वणिकवादी की विशेषताएँ | वणिकवादी की आर्थिक विचार | वणिकवाद के मुख्य सिद्धान्त

वणिकवादी की विशेषताएँ | वणिकवादी की आर्थिक विचार | वणिकवाद के मुख्य सिद्धान्त

वणिकवादी की विशेषताएँ एवं आर्थिक विचार

(1) बहुमूल्य धातुओं- स्वर्ण रजत का महत्व-

वणिकवादीकाल में स्वर्ण तथा रजत देश को समृद्धि तथा शक्ति का प्रतीक माना जाता था। इसका कारण यह है कि टिकाऊ होने की वजह से इन्हें संचित किया जा सकता था, क्योंकि उस समय तक बैंकों का विकास नहीं हुआ था। वणिकवादी विचारधारा के अनुसार अधिक धन अधिक व्यापार का प्रतीक था, तथा पूँजी निवेश भी अधिक किया जा सकता था। स्वर्ण द्वारा युद्ध के सामानों का क्रय किया जा सकता था। क्योंकि उस काल में राज्यों के बीच सामान्यत: युद्ध होते रहते थे।

(2) विदेशी व्यापार-

अन्टीनियो सेटो, क्लीमेन्ट आर्य स्ट्रांग आदि अर्थशास्त्रियों का कहना था जिस राज्य में सोने-चाँदी आदि बहुमूल्य धातुओं की खाने होती हैं वह अधिक समृद्धिशाली तथा शक्तिशाली होता है। किन्तु जिन राज्यों में बहुमूल्य धातुओं की खा नहीं होती हैं वे इनका आयात करके प्राप्त कर सकते हैं । अत: विदेशी व्यापार को वणिकवादी विचारकों ने अधिक महत्त्व दिया।

(3) अनुकूल व्यापार-शेष-

विदेशी व्यापार द्वारा अनुकूल व्यापार शेष अत्यधिक निर्याती तथा न्यूनतम आयात के द्वारा अनुकूल व्यापार शेष में रह कर धातु का संचय कर सकता है। अनुकूल व्यापार शेष के द्वारा राज्य का बेशी उत्पादन विदेशों में बेचकर बहुमूल्य धातुओं को प्राप्त किया जा सकता है। इसके परिणामस्वरूप देश में मुद्रा की मात्रा संचालन में अधिक हो जाने से एक ओर तो ब्याज की दर में कमी होगी तथा दूसरी ओर राज्य को बेशी उत्पादन की हानियों से मुक्त किया जा सकता है तथा अनुकूल व्यापार शेष के कारण पूंजी की सीमान्त उत्पादकता ऊँची बनी रहती है तथा धातुओं के आयात के कारण मुद्रा की पूर्ति अधिक होने के फलस्वरूप ब्याज की दर में कमी हो जाती है, जिससे निवेश प्रोत्साहित होता है।

(4) उपनिवेशों की स्थापना-

राज्य को विदेशी ब्यापार की अनिश्चतताओं से मुठ रखने के लिए वणिकवादी उपनिवेशों को आवश्यक समझते थे। राज्य के लिए उपनिवेशों को दोहरा लाभ था, उपनिवेश में राज्य में उत्पादित वस्तुयें बेची जा सकती थीं दूसरे उपनिवेशों से कच्चा माल कम कीमत पर खरीदा जा सकता था जिससे उत्पादित वस्तुओं की लागत कम हो जाती थी और फलस्वरूप कीमत कम होने पर वस्तुओं की माँग सदैव बनी रहती थी।

(5) उपनिवेशों का आर्थिक शोषण-

इस विचारधारा के अनुसार उपनिवेश मात्र कच्चे माल का उत्पादन कर सकते थे वे वस्तु का निर्माण अथवा उद्योगों की स्थापना नहीं कर सकते थे। उपनिवेश के व्यापार पर राज्यों का पूर्व अधिकार रहता था जिससे उपनिवेशों का पर्याप्त शोषण होता था।

(6) औद्योगिक तथा व्यापारिक सन्नियम-

वणिकवादियों ने व्यापारिक नीतियों के सफल क्रियान्वयन हेतु सरकारी हस्तक्षेप को अपरिहार्य माना। अनुकूलतम व्यापार शेष के लिए यह आवश्यक था कि निर्यात सम्बन्धी उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहित किया जाय तथा जिन वस्तुओं का आयात किया जाता है उनके उपभोग को निरुत्साहित किया जाय। विदेशी व्यापार तथा उद्योगों को नियन्त्रित करने के लिए वणिकवादियों ने जो नीतियाँ अपनाईं उनके प्रमुख तत्व निम्न प्रकार हैं-

(i) ब्याज की दर नीची रखी जाय, ताकि व्यापारिक एवं औद्योगिक गतिविधियों के लिए नीची पूँजी उपलब्ध हो सके।

(ii) यथा सम्भव अपने ही देश के जहाजों द्वारा विदेशी व्यापार किया जाय।

(iii) जिन वस्तुओं का प्रयोग देश के उद्योग-धन्धों में कच्चे माल के रूप में किया जाता हो उनके निर्यात पर रोक हो। आयातों पर अधिकाधिक आयात कर लगाये जायें, ताकि लोग कम-से-कम आयात करें।

(iv) कच्चे माल के आयातों को कर मुक्त रखा जाये।

(v) सोना-चाँदी आदि बहुमूल्य धातुओं का केवल आयात किया जाय, निर्यात नहीं।

(vi) उपनिवेशों को पक्के माल का निर्यात करना चाहिए तथा वहाँ से कच्चे माल का आयात अधिक लाभकारी समझा गया।

(vii) विदेशी ब्यापार में वृद्धि करने के लिए व्यापारिक एवं राजनीतिक संधियों की जाये।

(viii) वस्तुओं के गुण नियन्त्रण पर विशेष ध्यान दिया जाय।

(ix) बैंक तथा साख-पत्रों का विकास किया जाय।

(x) देश में निर्मित पक्के माल के लिए नवीन बाजारों की खोज की जाय तथा कच्चे माल की प्राप्ति के लिए अधिकाधिक देशों को अपने अधिकार में लिया जाय।

(xi) नये उद्योगों को स्थापना तथा विदेशी व्यापार के सुगम संचालन के लिए विदेशी नागरिकों के आवागमन पर कोई रोक नहीं।

(7) जनसंख्या सम्बन्धी विचार-

वणिकवादियों ने  जनसंख्या की वृद्धि को देश के विकास के लिए आवश्यक माना। उनका विचार था कि जनसंख्या वृद्धि के साथ देश को अधिकाधिक मात्रा में अभिक और नाविक मिलेंगे जो उत्तरोत्तर देश में आर्थिक विकास में योगदान देंगे। जब जनसंख्या में तेजी से वृद्धि होगी तब देश को सस्ता श्रम उपलब्ध हो सकेगा। इस श्रम से उत्पादित वस्तु भी सस्ती होगी। परिणामस्वरूप विदेशों में निर्मित वस्तुओं से कड़ी प्रतियोगिता कर सकेगा। देश में जनसंख्या में वृद्धि करने के लिए उन्होंने विवाह करने एवं अधिक बच्चे पैदा करने वालों को पारितोषक देने तथा अविवाहित रहने वालों अथवा कम बच्चे पैदा करने वालों को दण्ड देने का प्रावधान रखा।

(8) ब्याज का सिद्धान्त-

व्याज लेने और न लेने के बारे में वणिकवादी विचारकों में गम्भीर मतभेद थे। टामस मन, जॉन लॉक तथा सर डडले नार्थ आदि विचारक ब्याज लेने के पक्षधर थे, जबकि देवनांत (Davenant) आदि विचारक ब्याज लेने के विरुद्ध थे। उनका विचार था कि ब्याज एक अनुपार्जित आय है और ब्याज लेने वाला मनुष्य आलसी होता है।

जो विचारक ब्याज लेने के पक्षधर थे उनमें भी ब्याज की दर को लेकर काफी मतभेद थे। मैनले (Manley) और उनके अनुयायियों के अनुसार ब्याज की दरों का निर्धारण देश की औद्योगिक दशा के आधार पर किया जाना चाहिए। इन विचारकों का कहना था कि यदि देश में मुद्रा अधिक होती है तो ब्याज की दर नीची रहती है तथा जब मुदा कम होती है बाज की दर ऊंची रहती है। अधिकांश विचारकों का मत था कि ब्याज की दर को कानून द्वारा नीचा रखा जाना चाहिए। परन्तु उनके विचार से यह अधिक उचित था कि देश में मुद्रा की मात्रा में वृद्धि करके व्याज की दर को घटाने का प्रयास किया जाये। वणिकवादी इस सत्य से भली प्रकार परिचित थे कि यदि विदेशी व्यापार द्वारा अर्जित सोने-चांदी का निवेश नहीं किया जायेगा तो देश की आर्थिक प्रगति नहीं हो सकेगी।

(9) मूल्य सम्बन्धी विचार-

वणिकवादियों ने मूल्य सम्बन्धी जो विचार प्रस्तुत किये वे आधुनिक विचारधारा से एक सीमा तक मेल खाते हैं। उन्होंने मूल्य को तीन प्रकार से परिभाषित किया।

(i) प्राकृतिक मूल्य- वणिकवादियों के अनुसार वस्तुओं में मानव को तृप्त करने को शाक्ति होती है इसीलिए मानव के लिए उनका मूल्य होता है। वस्तु का यह प्राकृतिक मूल्य उसमें निहित उस वस्तु के गुण विशेष के कारण होता है। आधुनिक अर्थशास्त्री इसी विचार को ‘उपयोगिता’ का नाम देते हैं।

(ii) बाजार मूल्य- मुद्रा के चलन के साथ वस्तु विनिमय की समाप्ति हुई तथा वस्तु का मूल्य मुद्रा की इकाईयों में निर्धारित किया जाने लगा। इसे बाहा मूल्य की संज्ञा दी गयी, जो वस्तु की उत्पादन लागत पर निर्भर करती थी। उत्पादन लागत में उन्होंने भूमि और श्रम को सम्मिलित किया।

(iii) श्रम मूल्य- कुछ वणिकवादियों (जैसे-जॉन लाक) के अनुसार अम लागत का महत्वपूर्ण भाग है इसलिए उसका मूल्य उसके उत्पादन में प्रयुक्त श्रम के आधार पर किया जाना चाहिए।

(10) उत्पादन के साधन-

वणिकवादी स्पष्ट रूप से यह नहीं बता सके कि उत्पत्ति के साधन कौन-कौन से हैं। परन्तु उनके लेखों से ज्ञात होता है कि उन्होंने भूमि के साथ-साथ श्रम को भी उत्पत्ति का साधन माना। देवनान्त के विचार में, “राष्ट्रों की सम्पत्ति मनुष्य के श्रम और उद्योग से उत्पन्न होती है।” पैटी ने श्रम को सम्पत्ति का पिता’ भूमि को ‘माता’ की संज्ञा दी है।

(11) कर व्यवस्था-

वणिकवादी लेखक सर विलियम पैटी ने सर्वप्रथम वैज्ञानिक ढंग से कर प्रणाली के ऊपर विचार प्रस्तुत किये। उनके अनुसार व्यक्तियों को सार्वजनिक व्यय में योगदान देना चाहिए। यह योगदान उनके द्वारा राज्य से प्राप्त सुविधाओं के अनुसार होना चाहिए अर्थात् करारोपण व्यय के आधार पर किया जाना चाहिए। इसी प्रकार से अन्य वणिकवादियों ने भी करारोपण सम्बन्धी विचार प्रस्तुत किये, जो निम्न प्रकार थे-

(i) प्रत्येक व्यक्ति से उसके द्वारा राज्य से प्राप्त लाभ के आधार पर कर वसूल किया जाना चाहिए।

(ii) करारोपण व्यय के आधार पर किया जाना चाहिए।

(iii) उत्पादन कर अधिक मात्रा में लिये जायें तथा आयात-निर्यात कर सीमित मात्रा में।

(iv) ब्याज पर कर लगाया जाये।

(v) कर प्रणाली का आधार समानता हो।

(12) विभिन्न व्यवसायों की उत्पादकता-

जैसा कि उनके नाम से ही स्पष्ट है वणिकवादियों ने व्यापार को सर्वाधिक लाभ का व्यवसाय माना। उद्योग व्यापारिक क्रियाओं का प्रमुख केन्द्र होता है, इसलिए उसे दूसरा स्थान तथा कृषि को तीसरा स्थान प्रदान किया। इस प्रकार वणिकवादियों ने व्यापार, उद्योग तथा कृषि को उत्पादक व्यवसाय माना तथा अन्य व्यवसायों को अनुत्पादक, क्योंकि उनका विचार था कि अन्य व्यवसाय देश के लिए सोना-चाँदी एकत्रित नहीं कर सकते।

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