अर्थशास्त्र / Economics

तुलनात्मक लागत सिद्धान्त | मूल्य का श्रम सिद्धान्त | तुलनात्मक लागत का आधार | तुलनात्मक लागत सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन

तुलनात्मक लागत सिद्धान्त | मूल्य का श्रम सिद्धान्त | तुलनात्मक लागत का आधार | तुलनात्मक लागत सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन | Comparative Cost Theory in Hindi | Labor Theory of Value in Hindi | Comparative Cost Basis in Hindi | Critical Evaluation of Comparative Cost Theory in Hindi

तुलनात्मक लागत सिद्धान्त

विभिन्न देशों में एक ही वस्तु की लागतों में भिन्नता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का जन्म हुआ। यह भिन्न लागतें उस देश के प्रादेशिक श्रम विभाजन और उत्पत्ति के साधनों की अनुकूलता के कारण होती है। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के इन कारणों को स्पष्ट करते हुए एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसे तुलनात्मक लागत का सिद्धान्त कहते हैं। इस सिद्धान्त का आविष्कार कर्नल राबर्ट वरेन ने किया परन्तु सही अर्थों में यह सिद्धान्त रिकार्डो द्वारा प्रतिपादित किया गया। इस सिद्धान्त को विकसित करने का श्रेय जे० एस० मिल, केयरनीज तथा बेस्टेबल को है। इस सिद्धान्त की आधुनिक व्याख्या में अमेरिकी अर्थशास्त्री टॉजिंग तथा जर्मन अर्थशास्त्री हैबरलर का नाम उल्लेखनीय है।

मूल्य का श्रम सिद्धान्त : तुलनात्मक लागत का आधार

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने मूल्य के श्रम सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तथा इसे मूल्य की वास्तविक लागत का आधार माना। यह सिद्धान्त स्पष्ट करता है कि वस्तुओं को परस्पर विनिमय उनके उत्पादन में लगे हुए श्रम के आधार पर होता है। दूसरे शब्दों में, किसी वस्तु का मूल्य उसकी श्रम लागत पर निर्भर करता है।

रिकार्डो ने मूल्य के श्रम लागत सिद्धान्त को निम्न मान्यताओं पर आधारित किया है-

(i) केवल श्रम की उत्पत्तिका साधन है।

(ii) समस्त श्रम एक ही प्रकार का है।

(iii) देश में श्रम पूर्ण रूप से गतिशील है।

(iv) श्रमिकों में पूर्ण प्रतियोगिता है।

सिद्धान्त की व्याख्या- रिकार्डो ने तुलनात्मक लागत सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यदि विभिन्न देशों में व्यापार स्वतन्त्र है तो प्रत्येक देश उन वस्तुओं के उत्पादन के लिए विशेष प्रयत्न करेगा जिनके उत्पादन के लिए श्रम की लागत तथा प्राकृतिक साधनों की दृष्टि से तुलनात्मक रूप से अधिक लाभदायक स्थिति हो तथा उन वस्तुओं का आयात करेगा जिनके उत्पादन के लिए वह इस दृष्टि से अपेक्षाकृत अलाभपूर्ण स्थिति में हो। इस प्रकार यह सिद्धान्त बताता है कि दो या दो से अधिक देशों में कौन-सा देश किन वस्तुओं के उत्पादन में श्रेष्ठता रखता है और किस सीमा तक, यह उस वस्तु की लागत के तुलनात्मक अन्तर से निर्धारित होता है।

इस सिद्धान्त के अनुसार कोई देश उन वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त करने की चेष्टा  करता है जिसमें जलवायु, प्राकृतिक साधनों, व्यक्तियों की कार्यक्षमता तथा उपर्युक्त पूँजी के कारण तुलनात्मक लाभ प्राप्त होते हैं। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक देश केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करके निर्यात करते हैं जिनकी उत्पादन लागत अन्य देशों की अपेक्षा कम होती है तथा उन वस्तुओं का आयात करते हैं जिनकी उत्पादन लागत अन्य देशों की अपेक्षा अपने देश में अधिक आती है। इस प्रकार सापेक्षिक लागतों में अन्तर के कारण लागत लाभों वाली वस्तुओं का निर्यात किया जाता है तथा लागत हानि वाली वस्तुओं का आयात किया जाता है। इससे दोनों देशों को लाभ होता है। अतः तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-‘जब कभी दो देशों में किन्हीं दो वस्तुओं के उत्पादन व्यय में श्रम के रूप में तुलनात्मक अन्तर हो तो प्रत्येक देश के लिए उसी वस्तु के उतपादन में विशिष्टीकरण प्राप्त करना अनिवार्य होता है जिसके उत्पादन में उसका सापेक्षिक व्यय कम हो।’

रिकार्डो के शब्दों में, ‘दो व्यक्ति हैं और वे दोनों ही जूते तथा टोप बना सकते हैं तथा इनमें एक व्यक्ति दूसरे की अपेक्षा दोनों ही कार्यों में श्रेष्ठ है परन्तु टोप बनाने में वह अपने प्रतियोगी से 20% और जूते बनाने में 33-1/3% अधिक कुशल है। क्या यह दोनों व्यक्तियों के हित में नहीं होगा कि कुशल व्यक्ति केवल जूता बनाये तथा दूसरा व्यक्ति केवल टोप बनाने का कार्य करे।’

जैकब वाइनर के शब्दों में, ‘यदि स्वतन्त्र व्यापार होता है तो प्रत्येक देश दीर्घकाल में उन वस्तुओं के उत्पादन और निर्यात में विशिष्टीकरण प्राप्त कर लेता है जिनके उत्पादन में उसे वास्तविक लागतों के सन्दर्भ में तुलनात्मक लाभ होता है तथा उन वस्तुओं का आयात करता है जिनका देश में उत्पादन वास्तविक लागतों के सन्दर्भ में तुलनात्मक रूप से अलाभदायक होता है।’

तुलनात्मक लागत सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन

रिकार्डों का तुलनात्मक लागत सिद्धान्त प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं सर्वाधिक चर्चित सिद्धान्त है। प्रो० सैम्युल्सन के शब्दों में, ‘तुलनात्मक लाभ सिद्धान्त स्वयं में सत्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण झांकी है। वह देश जो तुलनात्मक लाभ की उपेक्षा करता है, उसे जीवन-स्तर व आर्थिक वृद्धि की सम्भाव्य दरों के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ती है।’ इसके बावजूद इस सिद्धान्त की कटु आलोचना की गयी है। प्रमुख आलोचनाएँ अग्रलिखित हैं-

(1) मौद्रिक लागतों की अपेक्षा श्रम लागतों पर अधिक महत्त्व- इस सिद्धान्त की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह सिद्धान्त मूल्य के श्रम सिद्धान्त पर आधारित है। यह ठीक नहीं है क्योंकि उत्पादन लागत में श्रम के अतिरिक्त पूँजी, भूमि, साहस आदि अन्य उत्पत्ति के साधनों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की समस्या का विश्लेषण मौद्रिक लागतों के रूप में किया जाना चाहिए न कि श्रम लागतों के रूप में।

(2) श्रमिकों में समरूपता संभव नहीं- मूल्य का श्रम सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि सब श्रमिक एक समान होते हैं किन्तु यह गलत है क्योंकि श्रमिकों में एकरूपता नहीं होती। अतः श्रम के आधार पर लागत की तुलना नहीं की जा सकती।

(3) दो से अधिक देशों पर लागू नहीं- यह सिद्धान्त द्वि-वस्तु एवं द्वि-देश मॉडल पर आधारित है जबकि व्यवहार में व्यापार दो से अधिक देशों के मध्य दो से अधिक वस्तुओं में किया जाता है। इस सीमा को स्पष्ट करते हुए ओहलिन ने लिखा है, ‘केवल तुलनात्मक लागत का तर्क अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सम्बन्ध में बहुत अपर्याप्त है।’

(4) उत्पादन के नियमों की उपेक्षा- यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि वस्तुओं का उत्पादन करते समय केवल उत्पत्ति समता नियम लागू होता है। परन्तु इस प्रकार की  मान्यता बिल्कुल अवास्तविक है। व्यावहारिक जीवन में उत्पादन उत्पत्ति ह्रास नियम तथा उत्पत्ति वृद्धि नियम के अन्तर्गत होता है। तुलनात्मक लागत सिद्धान्त में इस तथ्य की पूर्ण उपेक्षा की गयी है।

(5) परिवहन लागतों की उपेक्षा- यह सिद्धान्त यातायात, बीमा तथा अन्य व्ययों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर पड़ने वाले प्रभावों की पूर्ण उपेक्षा करता है, जबकि वस्तु की उत्पादन लागत पर इन सबका भी प्रभाव पड़ता है। इस सम्बन्ध में प्रो० हैबरलर का कहना है, ‘किसी वस्तु का निर्यात तथा आयात तब तक नहीं किया जायेगा जब तक कि दो देशों में उसकी उत्पादन लागत का अन्तर उसके एक देश से दूसरे देश को भेजने में परिवहन व्यय से अधिक न ही। किसी देश की निर्यात क्षमता पूर्णतया उसकी तुलनात्मक लागत पर निर्भर नहीं करती बल्कि यह परिवहन लागत पर निर्भर होती है।”

(6) श्रम व पूँजी की गतिशीलता के सम्बन्ध में भ्रमपूर्ण धारणा- तुलनात्मक लागत सिद्धान्त इस भ्रमपूर्ण व अवास्तविक मान्यता पर आधारित है कि श्रम तथा पूँजी देश के भीतर तो पूर्णतया गतिशील होते हैं परन्तु दो देशों के बीच पूर्णतया गतिहीन होते हैं। परन्तु वास्तविक जीवन में देश के भीतरी भागों से उत्पत्ति के साधनों में गतिशीलता का अभाव हो सकता है और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वे कुछ सीमा तक गतिशील हो सकते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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