बाल मुकुंद गुप्त की निबंध शैली | बालमुकुन्द गुप्त की निबन्ध शैली की विशेषताएँ

बाल मुकुंद गुप्त की निबंध शैली | बालमुकुन्द गुप्त की निबन्ध शैली की विशेषताएँ

बाल मुकुंद गुप्त की निबंध शैली

हिन्दी निबन्ध जगत् में बालमुकुन्द गुप्त पत्रकार और निबन्धकार दोनों के संश्लिष्ट रूप हैं। यह भारतेन्दु और द्विवेदी-युग की कड़ी हैं। जयनाथ नलिन का कहना सर्वांशतः सत्य है कि “इनके निबन्धों के प्राण भारतेन्दु युग’ के हैं, शरीर द्विवेदी युग का। भारतेन्दु युग के जागरण का उल्लास, राष्ट्र प्रेम की बेचैनी समाज के नव-निर्माण की आकुल कामना।” सर्वप्रथम ‘बंगवासी’ का अल्पकालिक सम्पादन करने के पश्चात् गुप्त जी ‘भरत मित्र’ प्रधान सम्पादक के पद पर अभिसिक्त हुए। उनमें देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दुखस्था के कारण अत्यन्त क्षोभ और दुःख था। परिणामतः इनके हृदय में स्थित पत्रकार ने सामाजिक बुराइयों तथा राजनीतिक विडम्बनाओं के प्रति अपनी लेखनी उठाई। विदेशी शासन और भारत की राष्ट्रीय पराधीनता के विरुद्ध उनकी सशक्त, निर्भीक और अप्रतिहत वाणी, भारत मित्र’ में निरन्तर अभिव्यक्त होती रही। वे मौजी तबीयत, विनोदी स्वभाव और छेड़छाड़ करने के आकांक्षी थे। इन सभी प्रवृत्तियों ने उन्हें व्यंग्यमय अन्तःकरण से युक्त कर दिया था जो उनके कृतित्व के माध्यम से व्यक्त हुए बिना नहीं रह सका। उर्दू, फारसी के इस जुझारू पत्रकार का हिन्दी जगत में सेवा परायण होना एक गौरव का विषय है। पत्रकार के व्यक्तित्व के अतिरिक्त गुप्त जी ने ‘शिवाशम्भु के चिट्टे’ , ‘चिट्टे और खत’, ‘गुप्त निबन्धावली’ आदि कृतियों के माध्यम से हिन्दी साहित्य जगत् में अपना महत्व स्थापित किया। उनमें कवि का व्यक्तित्व भी प्रतिष्ठित था।

सामान्यतः गुप्त जी की निवन्ध शैली के निम्नलिखित भेद कर सकते हैं- (1) प्रसाद शैली, (2) विवेचनात्मक शैली, (3) भावात्मक शैली, (4) व्यंग्यात्मक शैली, (5) हास्य परिहासमयी शैली, (6) आलंकारिक शैली यहाँ इन्हें प्रस्तुत किया जाता है-

(1) प्रसाद शैली-

गुप्त जी अपने निबन्धों में सरल और छोटे वाक्यों का प्रयोग करते हैं। सामान्यतः उनके वाक्य विन्यास में कृत्रिमता नहीं है, पर कहीं-कहीं वे वाक्य विन्यास व्यतिरेक उत्पत्र करके शैली की नवीनता उत्पन्न करते हैं। वे पुनरूक्ति का प्रयोग कलात्मकता की दृष्टि से ही करते हैं। यथा- “वह और कोई नहीं थे यदुवंशी महाराज वसुदेव थे और नवजात शिशु कृष्ण उसी को उस कठिन दशा में उस भयानक काली रात में वह गोकुल पहुँचाने जाते हैं कैसा कठिन समय था। पर दृढ़ता सब विपदों को जीत लेती है, सब कठिनाइयों को सुगम कर देती हैं।”

(2) विवेचनात्मक शैली-

गुप्त जी की लेखनी के द्वारा विचारात्मक और वर्णनात्मक निबन्ध कम ही लिखे गये हैं, अतः यह विशिष्ट शैली उनके कृतित्व में विरल रूप से ही प्राप्त होती है। यहाँ तर्कयुक्ति, कारण-कार्य आदि पर जो सूक्ष्म विचार किया गया है, वह विवेचक के अन्तःकरण का उत्पाद हैं-

“यद्यपि स्वर्गीय राजा लक्ष्मण सिंह महोदय ने सन् 1863 में शकुन्तला का हिन्दी अनुवाद करके फिर एक अच्छी हिन्दी का नमूना उपस्थित किया था पर उसका उस समय अधिक प्रभाव नहीं हुआ। मुख्य काम काबू हरिश्चन्द्र के हाथों से ही हुआ।” (कवि वचन सुधा से)

(3) भावात्मक शैली-

जयनाथ नलिन का कथन है कि गुप्त जी के ‘निबन्धों में भावात्मकता और कथात्मकता अधिक है।’ वह भावात्मकता निरपेक्ष न होकर कथात्मकता के साथ संयोजित कि गई है। इसे कथात्मक भावात्मकता कह सकते हैं।

यहाँ एक ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत है-

“शिव शम्भु ने देखा कि सामने एक सुन्दर बाग है। वहीं से सब बुलबुलें उड़कर आती हैं। बालक कूदता हुआ दौड़कर उसमें पहुंचा। देखा, सोने के पेड़-पत्ते और सोने के ही नाना रंग के फूल हैं। उन पर सोने की बुलबुले बैठी गाती हैं और उड़ती फिरती हैं। वहीं एक सोने का महल है। उस पर सैकड़ों सुनहरी कलश हैं। ऊपर भी बुलबुले बैठी हैं।”

(4) व्यंग्यात्मक शैली-

जयनाथ नलिन का अभिमत है- “राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं पर उन्होंने (गुप्त जी) बहुत ही सफल, चुभीले, गुदगुदी भरे, चुटीले और सबल व्यंग्यात्मक निबन्ध लिखे।” ये व्यंग्य सरस, मधुर और सुबोध हैं। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत है-

“कृष्ण हैं, उद्धव हैं, पर ब्रजवासी उनके निकट भी नहीं फटकने पाते। सूर्य है, धूप नहीं, चन्द्र है चाँदनी नहीं। माई लार्ड नगर में ही है, पर शिवशम्भु उनके द्वारा तक नहीं फटक सकता है, उनके घर चल होली खेलना तो विचार ही दूसरा है। माई लार्ड के घर तक बात की हवा तक नहीं पहुंच सकती।”

(5) हास-परिहास शैली-

गुप्तजी का हास-परिहास अथवा मजाक करने का अन्दाज ही पृथक् था। मेले का ऊंट में इस शैली का प्रमाण प्राप्त होता है। प्रतीकात्मकता से संवलित इस शैली का आनन्द लीजिए-

“मरी बलबलाहट उनके कानों को इतनी सुरीली लगती थी कि तुम्हारे बगीचे में तुम्होरे गवैयों, तुम्हारी पसन्द की बीवियों के स्वर भी तुम्हें इतने अच्छे न लगते होंगे…..- फोग के जंगल में मुझे चरते देखकर वह इतने प्रसन्न होते थे जितने तुम अपने सजे बगीचों में भंग पीकर, पेट भरकर और ताश खेलकर।”

(6) आलंकारिक शैली-

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है गुप्तजी के अन्तःकरण के किसी कोने में कवि भी अपने को छिपाये बैठा रहता था, जो यथावसर, अपने को प्रकट भी कर दिया करता था। यही कारण है कि उनके निबन्धों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की आभा दिखाई पड़ जाती थी।

भाषा- जयनाथ नलिन का गुप्त जी की भाषा के सम्बन्ध में कहना है कि “(उनके) सजग पत्रकार ने पाषा का सर्वबोध्य सामान्य टकसाली चलता रूप प्रदान किया। उर्दू फारसी के पूर्ण विद्वान  और सफल पत्रकार होने के कारण इनकी भाषा में उर्दू शब्दों का स्वागत आश्चर्यकारी नहीं।’ आगे वे पुनः लिखते हैं- “प्रतीकात्मक आधार इनकी भाषा शैली और भाव-व्यंजना को चमत्कार और निराली वक़ता देता है। पर दुरूहता को दोष कभी नहीं आता।…. भाषा की सफाई स्पष्टता और सुबोधता और सरसता हर वाक्य में झलकती है।” यहाँ उनकी भाषा के उदाहरण प्रस्तुत हैं-

(1) तत्सम प्रधान भाषा- “यमुना उत्ताल तरंगों में बह रही थी। ऐसे समय में एक दृढ़ पुरुष एक नवजात शिशु को गोद के लिए मथुरा के कारागार से बाहर निकल पड़ा।

(2) विदेशी शब्द- लाट, कमान, सार्टीफिकेट आदि- अंग्रेजी।

बेफिकर, मालूम, मूजब, अफसोस, तकाजा, खयाली, जाफरानी, मौजों तूल-अरज आवाज- अरबी, फारसी।

(3) मुहावरा प्रयोग- इस दृष्टि से कुछ मुहावरे इस प्रकार हैं- हक्का-बक्का होना, उडन छू होना, हौसले बढ़ना, हिम्मत तोड़ना, घर करना, दिन ढलना आदि।

(4) अशुद्ध भाषा तोड़ना- यद्यपि जयनाथ नलिन के अनुसार उनकी भाषा – “द्विवेदी युग की सधी हुई भाषा वही स्वच्छता और वही स्पष्टता’ से युक्त थी- तो भी इसमें व्याकरण विरुद्धता भी मिल जाती है, यथा-

(1) भारत मित्र के पाठकों ने यह लेख बड़े चाव से पढ़े हैं।

(2) अंग्रेजी में छपी हुई मुंशी देवी प्रसाद जी के सार्टीफिकेटों की एक पुस्तक दृष्टिगोचर हुई। वे ‘आगे’, ‘जावेगे’, ‘कटुक्ति’, ‘तयारी’ आदि का प्रयोग करते हैं। ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी उनका विवाद प्रसिद्ध हैं ही।

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