अर्थशास्त्र / Economics

पूँजीवाद के पतन के सिद्धान्त | पूँजी के‌ केन्द्रीयकरण का सिद्धान्त

पूँजीवाद के पतन के सिद्धान्त | पूँजी के‌ केन्द्रीयकरण का सिद्धान्त

पूँजीवाद के पतन के सिद्धान्त

(Theory of Fall of Capitalism)

मार्क्स का कहना है कि पूँजीवाद में ही अपने विनाश के बीज मौजूद हैं और जिन बातों ने भूतकाल में पूंजीवाद की स्थापना एवं विकास में सहयोग दिया है वे ही उसके अन्तिम विनाश का कारण बनेंगी और फिर से सामाजिक उपक्रम तथा सामूहिक सम्पत्ति का युग शुरू होगा।

पूँजीवाद का जन्म

मार्क्स का विश्वास था कि वास्तविक पूँजीवाद का जन्म 16वीं शताब्दी से आरम्भ हुआ है। इससे पहले गिल्ड प्रथा का प्रचलन था, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक मजदूर के अपने-अपने औजार होते थे अर्थात् श्रमिक ही पूँजी का स्वामी होता था। इस पूँजी के प्रयोग से जो बचत (Surplus Value) प्राप्त होती थी, वह उसे ही मिलती थी। लेकिन 16वीं शताब्दी से अनेक परिवर्तन आने लगे, जिनके कारण स्वतन्त्र शिल्पी अपना व्यक्तिगत उद्योग नहीं चला सका। नये-नये आविष्कारों के कारण, यातायात और सन्देशवाहन के साधनों के तीव्रगामी होने के कारण, उत्पादन के तरीके बदल जाने के कारण, बैंकों और साख का जन्म होने के कारण, स्वतन्त्र व्यवसाय करने वाला श्रमिक या शिल्पी कुछ बड़े पंजीपतियों के आगे नहर सका। उसे अपना सारा पाना स्वतन्त्र व्यवसाय बन्द करना पड़ा और बड़े पूंजीपतियों के कारखानों में नौकरी करनी पड़ी। पहले यह वस्तुओं को तैयार करके बेचता था,अब उसे अपना बम बेचना पड़ा। इस प्रकार समाज मेंदो ही वर्ग रह गए-पूंजीपति एवं श्रमिक।

जीवाद द्वारा पूजी के संचय को बढ़ावा

पूंजीपति यह स्वप्न देखने लगा कि उसे अधिक लाभ प्राप्त हो। इस स्वप्न को साकार करने के लिए वह पंजी के संचय को पाना चबाने लगा तक विनियोग बड़े और अधिक आय प्राप्त होने लगे। विनियोग की वृद्धि श्रमिकों  के लिए मांग भी बढ़ जाती है, लेकिन तुरन्त पूर्ति न बढ़ सकने के कारण मजदूरी की दर बढ़ जाती है। इससे बचत मूल्य कम हो जाता है या समाप्त हो जाता है। मार्क्स का कहना है कि ऐसी दशा में पूँजोपात श्रमिक की मजदूरी को नहीं बढ़ाता, वरन् उत्पादन के कार्य में श्रमिकों की संख्या को घटाकर मशीनों का अधिकाधिक प्रयोग करता है। इससे मजदूरों में बेकारी बढ़ती है और श्रमिक की पूर्ति अधिक अनुभव होने लगती है। श्रमिक आपस में काम पाने की प्रतियोगिता करते हैं, जिससे मजदूरों की दर कम हो जाती है। इस स्थिति का लाभ उठाकर पंजीपति श्रमिक को और भी कम मजदूरी देता है तथा मजदूर इसे ही स्वीकार कर लेता है।

पूंजी के संचय के संकटों को जन्म तथा पूँजीवाद का पतन

इस प्रकार पूँजीवादी प्रणाली पूँजी का संचय (Accumulation) बढ़ता जाता है और इस संचय के निम्न परिणाम निकलते हैं-

  1. लाभ की मात्रा कम होना- उत्पादक स्थिर पूँजी (अर्थात् मशीनों की मात्रा) को बढ़ा रहे हैं, किन्तु अस्थिर पूँजी (अर्थात् श्रमिकों पर व्यय होने वाला भाग) घटती जाती है। परिणामत: बचत मूल्य की मात्रा अर्थात् पूँजीपतियों के लाभ की मात्रा घटने लगी है। इससे पूँजीपतियों को पूँजी बनाने का प्रलोभन कम हो रहा है। यह पूँजीवाद के समाप्त होने के आसार हैं।
  2. श्रमिकों की संख्या में वृद्धि- अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए पूँजीपति बड़े पैमाने पर उत्पादन करता है। बड़े पैमाने पर उत्पादन करने के लिए श्रमिकों की संख्या बढ़ानी पड़ती है। श्रमिकों की संख्या में वृद्धि करके पूंजीपति स्वयं ही अपने शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करते हैं।
  3. अत्युत्पादन- अधिकतम लाभ कमाने के लिए प्रत्येक उत्पादक बड़े पैमाने पर उत्पादन करता है और श्रमिकों को कम मजदूरी देने का प्रयास करता है। इससे एक ओर उत्पादन बढ़ता है परन्तु दूसरी ओर उपभोग कम हो जाता है। चूँकि समाज में श्रमिकों का बाहुल्य है और इस वर्ग की आय कम कर दी जाती है, इसलिए वह स्वाभाविक है कि समाज के कुल उपभोग में बहुत कमी आ जाय। इस प्रकार, देश में अत्युत्पादन की समस्या उत्पन्न हो जाती है और अतिरिक्त उत्पादन न बिकने से पूँजीवाद को गम्भीर खतरा उपस्थित हो जाता है।

4, छोटे पूँजीपतियों का विनाश- बड़े पैमाने पर उत्पादन करने के लिए विशाल ट्रस्ट और कार्टेल बन गये हैं। इनकी प्रतियोगित के कारण न केवल छोटे स्वतन्त्र व्यवसाय समाप्त हो गये वरन् अब तो थोक एवं मध्यम आकार वाले उद्योग भी नष्ट होने लगे हैं। इसमें मध्यम वर्ग समाप्त होकर समाज में इने-गिने पूँजीपति और श्रमिकों की विशाल फौज रह जायेगी, जो पूँजीवाद पर तनिक भी अवसर मिलते ही हमला करने को तैयार हैं और उसे समाप्त कर देंगी।

  1. नगरों में श्रम-शक्ति की वृद्धि- इतिहास बताता है कि प्रत्येक देश में, जिसमें पूँजी का एकीकरण आरम्भ हुआ और बड़े पैमाने के उद्योग खोले गये हैं वहाँ किसान और कारीगर गाँवों को छोड़कर नौकरी की तलाश में शहरों में बस गये हैं।
  2. श्रमिकों के संकट में वृद्धि- पूँजी का एकीकरण श्रमिकों के कष्टों में वृद्धि करता है, ‘अमीरी और गरीबी’ के दृश्य दिखाता है। यह बढ़ती हुई गरीबी भी पूँजीवाद के पतन का कारण होगी।

इस प्रकार, जिस पूँजी के संचय को पूँजीवाद ने जन्म दिया वही अन्त में संकटों को आमन्त्रित करके इसके विनाश का कारण बनता है। इसी तथ्य को लक्ष्य करके मार्क्स ने कहा था कि पूँजीवाद में आत्म-विनाश (Self-destruction) के बीज मौजूद हैं। यह आत्म विनाश प्रारम्भ हो चुका है। इसके निम्न प्रभाव भी उपलब्ध हैं- (i) बार-बार औद्योगिक संकट आ रहे हैं, (ii) निर्धनता निरन्तर बढ़ती जा रही है तथा (iii) संयुक्त स्कन्ध कम्पनियों का तेजी से विकास हो रहा है।

मार्क्स को संयुक्त स्कन्ध कम्पनियों की वृद्धि से इस बात की अधिक आशा है कि यह पूँजीवाद की सबसे तगड़ी और अन्तिम निर्णायक चोट पहुँचायेगी। एक बार उद्योग का संगठन संयुक्त स्कन्ध ढाँचे पर हो जाने से पूंजीपतियों को प्रतिस्थापित करना बहुत सरल हो जायेगा, क्योंकि सरकार (जो कि सामूहिक हितों की रक्षक है) केवल एक कानून बना कर ही प्राइवेट शेयर होल्डरों की सम्पत्ति को अपने अधिकार में कर सकेगी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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