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महाराष्ट्री प्राकृत | महाराष्ट्री प्राकृत की विशेषताएं

महाराष्ट्री प्राकृत | महाराष्ट्री प्राकृत की विशेषताएं

महाराष्ट्री प्राकृत

विद्वानों ने प्राकृत भाषा के जो भेद् बताये हैं, उनमें से महाराष्ट्री प्राकृत भी एक है। साहित्य की दृष्टि से महाराष्ट्री प्राकृत, प्राकृत भाषा के अन्य भेदों की अपेक्षा अधिक समृद्ध है। इनकी समृद्धि का समर्थन करते हुए डॉ० रामअवध पाण्डेय एवं डॉ0 रविनाथ मिश्र ने लिखा है-. ‘प्राकृत-काव्य और गीति की भाषा महाराष्ट्री कही जाती है। सेतुबन्ध, गाथा सप्तशती, गऊडवहो, कुमारपालचरित प्रभृति ग्रन्थों में इस भाषा में उदाहरण मिलते हैं। बाद के नाटकों में गद्य में शौरसेनी बोलने वाले पात्रों के लिए भी संगीत या पद्य महाराष्ट्री भाषा में ही रचे गये तथा कालिदास और उनके बाद में सभी नाटकों में पद्य के लिए महाराष्ट्री भाषा (महाराष्ट्री प्राकृत) का प्रयोग इस भाषा की प्रसिद्धि का द्योतक है।’

चण्ड और आचार्य हेमचन्द्र ने यद्यपि महाराष्ट्री का नाम-निर्देशन नहीं किया है, तथापि क्रमशः आर्ष-प्राकृत तथा साधारण-प्राकृत नाम से ही इसके लक्षण-उदाहरण दिये हैं। वररुचि, कमदीश्वर, त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर, मार्कण्डेय आदि वैयाकरणों ने महाराष्ट्री का मुख्य रूप से विवरण दिया है और शौरसेनी मागधी आदि वैयाकरणों ने महाराष्ट्री के सात मेद बताये हैं। भरतमुनि ने दाक्षिणात्य प्राकृत भाषा का भेद सम्भवनः महाराष्ट्री के लिए ही कहा है। दण्डी ने महाराष्ट्री को सर्वोत्कृष्ट भाषा बताया है-

महाराष्ट्राश्रयां भाषा प्राकृष्टं प्राकृत विदुः।

सागरः सूक्ति रत्नांना सेतुबन्धादि यन्मयम। (काव्यादर्श, 1-34)

(विद्वानों ने महाराष्ट्र में आश्रय लेने वाली प्रावृत अर्थात् महाराष्ट्री प्राकृत को उत्तम बताया है। सूक्ति-रत्नों के सागर, ‘सेतुबन्ध’ आदि काव्य-ग्रन्थ इसी महाराष्ट्री प्राकृत में रचित हैं।)

महाराष्ट्री प्राकृत का वर्ण-संघटन-

डॉ0 एल0 वी० राम अनन्त ने शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृतों की तुलना करते हुए लिखा है—’ऐतिहासिक विकास में अन्तर होने के कारण दोनों प्राकृतों में कुछ महत्त्वपूर्ण अन्तर भी दिखाई पड़ते हैं। महाराष्ट्री लोक में बिखरते और घिसते रहने के कारण संस्कृत से दूर हट गयी थी और शिष्ट भाषा शौरसेनी से भी इसमें ध्वनि का घिसाव शौरसेनी की तुलना में बहुत अधिक हुआ है। शिष्ट भाषा होने के कारण शौरसेनी व्याकरणों के नियमों से भी अधिक नियन्त्रित रही, अतः इसमें संस्कृत व्याकरण की व्यवस्था महाराष्ट्री की तुलना में अधिक सुरक्षित है।’ शौरसेनी एवं महाराष्ट्री ध्वनियों के घिसाव के अन्तर का पता निम्न तथ्यों से चल सकते है-

(1) महाराष्ट्री में स्वरों की मध्यवर्ती क्, ग, च, ज, त्, द्’ ध्वनियों का प्रायः लोप हो जाता है, किन्तु प्राचीन शौरसेनी और परवर्ती में भी ‘क्, त्, प् को ग, द्, ब’ के रूप में सुरक्षित रखती है-

शौरसेनी महाराष्ट्री
जाणादि जाणाई
एदि एइ
हिद हिअ
पाउद पाउअ
मरगद मरगअ

स्वरों की मध्यवर्ती ‘ख, घ, थ्, ध, फ, म्’ ध्वनियाँ महाराष्ट्री में प्रायः ‘ह’ में बदल जाती हैं, किन्तु शौरसेनी ‘ह’ को ‘५’ के रूप में सुरक्षित रखती है-

शौरसेनी महाराष्ट्री
अध अह
मणोरध मणोरह
कंधों कहं
णाध णाह

महाराष्ट्री प्राकृत की वर्ण-संघटना पर प्रकाश डालते हुए डॉ0 एल0 बी0 राम अनन्त ने स्वीकार किया है—’व्याकरण में भी कुछ अन्तर पड़ा है। शौरसेनी संस्कृत के कुछ रूपों को अलग परिवर्तन के साथ स्वीकार कर लेती है, अत: उसमें अपवाद अधिक हैं, किन्तु महाराष्ट्री ने व्याकरण में एकरूपता लाने का प्रयत्न किया है, जिसमें उसमें सरलता उत्पन्न हो गयी है तथा अपवाद कम रह गये हैं। गणों की धारणा प्राकृतों में शिथिल पड़ गयी है और केवल अ-गण एवं ए-गण ही रह गये हैं, किन्तु इसके कारण महाराष्ट्री में क्रिया-रूपों में जो एकरूपता आयी, वह शौरसेनी में नहीं है। महाराष्ट्री आत्मानेपद का प्रयोग कर्मवाच्य में भी लगभग समाप्त कर देती है, किन्तु शौरसेनी में आत्मनेपदी के रूप में अपेक्षाकृत अधिक संख्या में मिलते हैं। यही स्थिति विभिन्न लकारों में बने रूपों, प्रेरणार्थक क्रियाओं में कृदन्तो के प्रयोग में भी हैं।’

व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति ने शिष्ट महाराष्ट्री को भी अर्थ की दृष्टि से कुछ कम बोधगम्यता प्रदान कर दी थी। इसका परिणाम यह हुआ कि बाद में महाराष्ट्री प्राकृत में व्यंजनों को सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। महाराष्ट्री प्राकृत की यह प्रवृत्ति सिद्ध करती है कि बाद में महाराष्ट्री प्राकृत भाषा शौरसेनी प्राकृत की ओर लौटने लगी थी। इसे स्वीकार करने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए कि व्याकरण की जो सरलता महाराष्ट्री प्राकृत ने स्वीकार की, उसी को परवर्ती अपभ्रंश भाषा ने तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं ने स्वीकार कर लिया। इसके साथ-यह भी सत्य है कि ध्वनि-परिवर्तन के महाराष्ट्री प्राकृत के आदर्श को शौरसेनी ने स्वीकार नहीं किया।

मध्यदेश की शौरसेनी और महाराष्ट्री तथा मगध प्रदेश की मागधी भाषा के सम्मिश्रण से जो भाषा विकसित हुई, वह अर्द्धमागधी कहलायी। जैन-साहित्य की भाषा को जैन धर्म और भाषा के विद्वानों ने जैन-शौरसेनी तथा जैन-महाराष्ट्री भी स्वीकार किया है। इस बात से यह स्पष्ट होता है कि जिस प्राकृत भाषा को हम अर्द्धमागधी कहते हैं, वह शौरसेनी और महाराष्ट्री के सम्प्रदाय-सापेक्ष है, अर्थात् इन्हीं दो प्राकृतों का मिश्रण है।

प्राकृत भाषा को जैन धर्म की भाषा स्वीकार किया जाता है।

महावीर स्वामी के उपदेश उनके जन्म-क्षेत्र मगध के कुछ भाग की भाषा अर्थात् अर्धमागधी प्राकृति में ही थे। अतः उसे अर्थात् जैन धर्म के अन्थों की भाषा को अर्द्धमागधी सिद्ध करने के लिए शौरसनी या महाराष्ट्री में ग्रहण करते समय महाराष्ट्री की कुछ प्रवृत्तियों को सुरक्षित रखा। इस प्रकार स्पष्ट है कि महाराष्ट्री में अर्द्धमागधी और मागधी का प्रभाव है। महाराष्ट्री में अधिकांश जैन-साहित्य होने के कारण महाराष्ट्री को जैन-महाराष्ट्री भी कहा जाता है। जैन-महाराष्ट्री में ‘तु, इत्ता’ प्रयत्न, ‘तमुन’ का अर्थबोध कराते हैं तथा ‘क् का ‘ग्’ हो जाता । जैन-शौरसेनी में अर्द्धमागधी की प्रवृत्तियाँ जैन-महाराष्ट्री की तुलना में कुछ अधिक प्रबल हैं। बूलर के विवेचन के आधार पर इस अन्तर का संक्षेप में उल्लेख इस प्रकार है-

(1) मागधी में ‘श, म्’ का ‘र’ होता है, किन्तु अर्द्धमागधी में ‘स्’ होता है।

(2) मागधी में ‘र, त् का ‘ल’ होता है, किन्तु अर्द्धमागधी में दोनों रहते हैं।

(3) प्रथम एकवचन एकारान्त शब्द का एकारान्त रूप, षष्ठ एकवचन में ‘तब’ का प्रयोग एकारान्त धातुओं ‘ह’ वाले रूप एवं ‘क्’ तथा ‘ग्’ होना दोनों पाया जाता है।

महाराष्ट्री से इन दोनों का अन्तर इस प्रकार है-

(1) ‘एव’ और ‘अपि के पूर्व ‘अप्’ का ‘आम्’ हो जाता है।

(2) ‘इति वा’ में और लुप्तं स्वर के परे ‘इति’ का ‘इ’ हो जाता है।

(3) प्रति के ‘इ’ का लोप हो जाता है, जैसे—पडुप्पन = प्रत्युत्पन्न ।

(4) त-वर्ग के स्थान पर च-वर्ग हो जाता है, जैसे-तेइच्छा = चिकित्सा।

(5) ‘अहा के स्थान पर ‘अथा’ हो जाता है।

(6) ‘तुमुन् प्रत्यय के अर्थ में ‘ए, इ, सु, इत्त’ का प्रयोग होता है।

(7) क्रियाओं में कहीं-कहीं सामान्य अन्तर होता है।

डॉ० कोमल चन्द जैन ने जैन-महाराष्ट्री प्राकृत की वर्ण-संयोजना के विषय में अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं-

(1) अनादि संयुक्त ‘क, ग’ आदि व्यंजनों का लोप हो जाता है। यदि लुप्त व्यंजनों के अनन्तर ‘अं का ‘आ’ हो तो ‘य’ ध्वनि होती है; जैसे-राजधूपा = राजधूया, निपतिता = निवयिया, वचनम् = वयणं, भगवती = भयवई।

(2) कुछ स्थलों पर अनादि संयुक्त ‘क’ लुप्त न होकर अर्द्धमागधी प्राकृत की भाँति ‘ग’ में परिवर्तित हो जाता है, जैसे-एकाकिनी, एकागिनी, आकृति = आगिनी, शोक = सोग, अनुकरोति = अणुगरेइ।

(3) शब्द के प्रारम्भ में स्थित ‘न तथा मध्य में स्थित ‘त्र’ प्राय: अपरिवर्तित रहता है, जैसे- मुनिकुमारेण मुणिकुमारेण, नाभिः = नाही, दर्शनम् = दसणां, अन्यथा = अण्णहा, विपन्न = विपन्नो।

(4) शब्द-रूप तथा धातु-रूप भी प्राकृत के सामान्य नियमों के अनुसार चलते हैं, किन्तु कहीं- कहीं अर्द्धमागधी के प्रयोग भी मिलते हैं, जैसे-तृतीया विभक्ति के एकवचन में भणसा, क्यसा, कायसा आदि। शब्द-रूप एवं वर्तमान काल प्रथम पुरुष एकवचन में कुब्बह, आइक्खड़ आदि धातुरूप।

(5) कहीं-कहीं समस्त पद में उत्तर-पद के पूर्वा अनुमस्तर (ग) का आगम हो जाता है, जैसे- निरपगामी = नियंगामी।

(6) अर्द्धमागधी की तरह कहीं-कहीं ‘यथा’ के स्थान पर ‘जहा’ एवं ‘अहा’ तथा ‘यावत् के स्थान पर ‘जाव, आव आदेश होता है।

(7) अर्द्धमागधी की ही भाँति ‘तवा के स्थान पर कहीं-कहीं ‘इत्ता’ आदेश भी हो जाता है, जैसेवन्दित्वा = वन्दित्ता, आदायित्वा = उल्लेता।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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