्रभाव बढ़ गया। लोगों के आचार-विचार में संकीर्णता आ गई। लोग परम्परावादी, अनुदार, कूप मण्डूक और संकीर्ण विचारों के हो गए। इससे जन-जीवन की गतिशीलता अवरुद्ध हो गई। लोग छोटे-छोटे दायरों में बंट गए। अलबेरुनी और अन्य विदेशी यात्रियों ने इस स्थिति का बड़ा सजीव वर्णन किया है।

1.जातिप्रथा की बहुलता- सारा समाज अनेक जातियों और उपजातियों में बँट गया था। उनमें स्थान भेद और व्यवसाय भेद पैदा हो गए। धर्म एवं कर्म के नाम पर जातियाँ और उपजातियाँ बन गई। ब्राह्मण कई वर्गों और उपजातियों में बँट गया। उनमें कान्यकुब्ज, नागर, श्रीगौड़, गुर्जर गौड़, कोकणस्थ, मालवी, तेलगु आदि नाना प्रकार के उप-समुदाय बन गए।

क्षत्रियों का स्थान राजपूतों ने ले लिया। वे भी चौहान, परमार, सोलंकी, पाल, सेन, गहड़वाल, राठौड़, चन्देल आदि उपजातियों में बँट गए।

वैश्यों की भी अनेक जातियाँ थीं और शूद्रों की संख्या की तो कोई सीमा ही न थी। सुनार, लुहार, रंगरेज, मोची, सुतार आदि जातियों का धन्धों के आधार पर गठन हो गया। जैन धर्म के नाम पर जैन जाति बन गई।

अन्त्यजों की जाति अलग थी। अलबेरुनी इन्हें अस्पृश्य बतलाता है। इसमें कसाई, भील, बहेलिए, चिड़ीमार, केवट, मदारी, टोकरी बनाने वाले, डोम, चांडाल, बंजारे आदि आते थे। अतः समाज अनेक टुकड़ों में बँट गया। इसने सामाजिक एकता को धक्का पहुँचाया।

  1. जातिगत संकीर्णता- समाज के अनेक जातियों में बँटने से लोगों में संकीर्णता और छुआछूत की भावना बढ़ गई। जातियाँ अब जन्म से मानी जाने लगीं। ब्राह्मण यदि कुकर्म भी करे तो यह अपनी जाति के कारण श्रेष्ठ बना रह सकता था। जाति के बन्धन अधिक कठोर हो गए। उनमें अनुदारवाद पैदा हो गया। सुनार, लोहार अपने को मोची व धोबियों से श्रेष्ठ मानने लगे। मोची, रंगरेज अपने को कसाई, शिकारी, चिड़ीमार से श्रेष्ठ समझते थे और वे सभी को चाण्डालों और डोमों से उच्च मानने लगे। इन विचारों ने लोगों में राष्ट्रीय भावना और देश प्रेम की भावना को पनपने नहीं दिया।

समाज में ब्राह्मण और राजपूतों को सभी प्रकार की विशेष सुविधाएँ प्रदान की गईं। अन्य जातियों को इन सुविधाओं से वंचित रखा गया। इसने सामाजिक भेदभाव और फूट को जन्म दिया। अलबेरुनी लिखता है, “इसने लोगों को एक-दूसरे से सम्बन्ध रखने से रोक दिया। जो अपनी जाति से सन्तुष्ट न थे और जातिगत नियमों का उल्लंघन करने का प्रयत्न करते थे, उन्हें दण्ड दिया जाता था।”

  1. खान-पान- लोगों के खान-पान में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ था। लोग शाकाहारी, मांसाहारी और फलाहारी थे। चावल, दाल, गेहूँ, साग-सब्जी और फलों का उपयोग प्रचुर मात्रा में किया जाता था। दूध, दही, घी और मिष्ठात्रों का भी उपयोग होता था। गरीब लोग ज्वार, मक्का, बाजरा और जौ आदि का सेवन करते थे। राजपूत अधिकतर माँसाहारी होते थे। मदिरा, गाँजा, भंग और अफीम आदि नशों का सेवन भी राजपूतों द्वारा किया जाता था।

ब्राह्मणों का भोजन सात्विक था। वे अक्सर अनाज, फल और सब्जियाँ ही खाते थे। उच्च वर्ण के लोग कई प्रकार के व्यंजन बनाते थे। उनके खाने-पीने के बर्तन भी सोने-चाँदी और ताँबे-पीतल के होते थे! गरीब मिट्टी के बर्तन और पत्तलों का उपयोग करते थे। इनका मुख्य आहार मक्का, ज्वार, जौ आदि था।

  1. रहन-सहन और वस्त्राभूषण- सूती, ऊनी और रेशमी कपड़ों का उपयोग किया जाता था। राजा, सामन्त, बड़े व्यापारी तथा उच्च पदस्थ ब्राह्मण रेशमी, मखमली कपड़े पहनते थे। सोने- चाँदी, हीरे मोती के आभूषणों को पहना जाता था। अंगूठियाँ, चूड़ियाँ, कमरबन्द बाजूबन्द, और पगड़ियाँ आदि पहनी जाती थीं।

गरीबों की स्थिति गिरी हुई थी। वे अर्द्ध-नग्न रहते थे। फूलों, कौड़ियों से वे अपना श्रृंगार करते थे। सूती कपड़ों, झाड़ की छाल और चमड़े का उपयोग उनके द्वारा किया जाता था।

कुछ लोग मुछें, रखते थे, जबकि अन्य दाढ़ी मूंछे मुंडवाते थे लोग शृंगार गिय और शौकीन थे। नाना प्रकार के तेल, फुलेल, उबटन, काजल, पान और इत्रों का उपयोग किया जाता था।

  1. सामाजिक कर्त्तव्य- समाज में प्रत्येक जाति के कनिय शास्त्रों द्वारा निश्चित कर दिये जाये। ब्राह्मण धार्मिक कर्मकाण्ड, यज्ञ, अध्ययन-अध्यापन और दान-दक्षिणा पाना अपना कर्तव्य और अधिकार समझते थे। राजपूत शासन और सेना का काम देखते घा वैश्यों के पास व्यापार था। शूद्र समाज की सेवा के लिए नियुक्त था।
  2. विवाह प्रणाली- विवाह प्रथा समाज का अनिवार्य अंग था। शास्त्रों ने एक ही वर्ण के विवाहों को शास्त्र सम्मत माना था। परन्तु अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे। इस समय बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित थी। बाल-विवाह भी होने लगे। उम्र वर्षों में विधवा विवाह निषिद्ध हो गये। परन्तु निम्न वर्गों में यह विवाह होते थे। सती प्रथा प्रचलित धी। स्वयंवर द्वारा विवाह, बलात् कन्या का हरण आदि होने लगा। विवाह के समय अनेक धार्मिक एवं सामाजिक कृत्य किये जाने लगे।
  3. समाज में नारी की स्थिति- नारी का सामाजिक दर्जा गिर गया था। कन्या का जन्म बुरा माना जाने लगा। बहु-विवाह ने उनकी सामाजिक स्थिति को गिरा दिया। उच्च वर्ग की कन्याओं की शिक्षा का उचित प्रबन्ध था। उन्हें अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा भी दी जाती थी। मंडन मिश्र की पत्नी भारती, संयोगिता, भास्कराचार्य की पुत्री लीलावती, राजशेखर की पत्नी अवन्ति सुन्दरी इस काल की विदुषी महिलाएँ थीं।

समाज में पर्दा प्रथा नहीं थी। नारियाँ शासन के उच्च पदों को भी सुशोभित करती थीं। रानी दिद्दा ने कश्मीर का शासन चलाया था। उच्च वर्ग की रमणियों को गीत, संगीत, नृत्य आदि की शिक्षा दी जाती थी।

समाज में वेश्यावृत्ति, दासी और देवदासी प्रथाओं का भी प्रचलन था। नारियाँ विलास की वस्तु बन गई थीं। स्त्रियों के लिए सतीत्व और पतिव्रत धर्मों की कठोर शास्त्रोक्त व्यवस्था की गई।

अतः सामाजिक जीवन में इस काल में हमें पतन के चिह्न दिखाई देते हैं। इस काल में धर्म व धार्मिक शास्त्रों ने सामाजिक गतिशीलता को अवरुट्ट कर दिया। उनका लचीलापन समाप्त हो गया। इसने अनेक सामाजिक कुप्रथाओं को जन्म दिया।

आर्थिक व्यवस्था-

कृषि इस काल का मुख्य व्यवसाय बना रहा। पशुपालन भी किया जाता था। ग्वालों ने इस धन्धे को अपना लिया था! नाना प्रकार के अन्य उद्योग धन्धे भी थे। इनमें सुतारी, लोहारी, स्वर्णकार, रंगरेज, धोबी आदि नाना प्रकार के धन्धे किए जाने लगे। कुछ लोगों ने दूसरों के मनोरंजन का काम अपना लिया था। इसमें जादूगर, नट, नर्तकियाँ मुख्य थे। ब्याज आदि का धन्धा भी किया जाता था।

लोग व्यापार और आयात-निर्यात में भी लगे थे। देश के सभी भागों से और दूसरे देशों से अच्छी व सस्ती वस्तुएँ मॅगाई और भेजी जाती थीं। इस काल में विदेशी व्यापार कम हो गया। फिर भी प्रचुर मात्रा में आर्थिक गतिविधियाँ चलती थीं। इसलिए देश धनाढ्य और धन-धान्यपूर्ण था।

इस समय का एक तथ्य ध्यान देने योग्य है। आर्थिक स्तर पर समाज दो भागों में बँटा था। उच्च वर्णों एवं राजा सामन्तों का जीवन वैभव और विलासितापूर्ण था जबकि गरीब दबे हुए और शोषित थे। उनका आर्थिक शोषण एक सामान्य क्रिया बन गई थी।

धार्मिक जीवन-

धार्मिक जीवन में भी विविधता और रूढ़िवादिता आ गई थी। प्रत्येक धर्म अनेक सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों में विभाजित हो गया था। अनेक कर्मकाण्ड, पूजा, उपासना की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित हो गई। फिर भी जनसाधारण का झुकाव धार्मिक प्रवृत्ति की ओर था।

  1. हिन्दू धर्म- हिन्दू धर्म में अनेक देवी-देवताओं की उपासना होने लगी थी। शैव, शक्ति और विष्णु के अनेक अवतारों की पूजा होने लगी। यक्ष, किन्नर, सर्प, वृक्षों, पशुओं आदि की पूजा श्रद्धा से की जाती थी। राजपूत लोग युद्ध प्रिय थे। वे अहिंसा में विश्वास नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने हिन्दू धर्म का समर्थन किया। उनका हिन्दू धर्म से प्रेम उनके उत्थान का कारण बन गया।

प्रत्येक हिन्दू का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक धार्मिक क्रियाओं और कर्मकाण्डों में बाँध दिया गया। तीर्थ यात्राएँ, उपवास, उत्सव और होली; दीपावली, दशहरा; कृष्णजन्मोत्सव शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी आदि मनाए जाने लगे। अतः धार्मिक जीवन में विविधता और रूढ़िवादिता आ गया।

  1. वाम-मार्ग- इस काल में वाम-मार्गी प्रवृत्तियाँ भी चालू थीं। जादू टोना, तन्त्र-मन्त्र बेताल साधना और भैरव की पूजा होने लगी। शक्ति का वाम मार्गी पूजन होने लगा। सुरा और सुन्दरियों के माध्यम से मोक्ष पाने के प्रयत्न भी होने लगे। कापालिक, कालमुख, पाशुपत, भैरव और भैरवी के उपासकों के सम्प्रदाय बन गए। सिद्ध और नाग सम्प्रदायों तथा हठयोगियों ने समाज में अपना स्थान बना लिया था।
  2. बौद्ध धर्म- बौद्ध धर्म इस समय पतनार में था। वह मात्र बंगाल और बिहार तक ही सीमित रह गया। अधिकांश राजपूत राजघराने और सामन्त हिन्दू धर्म को मानते थे। मात्र बंगाल का पाल वंश ही बौद्ध था। अतः राजकीय संरक्षण के अभाव में बौद्ध धर्म का पतन आरम्भ हो गया।

बौद्ध धर्म में भी सम्प्रदाय भेद हो गया था। महायान, वज्रयान, तन्त्रवाद आदि नाना सम्प्रदाय उठ खड़े हुए। बौद्ध सिद्धों ने एक अलग समुदाय बना लिया था। बौद्ध धर्म में भी वाममार्गी प्रथाएँ और क्रियाएँ चालू हो गईं। नाना प्रकार के कर्मकाण्ड और धार्मिक आडम्बर बौद्धों ने अपना लिए । बौद्ध स्तूप, विहार और चैत्ा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में आ गए। बुद्ध भगवान मानकर पूजे जाने लगे।

  1. जैन धर्म- जैन धर्म भी श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में बँट गया था। इसके अलावा भी 83 गच्छों में उसका गठन हुआ। जैन तीर्थङ्करों की पूजा, भक्ति और उपासना होने लगी। जैनों ने गणेश, धन की देवी लक्ष्मी, विद्या की देवी सरस्वती आदि को भी अपना लिया। वे स्वास्तिक के शुभ चिह्नों की पूजा करने लगे। अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ।

तीनों धर्मों के अपने संन्यासी एवं सम्प्रदाय थे। शंकराचार्य ने सारे भारत में घूम-घूम कर शास्त्रार्थ द्वारा बौद्धों को हराया और हिन्दू धर्म का पुनर्गठन किया। देश में उन्होंने चार मठों की स्थापना की। ये चारों दिशाओं में हैं। उत्तर में बद्रीनाथ पूर्व में जगन्नाथ पुरी, पश्चिम में द्वारका और दक्षिण में श्रृंगेरी मठों की स्थापना की गई। लोग ज्योतिष, दान-पुण्य, मन्दिरों का निर्माण, मूर्ति-पूजन, भजन आदि में अधिक विश्वास करने लगे। इसने लोगों को भाग्यवादी, पुरुषार्थहीन और नैतिक आचारहीन बना दिया।

शिक्षा

शिक्षा का समाज में अत्यन्त महत्त्व था। गाँवों में मन्दिरों के साथ पाठशालाएँ भी चलती थीं। वहाँ मन्दिर का पुरोहित और गाँव का ब्राह्मण बच्चों के पढ़ने, लिखने और हिसाब-किताब के लिए गणित की शिक्षा देता था। जैन मन्दिर और बौद्ध विहार भी शिक्षा का प्रसार करते थे।

बिहार और बंगाल में उच्च शिक्षा के लिए विक्रमशील और नालन्दा के विश्वविद्यालय थे। पटना का ओदन्तपुरी और उत्तरी बंगाल का जगदल शिक्षा के प्रमुख केन्द्र बन गए। यहाँ धार्मिक और बौद्धिक दोनों प्रकार की शिक्षाएँ दी जाती थीं।

वाराणसी, धार, उज्जयनी, कन्नौज, वल्लभी आदि शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। लोग यहाँ दूर-दूर से अध्ययन करने आते थे। शंकराचार्य भी शिक्षा के लिए काशी आए थे। काशी संस्कृत विद्या का प्रमुख केन्द्र था।

राजा और सामन्त विद्वानों, साहित्यकारों, कवियों, लेखकों का सम्मान करते थे। राजसभा में नियुक्त राजपुरोहित राजपरिवार के बालकों को शिक्षा देता था। सामन्तों ने भी अपने बालक- बालिकाओं की शिक्षा के लिए विद्वान ब्राह्मणों को नियुक्त कर रखा था।

वंश परम्परागत व्यवसायों की शिक्षा परिवार में दी जाती थी! राजपूत बालक अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा लेते थे। ब्राह्मण बालकों को धर्म-कर्म और वेदाध्ययन की शिक्षा दी जाती थी। सुनार, लोहार, स्वर्णकार आदि के व्यवसायों को उनके परिवार के बालक सीखते थे।

अतः शिक्षा प्रसार का काम समाज और शासन दोनों के जिम्मे था। लोग विद्वानों का सम्मान करते थे। शास्त्रार्थ आदि भी आयोजित होते थे। शिक्षा संस्थाओं और पाठशालाओं का खर्व स्थानीय सामन्त और गाँव वाले देते थे।

साहित्य-

साहित्य के क्षेत्र में भी राजपूत काल में प्रशंसनीय काम किया गया। इस काल की सबसे बड़ी विशेषता संस्कृत के साथ ही प्रान्तीय भाषाओं के साहित्य का विकास था। संस्कृत के साथ ही अपभ्रंश, गुजराती, मराठी, बंगला, हिन्दी, तमिल आदि लोकभाषाओं के साहित्य की भी समृद्धि हुई। ये भाषाएँ बाद में प्रधान भाषाएँ बन गईं।

साहित्य में श्रृंगार, वीर रस और अन्य रसों की प्रधानता थी। इस काल के शासकों ने सैनिक विजयों के साथ ही साहित्य प्रेम और साहित्यिक प्रतिभा का भी परिचय दिया। परन्तु साहित्य की भाषा क्लिष्ट हो गई। उनमें अलंकार, श्लेष, उपमा रूपकों की भरमार हो गई।

  1. नाटक साहित्य- भवभूति ने इस काल में, ‘उत्तररामचरित’ और ‘महावीर चरित’ लिखे। भट्ट नारायण के वेणी संहार’ ने लोकप्रियता पाई। भीम का ‘चाणक्य प्रतिज्ञा’, राजशेखर का ‘बाल- समायण’, ‘बाल-भारत’ और ‘कर्पूर मंजरी’ अन्य उल्लेखनीय नाटक हैं।
  2. काव्य साहित्य- कविता का अंग भी दुर्लक्षित नहीं हुआ। महाकवि भारवि ने ‘किरातार्जुनीय’ नामक महाकाव्य लिखा है। माघ का ‘शिशुपाल वध’ श्री हर्ष का ‘नैषध चरित्र’ और सोमदेव के ‘यशस्तिलक चम्पू’ तथा जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ ने काफी लोकप्रियता पायी।
  3. गद्य और कथा साहित्य- दण्डिन ने ‘दशकुमार चरित’, ‘तिलक-मंजरी’ और ‘धनपाल चरित’ का प्रणयन किया। सोमदेव की कथा सरित्सागर’, ‘बैताल पच्चीसी’ और ‘सिंहासन बत्तीसी’ ने काफी लोकप्रियता पायी।
  4. ऐतिहासिक ग्रन्थ- इतिहास पर भी कई ग्रन्थ लिखे गए। इनमें कल्हण की ‘राजतरंगिणी’, परिमल का नवसाहसाक चरित’, बल्लाल का ‘भोज प्रबन्ध विशेष उल्लेखनीय हैं। चन्दबरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’ में भी ऐतिहासिक सामग्री मिलती है। हम्मीर रासो’ और ‘बीसलदेव रासो’ भी महत्त्वपूर्ण हैं। जयनक का ‘पृथ्वीराज विजय’ और जयसिंह सूरि का ‘हम्मीर- मद मर्दन’ भी इस श्रेणी में आते हैं।
  5. अन्य रचनाएँ- दर्शन साहित्य पर कुमारिल भट्ट ने ‘मीमांसा दर्शन’ लिखा। मंडन मिश्र, मध्वाचार्य, रामानुज आदि ने भी अद्वैत, विशिष्टाद्वैत पर कई पुस्तकें लिखीं। व्याकरण पर मम्मट, दण्डिन, अभिनवगुप्त और वामन ने कई पुस्तकें लिखीं। विज्ञान पर भास्कराचार्य ने सिद्धान्त शिरोमणि’, चरक ने चिकित्सा सार संग्रह’ और ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्म सिद्धान्त’ लिखे।

राजपूत राजा, नरेशों, सामन्तों ने साहित्यकारों को संरक्षण दिया। राजसभाओं में उन्हें सम्मानित किया गया। परिणामस्वरूप साहित्य लेखन अबाध गति से जारी रहा।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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