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विद्यापति के अलंकार तथा प्रतीक योजना | ‘पदावली’ के आधार पर विद्यापति के अलंकार योजना | ‘पदावली’ के आधार पर विद्यापति के प्रतीक योजना

विद्यापति के अलंकार तथा प्रतीक योजना | पदावली’ के आधार पर विद्यापति के अलंकार योजना | पदावली’ के आधार पर विद्यापति के प्रतीक योजना

विद्यापति के अलंकार तथा प्रतीक योजना

विद्यापति की पदावली में अलंकारों का सहज स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। उनके काव्य में दोनों प्रकार के अलंकार मिलते हैं – मौलिक और परम्परा प्राप्त। कवि ने परम्परा-प्राप्त अलंकारों को भी अपनी कला की नवीनता से मण्डित करके उपस्थित किया है, अतः उनमें नवीनता है। अलंकार-योजना में कवि सिद्धहस्त है। उसकी कल्पना में भी अलंकार आ जाता है, उसका वह ताँता बाँधकर वर्ण्य का चित्र-सा प्रस्तुत कर देता है। बसन्त का वर्णन ऐसा ही है। बसन्त के वर्णन में कभी वे उसे सद्यःप्रसूत राजकुमार बताते हैं, तो कभी अभिषिच्यमान युवराज। कभी उसके विवाह का रूपक बाँधते हैं। कवि के सांगरूपक बहुत दूर तक लम्बे चलते है। विद्यापति रूपक के अतिरिक्त अन्य अलंकारों की भी झड़ी लगा देते हैं।

विद्यापति का अप्रस्तुत विधान बिम्ब ग्रहण कराने में पूर्णतया समर्थ है। यह अप्रस्तुत विधान कहीं वास्तविक है और कहीं कल्पनाजन्य है। वास्तविक अप्रस्तुत विधान का यह उदाहरण देखिए –

नाभि-विवर सयँ लोम-लतावलि भुजंग निसास-पियासा।

नासा-खगपति चंचु भरभय कुंच-गिरि संधि-निवासा॥

उपमा विधान-

विद्यापति का उपमा-विधान अत्यन्त अनूठा और मौलिक है। यह भाव-बृद्धि में सहायक है “विद्यापति के अलंकार-विधान में खिलवाड़ कहीं नहीं हैं, वे सदा ही भाव-बृद्धि में सहायक होते है। वास्तव में उन्होंने वर्ण्य-विषय के प्रति उत्पन्न होने वाले भाव-साम्य के लिये लाये गये अप्रस्तुत के द्वारा जगने वाले भाव के एकत्व का बराबर ध्यान रखा है। यही बात वस्तु के रूप, गुण, क्रिया आदि के उत्कर्ष के सम्बन्ध में है। वयःसन्धि, नख-शिख और रूप-स्वरूप के वर्णन में उपमा का विशेष उपयोग हुआ है। वयःसन्धि से सम्बन्धित एक उदाहरण प्रस्तुत है –

पहिल बदरि-सम पुनि नवरंग

से पुन भये गेल बीजकपोर।

अब कुच बाढ़ल सिरिफल जोर।।

उत्प्रेक्षा विधान-

विद्यापति की उत्प्रेक्षाओं में उनकी कल्पना का उत्कर्ष दिखाई पड़ता है। कवि की उत्प्रेक्षाएँ कल्पना के उत्कृष्ट विकास के उदाहरण है। कुच-वर्णन में उन्होंने उत्प्रेक्षाओं की भरमार है। कवि की कल्पना देखिए कचु मानो बिना नालके कमल हैं और बिना नाल के ये कमल इसलिए नहीं सूखते कि उनको सींचने वाली मोतियों की माला स्वरूप गंगाजी बह रही हैं

मेरु ऊपर दुइ कमल फुलाइल, नाल बिना रुचि पाई।

मनिमय हाधार वह सुरसरि, तओ नहिं कमल सुखाई।।

कवि ने कुचों के वर्णन में उत्प्रेक्षाओं की इतनी भरमार की है कि वह उनसे स्वयं अतृप्त रहता प्रतीत होता है। अतः भी कुच-वर्णन के लिए अवसर प्राप्त होता है, वहीं वह एक न एक नवीन कल्पना प्रस्तुत करता है। सद्यःस्नाता का भीगा वस्त्र कुचों से चिपक गया है। कवि कल्पना करता है मानो स्वर्णलता पर पाला पड़ गया है। वह वस्त्र में चेतनता का संचार करके कल्पना करता है कि वक्ष से इसलिए चिपक रहा है कि रमणी अभी मुझसे नेह तोड़कर मुझे उतार देगी। यह रस अन्यत्र कहाँ मिलेगा? अतः वह चिपक गया है और रो-रोकर जल की धारा बहा रहा है –

सजल चीर रह पयोधर सीमा।

कनक बेलि जनि पड़ि गेल हीमा।

ओं नुकि करतहि चाहि किए देहा।

अब छोड़ब मोहि तेजब नेहा।

एसन रस नर्हि पाओब आरा।

हथे लागि रोए गाए जलधारा।

रूपक योजना-

विद्यापति ने रूपक-योजना के द्वारा प्रस्तुत का रूप खड़ा कर दिया है। रूपक का श्रेष्ठ उदाहरण रूप को मूर्तिमान करने में देखा जा सकता है-

पल्लवराज चरन-जुग सोभित, गति गजराजक भाने।

कनक-कदलि पर सिंह समारल, तापर मेरु समाने।

मेरु उपर दुइ कमल फुलायल, नाल बिना रुचि पाई।

मनिमय हार धार बह सुरसरि, तओ नहिं कमल सुखाई।

विद्यापति ने सांगरूपक के द्वारा नायिका के रूप सौन्दर्य को साकार बना दिया है। सौन्दर्य का गत्यात्मक चित्रण करने के लिए कवि ने रूपकातिशयोक्ति का प्रयोग है-

अन्योक्ति-

अलंकार द्वारा कवि ने एकनिष्ठ प्रेम को साकार रूप प्रदान किया है-

मालति सफल जीवन तोर।

तोर विरहे भुवन भए मेल मधुकर भोर।

जातकि केतकि कत न अछए सबहिं रस समान।

सपनहुँ नहिं ताहि निहारए मधु कि करत पान॥

वन उपवन कुंज कुटीरहि सबहिं तोहि निरूप।

तोहि बिनु पुनु-पुनु मुरुछुएं अहसन प्रेम सरूप।

नायक भ्रमर है, नायिका मालती। प्रेमी की आकुलता अन्य नायिका के प्रति विरक्ति प्रेमोन्माद और मूर्छा की स्थितियों को कवि ने सजीव रूप प्रदान किया है औरा इस प्रकार प्रेम- स्वरूप नायक के बिम्ब को उभारकर प्रस्तुत किया है।

उपर्युक्त विवेचन से विद्यापति के अलंकार विधान का रूप स्पष्ट हो जाता है।

प्रतीकात्मकता-

विद्यापति ने विविध भावो की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीक-पद्धति का प्रयोग किया है। लतिका, कंचन-कुसुम, पानी, दूध, रत्न आदि प्रेम, आशा, अभिलाषा और सुख-विलास के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। देखिए, आँसू के लिए जल, आशा और देह के लिए लता, स्तनके लिए फल और यौवन के लिए परिपक्वता आदि प्रतीकों का कितना सुन्दर प्रयोग है-

आसक लता लगओल सजनी नयनक नीर बढ़ाय।

से फल अब तरुनित भेल सजनी आँचर तर न समायू॥

‘विद्यापति अपनी संजग और सूक्ष्म कल्पना के द्वारा विशेषकर पदार्थों को इस ढंग से सजाते है कि अभिलषित भाव का एक बिम्ब खड़ा हो जाता है। ऐसी शब्द-योजना करते है कि अनुभूति साकार हो उठती है। अमूर्त रस को मूर्त रूप देना शिल्प-साधना की चरमावस्था है। विद्यापति रूप-चित्रण और भाव-आयोजन दोनों के द्वारा बिम्ब की सृष्टि करते हैं। रूप-चित्रण में वातावरण और देह-सम्बन्धी-सौन्दर्य को अपनाते हैं, भाव-आयोजन में अनुभूतियों, कामनाओं, मनोविकारों और चित्तवृत्तियों के चित्र उभारते हैं नीचे के उदाहरण, में दोनों प्रकार के बिम्ब प्रस्तुत किये गये हैं –

बरसि पयोधर धरनि बारि भर, रयनि महाभय भीमा।

तइअओ चललि धनि तुअ गुन मने गुनि, तसु साहस नहिं सीमा।।

देखि भवन-भिति लिखल भुजपति, जसु मन परम तरासे।

से सुबरनि कर झपइत फनि मनि, बिहसि आइल तुअ पासे॥

पहली पंक्ति में वर्षाकालीन रात का भयानक वातावरण अंकित है, दूसरी पंक्ति में नायिका को प्रेमाकुलता एवं असीम साहस है, तीसरी और चौथी पंक्तियों में वातावरण भी गहन है और नायिका की तीव्र वासना और सुकुमारता का भी मूर्तीकरण है। डॉ. दीक्षित ने ठीक लिखा है, “प्रतीकात्मकता अथवा बिम्बात्मकता का ऐसा मनोहारी रूप विद्यापति की अप्रस्तुत योजना के सफल आयोजन के कारण ही सम्भव हुआ है।” उनका रूप-चित्रण बिम्ब-विधान के द्वारा राजीव बन पड़ा है। उसमें संयोग-काल के गदरायें यौवन और वियोग-काल की क्षीणता, विवशता एवं कायरता से मलिन हुई मुख-कांति के बिम्ब पाठक के समक्ष नारी के दोनों रूपों को साकार कर देते हैं।

उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक –

विद्यापति की उपमाएँ बड़ी अनूठी और अछूती हैं, उत्प्रेक्षाएँ उनको कल्पना के उत्कृष्ट विलास का उदाहरण हैं और रूपक के द्वारा रूप खड़ा करने में कवि पूर्णरूपेण सिद्धहस्त है। कवि का यह अलंकार-विधान काव्यात्मक स्वरूप रस की अभिव्यक्ति में सहायक है। कवि ने अलंकारों के द्वारा रस को उत्कर्ष प्रदान किया है। इस प्रकार उनकी अभिव्यक्ति पूर्णतया काव्य की आत्मा ‘रस’ की अभिव्यंजना में साधक है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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