भारत का विदेशी ऋण | India’s external debt in Hindi
भारत का विदेशी ऋण | India’s external debt in Hindi
भारत का विदेशी ऋण
अभी हाल तक भारत सरकार, रिजर्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं (विश्व बैंकओ ई.सी.डी., बैंक फार इंटरनेशनल सेटलमेंट्स, इंस्टीट्यूट आफ इंटरनेशनल फाइनेंस इत्यादि) के संबंधी आंकड़े में काफी अन्तर थे। इन अन्तरों को दूर करने के लिए तथा ऋण संबंधी आँकड़ों में ‘एकरूपता’ लाने के उद्देश्य से रिजर्व बैंक ने वित्त मंत्रालय से परामर्श करके विदेशी ऋण सांख्यिकी से संबद्ध एक कार्यदल की स्थापना की और नीति समूह का गठन किया जिसने 31 मार्च, 1992 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। अक्टूबर 1993 में इस संबंध में भारत सरकार ने भी एक रिपोर्ट की। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप विदेशी ऋण आंकड़ों में काफी हद तक अब सामंजस्य तथा एकरूपता लाई जा सकती है। विदेशी ऋण संबंधी आंकड़े सारणी 4 में दिये गये हैं:
भारत का विदेशी ऋण
बकाया कुल ऋण (वर्ष के अन्त में) | 1990-91 | 1991-92 | 1992-93 | 1993-94 |
मिलियन अमरीकी डालर | 80,960 | 85,330 | 89,990 | 90,720 |
करोड़ रुपए | 1,63,310 | 2,50,030 | 2,80,630 | 2,84,200 |
कुल ऋण में वृद्धि मिलियन अमरीकी डालर | 8,060 | 1,380 | 4,650 | 740 |
ऋण सेवा प्रभार मिलियन अमरीकी डालर | 8,230 | 8130 | 8,090 | 832 |
कुल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में ऋण | 30.5 | 41.1 | 39.9 | 36.1 |
चालू प्राप्तियों के प्रतिशत के रूप में ऋण | 132.3 | 29.8 | 30.3 | 24.8 |
स्रोत: Government of India Economic Survey, 1994-95, Table 57.p.92.
जैसा कि सारणी 24.4 से स्पष्ट है, भारत पर 1993-94 में कुल 2,84,200 करोड़ रुपये (90,720 मिलियन अमरीकी डालर) का विदेशी ऋण भार था। यदि हम इस बात पर गौर करें कि 1980-81 में भारत पर विदेशी ऋण 19,470 करोड़ रुपए था तो यह बात स्पष्ट होती है कि चौदह वर्ष में विदेश ऋण के भार में पन्द्रह गुणा वृद्धि हुई। डालर के रूप में, भारत पर 1980-81 में 23,500 मिलियन डालर का विदेशी ऋण भार था जो 1993-94 में बढ़ कर 90,720 मिलियन डालर हो गया (अर्थात्, लगभग चार गुणा)। इस प्रकार, 1980 से 1994 के बीच 14 वर्ष की अवधि में, भारत के विदेशी ऋण में रुपये के रूप में 15 गुणा तथा डालर के रूप में 4 गुणा वृद्धि हुई (रुपये के रूप में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि का कारण नौवें दशक में रुपये का मूल्य ह्रास तथा 1991 में रुपये का अवमूल्यन है)। 1991-92 में भारत का विदेशी ऋण, सकल घरेलू उत्पाद का 41.1 प्रतिशत तथा 1992-93 में लगभग 40 प्रतिशत था। 1989-90 से 1992-93 के बीच चालू प्राप्तियों के प्रतिशत के रूप में ऋण सेवा भुगतान (अर्थात् ऋण-सेवा अनुपात) 30 प्रतिशत के आस- पास रहा। विदेशी ऋण के इस बोझ को देखते हुए बहुत से अर्थशास्त्रियों ने यह तर्क दिया कि भारत तेजी से विदेशी ऋण जाल की ओर बढ़ रहा है। एक और चिन्ता की बात यह रही कि 1989-90 से 1992-93 के दौरान केवल ऋण सेवा के अपने दायित्वों को निभाने के लिए भारत को अपनी निर्यात आय का लगभग 43 प्रतिशत खर्च करना पड़ा। निरपेक्ष रूप में, ऋण सेवा भुगतान 1990-91 से 1993-94 के बीच लगभग 8,200 मिलियन डालर प्रति वर्ष रहे और 1994-95 में तो इनके 10,500 मिलियन डालर का स्तर छूने की सम्भावना है। यह बात भी अत्यन्त चिन्ता का कारण है कि 1990-91 से 1993-94 के बीच प्रति वर्ष 8,200 मिलियन डालर का जो ऋण सेवा भुगतान करना पड़ा उसमें ब्याज का अंश 44 प्रतिशत से 46 प्रतिशत के बीच था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इन वर्षों में कुल भुगतानों में केवल ब्याज का हिस्सा ही 45 प्रतिशत के लगभग रहा है अर्थात् मूलधन का हिस्सा मात्र 55 प्रतिशत रहा है। इससे विदेशी ऋणों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर ‘ब्याज-भार’ प्रकट होता है। नौवें दशक के उत्तरार्द्ध में अल्पकालीन जमाराशियों पर निर्भरता बढ़ गई थी, यह उसी का परिणाम है। नौवें दशक में, वाणिज्यिक (निजी) ऋणों के भार में भी तेज वृद्धि हुई। 1980 के अन्त तक कुल बकाया ऋणों के 10 प्रतिशत से बढ़कर निजी ऋण 1990 के अन्त तक 36 प्रतिशत तक पहुँच गये। “आठवें दशक में अल्पकालीन अवधि के जो ऋण लिए थे, उन्हीं ऋणों को अब लौटाने का समय आ गया है जिससे विदेशी ऋण सेवा प्रभार में तेज वृद्धि हुई है।’’
इस विवरण से स्पष्ट होता है कि हाल के वर्षों में भारत को विदेशी ऋण के बढ़ते भार के कारण अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ा है। इस बढ़ते हुए भार के कुछ कारण तो आंतरिक थे और कुछ बाहरी। प्रमुख आंतरिक कारण है : (i) योजनाओं की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयुक्त मात्रा में घरेलू साधन पैदा करने की असमर्थता; (ii) विभिन्न विकास परियोजनाओं को लागू करने के लिए विदेशी सहायता (खासतौर पर तकनीकी सहायता) की आवश्यकता; (iii) सहायता का सही प्रयोग कर पाने की असमर्थता जिससे ऋणों का भुगतान करने में कठिनाई होती है। (iv) निर्यातों को बढ़ा पाने की असमर्थता । जहाँ तक बाहरी कारणों का सम्बन्ध है, इनमें प्रमुख है : (i) भारत को अधिकतर सहायता ऋणों के रूप में प्राप्त हुई है और अनुदानों का अंश बहुत कम रहा है; (ii) हाल के वर्षों में रियायती दरों पर प्राप्त सहायता में कमी आई है जिससे भारत को ‘उच्च लागत’ पर विदेशी ऋण लेने पड़े हैं तथा (iii) विकसित देशों ने भारत से आयातों पर तरह- तरह के प्रतिबन्ध लगा रखे हैं। यह समस्या सभी विकासशील देशों की समस्या है। इन देशों के बार-बार अनुरोध करने के बावजूद भी विकसित देश व्यापार प्रतिबन्धों को कम नहीं कर रहे हैं। यदि इन देशों के रवैये में परिवर्तन नहीं हुआ तो विकासशील देश ऋणों के लौटा नहीं पायेंगे।
जहाँ तक भविष्य में नीति का संबंध है, भारत को उच्च ब्याज दरों पर ऋण लेने से तथा अल्पकालीन ऋणों से बचना चाहिए। परन्तु जहाँ तक विदेशी ऋणों के भुगतान का प्रश्न है, यह तभी सम्भव हो सकता है यदि निर्यात आय में पर्याप्त वृद्धि हो। इसके लिए आवश्यक है कि निर्यात लाभोत्पादकता में वृद्धि हो। ऋणी के भुगतान में और सहायता मिल सकती है यदि विकसित देश अपने रवैये में परिवर्तन लाएं। इसके लिए उन्हें अपने यहाँ अधिक विस्तारवादी घरेलू नीति बनानी होगी तथा व्यापार नीति उदारवादी बनाना होगा।
इस विवेचन को समाप्त करने से पहले इस बात की ओर ध्यान दिलाना भी आवश्यक है कि भुगतान शेष की स्थिति में सुधार होने के कारण अब विदेशी ऋण के बढ़ते हुए आकार पर अंकुश लगा पाना संभव हुआ है । जैसाकि सारणी 4 से स्पष्ट है, जहाँ 1992-93 में विदेशी ऋण राशि में वृद्धि 4.650 मिलियन डालर थी वहाँ 1993-94 में वृद्धि मात्र 740 मिलियन डालर थी। 1994-95 के पूर्वार्द्ध में तो विदेशी ऋण की मात्रा में 270 मिलियन डालर की कमी हुई। इस प्रकार, हाल के वर्षों में पहली बार 1994-95 के पूर्वार्द्ध में देश के विदेशी ऋण में निरपेक्ष कमी हुई। जहाँ 1992-93 में विदेशी ऋण, सकल घरेलू उत्पाद का 40 प्रतिशत था वहां 1993-94 में यह 36 प्रतिशत रह गया। चालू प्राप्तियों के प्रतिशत के रूप में ऋण सेवा भुगतान 1992-93 में 30.3 थे जो कि 93-94 में कम होकर 24.8 प्रतिशत रह गये। यद्यपि 94-95 में इनकी वृद्धि की संभावना है। जहाँ 1992-93 में ऋण सेवा के लिए 43 प्रतिशत निर्यात आय की आवश्यकता पड़ी वहाँ 93-94 में इस उद्देश्य के लिए 36.6 प्रतिशत निर्यात की आवश्यकता थी। इन सब तथ्यों से यह बात स्पष्ट है कि भारत के विदेशी ऋण की स्थिति में सुधार हो रहा है।
अर्थशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
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