बचत मूल्य सिद्धान्त | पूँजीवाद की विशेषताएँ | श्रम मूल्य सिद्धान्त | पूँजीवादी शोषण का सिद्धान्त

बचत मूल्य सिद्धान्त | पूँजीवाद की विशेषताएँ | श्रम मूल्य सिद्धान्त | पूँजीवादी शोषण का सिद्धान्त

बचत मूल्य सिद्धान्त एवं पूँजी के‌ केन्द्रीयकरण का सिद्धान्त

मार्क्स ने अपनी पुस्तक Das Kapital में अनेक आर्थिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, लेकिन यहाँ उन सबका वर्णन करना स्थानाभाव के कारण सम्भव नहीं है। अत: यहाँ उसके केवल ऐसे दो मौलिक विचार प्रस्तुत किये गये हैं, जो कि उसके आर्थिक दर्शन का आधार स्तम्भ या केन्द्र बिन्दु माने जाते हैं। ये विचार निम्न हैं-(I) पूँजीवादी शोषण का सिद्धान्त (जिसमें श्रम मूल्य सिद्धान्त एवं बचत मूल्य सिद्धान्त सम्मिलित हैं) एवं (II) पूँजीवाद के पतन का सिद्धान्त (जिसमें पूंजी के केन्द्रीयकरण एवं आर्थिक संकट का समावेश है)।

पूँजीवादी शोषण का सिद्धान्त

पूँजीवाद की विशेषताएँ

पूँजीवादी शोषण के सिद्धान्त (Theory of Capitalistic Exploitation) का वर्णन करने से पूर्व मार्क्स ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को निम्न विशेषताओं का वर्णन किया है-

  1. उत्पादन के साधनों पर श्रमिकों का स्वामित्व न होना- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादनों के सम्पूर्ण साधनों (भूमि एवं पूंजी) पर पूँजीपति का अधिकार होता है। श्रमिकों को इनके स्वामित्व के अधिकार से वंचित ही रहना पड़ता है। ऐसी दशा में वे किसी अन्य भौतिक वस्तु की भाँति ही अपना श्रम बेचने के लिए विवश हो जाते हैं।
  2. समाज का दो भागों में बँटा होना-पूँजीपति एवं श्रमिक- यद्यपि मार्क्स ने यह स्वीकार किया है कि समाज में कृषक-स्वामी व छोटे-छोटे भूमिपति भी विद्यमान होते हैं तथापि पूँजीवादी प्रणाली में दो ही वर्गों को प्रमुखता है-पूँजीपति एवं श्रमिक। इन दोनों वर्गों के बीच निरन्तर संघर्ष होता रहता है। इसी संघर्ष को लेकर ‘मार्क्सवादी अर्थशास्त्र’ रचा गया है।
  3. बड़े पैमाने पर उत्पादन- यद्यपि छोटे पैमाने पर भी थोड़ा बहुत उत्पादन होता है तथापि पूँजीवादी प्रणाली के अन्तर्गत मुख्यत: बड़े पैमाने के उत्पादन का ही बोलबाला होता है। पूँजीवादी कारखानों में उत्पादन श्रमिकों की एक विशाल सेना की सहायता से किया जाता है।
  4. लाभ के लिए उत्पादन- पूँजीवाद की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन बाजार में विनिमय करने हेतु किया जाता है, ताकि पूँजीपतियों को लाभ हो।

अतः यह जरूरी नहीं है कि ऐसी वस्तुएँ सामान्य समाज के लिए उपयोगी हों। यदि वे लाभ दिला सकती हैं, तो उनका उत्पादन दिया जायेगा अन्यथा नहीं।

  1. श्रम का शोषण- पूँजीवाद का सबसे प्रधान लक्षण श्रम का शोषण किया जाना है। मजदूरी व्यवस्था के अन्तर्गत श्रमिकों को अपने उचित अंश से बहुत कम प्राप्ति होती है। उसे इतना ही मिलता है कि जो उसकी श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन के लिए या भरण-पोषण के लिए आवश्यक है। किन्तु भरण-पोषण का व्यय उनके कार्य-मूल्य से कम होता है। इस प्रकार, शेष मजदूरी पूंजीपति स्वयं ही हड़प लेता है।

श्रम मूल्य सिद्धान्त

मार्क्स ने मूल्य के सिद्धान्त का विचार एडम स्मिथ और विशेषतः रिकार्डो से प्राप्त किया। बिना किसी हिचकिचाहट और संशोधन के उसने रिकार्डो के मूल्य-सिद्धान्त को ग्रहण कर लिया और इसके द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि पूँजीपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण किया जाता है।

मार्क्स के मूल्य सिद्धान्त के लिए पिछला प्रश्नोत्तर पढ़िये और यहाँ केवल सिद्धान्त ही दीजिए।

बेशी मूल्य या बचत मूल्य सिद्धान्त

(Theory of Surplus Value)

कार्ल मार्क्स ने ‘बचत मूल्य सिद्धान्त’ प्रतिपादित करके पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को दुर्बलता व दोषों को प्रकट कर दिया है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करने में मार्स ने रिकार्डो आदि परम्परावादी शाखा के विद्वानों के मजदूरी नियम का सहारा लिया था। तब ही तो वह समझता था कि श्रमिक को केवल उतनी मजदूरी मिलती है जिससे वह अपनी न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी कर सके। उदाहरण के लिए यदि श्रमिक 4 घण्टे काम करके इतनी वस्तु का उत्पादन कर लेता है कि उसको न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी हो सकें, तो पूँजीपति उतनी ही वस्तु श्रमिक को उसके हिस्से के रूप में देगा।

मार्क्स का मत है कि किसी वस्तु का मूल्य उस श्रम के बराबर होता है जो उसे उत्पन्न करने में लगता है। अन्य शब्दों श्रमिक को उसकी श्रम शक्ति का किसी वस्तु के बनाने के लिए प्रयोग करने के बदले में जितना धन दिया जाय वही उस वस्तु का मूल्य है, जैसे-किसी श्रमिक से एक कुर्सी बनवाई गई, जिसमें उसको 8 घण्टे मेहनत करनी पड़ी अथवा श्रमिक को उसकी मेहनत के बदले 8 रुपये दिये गये। यहाँ कुर्सी का मूल्य-8 घण्टे का श्रम-8 रु० । लेकिन पूँजीवादी प्रणाली में वस्तु का मूल्य इसकी उत्पत्ति में लगे श्रम के बराबर नहीं होता, वरन् इससे अधिक होता है। कारण पूँजीपति मजदूर को कम मजदूरी देता है। पूँजीपति मजदूर को उतनी ही मजदूरी देता है जो कि उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए काफी होती है किन्तु उपभोक्ता से वस्तु का पूर्ण श्रम-मूल्य वसूल किया जाता है। इस प्रकार उसे कुछ मूल्य बचा रहता है। यह बचा हुआ मूल्य ही अतिरिक्त मूल्य’ या बचत मूल्य (Surplus Value) कहलाता है।

मान लो एक श्रमिक 4 घण्टे के बराबर श्रम करके इतनी वस्तु उत्पन्न कर लेता है कि न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी हो सकें। परन्तु इतना करने के बाद भी वह काम बन्द नहीं कर देता। वह और भी कुछ घण्टे काम करता है। (मान लीजिए 5 घण्टे काम किया) किन्तु उसे इन घण्टों के बदले कुछ नहीं दिया जाता। इस प्रकार श्रमिक को 4 घण्टे के काम के बराबर मजदूरी अर्थात् 4 रु० देगा जबकि उपभोक्ता से वस्तु के पूरे १ रु० वसूल कर लेता है। यहाँ बचत मूल्य 5 रु० है। इसे पूँजीपति अपने पास रख लेता

स्वहित (Self-interest) के नियम से प्रभावित होकर पूँजीपति इस बचत को अधिकतम करने का प्रयास करते हैं। मार्क्स ने ऐसा करने के निम्न तरीकों पर प्रकाश डाला है-

  1. श्रमिकों के काम के घण्टे बढ़ाकर- जब श्रमिक से 8 घण्टे की बजाय 10 घण्टे काम लिया जाता है तो स्वत: बचत 4 घण्टे से बढ़कर 6 घण्टे हो जाती है, क्योंकि श्रमिक तो अब भी अपने जीवन निर्वाह योग्य वस्तुओं का उत्पादन 4 घण्टे के श्रम से कर लेता है, अत: उसे 4 घण्टे का श्रम मूल्य ही मजदूरी के रूप में मिलेगा, जबकि उपभोक्ता से 10 घण्टे का श्रममूल्य वसूल होगा। इस प्रकार पूँजीपति के पास मूल्य 6 घण्टे होगा।
  2. श्रमिकों को जीवन निर्वाह की वस्तुओं को कम समय में उत्पादन करने योग्य बनाकर- यदि किसी युक्ति से काम करने वाले श्रमिकों की आवश्यकताएँ कम समय में उत्पादन करके पूरी होने लगें, तो पूँजीपति की बचत में वृद्धि हो जायेगी यह निम्न तरह से सम्भव है-

(अ) स्त्रियों व बच्चों को नौकर रखकर- स्त्रियों और बच्चों की आवश्यकताएँ पुरुष श्रमिकों से कम होती हैं, जबकि उनकी कार्य-शक्ति पुरुष-श्रमिकों के बराबर होती है। अत: पूँजीपति अपने कारखाने में पुरुष श्रमिक की बजाय स्त्री, बच्चों को नौकर रखता है। मान लीजिए कि एक पुरुष श्रमिक अपने जीवन-निर्वाह योग्य वस्तुओं का उत्पादन 4 घण्टे के श्रम से करता है और वह 8 घण्टे श्रम करता है तथा वस्तु का श्रम मूल्य जो उपभोक्ताओं से वसूल किया जाता है,8 रु. है। अब इस श्रमिक को हटाकर उसके स्थान पर एक स्त्री श्रमिक रखी जाती है जो अपने जीवन निर्वाह योग्य वस्तुओं का उत्पादन 3 घण्टे के श्रम से कर लेती है, किन्तु 8 घण्टे काम करती है। ऐसी दशा में पूँजीपति का बचत मूल्य 4 घण्टे श्रम (-4 रु०) से बढ़कर 5 घण्टे श्रम (-5 रु०) हो जायेगा।

(ब) श्रम की कार्य शक्ति बढ़ाकर- मशीनों के अधिक प्रयोग से श्रमिकों की कार्यशक्ति बढ़ जाती है जिससे कम समय में ही वे अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने योग्य उत्पादन कर सकते हैं। ऐसी दशा में पूँजीपतियों की बचत भी बढ़ जायेगी।

पूँजीवादी शोषण की स्वाभाविकता

यह है मार्क्स की विचारधारा । जीड एवं रिस्ट के अनुसार माक्र्स के विचारों का महत्त्व इस बात को स्पष्ट करने में नहीं है कि श्रमिकों का शोषण प्रतिदिन होता रहता है वरन् यह स्पष्ट करने में है कि श्रमिकों को वह सब मिल जाने पर भी, जिसे पाने का वह हकदार है, पूँजीवादी प्रणाली में श्रमिक का शोषण होना अनिवार्य है।

प्रत्येक बात अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से गठित होती है। पूँजीपति को श्रमिकों को लूटने का अपराधी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसने उचित मजदूरी (जिसके बारे में मार्क्स का विश्वास हैं कि वह भरण-पोषण के व्यय के बराबर होती है) का भुगतान कर दिया है। बराबर मूल्य के बदले में बराबर मूल्य दिया गया है। यदि प्राकृतिक शक्तियों को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने दिया जाय तब भी यही परिणाम होता। इन सब बचावों के होते हुए भी, एक तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि सम्पूर्ण विनिमय व्यवहारों में स्वामी द्वारा श्रमिकों का अत्यधिक शोषण किया गया है।

यह प्रश्न उदय होता है कि जब प्रत्येक बात ठीक ढंग से घटित होती है, तो श्रमिकों का शोषण कैसे होता है? मार्क्स ने इसका उत्तर निम्न प्रकार दिया है-पूँजीपति एक बहुत ही सयाना व्यक्ति होता है। जब वह मजदूरी पर श्रम शक्ति मोल लेता है, तो वह पूर्णतः जानता है कि वह एक ऐसी मूल्यवान वस्तु खरीद रहा है जिसमें अपने मूल्य से भी अधिक मूल्य पैदा कर सकने को रहस्यपूर्ण क्षमता है। यहीं पर हम यह देखते हैं कि वर्ग-हितों की ऊपर से दिखायी पड़ने वाली अनुरूपता की तह में शोषण की जड़ लगी हुई है। माक्र्स के मतानुसार, पूजीपति उन परिस्थितियों का लाभ उठाता है जो कि गंजीवाद के अन्तर्गत उसे सौभाग्यवश उपलव्य है। श्रमिक अपनी ओर से इन परिस्थितियों को परिवर्तित करने में असमर्थ है। इसीलिए मार्क्स ने कहा है कि पूंजीपति उस जोंक के समान है जो दूसरों का रक्त पीकर जीवित रहता है और अधिकाधिक रक्त मिलने पर मोटा होता जाता है।

उसने अपनी पुस्तक Das  Kapital में श्रमिकों के शोषण की चर्चा की है। उसकी पुस्तक का यह नाम विचित्र मालूम होगा, क्योंकि वह तो मूल्य के श्रम सिद्धान्त में विश्वास रखता था। पुस्तक के उपयुक्त शीर्षक से यह धारणा नहीं बनानी चाहिए कि उसका विश्वास मूल्य के श्रम- सिद्धान्त में कम हो गया था। वास्तव में इससे उसके विश्वास को और सुदृढ़ता प्राप्त हुई है, क्योंकि इसमें उसने प्रमाणित किया कि पूँजी स्वयं बांझ निकम्मी (Sterile) है। किन्तु मार्क्स इस तथ्य से भी भली प्रकार परिचित थे कि यद्यपि श्रम ही ‘मूल्य’ का सार है तथापि वह मूल्य तब तक उत्पन्न नहीं कर सकता जब तक कि कुछ पूँजी का उपभोग न हो इसीलिए तो उसने पूँजी के दो भेद किये-अस्थिर पूँजी एवं स्थिर पूँजी। चूंकि स्थिर पूँजी (Constant Capital) का उपभोग श्रम द्वारा नहीं होता है इसीलिए वह ‘बचत मूल्य’ पैदा करने में असमर्थ हैं, अधिक-से-अधिक वह अपनी ‘बराबर चीज’ ही उत्पन्न कर सकती है। लेकिन अस्थिर पूँजी (Variable Capital) पूंजीपति को ‘बचत मूल्य’ दिलाती है, इसलिए पूँजीपति इसका अधिकाधिक प्रयोग करने का प्रयल करता है।

आलोचनाएँ

मार्क्स का यही बचत मूल्य सिद्धान्त है। किन्तु इसकी कड़ी आलोचना की गई है। कहा जाता है कि यदि स्थिर पूंजी वास्तव में निकम्मी या अनुत्पादक है और इसका प्रयोग घटना ही पूंजीपतियों के लिए हितकर है तो फिर आजकल विश्व के सभी देशों में स्थिर पूँजी का प्रयोग क्यों बढ़ रहा है? वास्तविकता यह है कि पूँजीपतियों को स्थिर पूँजी अधिक और परिवर्तनशील पूँजी का कम प्रयोग करने से लाभ अधिक होता है। इस आलोचना का मावर्स के पास कोई उत्तर नहीं है और इन्हीं आलोचनाओं के कारण यह आलीशान इमारत ढह जाती है जिसे बनाने में मार्क्स ने इतना परिश्रम किया।

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