विद्यापति के गति काव्य की विवेचना | विद्यापति के तीन प्रमुख तत्व | गीत काव्य परम्परा में विद्यापति की कविता | गीत काव्य परम्परा में विद्यापति की काव्य का महत्व

विद्यापति के गति काव्य की विवेचना | विद्यापति के तीन प्रमुख तत्व | गीत काव्य परम्परा में विद्यापति की कविता | गीत काव्य परम्परा में विद्यापति की काव्य का महत्व

विद्यापति के गति काव्य की विवेचना

विद्यापति ने समय-समय पर जो पद मैथिल भाषा में विविध विषयों पर बनाये थे, उन्हीं के संग्रह को ‘पदावली’ कहते हैं। विद्यापति की ‘पदावली’ का प्रधान वर्ण्य विषय श्रृंगार है। विद्यापति के समक्ष विश्व के शृंगार में राधा और कृष्ण की ही मूर्तियाँ हैं। वे शृंगार प्रधान भावुक भक्त कवि है। अन्तः सलिला सरिता के समान शृंगार की बालुका-राशि से आवृत्त रहने पर भी ये पद सर्वदा सुन्दर, सरस तथा शीतल है। ‘विद्यापति के पद हिन्दी-साहित्य में पद – बुद्ध मुक्तक- गीति-काव्य के पथ-प्रदर्शक हैं और सूर आदि सभी कृष्ण-भक्त कवि छन्द, शैली और संगीत के विचार से विद्यापति के आभारी हैं।

विद्यापति के पद रसमग्न करने वाले तथा प्रभावोत्पादकता लिये हुए हैं। उनकी पदावली में श्रृंगार, भक्ति तथा वीर-रस का चित्रण है। शृंगार के क्षेत्र में तो कवि ने परिपूर्णता प्राप्त की है। उन्होंने अपनी पदावली को राधा-कृष्ण की शृंगारिक लीलाओं के मनोरम वर्णन से आपूरित कर दिया है। सूरदास ने भाव शैली दोनों ही की दृष्टि से विद्यापति का अनुकरण किया है। विद्यापति की सरसता अप्रतिम है, देखिए –

कत न वेदन मेहि देसि मदना।

विद्यापति के तीन प्रमुख तत्व-

(1) आत्मानुभूति, (2) कोमल भाव की सघनता, और (3) गेयत्व। विद्यापति की ‘पदावली’ में ये तीनों गुण विद्यमान हैं। उनके सभी पद गीति- भावना से युक्त हैं, यथा – गंगा वर्णन में –

बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे।

छड़इत निकट नयन बह नीरे।

कर जारि बिनमओ विमल तरंगे।

पुनि दरसन होए पुनमति गंगे।

राधा-कृष्ण सम्बन्धी प्रेमाभिव्यक्ति में कवि की स्वानुभूति अप्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त हुई है। प्रेम-प्रसंग के इस पद को देखिए। नायिका का अचंल अचानक ही हट गया, तब कामिनी ने अपने दोनों हाथों से सुन्दर कुचों को ढक लिया-

अम्बर बिघट अकामिक कामिनी कर कुच झाँपु सुछन्दा।

कनक-सम्भु सम अनुपम सुन्दर दुइ पंकज दस चन्दा॥

कुच कैसे हैं, कनक शम्भु के समान, मानो दो पंकजों पर दस अँगुलियोंरूपी चन्द्रमा रख दिये हों।

कोमल भावों की सघनता- यह विद्यापति ‘पदावली’ की विशेषता है। कवि की कोमल भावों की उद्भावनाएँ हमारी हत्तन्त्री को झकझोरकर प्रेरणा से भर देती हैं और हम समझने लगते हैं कि कवि कितना प्रतिभा सम्पन्न है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-

कत न वेदन मोहि देसि मदना।

हर नहिं बला मोए जबति जना॥

गेयता- विद्यापति की पदावली में गेयता का गुण भी विद्यमान है। मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के पद विवाह तथा मांगलिक अवसरों पर आज भी गाये जाते हैं।

विद्यापति के पद शास्त्रीय संगीत के बहुत अनुकूल पड़ते हैं। विद्यापति के पदों में गीत की स्वर लहरियाँ ऐसी होती हैं कि वे बार-बार अनुभूतियों पर मधुर प्रभाव डालती रहती हैं। स्वरों का आरोह-अवरोह अनुभूतियों को उकसाता है। उनकी कोमलता कानों को मधुर लगती है और वे संवेदन कल्पना को सजग और विकसित कर देते हैं। विद्यापति की पदावली के समस्त पद संगीत की तान पर गूंजते है। उनकी संगीत-भावना में सहज आकर्षण है, जिससे अनेक उच्चकोटि के भक्त एवं कवि उनकी पदावली के प्रति आकर्षित हुए और आज भी हो रहे है। विद्यापति के पदों के गेयत्व का एक उत्कृष्ट उदाहरण इस प्रकार है –

नन्दक नँदन कदम्बक तरुतरु, धिरे-धिरे मुरलि बजाव।

समय संकेत-निकेतन बदसल, बेरि-बेरि बोलि पठाव॥

सामारि, तोरा लागि, अनुखन

विकल मुरारि।

जमुना क तिर उपवन उदबेगल, फिरि फिरि ततहि निहारि॥

विद्यापति का रसपूर्ण गीति-काव्य हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि है। विद्यापति हिन्दी में गीति-काव्य के प्रवर्तक कवि हैं। इनके सब छन्द गेय पदों में है। इनके पद अधिकांशतः लघु आकार के हैं। कुछ पद बड़े भी हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत कम है। पदों में कुछ विषम हैं और कुछ सम। विषम पदों में स्थायी की प्रथम पंक्ति अन्तरा के उत्तरार्द्ध के समकक्ष होती है और शेष पंक्तियाँ अन्तरा जैसी होती है। ये दो पंक्तियाँ मिलकर तीसरी-चौथी पंक्ति में आती हैं। इन पदों में लय की एक विचित्र-सी भंगिमा बन जाती है। उदाहरण –

गगन अब घन मेह सघन दामिनि झलकई।

कुलिस पातन सबद झनझन पवन खरतर बलगई।।

सजनी, आजु दुरदिन भेल।

कंत हमार नितान्त अगुसरि सकेत कंजुहिं गेल॥

सम पदों में सब पाद एक से होते हैं, लय और गति सब एक-सी होती है।

विद्यापति पर संस्कृत के गीतिकाव्यकारों में सर्वाधिक प्रभाव जयदेव का पड़ा हैं। उन्होंने जयदेव की शैली को ही नहीं, भावों और अलंकारों तक को ज्यों-का-त्यों अपना लिया है। विद्यापति की लोक-भाषा में जयदेव की भाषा की-सी सानुप्रास पदावली नहीं, किन्तु समासान्त पदावली और संयुक्ताक्षरों के अभाव से मधुरता आ गयी है। यथा-

सुनु  रसिया।

अब न बजाउ विपिन बँसिया।

कवि ने कोमलकान्त पदावली का चयन किया है और सानुनासिक अक्षरों को प्रधानता दी है। यथा –

अपुरब के बिहि

आनि तलाओल

खिति-तल  लावीन-सार।

अंगहि अंग अनंग मुरछाइत

हेरए पड़ए अधीर।

नाद-सौन्दर्य के लिए विद्यापति ने सानुप्रास पदावली प्रयुक्त की है तो शब्दों की पुनरुक्ति या द्विरुक्ति और गुण या क्रिया से सम्बन्धित शब्दों का अच्छा उपयोग किया है

धन धन धनए घुघुर कत बाजाए

हन-हन कर तुअ काता।

विद्यापति के गीत भाव-प्रसार की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। उनके पदों में भक्ति भाव की सात्विकता अप्रतिम है, यथा देवी-वन्दना में –

अनुरति गति तुअ पाय

तुअ पद  सेव

पुत्र विसरु जनि माता

हम नर अधम परम पतिता

तुअ सन अधम उधार दोसर

हम सन जग नहिं पतिता।

हिन्दी गीति-काव्य परम्परा का प्रारम्भ विद्यापति से होता है। वे हिन्दी के प्रथम गीतकार ही नहीं, सर्वोत्तम गीति-शिल्पी भी है। उनकी पदावली मुर्छाना भरे संगीत की रंगस्थली है, आत्मविस्मृत कर देने वाली अनुभूतियों का साधना मन्दिर है। डॉ. गुणानन्द जुवाल ने ठीक लिखा है- “विद्यापति के गीतों में यदि एक ओर लोक-भाषा की तरलता, सरलता और सुकुमारता है तो दूसरी और भावों की अनुभव माधुरी और साहित्य की अपूर्व सौन्दर्यमयता भी है। वे हिन्दी के आदिगीतिकार हैं तो परवर्ती गीतिकारों के आदिगुरु भी है। उनके गीत हिन्दी-साहित्य की अनूठी सम्पत्ति है।”

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