रिकार्डो का मूल्य सिद्धान्त | रिकार्डो के वितरण के सिद्धान्त | रिकार्डो का विश्लेषणात्मक मूल्य सिद्धान्त

रिकार्डो का मूल्य सिद्धान्त | रिकार्डो के वितरण के सिद्धान्त | रिकार्डो का विश्लेषणात्मक मूल्य सिद्धान्त

रिकार्डो का मूल्य सिद्धान्त

(Ricardo’s Theory of Value)

रिकार्डों के लगान सिद्धान्त की भांति ही उसके मूल्य सिद्धान्त ने भी समाजवादियों पर गहरा प्रभाव डाला और कई त्रुटिया होते हुए भा यह समाजवादी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रस्तुत प्रश्नोत्तर में रिकाडों के मूल्य सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन किया गया है।

मूल्य के सिद्धान्त को एडम स्मिथ से आगे बढ़ाना

रिकार्डो ने मूल्य का विशुद्ध श्रम सिद्धान्त विकसित करने का प्रयल किया। निस्संदेह तथाकथित श्रम सिद्धान्त की प्रारम्भिक झलक एडम स्मिथ की रचनाओं में भी मिलती है, किन्तु स्मिथ ने श्रम सिद्धान्त सम्बन्धी अपने विश्लेषण को किसी पर्याप्त सीमा तक नहीं बढ़ाया, क्योंकि उन्हें मूल्य के एक मापक के रूप में श्रम का प्रयोग करने में कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ अनुभव हुई। रिकार्डो ने मूल्य विश्लेषण के इस टूटे हुए सिलसिले को पुनः जोड़ा और मूल्य का एक तर्क- सम्मत तथा संगति-पूर्ण (consistent) श्रम सिद्धान्त बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। तभी तो उसने अपनी पुस्तक के प्रथम अध्याय के प्रथम वाक्य में एडम स्मिथ के विचारों का उल्लेख किया। किन्तु तर्क कुशलता एवं विश्लेषण चातुर्य होते हुए भी वह अपने कार्य में बुरी तरह असफल हुआ।

रिकार्डो का विश्लेषणात्मक मूल्य सिद्धान्त

रिकार्डो के मूल्य सिद्धान्त को विश्लेषणात्मक रूपरेखा कुछ अमूर्त (abstract) मान्यताओं के आधार पर बनी है। रिकार्डो ने इन मान्यताओं को स्पष्टत: नहीं अपनाया था, किन्तु इस पर भी ये उसके श्रम सिद्धान्त का एक अपरिहार्य अंग है। ये मान्यतायें निम्न हैं-(i) दीर्घकाल एवं पूर्ण प्रतिस्पर्धा सम्बन्धी मान्यता; (ii) उत्पत्ति समता नियम के विद्यमान होने की मान्यता; एवं (iii) प्रयोग मूल्य (Use-Value) को अपेक्षा विनिमय मूल्य (Exchange Value) पर ध्यान केन्द्रित करना।

स्पष्ट है कि रिकार्डो की प्रथम दो मान्यतायें न केवल अनुचित थीं, वरन् अवास्तविक भी थी। फिर भी इन दो मान्यताओं को स्वीकार करते हुए उसने बताया कि “किसी वस्तु का विनिमय मूल्य श्रम की उस सापेक्षिक मात्रा पर निर्भर करेगा जो कि इसके उत्पादन के लिए आवश्यक है।”

“The value of a commodity depended upon the relative quantity of labour, which is necessary for its production.”

उल्लेखनीय है कि स्मिथ को भाँति रिकार्डो ने भी ‘प्रयोग मूल्य’ और ‘विनिमय मूल्य’ में अन्तर किया है। उसने बताया कि यद्यपि विनिमय मूल्य होने के लिये प्रयोग मूल्य (अर्थात् उपयोगिता) की विद्यमानता आवश्यक है तथापि वह उसका माप नहीं हो सकता है। उसके मतानुसार राजनैतिक अर्थशास्त्र का सम्बन्ध विनिमय मूल्य से ही है।

इस प्रकार, रिकार्डो स्पष्टत: इस सिद्धान्त पर चल रहा था कि वस्तु में ‘निहित’ (embodied) श्रम की मात्रा ही उसके विनिमय मूल्य को निर्धारित करती है। साधारण रूप से विचार करने पर यह प्रतीत होगा कि श्रम की मात्रा पर जोर देकर रिकार्डो ने कोई गम्भीर त्रुटि नहीं की है। वास्तव में, यदि श्रम को ही उत्पत्ति का एकमात्र समरूप (homogeneous) साधन मान लिया जाय, तो रिकार्डों का निष्कर्ष अकाट्य ही है। स्मिथ ने भी अपने मूल्य सिद्धान्त की प्रस्तावना में कहा था कि “यदि एक Beaver को मारने में एक हिरण को मारने की अपेक्षा दूना श्रम लगता है तो इस दोनों पशुओं के पारस्परिक विनिमय का अनुपात स्वभावत: 1 और 2 (1:2) होगा।

लेकिन रिकार्डो इस बात से अनभिज्ञ नहीं थे कि श्रम की समरूपता (homogeneity) सम्बन्धी मान्यता अवास्तविक है। रिकार्डों के समय में भी श्रम के विविध कौशल एवं योग्यता के विभिन्न माप एवं प्रकार होते थे। यही कारण है कि अपने विश्लेषण की अगली अवस्था में रिकाडों ने इस मान्यता को हटा कर ‘श्रम की किस्म’ पर विचार किया। इस सम्बन्ध में उसने यह तर्क दिया कि श्रम की किस्म’ का विचार सम्मिलित करके भी श्रम सिद्धान्त के मौलिक आधार में कोई फर्क न पडेगा, बशर्ते यदि किसी यक्ति द्वारा ‘श्रम की किस्म’ को श्रम की मात्रा’ में परिणित करना सम्भव हो जाय । वह स्वयं ऐसे परिवर्तन की सम्भावना में विश्वास करता था। उसने बताया कि श्रम की किस्म का अन्तर प्रतिस्पर्धात्मक दशाओं के अन्तर्गत मजदूरियों में अन्तरों के रूप में दिखाई पड़ता है। अतः यदि (उदाहरण के लिए) ‘अ’ उद्योग में श्रमिकों की मजदूरी ‘ब’ उद्योग में श्रमिकों की मजदूरी से तिगुनी है, तो ‘अ’ और ‘ब’ वस्तुओं का मूल्य अनुपात/ = ब होगा।

जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, रिकार्डो को अ और ब उद्योगों के मध्य सापेक्षिक श्रम, किस्म-पैमाने में परिवर्तन की सम्भावना पर विश्वास बढ़ता गया। अल्पकाल में श्रम की चतुराई न्यूनाधिक स्थिर रहती है, जिस कारण परिवर्तन की समस्या कठिन नहीं है। लेकिन, वास्तविक कठिनाई दीर्घकाल के सम्बन्ध में उदय होती है। दीर्घकाल को समस्या को रिकार्डो ने हल नहीं किया। अत: मार्शल ने ठीक ही कहा है कि रिकार्डो ने दीर्घकाल की समस्या में दृष्टि फेर ली। इसके अतिरिक्त, जब रिकार्डो ने श्रम के किस्म सम्बन्धी अन्तर मजदूरी सम्बन्धी अन्तरों के रूप में झलकने की सम्भावना का पता लगाया, तब उसने अपने को एक चक्करदार तर्क (circular reasoning) में फंसा लिया। उसने एक स्थान पर तो यह भी कहा कि वस्तु का मूल्य उस न्यूनाधिक क्षतिपूर्ति पर निर्भर नहीं होगा, जो श्रम के लिए चुकायी जाती है।

मूल्य सिद्धान्त के विश्लेषण की अगली अवस्था में रिकार्डो ने पूँजी को उत्पत्ति के एक अपरिहार्य साधन के रूप में प्रस्तुत किया। लेकिन पूँजी के बारे में उसने यह बताया कि इसकी मात्रा में तो अन्तर हो सकते हैं लेकिन गुणों में नहीं। यही वह स्थान है जहाँ, एडम स्मिथ ने एक विशुद्ध श्रम सिद्धान्त बनाने का प्रयास छोड़ दिया था। लेकिन रिकार्डो हताश नहीं हुआ। उसने पूँजी की मात्रा’ को ‘श्रम की मात्रा में परिवर्तित करने की सम्भावना खोजने का प्रयत्न प्रारम्भ किया। रिकार्डो ने निर्विवाद रूप से यह संकेत किया कि पूँजी की एक दी हुई मात्रा को मानव प्रयासों के रूप में हुए पिछले बलिदानों का फल अथवा ‘संचित श्रम’ (stored-up labour) समझा जा सकता है। बाद में, इस तर्क को कार्ल मार्क्स ने ग्रहण किया तथा उसे मूल्य के श्रम सिद्धान्त विषयक अपने केन्द्रीय अनुसन्धान का विषय बनाया। अत: यदि ब वस्तु के बनाने में

अ वस्तु की अपेक्षा तिगुनी पूँजी लगती है, तो पहले मूल्य-अनुपात [ अर्थात् अ/3 =ब को संशोधित

करना आवश्यक हो जायेगा। संशोधित मूल्य अनुपात अ/3 = ब/3 अर्थात् अ =ब होगा।

अपने विश्लेषण की अन्तिम अवस्था में रिकार्डो पूँजी के किस्म सम्बन्धी अन्तरों पर विचार करता है। पूँजी की किस्म’ से क्या आशय है, इस सम्बन्ध में उसने बताया कि ‘पूँजी को किस्म’ का आशय इसके स्वभाव से है अर्थात् वह स्थाई है या अस्थाई। इसी प्रकार ‘पूँजी की किस्म का अन्तर’ अन्तिम उत्पादन को बाजार तक पहुंचाने में लगे समय के अन्तर में व्यक्त होता है। रिकाडों ने अपने मूल्य सिद्धान्त पर पूजी को किस्म का प्रभाव निम्न उदाहरणों द्वारा दिखाया है-

पहला उदाहरण- दो वस्तुएँ MH (मशीन) और CR (अनाज) इस प्रकार उत्पन्न की जा रही हैं कि श्रम-किस्म, श्रम-मात्रा एवं पूजी-मात्रा तीनों का संयोग प्रत्येक वस्तु के उत्पादन में समान है। मान लीजिए कि 100 श्रमिकों को 50 पौड प्रतिवर्ष की दर से भुगतान किया जाता है और वे एक वर्ष में दो वस्तुएं बना सकते हैं। यदि लाभ को सामान्य दर 10% वार्षिक है, तो प्रत्येक वस्तु की लागत 5,5000 पौंड होगी।

लेकिन वहाँ अनाज वर्ष के अन्त में बेचा और उपभोग किया जाता है, वहाँ मशीन अगले वर्ष में CL (कपड़े) का उत्पादन करने में प्रयोग की जाती है। मान लीजिये कि CR (अनाज) भी दूसरे वर्ष उत्पन्न किया जाता है। ऐसी दशा में CL (कपड़े) और अनाज (CR) का सापेक्षिक मूल्य (अर्थात् मूल्य अनुपात) क्या होगा? अब अनुपात पौण्ड 6050 : पौण्ड 5500 हो जायेगा। इस प्रकार उत्पादन में स्थाई पूँजी को विचार में लेने से सापेक्षिक मूल्य बदल जाता है।

दूसरा उदाहरण- 50 पौंड प्रति वर्ष की मजदूरी पर 40 श्रमिकों से काम लेकर दो वस्तुएँ A

और B उत्पन्न की जाती हैं। अब मान लीजिए कि प्रति वर्ष 20 मजदूर लगातार दो वर्ष काम करके A वस्तु का उत्पादन करते हैं, जबकि B को एक वर्ष में ही 40 मजदूर लगाकर उत्पन्न किया जाता है। यहाँ दोनों वस्तुओं का सापेक्षिक मूल्य क्या होगा? स्पष्टत: दोनों वस्तुओं का मूल्य, श्रम की मात्रा बराबर होने के कारण, एक बराबर ही होगा। लेकिन व्यवहार में यदि सामान्य लाभ 10% प्रति वर्ष से लगाया जाता है, तो A और B का मूल्य-अनुपात (value-ratio) पौण्ड 2310 : पौण्ड 2200 होगा।

उपरोक्त दो उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि पूँजी की किस्म का विचार अपनाने से न केवल मूल्य अनुपात बदल जाता है, वरन् मूल्य के श्रम सिद्धान्त का मौलिक आधार ही दुर्बल हो जाता है और यह सिद्धान्त टूट जाता है। इस प्रकार रिकार्डों के मूल्य सिद्धान्त का विश्लेषण एडविन कैनन के इस दृष्टिकोण को दृढ़ता प्रदान करता है कि ‘रिकार्डो का हृदय श्रम में लगा हुआ था, किन्तु उनका दिमाग उसे ऐसा करने से रोकता था।” वास्तव में, एक जटिल अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में (जिसमें उत्पादन के लिये पूँजी की किस्मों में बहुत अन्तर होता है) मूल्य का श्रम सिद्धान्त गढ़ने प्रयास रिकार्डों को तार्किक असंगतियों में घसीट ले गया। उसके सिद्धान्त का सैद्धान्तिक दृष्टि में व्यर्थ तथा व्यावहारिक दृष्टि से सम्भव बताया जाता है।

रिकार्डो के वितरण के सिद्धान्त

(Ricardo’s Theory of Distribution)

रिकार्डो ने वैसे तो अर्थशास्त्र से सम्बन्धित अनेक विषयों पर अपने विचार व्यक्ति किये, परन्तु इसके सर्वाधिक प्रसिद्धि उसे वितरण के सिद्धान्तों से मिली। वास्तव में रिकार्डो ही वह पहला अर्थशास्त्री था जिसने वितरण सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से किया। इतना ही नहीं, उसने राष्ट्रीय आय में योगदान देने वाले तत्त्वों के भागों को निर्धारित करने के लिए विस्तृत नियम और सिद्धान्त भी प्रतिपादित किये। रिकार्डो ने राष्ट्रीय आय में तीन हिस्सेदारों को ही मान्यता दी है, यथा-भू-स्वामी, श्रमिक तथा उद्यमी। ये तीनों हिस्सेदार राष्ट्रीय आय में से क्रमशः लगान, मजदूरी तथा लाभ प्राप्त करते हैं। रिकार्डो के मतानुसार राष्ट्रीय आय के वितरण का क्रम निम्न प्रकार चलता है- “लाभ ऊँची मजदूरी पर निर्भर करते हैं, मजदूरो आवश्यक पदार्थों की कीमत पर तथा आवश्यक पदार्थों की कीमत मुख्य रूप से खाद्यान्नों के मूल्य पर निर्भर है।”

रिकार्डो ने राष्ट्रीय आय के हिस्सेदारों के रूप में भू-स्वामियों के लिए, लगान श्रमिकों के लिए मजदूरी तथा उद्यमियों अथवा पूँजी के लिए लाभ एवं व्याज के सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं।

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