तुलसी के काव्य में वर्णित लोक आदर्श | तुलसी के काव्य में वर्णित सामाजिक आदर्श
तुलसी के काव्य में वर्णित लोक आदर्श | तुलसी के काव्य में वर्णित सामाजिक आदर्श
तुलसी के काव्य में वर्णित लोक आदर्श
तुलसी-प्रणीत अमर ग्रन्थ ‘रामचरितमानस’ का लोक में जो सम्मान हुआ है, वैसा किसी भी काव्य-रचना का होना दुर्लभ हैं। आपकी दृष्टि से व्यापक और क्षेत्र विस्तृत था तथा काव्य-निर्माण का उद्देश्य अति महान् था। इस प्रकार तुलसी ने राम-काव्य का निर्माण करके वह भगीरथ-प्रयत्न किया है जो तुलसी से पहले और बाद में नहीं हो सका।
तुलसीदास ने लोक-जीवन का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है उन्होंने ग्राम तथा नागरिकीय विशेषताओं के समन्वय की स्थापना की है गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचन्द्र की बढ़ाई उनके शील के कारण की है। शील में प्रेम तथा शक्ति के गुणों का समन्वय रहता है। जिसके कारण ही रामचन्द्र जी इतने विख्यात हुए। तुलसीदास जी ने शील की विवेचना करते हुए कहते हैं-
सुनि सीतापति सील सुभाऊ।
मौद न मरत तन पुलक नयन जल सो नर लेखट खाउ।
सिसुपन ते पितु-बन्धु-गुरु सेवक सचिव सखाउ।
कहत राम बिधु वदन रिसौहें सपनेहु लखेउ न काहू।।
आदर्श की स्थापना-
तुलसीदास के समय में हिन्दी समाज के सम्मुख कोई ऐसा आदर्श नहीं था, जिसके पद-चिह्नों पर चलकर वे लोग अपना सुधार करते या जीवन का निर्माण करते। तुलसी ने राम तथा राम से सम्बन्ध रखने वाले पात्रों को जनता के सम्मुख रखकर भावी समाज के निर्माण की सुदृढ़ आधारशिला रखी है। महाकवि तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में दशरथ के मुख से यह कहलवाया है-
“रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्रान जाएँ पर वचन न जाई।”
प्रस्तुत चौपाई दशरथ के कैकेयी को दो वरदान देने के प्रसंग से सम्बन्ध रखती है। यहाँ तुलसी ने बृद्ध-विवाह या बेमेल-विवाह की हानियाँ बताई है। दशरथ ने कैकेयी से वृद्धावस्था में विवाह किया था, इसीलिए वे उनके प्रेम-पाश में फँसकर उचित-अनुचित का भेद भूल गये थे। कैकेयी को प्रसन्न करने के लिए दशरथ इस प्रकार कहते हैं-
“कहु केहि रंकहि करऊँ नरेस। कहु केहि पृपहि निकासऊँ देसू।”
माता और विमाता-
इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास ने माता और विमाताओं के चरित्र-चित्रण में विचित्रता दिखाती है। राम कैकेयी को अधिक प्रिय हैं तो भरत कौशल्यों को। दशरथ की पत्नियों में कोई भी किसी को सपत्नी नहीं सझती हैं, उनमें तो परस्पर बहिनों-जैसा का व्यवहार हैं। लक्ष्मण जब राम के साथ वन जाने को तत्पर हो जाते हैं, तब विमाता सुमित्रा का चरित्र तुलसीदास ने कितनी उच्चता एवं महत्ता पर पहुंचा दिया है, इस बात की पुष्टि प्रस्तुत उद्धण से होती है-
“तात तुम्हारि मातु वैदेही। पिता राम सब भाँति सनेही।
जौ पै सीय राम वन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥”
यदि आज भी सपत्नियाँ या देवरानी-जिठानियाँ कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी की भांति हो जायें और अपनी सन्तान में सुमित्रा और कैकेयी जैसी ही प्रीति एवं ममता का अनुभव करें तो समस्त विश्व में पारिवारिक कलह का अन्त हो जायेगा और समाज स्वर्ग बन जायेगा। इस प्रकार कलह के वातावरण के स्थान पर सर्वत्र शांति व्याप्त हो जायेगी।
पति-पत्नी के आदर्श-
तुलसीदास जी ने पति-पत्नी के आदर्श को भी जनता के सम्मुख रखा है। राम वन जाने को तैयार हैं तो सीता भी उनके साथ जाने से विरत नहीं होती। राम वन के कठोर से कठोर कष्टों का वर्णन करते हैं, परन्तु सीता कष्टों को ही सुख समझती हैं। सीता की दृष्टि में पति के साथ वन के काँटे पुष्प है और पति के वियोग में स्वर्ग भी नर्क है। उनके लिए पति बिना भोग ‘रोग’ है और भूषण ‘भार’। सीता के मन में पति की समीपता के प्रति इनता विश्वास एवं उत्साह है कि वे तेज हवा के लगने से व्याकुल नहीं होती हैं तथा पृथ्वी पर सोने में फूल की शैया का आनन्द अनुभव करती है। उनके लिए वन का निवास महलों के निवास से बढ़कर है। राम के निरन्तर समझाने पर सीता यह उत्तर देती है-
“राखिअ अवध जो अवधि लगि, रहत जानि अहिं प्रान।
दीन-बन्धु सुन्दर सुखद सील सनेह निधान॥”
भ्रातृ-आदर्श-
महाकवि तुलसीदास ने अपने -रामचरितमानस’ में जो भ्रातृ-आदर्श दर्शाया है, वैसा संसार के साहित्य में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता। जब लक्ष्मण यह सुनते हैं कि राम राजगद्दी पर न बैठकर वन को जा रहे हैं, तब उनकी व्याकुलता की सीमा नहीं रहती। अयोध्या के सम्पूर्ण सुख उनके लिए दुःख बन जाते हैं।
“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नृप अवधि नरक अधिकारी।”
लक्ष्मण का निश्छल प्रेम-
लक्ष्मण के लिए तो राम ही पिता हैं, गुरु हैं और सब कुछ हैं। राम लक्ष्मण के निश्छल एवं पावन प्रेम से विवश होकर उनकी माता से आज्ञा मांगने के लिए प्रसन्नता के साथ जाते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है, मानों अन्धे ने आँखें प्राप्त कर ली हों और लक्ष्मण अपने प्राण से प्यारे भाई तथा माता, सीता के साथ के साथ वन को प्रस्थान करने के लिए उत्सुक हो जाते हैं।
भरत की भ्रातृ-भक्ति-
भरत की भ्रातृ-भक्ति भी लक्ष्मण से किसी प्रकार कम नहीं हैं ननसाल में रहते हुए भरत ने बुरे-बुरे स्वप्न देखें, जिनमें अकुशलता ही अकुशलता विद्यमान थी। वे अयोध्या में आने पर एक ओर तो पिता की मृत्यु का तथा दूसरी ओर राम, लक्ष्मण और सीता के वन जाने का समाचार पाते हैं। वे इतने दुखी होते हैं कि प्राण न जाने कैसे अटके रह जाते हैं? वे सोचते हैं कि जिन भाई का मुझ पर इतना अधिक प्रेम था, उन्होंने ही मुझे अपना विरोधी समझा। यह सोचते-सोचते भरत का हृदय ग्लानि से भरकर छटपटा उठता है और वे अपनी आत्मग्लानि को इस प्रकार प्रकट करते हैं-
“को त्रिभुवन मोहि सरिस अभागी।
गति असि तोरि मात जेहि लागी॥“
तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ में सेवक और स्वामी के आदर्शों को भी दर्शाया है। तुलसीदास ने खल-पा रावण को भी आदर्श-रूप में प्रस्तुत किया है। यदि रावण चाहता तो सीता के साथ बलात्कार कर सकता था, किन्तु ऐसा करना उसने अनुचित समझा और सीता को अपने साथ विवाह के लिए सहमत करने का प्रयत्न किया। इससे सीता अपना सतीत्व सुरक्षित रखने में समर्थ हो सकी।
तुलसी की पवित्र मानस-
भूमि से उद्भूत शुभ-संदेश सम्पूर्ण विश्व के मानवों के लिए कुशल पथ-प्रदर्शक हैं एक आदर्श हिन्दू गृहस्थ-जीवन की मर्यादित झाँकी कराना उनकी आदर्श- विधायिनी प्रतिभा का द्योतक हैं तुलसी के काव्य में ‘सत्यं-शिवं-सुन्दरम्’ सर्वत्र दर्शनीय है और इसकी स्थापना एवं पल्लवन ही इनका आदर्श है। तुलसी का यही संदेश है। वास्तव में तुलसी के आदर्श सदैव ही मानव की सांसारिक और अध्यात्मिक प्रगति में असीम योगदान देते रहते हैं संदेशरूपी मंजुल जल से पूर्ण यह पवित्र निर्झरिणी मानव के कलुषित हृदय को युग-युगान्तर तक अभिषि करके पवित्र करती रहेगी।
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