अर्थशास्त्र / Economics

सार्वजनिक उपक्रमों की समस्याएं | सार्वजनिक उपक्रमों की समस्याओं के लिए सुझाव

सार्वजनिक उपक्रमों की समस्याएं | सार्वजनिक उपक्रमों की समस्याओं के लिए सुझाव | Problems of PSUs in Hindi | Suggestions for problems of PSUs in Hindi

सार्वजनिक उपक्रमों की समस्याएं एवं उनके लिए सुझाव

भारत में सार्वजनिक उपक्रमों की प्रमुख समस्याएँ एवं उन समस्याओं के निवारण के लिए सुझाव निम्नलिखित हैं-

(1) संगठनात्मक प्रारूप की समस्या-

डॉ. नवगोपालदास के अनुसार, “सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण समस्या उनके संगठन एंव प्रबन्ध की है अर्थात् समाजीकृत उद्योगों को किस प्रकार संगठित एंव प्रबन्धित किया जाये जिससे कि क्षमता एवं मितव्ययिता की आवश्यकता का त्याग किये बिना राष्ट्रीय कल्याण में वृद्धि की जा सके।” देश में स्थापित सार्वजनिक उपक्रमों की संगठन व्यवस्था के सम्बन्ध में अभी तक किसी निश्चित नीति का पालन नहीं किया गया है। निश्चित नीति के अभाव में संगठन व्यवस्था के किसी एक निश्चित प्रारूप को न अपनाकर अनेक संगठनों को प्रारूपो को अपनाया गया है।

हमारे देश में इन उद्योगों के तीन प्रकार के संगठन प्रारूप रहे हैं- (i) विभागीय संस्थान, जैसे- चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स, इन्ट्रीगल कोच फैक्ट्री, आर्डनेन्स फैक्ट्रीज आदि (ii) स्वशासित निगम, जैसे- दामोदर घाटी निगम, जीवन बीमा निगम, इण्डियन एयर लाइन्स कारपोरेशन, औद्योगिक वित्तीय निगम, भारतीय रिजर्व बैंक आदि, (iii) सरकारी कम्पनियाँ जैसे- भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड, हिन्दुस्तान एण्टीबायोटिक्स लिमिटेड, हिन्दुस्तान मशीन टूल्स लिमिटेड, स्टील आथोरिटी ऑफ इण्डिया आदि। इन सभी प्रारूपों की कार्यप्रणाली एवं संचालन में भिन्नता पायी जाती है।

सुझाव- (i) इस सम्बन्ध में एक नीति का निर्धारण किया जाये और उसी के अनुरूप सार्वजनिक उपक्रमों की संगठन व्यवस्था की जाये। (ii) एक प्रकार के उपक्रमों को एक ही एकीकृत संगठन के अन्तर्गत लाया जाये, इसेस मितव्ययताएं प्राप्त होगीं व काम सरल हो जायेगा। (iii) इन उपक्रमों का प्रबन्ध एवं संगठन इस रूप में किया जाये जिससे कि मितव्ययिता एवं क्षमता का त्याग किये बिना राष्ट्रीय कल्याण में वृद्धि की जा सके।

(2) प्रबन्ध का स्वरूप-

किसी भी उपक्रम की सफलता बहुत बड़ी मात्रा में उसके उच्च प्रबन्ध वर्ग की योग्यता, कुशलता एवं क्षमता पर निर्भर करती है। भारत में इस उपक्रमों की प्रबन्ध व्यवस्था सामान्यतया IAS या P.C.S अधिकारियों को सौंप दी जाती है तथा उन्हें उच्च  पदों पर नियुक्त किया जाता है। इन अधिकारियों में सामान्य प्रशासन की योग्यता होती है, व्यावसायिक अथवा औद्योगिक प्रशासन की नहीं। औद्योगिक प्रबन्ध सामान्य प्रशासन में बहुत अधिक जटिल है और इसके लिए विशिष्ट प्रबन्धकीय योग्यता की आवश्यतकता होती है। गजेन्द्र गड़कर के शब्दों में, सचिवालय का कार्य चलाना एक बात है व कारखानों का संचालन करना दूसरी बात है। I.A.S सभी रोगों की दवा नहीं बन सकते हैं। अतः सार्वजनिक उपक्रमों के लिए विशेषज्ञ अलग से तैयार करने होंगे। इस प्रकार सावर्जनिक उपक्रमों की प्रबन्ध व्यवस्था अत्यन्त अकुशल है। प्रबन्ध की अकुशलता के कारण अनेक सार्वजनिक उपक्रम भारी हानि पर चल रहे हैं तथा राष्ट्रीय संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है।

सुझाव- (i) व्यावसायिक क्षेत्र में अनुभवी एंव प्रशिक्षित व्यक्तियों को ही प्रबन्धक एंव प्रबन्ध मंडल में नियुक्त किया जाये। (ii) इन उपक्रमों को राजनीतिज्ञों से दूर रखा जाये। (iii) प्रत्येक उपक्रम में विशेषज्ञों की सलाहकार समिति नियुक्त की जाये तो उपक्रम के प्रबन्ध संचालक को सलाह देने का कार्य करे।

(3) वित्तीय साधन जुटाने की समस्या-

सार्वजनिक उपक्रम निम्नलिखित साधनों के दीर्घकालीन अपनी वित्तीय आवश्यकतायें पूरा करते हैं- (i) अंश पूँजी, (ii) ऋणपत्र, (iii) सरकार के दीर्घकालीन ऋण, (ii) आन्तरिक साधन एवं लाभ का पुनर्विनियोग, (iv) विशिष्ट वित्त निगमों एवं बैंकों से ऋण, (v) व्यापारी उधार एंव अन्य चालू ऋण। इन उपक्रमों को वित्तीय सहायता मुख्य रूप से सरकार द्वारा ही पूंजी व ऋणों के रूप में अपने बजट के आधार पर दी जाती है। इस प्रकार इन उपक्रमों को अधिकांश वित्त सरकार द्वारा ही प्रदान किया जाता है। इस कारण इन उपक्रमों की समस्या बनी रहती है।

सुझाव- (i) सार्वजनिक उपक्रमों को स्वयं वित्त पोषण (Self-Financing) की नीति अपनानी चाहिए और सरकारी निर्भरता को कम करना चाहिए। (ii) इनमें लाभों को पुनर्नियोजित किया जाना चाहिए।

(4) संसदीय नियन्त्रण एवं जन-उत्तरदायित्व की समस्या-

सार्वजनिक उपक्रमों में जनसाधारण की पूंजी लगी होती है। अतः जनता की प्रतिनिधि होने के कारण संसद को यह अधिकार है कि वह इन उपक्रमों पर नियन्त्रण रखे। इसके तीन प्रमुख कारण हैं- (i) इन उपक्रमों में जनसाधारण का धन लगा होता है, (ii) इन उपक्रमों की स्थापना के पीछे आर्थिक सामाजिक एंव राजनीतिक उद्देश्य होते हैं तथा (iii) सार्वजनिक उपक्रमों के विकास का मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है। यह ससंदीय नियन्त्रण अन्ततः उपक्रमों की स्वायत्तता को नष्ट करता है। इस निबन्ध में डॉ. नवगोपाल दास का मत है, “कठिनाइयाँ मुख्य रूप से सार्वजनिक उपक्रम के प्रमजाल अर्थात् व्यापारिक लोच और सार्वजनिक उत्तरदायित्व दोनों की प्राप्ति के प्रयास के कारण होती है। यह भ्रमजाल इसलिए उत्पन्न होता है कि अधिकाधिक लोच और अधिकाधिक जन-उत्तरदायित्व दोनों बातों पर जोर दिया जाता है। दुर्भाग्य से जन- उत्तरदायित पर जितना अधिक आग्रह होता है, लोच की सम्भावना उतनी ही अधिक होती है। दोनों को एक साथ प्राप्त नहीं किया जा सकता है?

सुझाव- (i) सरकार को ऐसी प्रणाली का अनुकरण करना चाहिए जिसमें सार्वजनिक उपक्रमों के बारे में बार-बार प्रश्न न उठाये जा सकें। (ii) भिन्न-भिन्न समितियों के स्थान पर एक ही जाँच समिति को जांच करने के पूर्ण अधिकार होने चाहिए जिसकी रिपोर्ट पर संसद में विचार- विमर्श किया जाना चाहिए।

(5) तकनीकी सहयोग की समस्या-

सार्वजनिक उपक्रमों की एक प्रमुख समस्या तकनीकी सहयोग की है। भारत में अधिकांश आधुनिक उपक्रम विदेशी तकनीक सहायता से  स्थापित किये गये हैं। सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना करते समय आवश्यक नक्शों तथा परियोजना के प्रतिवेदनों को तैयार करवाने में विशेषज्ञों का सहयोग लेना पड़ता है। विदेशों में भारतीय विशेषज्ञों एंव तकनीशियनों को आवश्यक प्रशिक्षण देने के लिए विशेष व्यवस्थाएं करनी होती हैं।

सुझाव- (i) देश मे ही तकनीकी खोज एवं अनुसन्धान किये जाने चाहिए। (ii) देश में मध्यवर्ती तकनीक को अपनाया जाना चाहिए।

(6) सेविवर्गीय प्रबन्ध की समस्या-

किसी भी उपक्रम की सफलता उसके सेविवर्गीय प्रबन्ध अर्थात् योग्य एंव अनुभवी कर्मचारियों पर निर्भर करती है। परन्तु दुर्भाग्य से हमारे देश के सार्वजनिक उपक्रमों में दोषपूर्ण सार्वजनिक नीति के कारण योग्य, प्रशिक्षित एंव अनुभवी कर्मचारियों का प्रारम्भ से ही अभाव रहा है। इसके कारण एक ओर तो सेविवर्गीय प्रबन्ध व्यवस्था अकुशल रही है और दूसरी ओर इनकी प्रगति अत्यन्त धीमी रही है। इसके अतिरिक्त अधिक सुविधायें, उपयुक्त वातावरण, अधिक पारिश्रमिक पहल एवं प्रेरणा आदि के अभाव के कारण योग्य कर्मचारी कभी-कभी सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र में चले जाते हैं। इन उपक्रमों में कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती रही है जिससे इनकी संचालन लागत में वृद्धि हुई है।

सुझाव- (i) इनमें उच्च पदों पर योग्य तथा अनुभवी व्यक्तियों की नियुक्ति की जाये। (ii) कर्मचारियों को उचित वातावरण, पर्याप्त सुविधाएँ एवं उचित पारिश्रमिक दिया जाये। (iii) कर्मचारियों के प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था की जाये। (iv) आवश्यकता से अधिक कर्मचारियों की नियुक्ति न की जाये।

(7) औद्योगिक सम्बन्धों की समस्या-

अपने कर्मचारियों को पर्याप्त सुविधाएं देने के पश्चात् भी इन उपक्रमों में श्रम सम्बन्धों में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। इसके तीन प्रमुख कारण हैं- (i) सरकार से एक आदर्श नियोक्ता की आशा की जाती है, (ii) औद्योगिक झगड़े राजनीति से प्रेरित होते हैं तथा (iii) सामूहिक सौदेबाजी के व्यवहार पक्ष पर बल दिया गया है।

सुझाव- (i) श्रम-प्रबन्ध की संयुक्त सलाहकार समितियों का गठन किया जाये। (ii) कर्मचारियों के लिए प्रेरक कार्यक्रम आरम्भ किये जायें। (iii) प्रबन्ध-भागिता व लाभ-भागिता को बढ़ावा दिया जाये। (iv) सामूहिक सौदेबाजी व आपसी विचार-विमर्श के आधार पर समस्याओं का समाधान किया जाये।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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