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कुटज सन्दर्भः- प्रसंग- व्याख्या | हजारी प्रसाद द्विवेदी – कुटज

कुटज सन्दर्भः प्रसंग- व्याख्या | हजारी प्रसाद द्विवेदी – कुटज

कुटज

  1. भारतीय पंडितों का सैकड़ों बार का कचारा-निचोड़ प्रश्न सामने आ गया रूप मुख्य है या नाम? नाम बड़ा है या रूप? पद पहले है या पदार्थ? पदार्थ सामने है, पद नहीं सूझ रहा है। मन व्याकुल हो गया, स्मृतियों के पंख फैलाकर सुदूर अतीत के कोनों में झाँकता रहा। सोचता हूँ, इसमें व्याकुल होने की क्या बात है? नाम में क्या रखा है……….. हाटस देअर इन ए नेम।

प्रसंग- शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर अनेक छोटे, ठिगने तथा बीहड़ पौधों और वनस्पतियों को देखते हुए जब लेखक की दृष्टि उनके बीच चौड़े पत्तों, फूलों से लदे ठिगने पौधे पर पड़ती है तो वह उन्हें पहचान तो लेता है, पर उसका नाम तत्काल उन्हें याद नहीं आता अपनी इसी मनः स्थिति का वर्णन करते हुए, अपनी द्विविधा बताते हुए लेखक कहता है।

व्याख्या- भारतीय मनीषियों, विद्वानों, दार्शनिकों, व्याकरणाचार्यों ने इस समस्या पर बार- बार विचार किया है कि शब्द और शब्दार्थ में , पद और पदार्थ में, वस्तु के नाम और रूप में कौन बड़ा है, किसका महत्व अधिक है। इस प्रश्न का सैंकड़ों-हजारों बार विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ हुआ है, दोनों पक्षों ने अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किए हैं, अपनी बात को सत्य बताने के लिए कुतर्क भी किये हैं। इन शास्त्रार्थों, लम्बी-चौड़ा बहसों, पांडित्यपूर्ण प्रवचनों के बावजूद वे किसी अन्तिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं। यह प्रश्न अभी भी अनिर्णीत है, विवादास्पद है, पडितों तथा विद्वानों के बीच झगड़े का कारण बना हुआ है। कोई नाम को बड़ा बताता है तो कोई रूप को। किसी के लिए पद अधिक महत्वपूर्ण है, तो किसी के लिए पदार्थ। कुटज को देखकर, पहचानकर जब उसका नाम याद नहीं आता तो लेखक भी परेशान हो उठता है। वह भी इस विषय पर सोचने लगता है कि वस्तु का नाम बड़ा है या उसका स्वरूप। कुटज को पहचानने के बाद क्या उसका नाम बताना जरूरी है? पदार्थ तो उसकी आँखों के सामने है, सैकड़ों बार देखने के कारण वह उसे पहचानता भी है पर स्मृति भ्रंश या याददाश्त कमजोर होने के कारण उसका नाम भूल गया है और यह नहीं बता पा रहा कि इस पौधे का नाम क्या है? अपनी इस परेशानी के क्षणों में वह अपने मस्तिष्क पर जोर देता है, नाम स्मरण करने की भरसक चेष्टा करता है, प्राचीन बातों की याद करता है, अतीत में डूब जाता है कि किसी प्रकार नाम याद आ जाए। पर जब याद नहीं आता तो फिर अपने मन को सान्त्वना देते हुए धीरज बंधाते हुए, बहलाने के लिए सोचता है कि यदि नाम का नहीं, वस्तु का है। मुख्य पदार्थ है, पद नहीं और इसी सिलसिले में वह अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटकाकार शेक्सपियर के कथन का स्मरण करते हुए अपने मन को धीरज बंधाता है। इस नाटककार ने भी तो लिखा है, “नाम में क्या धरा है?”

विशेष- (1) लेखक को संस्कृत-साहित्य और व्याकरण शास्त्र के ज्ञान का संकेत मिलता है कि पद बड़ा है या पदार्थ। (2) देशज शब्दों का प्रयोग-कचारा-निचोड़ा (3) स्मृतियों के पंख फैलाकर में रूपक अलंकार।

  1. एक बार अपने झबरीले मूर्धा को हिलाकर समाधिनिष्ठ महादेव का पुष्पस्तवक का उपहार चढ़ा देते हैं और एक बार नीचे की ओर अपनी पाताल भेदी जड़ों को दबाकर गिरिनंदिनी सरिताओं को संकेत से बता देते हैं कि रस का स्त्रोत कहाँ है। जीना चाहते हो? कोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना योग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, झंझा तूफान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल लो, आकाश का चूमकर, आकाश की लहरों में झूमकर, उल्लास खींच लो।

प्रसंग- हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबन्ध ‘कुटज’ से उद्धृत इन पंक्तियों में लेखक कुटज की प्राणिशक्ति, सहिष्णुता, कठोर, परिस्थितियों में संघर्ष करने की तपस्या बताने के बाद पाठकों को सन्देश देता है कि वे कुटज को इन गुणों को आत्मसात कर जीने की कला सीखें।

व्याख्या- शैवालिक के गिरि-कांतार में उगने, पनपने वाला कुटज सारी कठोर, विषम, प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भी पल्लवित होता रहता है, एक दिन वह फूलों से लद जाता है। जब वायु के झोंके झुलाते हैं, फूलों से लदा उसका शीर्ष झूमता है और फूल गिरकर चारों ओर बिखर जाते हैं तो ऐसा लगता है मानो वह कुटज शिव का महाभक्त है और अपने आराध्य देव समाधि में तीन शिव को प्रसन्न करने के लिए, उनकी कृपा पाने के लिए अपने फूलों को श्रद्धांजलि के रूप में उनके चरणों पर अर्पित कर रहा है। इसकी जड़ें जमीन में बड़ी गहराई तक जाती हैं। लगता है वे पाताल भेदी हैं, धरती धकेल है, पहाड़ मेदिनी हैं। ये जड़े जमीन के बहुत नीचे, गहरे में प्रवाहित होने वाली जल की अन्तर्धाराओं में अपने लिए जल खींचकर स्वयं को हरा-भरा रखती हैं। इसके लिए उन्हें भारी उद्योग, परिश्रम और जीवट करना पड़ता है। गहरे जल स्त्रोतों से जल खींचकर मानो ये वृक्ष पर्वत की क्रोड़ में कलकल निनाद करती, इठलाती , नृत्य करती सरिताओं को बता देती हैं कि वे उसी जल से बनी हैं, उनके उद्गम का स्त्रोत भी पृथ्वी की अतल गहराइयों में संचित जल- भंडार है जिससे ये पौधे रस खींचते हैं। ये पौधे अपने आचरण से अपनी जीवनी शक्ति से, अपने जीवट और धैर्य से मनुष्य जाति को भी प्रेरणा और संदेश देते हैं, जीवन कैसे, जीना चाहिए बताते है। यदि जीना है तो फूलों की शय्या को त्यागना होगा, बिना कठिन परिश्रम के दुनिया में रहना कठिन है। अतः कठिनाइयों, बाधाओं के पर्वत अपने मार्ग से हटाने होंगे, विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों में सतत् उद्योग करना होगा। कुटज पहाड़ों को भेदकर, पृथ्वी की छाती चीरकर पाताल पर अपनी जड़ें फैलाकर वहाँ से जल पाकर जीवित रहता है। इसी प्रकार का संघर्ष मानव को करना होगा। जिस जंगल, बीहड़ प्रदेश में वह उगता है, पनपता है वहाँ प्रतिदिन भंयकर तूफान आते हैं, झंझावत उसे उखाड़ने का प्रयास करते हैं पर वह उनके कोप, उनके प्रहार को सहता है और वायुमंडल के प्राणवायु (आक्सीजन) पाकर जीवित रहता है। उसमें ऊपर उठने की उमंग है, वह आकाश तक ऊंचा उठना चाहता है अतः वायु की लहरों में नृत्य करता है, झूमता है, झूठलाता है और जहाँ से भी प्राप्त हो सके उल्लास, हर्ष, आमोद बटोरता है। ऐसा कर वह मानव मात्र को सन्देश देता है कि जीवन-मार्ग में अपने कठिनाइयाँ, बाधाएँ, संकट आयेंगे पर यदि जीना है, शान से जीना है, जीवन सफल करना है तो पलायनवादी मत बनो-शुतुरमुर्गी वृत्ति मत अपनाओ। पुरुष को पुरुषार्थ करो। आपदाओं से भागी मत टक्कर लो, उन पर विजय प्राप्त करो। संसार में जहाँ कहीं भी उल्लास है, आमोद है, सुख है उसे बटोर कर अपनी झोली भर लो। कर्म का पथ ही एकमात्र सफलता की कुंजी है। कर्म करो। अकर्मण्य बनने से कोई लाभ नहीं होगा।

विशेष- (1) लेखक की भारतीय संस्कृति तथा दर्शन के प्रति निष्ठा है जो सदा से कर्म का सन्देश देती रही है। गीता के कर्मयोग से लेकर गाँधी तक ने कर्म को प्रधान माना है। “कर्म प्रधान विश्व करि राखा।” (2) साहित्यिक अलंकृत भाषा तथा उद्बोधन शैली। (3) लेखक की कल्पना को कुटज को भक्त के रूप में चित्रित कर उनके चरणों में अपने फूल अर्पित करने का दृश्य अंकित करती है।

  1. कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या! पूर्व ओर अपर समुद्र- महोदधि और रत्नाकर- दोनों को दोनों भुजाओ पे चाहता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदण्ड’ कहा जाय तो गलत क्या है? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। इसी पाद-देश में यह तो श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इसे ‘शिवालिक’ श्रृंखला कहते हैं। शिवालिक का क्या अर्थ है? “शिवालिक या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा तो नहीं है? लगता तो ऐसा ही है। सपाद लक्ष’ या सवा लाख की मालगुजारीवाला इलाका तो वह लगता नहीं! शिव की लटियाई जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। वैसे, अलकनन्दा का स्त्रोत यहाँ से काफी दूर पर है, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक छितराया ही रहता होगा। सम्पूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्थ महादेव की मूर्ति स्पष्ट हुई होगी। उसी समाधिस्थ महादेव के अलक-जाल के निचले हिस्से का प्रतिनिधित्व यह गिरि-श्रृंखला कर रही होगी। कहीं-कहीं अज्ञात-

सप्रंसग व्याख्या- प्रस्तुत गद्यखण्ड डॉ. हजारीप्रसाद द्ववेदी के सुप्रसिद्ध निबन्ध ‘कुटज’ से अवतरित है। ‘कुटज’ की जन्मस्थली शिवालिक का वर्णन करते हुए लेखक कहता है कि सम्पूर्ण पर्वत शोभा, औस सुन्दरता के आगार होते हैं, ऐसा कहा जाता है। उनमें हिमालय की शोभा तो वर्णन के परे है। उसके दोनों ओर महासागर हैं। पश्चिम में अरब सागर और पूर्व में हिन्द महासागर। लगता है हिमालय पर्वत दोनों समुद्रों और अपनी भुजाओं से थामे हुए हैं। इस दृष्टि से हिमालय को समस्त पृथ्वी का मानदण्ड कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। हिमालय को कालिदास ने पृथ्वी का मानदण्ड माना था। हिमालय के निम्न प्रदेश में पर्वतों की एक श्रृंखला है जो दूर तक विस्तीर्यमाण है। इसे शिवालिक शृंखला कहा जाता है।

शिवालिक शब्द की व्युत्पति बताते हुए लेखक कहता है कि शिवालिक शब्द (शिव + अलक) अर्थात् शिव के जटाजूट से बना है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह शब्द शिवालिक से सम्बन्धित है। इसका सम्बन्ध ‘सपादलक्ष’ अर्थात् सवालाख से जोड़ा जाना तो नितान्त असंगत है, क्योंकि यह प्रदेश सवालाख की मालगुजारी का प्रदेश तो है नहीं। रूप और आकृति की दृष्टि से देखा जाय तो भगवान शिव की जटाएं ही इतनी लम्बी, बिखरी और नीरस हो सकती हैं। अलकनन्दा नदी का स्वोत यहाँ से दूर है, परन्तु जल का सम्बन्ध शिव के जटाजूट से है यह सम्भव है। हिमालय दूर से देखने पर समाधिस्थ योगी जैसा लगता है। वस्तुतः पहले हिमालय को देखकर किसी के मन में तपोनिरत भगवान शिव की मूर्ति स्पष्ट हो गयी होगी और उसी के आधार पर हिमालय को उसने शिव मान लिया होगा। तत्पश्चात् उसकी छोटी-छोटी शृंखलाओं और नदियों का सम्बन्ध उसने शिव के अंगों से जोड़ दिया होगा। ‘शिवालिक’ शिव के अलक से सम्बन्धित है।

विशेष- (i) शिवालिक शब्द की व्युत्पति व्याख्या।

(ii) हिमालय की शोभा और भौगोलिक स्थिति का वर्णन।

(iii) हिमालय का मानवीकरण।

  1. नाम इसलिए…….. चित्त गंगा में स्नात।

सप्रसंग व्याख्या- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक, ‘निवन्ध निकुर’ में संकलित ‘कुटज’ नामक निबन्ध से अवतरित की गयी हैं। इसके लेखक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी हैं।

प्रस्तुत पंक्तियों में द्विवेदी जी ने ‘कुटज’ वृक्ष के नाम को लेकर उसकी व्युत्पति तथा उसके नाम की सार्थकता पर विचार किया है। लेखक सोचता है कि किसी भी वस्तु का नाम पहले है, या रूप। इन दोनों में मुख्य कौन है?

नाम रूप से इसलिए बड़ा है क्योंकि वह समाज द्वारा किया जाता है। सच तो यह है कि पहले वस्तु होती है, उसके बाद उसका नामकरण होता है। इसलिए पदार्थ नाम से पहले है। पर चूँकि नाम सामाजिक स्वीकृति होता है और समाज सदैव व्यक्ति से बड़ा होता है। अतः समाज-सत्य नाम व्यक्ति-सत्य से बड़ा हुआ व्यक्ति की सार्थकता समाज में है। कई व्यक्तियों को मिलाकार समाज बनता है और समाज व्यक्ति की विकसित अवस्था है। अतः समाज सदैव व्यक्ति से अधिक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण है। इस प्रकार समाज से जुड़ा होने के कारण नाम, रूप से अधिक महत्वपूर्ण और बड़ा है।

समाज सापेक्ष होने के साथ-साथ नाम का एक इतिहास भी होता है। रूप स्पष्ट हो जाता है, नाम चलता रहता है। ऐतिहासिक अमरत्व प्राप्त करने के कारण भी नाम रूप से बड़ा है। समाज के सामान्य लोग जो किसी महापुरुष अथवा किसी महत्वपूर्ण वस्तु को जानते भी नहीं, उसके नाम से परिचित होते हैं। रूप से नाम के बड़े होने का यह तीसरा प्रमाण है।

विशेष- (i) तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ में राम के नाम को स्वयं राम से अधिक बड़ा कहकर उसकी महिमा गाई है।

(ii) व्यक्ति की सार्थकता समाज में है- इस आशय की गुप्त जी की पंक्ति द्रष्टव्य है- ‘हम हो समाष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी।’

(iii) आचार्य द्विवेदी भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासकों में से एक हैं, अतः उनकी लेखनी से ऐतिहासिक परम्परा और सामाजिक महत्ता का प्रतिपादन स्वाभाविक ही है।

  1. इसी के पाददेश में यह जो श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है लोग इसे ‘शिवालिक’ श्रृंखला कहते हैं। शिवालिक का क्या अर्थ है। ‘शिवालिक’ या शिव के जटाजूट क निचला हिस्सा तो नहीं है? लगता तो ऐसा ही है। शिव की लटियाई जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। वैसे, अलकनंदा का स्रोत यहाँ से काफी दूरी पर है, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक छितराया ही रहता होगा।

प्रसंग- यह गद्यांश आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘कुटज’ से उद्धृत किया गया है। निबंध के आरंभ में लेखक हिमालय की विराटता तथा प्राकृतिक सुषमा का गौरवमान करने के उपरान्त मध्य प्रदेश की पर्वतमाला शिवालिक का वर्णन करने से पूर्व इस शब्द के अर्थ में अपना अनुमान बताता है।

व्याख्या- भारत के उत्तर में संसार की सबसे ऊंची विशाल तथा विस्तृत पर्वतमाला है हिमालय। हिमालय को भारत माता का मुकुट कहा जाता है। उसकी विराटता और स्थिति को देखकर संस्कृत के महाकवि कालिदास ने इस ‘पृथ्वी का मानंदड’ कहा था जो उचित ही है। इसी हिमालय की दक्षिण दिशा में मध्यप्रदेश या मध्य प्रदेश में विध्याचल-सतपुड़ा की पहाडियाँ स्थित हैं। इनके एक भाग को शैवालिक या शिवालिक कहते हैं। लेखक का अनुमान है कि यह पर्वत माला हिमालय का ही एक भाग है। हिमालय को शिव-पार्वती का निवास- स्थल या शिव की समाधि-स्थली कहा जाता है। शिव तपस्वी ऋषि हैं, समाधिस्थ मुनि हैं और यह शैवालिक पर्वत माला उनकी अलकें, लम्बी जटाएं हैं। जिसने भी इस पर्वतमाला को यह नाम ‘शिवालिक’ दिया होगा; उसके मस्तिष्क में, उसकी कल्पना में यही बात रही होगी कि हिमालय पर समाधि लगाये बैठे शिव की लम्बी जटाएँ ही फैलकर इस स्थान तक आ पहुंची हैं और उन्होंने पर्वत माला का रूप धारण कर लिया है। ‘शिवालिक’ शब्द का सन्धि-विच्छेद करें- शिव + अलिक, तो अर्थ निकलता है कि शिव की अलकें। अलक का अर्थ होता है केश राशि। पुरुष की केश राशि तो लंबी होती नहीं, उसकी (यदि वह ऋषि -मुनि हैं) जटाएँ अवश्य लंबी होती हैं। अतः ये पर्वत मालाएँ शिव की जटाएं ही हैं। जिसने भी इस पर्वतमाला को यह नाम दिया होगा, उसने यही अनुमान लगाया होगा। उसने इस शिव की जटाओं का निचला हिस्सा समझ कर इसे यह नाम दिया होगा। इस पर्वत माला की भूमि, चट्टानें, पर्वत-खण्डों को देखकर भी यह अर्थ और नामकरण ठीक लगता है, क्योंकि ये पहाड़ियाँ शिव की जटाओं के समान ही सूखी, कठोर धूल धूसरित, मटमैली ऊबड़-खाबड़ तथा नीरस हैं। यह ठीक है कि अलकनंदा नामक नदी जिसे शिव की अलकों से निकलने के कारण अलकनंदा नाम मिला, शिलिक पर्वतमाला से मीलों दूर है पर शिव तो महादेव हैं, उनकी जटाएं सामान्य ऋषि-मुनि से कहीं अधिक सघन, लम्बी तथा निबिड़ होंगी अतः यदि उनका जटाजूट फैलकर, छितराकर मध्य प्रदेश तक आ गया है ,तो इसमें न कोई आश्चर्य की बात है, न असंगति सारांश यह कि यह शिवालिक हिमालय का ही एक अंश है।

विशेष- (1) लेखक की शब्दों की व्युत्पत्ति में रुचि उनके भाषाविद् एंव व्याकरण शास्त्र के ज्ञाता होने की परिचायक है।

(2) लेखक की जिज्ञासावृत्ति तथा अनुसंधान की प्रवृत्ति भी दृष्टिगत होती है। (3) देशज शब्दों-लोटी हुई, लिटयाई, छितराया के प्रयोग से अभिव्यक्ति में सहजता के साथ सजीवता तथा शक्ति भी आ गयी है।

  1. “नाम इसलिए बड़ा नहीं हैं कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली है। रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज सत्य । नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है, आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सैक्शन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है। समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टिमानव की चित्त गंगा में स्नान।”

सप्रसंग व्याख्या- प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘निबन्ध निकुर’ में संकलित ‘कुटज’ नामक निबन्ध से उद्धृत है, इसके लेखक हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं।

प्रस्तुत पंक्तियों में द्विवेदी जी ने ‘कुटज’ वृक्ष को शक्तिमान जीवन का प्रतीक मानकर, उससे प्रेरणा लेकर, उसी के समान पौरुष-सम्पत्र जीवन व्यतीत करने का सन्देश दिया है।

‘कुटन’ वृक्ष जिन भीषण परिस्थितियों के बीच उगता, बढ़ता, पुष्पित और पल्लवित होता है। उसकी सहज कल्पना से मन कम्पित और भयभीत हो उठता है। पहाड़ की दृढ़ चट्टानों को भेदकर कोई पेड़ पैदा नहीं होता, पर ‘कुटज’ वृक्ष इसी स्थान पर उगता है। उसकी जड़ें पातालगामिनी होती हैं। ‘कुटज’ वृक्ष को कोई लगाता नहीं, उसका बीजवपन नहीं होता, वह स्वयं होता है। पार्वत्य देश की रुक्ष शुष्क भूमि में वह अपनी खुराक ग्रहण करता है। न उसको कोई सींचता है न की खाद देता है। वह अपना भोजन अपनी पातालगामिनी जड़ों की शक्ति से और अपने शक्तिशाली पत्तों के सर्वग्रासी तेज से ग्रहण करता है।

‘कुटज’ वृक्ष की उत्पत्ति और उसकी खाद्य-सामग्री का वर्णन करने के बाद उसके अस्तित्व और जीवन की विजयिनी शक्ति की ओर संकेत करते हुए द्विवेदी जी लिखते हैं कि ‘कुटज’ वृक्ष को नष्ट करने के लिए पहाड़ी प्रदेश की कितनी तेज और हिमानी हवाएं चलती हैं, जिनके प्रवाह से प्रकृति का कोई जड़- चेतन पदार्थ टिक नहीं पाता। ‘कुटज’ वृक्ष उसी बर्फीले क्षेत्र में अपना अस्तित्व सार्थक करता है। उस सम्पूर्ण दुर्दमनीय वायुमण्डल के बीच संघर्ष करता हुए वह एक क्षण के लिए समय निकालकर झूमता है और प्रकृति के ऊपर मानो प्राप्त करता हुआ आनन्द-मग्न दिखायी देता है।

‘कुटज’ वृक्ष की इसी जीवन-शक्ति से प्रेरणा लेकर लेखक मानव को भी इसी प्रकार जीवन जीने के लिए ललकारता है। शक्तिशाली मनुष्य का जीवन भी इसी प्रकार का होता है। उसका जन्म, उसका लालन-पालन और उसका जीवन-संवर्द्धन वैभवपूर्ण परिस्थितियों में नहीं होता। वह ‘कुटज’ की तरह स्वयंभू और परिस्थितियों के भीषण आघातों के बीच अपने अस्तित्व की घोषणा करता हुआ संसार को अपने पराक्रम से चकित करता है। ईशा, बुद्ध, गाँधी, कबीर, सूर, तुलसी, नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी अथवा संसार का कोई भी महान और पराक्रमी व्यक्ति उपरोक्त कथन का अपवाद नहीं है। महान और पराक्रमशाली का जीवन ही भयावह परिस्थितियों के बीच तपकर कुन्दन बनाता है। प्रत्येक जिजीविषा सम्पन्न व्यक्ति को इसी मार्ग से गुजरना पड़ता है और गुजरना चाहिए। जीवन से निराश व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता। संघर्षों से डरने वाले व्यक्ति का जीवन स्वयं ही नष्ट हो जाता है।

विशेष-(i) अस्तित्ववादी दर्शन की प्रेरणा। (ii) ‘योग्यताभावशेष’ सिद्धान्त की पुष्टि।

  1. दुःख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी वह है जिसका मन वश में है, दुखी वह है जिसका मन परवश है। परवश होने का अर्थ है खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता, हाँ-हजूरी। जिसका मन अपने वश में नहीं है वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है, अपने को छिपने के लिए मिथ्या आडंबर करता है, दूसरों को फंसाने के लिए जाल बिछाता है।

प्रसंग – ये पंक्तियों हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्ध कुटज से उद्धृत की गयी हैं। भारतीय दार्शनिकों के मतों, महाभारत, गीता आदि के कथनों की चर्चा करने के बाद लेखक निबन्ध के अन्त में अपने सम्पूर्ण चिंतन का निष्कर्ष प्रस्तुत करता है, जो प्राचीन धर्मग्रन्थों, दर्शन और अध्यात्म विद्या का सार है कि सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय से ऊपर उठकर, स्थितप्रज्ञ बनकर अपने जीवन को सफल तथा सार्थक बनाओ।

व्याख्या- सुख और दुःख की अपनी निजी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। एक ही बात एक मनुष्य के लिए सुख का, तो दूसरे के लिए दुःख का कारण बन सकती है। वस्तुतः सुखी और दुःखी होना मन के ऊपर निर्भर करता है। यदि आपका मन पर अधिकार नहीं है, मन आपके वश में नहीं है, मन चंचल है, अस्थिर है तो आपको सुख-दुःख सताते रहते हैं। हर्षोल्लास की स्थिति में, शादी-व्याह, पुत्रोत्पत्ति के अवसर पर आप सुख अनुभव करते हैं। इसके विपरीत हानि होने पर, मित्र या संबंधी के निधन पर संतृप्त हो उठता हैं, रुदन-विलाप करने लगते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि आप दुर्बल चित्त है, स्थिर नहीं हैं, आपका मन कमजोर है, वह बाह्य परिपवेश, बाह्य जीवन की गतिविधि से शीघ्र ही प्रभावित होता है। आप अपने मन पर संयम का अंकुश नहीं लगा पाते और वह मतवाले हाथी की तरह सब कुछ रौंदता हुआ चलता है। यदि आप संयमी हैं, आपकी इन्द्रियाँ आपके नियन्त्रण में हैं, मन पर आपका पूर्ण अधिकार है, आप चंचल मन को इधर-उधर भटकाने से रोक सकते हैं तो आप भौतिक आपदा, शारीरिक पीड़ा तथा मानसिक कष्ट के क्षणों में भी दुःख पर विजय पाकर स्वयं को स्थिर तथा अविचल बनाए रखते हैं। जो अपने मन को वश में रख पाता उसकी इन्द्रियाँ अपने भोगों के लिए भटकती रहती हैं और ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छाओं को पूरा न कर पाने की स्थिति में असंतोष और असंतोषजनक पीड़ा की आग में झुलसता रहता है। अपनी इन तुच्छ भौतिक कामनाओं को पूरा करने, धन, भोग-विलास, जीवन की सुविधाएँ प्राप्त करने की अंधी दौडू में, मृग मरीचिका में फंसा यह व्यक्ति कभी धनवान लोगों की चौखट पर माथा टेकता है, कभी  उच्च अधिकारियों के जूते चाटता है, कभी उनके सामने दुम हिलाता है। उसका सारा जीवन खुशामद, चापलूसी, जी हजूरी में बीतता है। आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, आत्म-गौरव सब नष्ट हो जाता है। वह एक प्रकार से दीन याचक बन जाता है। इतना ही नहीं मन के वश में न होने पर वह झूठी शान, झूठा नाम कमाने के चक्कर में मिथ्या आडंबर, प्रदर्शन और मिथ्याचरण करता है- झूठी खुशामद करता है, प्रपंच रचता है, धोखा देता है, झूठ बोलता है, षड्यंत्र बनाता है और फिर स्वयं बनाए जाल में फंसकर जीवन-भर यंत्रणा भोगता है। यह दुर्गति होती है मन को वश में न करने के कारण, इन्द्रिय-दमन न कर सकने के फलस्वरूप। अतः यदि सच्चा स्थायी सुख पाना है तो उसका एकमात्र उपाय है मन को वश में करना।

विशेष- (1) गीता में मन की चंचलता के विषय में और उस पर विजय पाने की आवश्यकता पर बहुत बल दिया गया है। अर्जुन कहता है-

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि वलवद्हदम् तस्याहं; निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।

इस पर कृष्ण उसे समझौता हुए कहते हैं- इन्द्रियाँ प्रमथन स्वभाव वाली होती है और मन को हर लेती हैं अतः इन इन्द्रियों को अपने वश में कर-

तानि सर्वाणि संयम्य मुक्त आसीत मत्परः।

वशे हि यप्योन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।

(2) एक ओर मुहावरों – दाँत निपोरना, हाँ-हजूरी करना का प्रयोग और दूसरी ओर छंदावर्तन करना, जैसे तत्सम पदों का प्रयोग द्विवेदी जी की शैली को नवीन आकर्षण प्रदान करते हैं।

(3) अंतिम वाक्य में लयात्मक संगति है।

  1. संसार में…………………. झूठ हैं।

सप्रंसग व्याख्या- प्रस्तुत गद्य-खण्ड हमारी पाठ्य पुस्तक निबन्ध निकुर’ में संकलित ‘कुटज’ नामक निबन्ध से लिया गया है। इसके प्रणेता हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं।

प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने स्वार्थवादी दृष्टिकोण को विवेचित करने का प्रयत्न किया है।

प्रसिद्ध ब्रह्मवादी महर्षि याज्ञवल्क्य का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए द्विवेदी जी लिखते हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिय नहीं होती, सब अपने मतलब के लिये प्रिय होते हैं- “आत्मनस्तु कामाय सर्वप्रियं भवति।” विद्वान लेखक उपर्युक्त दृष्टिकोण पर गम्भीरतापूर्वक विचार करता है कि संसार में जहां कहीं प्रेम है, क्या सब मतलब के लिए हैं? पाश्चात्य देशों के दार्शनिक हॉब्स और हेल्सेशियस ने भी इसी भौतिक दर्शन की पुष्टि की है। आदर्शवादी लेखक को उपयुक्त भौतिकवादी दर्शन पर बड़ा आश्चर्य है। वह सोचता है कि संसार में त्याग, प्रेम अथवा परमार्थ की कोई महत्ता नहीं है? कोई सार्थकता नहीं है? इन सब के ऊपर क्या प्रचण्ड स्वार्थ का बोलबाला है? मनुष्य के हृदय में बैठी जीवित रहने की प्रचण्ड इच्छा ही सब कुछ है तो फिर संसार की ये बड़ी-बड़ी बातें और उनके आधार पर विभाजित लोगों और देशों के बड़े-बड़े संगठन, शत्रु को पराजित करने के बड़े-बड़े ढोंग, देशोद्धार के झूठे नारे साहित्य और कला महिमा-ज्ञान सब कुछ झूठ और व्यर्थ हैं? लेखक उपर्युक्त मत से सहमत नहीं है और वह परमार्थ को स्वार्थ से बड़ा मानता है।

विशेष- (i) उपर्युक्त दृष्टिकोण भौतिकवादी है। हमारे यहाँ इस मत के पोषक चार्वाक ऋषि हुए हैं। जिन्होंने – ‘यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा, घृतं पीवेत, के दर्शन की स्थापना की।

(ii) पश्चिम का दर्शन भौतिकवादी है।

  1. जो समझता है कि वह दूसरों का अपकार कर रहा है, वह अबोध है, जो समझता है कि दूसरा उसका अपकार कर रहा है, वह भी बुद्धिहीन है। कौन किसका उपकार करता है, कौन किसका अपकार कर रहा है? मनुष्य जी रहा है, केवल जी रहा है, अपनी इच्छा से नहीं इतिहास विधाता की योजना के अनुसार । किसी को उससे सुख मिल जाय, बहुत अच्छी बात है, नहीं मिल सका, कोई बात नहीं, परन्तु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभिमान यदि गलत है, तो दुःख पहुँचाने का अभिमान तो नितरां गलत है।

सप्रसंग व्याख्या- प्रस्तुत गद्यखण्ड आचार्य द्विवेदी जी द्वारा लिखित ‘कुटज’ नामक शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। लेखक ने स्पष्ट किया है कि जो मानव यह समझता है कि वह दूसरों का उपकार करने में समर्थ है तो वह अज्ञानता में है और जो यह समझता है कि वह किसी का उपकार कर सकता है या अहित कर सकता है तो वह बिलकुल मूर्ख है। यहाँ न कोई किसी का बना सकता है और न बिगाड़ सकता है। तो कोई और ही शक्ति है जो प्राणी को अपने इशारे पर नचा रही है। उसी की इच्छा पर मानव जीवित है, और उसी के इशारे पर सम्पूर्ण क्रिया-कलाप करता है। मानव उसी परम-सत्ता का परिणाम है। इसमें उसकी इच्छा-अनिच्छा ,रुचि-अरुचि का कोई प्रश्न ही नहीं है। दैवाधीन मानव के क्रिया-कलापों से किसी को सुख प्राप्त होता है तो ठीक है और दुख मिलता है तो ठीक है, क्योंकि मानव स्वयं कर्ता नहीं है। वह तो किसी की इच्छा से कार्य कर रहा है। मानव को अपने ऊपर अहंकार नहीं करना चाहिए क्योंकि वह कुछ कर ही नहीं सकता।

विशेष-(i) विचारात्मक शैली का प्रयोग।

(ii) मानव की अकिंचनता पर प्रकाश।

(iii) ईश्वर की विराटता का वर्णन।

(iv) ईश्वरीय शक्ति ही सर्वशक्तिमान है।

(v) लेखक के दार्शनिक दृष्टिकोण का परिचय।

(vi) प्रबोधात्मक विचार का विवेचन।

  1. बलिहारी है…………. प्रेरणा देती है।

सप्रसंग व्याख्या- प्रस्तुत गद्य-खण्ड हमारी पाठ्य पुस्तक ‘निबन्ध निकुर’ में संकलित ‘कुटज’ नामक निबन्ध से अवतरित किया गया है। इसके लेखक हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध निबन्धकार हजारीप्रसाद द्विवेदी जी हैं।

‘कुटज’ वृक्ष की प्राकृतिक सुषमा, उसकी अपराजेयता और जीवन्तता की प्रशंसा करते हुए द्विवेदी जी लिखते हैं-‘कुटज’ वृक्ष के प्राकृतिक सौन्दर्य पर मन मुग्ध हो उठता है और उसके ऊपर सुन्दर से सुन्दर वस्तु न्यौछावर की जा सकती है। उसका सौन्दर्य कृत्रिम नहीं है। उसके ठिगनेपन में, उसके चौड़े और बड़े पत्तों में, एक अजीब-सी अदा और मस्ती है, लगता है मुस्करा रहा है।

‘कुटज’ वृक्ष की अपराजेय जीवनी शक्ति की प्रशंसा करते हुए द्विवेदी जी लिखते हैं कि ग्रीष्मकाल की भीषण में भी जो क्रुद्ध यमराज के भीषण निःश्वास के समान है, मुरझाता नहीं, अपितु अत्यन्त प्रसन और हरा-भरा है। ज्यों-ज्यों लू के आघात को सहन करता है, उसमें जीने की प्रेरणा लगती है। यह जीवनी-शक्ति उसे प्राकृतिक रूप से मिली है। पहाड़ी प्रदेशों की उन दृढ़ चट्टानों को जो दुष्ट व्यक्ति के समान दुर्भेद्य हैं, यह ‘कुटज’ वृक्ष भेदकर, उनके अन्दर छिपे अज्ञात जल, स्त्रोत से प्राण सींचकर जीवित है और प्रोणवान है। निर्जन, पहाड़ी जंगल, जो मूर्ख व्यक्ति के मस्तिष्क के समान शून्य हैं, में भी ऐसी प्रसन्न और अभावरहित अवस्था में है कि ईर्ष्या होती है। ‘कुटज’ वृक्ष के समान जीवन जीने की शक्ति किसी दूसरी वस्तु में नहीं है। उनकी इस प्राण शक्ति से हमारे प्राणों में जीवन-शक्ति की एक नयी लहर दौड़ जाती है और हम सोचने लगते हैं कि क्या हम भी इसी प्रकार जीवन नहीं जी सकते? परिस्थितियों के भीषण थपेड़ों में क्या हम भी इसी अपराजेय जीवन-शक्ति का परिचय नहीं दे सकते? मन कहता है अवश्य दे सकते हैं।

विशेष-

(i) ‘कुटज’ वृक्ष का मानवीकरण।

(ii) ‘कुटज’ वृक्ष के माध्यम से शक्ति-सम्पन्न जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा।

(iii) भाषा में काव्यात्मकता, साहित्य और प्रवाह।

(iv) संस्कृत के बाण आदि अलंकारिकों के समान आलंकारिक शैली का प्रयोग।

  1. 11. नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती। रूप व्यक्ति सत्य है, नाम समाज सत्य/नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है, आधुनिक शिक्षित लोग जिसे सोशल सैंक्सन कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत , इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि मानव की चित्त गंगा में स्नात।

प्रसंग- हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखे गये निबन्ध ‘कुटज’ से उद्धृत इन पंक्तियों में रूप और नाम, पद और पदार्थ, सापेक्षित महत्व की चर्चा करते हुए दोनों का अन्तर बताता है तथा कहता है कि नाम रूप से इसलिये बड़ा है कि उसे व्यक्ति नहीं समाज, जन-समूह स्वीकृति प्रदान करता है। सब लोग ‘गुलाब’ को गुलाब कहते हैं, भले ही वह किसी को गन्ध के कारण अच्छा लगे या काटो के कारण कोई उससे दूर भागता हो। लेखक पौधे को पहचानने के बाद भी उसका नाम याद न आने के कारण परेशान है और चाहता है कि उसे नाम याद आ जाये जिसके द्वारा सारा समाज उसे पुकारता है।

व्याख्या- नाम के अपने आप में कोई महत्व नहीं है। नाम अच्छा हो या बुरा, गोबर हो या गणेश, व्यक्ति तो वही रहता है, उससे उसके चरित्र, व्यक्तित्व, प्रतिष्ठा में कोई अन्तर नहीं आता। फिर नाम का महत्व क्यों है? लोग नाम को महत्व क्यों देते हैं? इसका कारण यह है कि उसके पीछे समाज की स्वीकृति होती है। नामकरण संस्कार के समय जो नाम व्यक्ति को दिया जाता है, उसे ही सब स्वीकार करते हैं। हाई-स्कूल या माध्यमिक परीक्षा के प्रमाण-पत्र मे जो नाम लिखा होता है, वही जीवन-भर रहता है। गुलाब को लोग गुलाब, नीम, बबूल और आम को आम ही कहते हैं। बबूल को आम कहने वाला अन्धा या पागल ही कहा जाता है। किसी वस्तु या व्यक्ति का रूपाकार एक को प्रिय और दूसरे को अप्रिय लग सकता है सौन्दर्य की कसौटी अलग-अलग देशों और जातियों में अलग-अलग होती है। हमारे यहाँ काले केश सुन्दर माने जाते हैं तो यूरोप में स्वर्णिम रंग के, हमारे यहाँ काली पुतली सौन्दर्य की निशानी है तो यूरोप मे नीली पुतली। अतः रूप का सम्बन्ध व्यक्ति से है पर नाम का सम्बन्ध समाज से है। जिसे समाज ने एक बार कमल घोषित कर दिया सब कमल ही कहेंगे। उसे केतकी कहने वाला उपहास का पात्र बनेगा। समाज की मुहर लगने पर शताब्दियों सहस्त्राब्दियों तक वह नाम चलता है। राम, कृष्ण आज भी राम और कृष्ण हैं। रावण और कंस भी अमर हैं, अमिट है। आजकल के अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग इसी सामाजिक स्वीकृति को ‘सोशल सैक्शन’ कहते हैं अर्थात् समाज द्वारा अनुमति प्राप्त। लेखक कहता है- इस ठिगने, चौड़े पत्ते वाले, फूलों से लदे पौधे (कुटज) को देखकर मैं इसका नाम याद करने की चेष्टा कर रहा हूं, वह नाम जो समाज के लोगों ने इसे दिया था, जो समाज में प्रचलित है तथा जिसके द्वारा सब इस पौधे को पुकारते हैं। इतिहास, पुराण, साहित्य में जिस नाम के द्वारा इसका वर्णन किया गया है और इसकी विशेषताएं बतायी गयी हैं। वह नाम जो मानव जाति के चित्त मे स्थाई रूप से बसा है और जिसकी पवित्रता पर उसे बदलकर या बिगाड़कर व इस कलुषित, दूषित या विकृत नहीं करना चाहता। पीढ़ियों द्वारा प्रयुक्त नाम को याद करने के लिए लेखक व्याकुल है।

विशेष- (1) छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग कर विषय को सुबोध बनाया है। (2) उर्दू तथा अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर विषय को सुबोध बनाया है। (3) उर्दू तथा अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से बात और भी स्पष्ट तथा प्रभावी हो गई। (4) तर्क शैली तथा आत्मपरक अभिव्यक्ति है।

  1. शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मुस्कराते हुए ये वृक्ष द्वन्द्वतीत हैं, अलमस्त हैं। मैं किसी का नाम नहीं जानता, कुल नहीं जानता, शील नहीं जानता पर लगता है, ये जैसे मुझे अनादिकाल से जानते हैं। इन्हीं में एक छोटा-सा बहुत ही ठिंगना- पेड़ है, पत्ते चौड़े भी हैं। बड़े भी हैं। फूलों से तो ऐसा लदा है कि कुछ पूछिए नहीं। अजीब-सी अदा है मुस्कुराता जान पड़ता है। लगता है, पूछ रहा है कि क्या तुम मुझे भी नहीं पहचानते ? पहचानता तो हूँ, अवश्य पहचानता हूँ। लगता है, बहुत बार देख चुका हूँ। पहचानता हूँ। उजाड़ के साथी, तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ। नाम भूल रहा हूँ।

संप्रसग व्याख्या- प्रस्तुत गद्यावतरण आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘कुटज’ नामक निबन्ध से अवतरित है। कुटज का वर्णन करते हुए लेखक कहता है- शिवालिक की नीरस और शुष्क पहाड़ियों पर खड़े हुए अनेक प्रकार के वृक्ष पुष्पों से सुसज्जित ऐसे लगते हैं मानो मुस्करा रहे हों। वे अपनी मस्ती में झूमते हुए लगते हैं मानों संसार के झगड़ों से इन्हें कुछ लेना-देना न हो। मानो वे वीतराग हों। इनमें से किसी का नाम जाति और कुलशील ज्ञात नहीं है फिर भी ऐसा प्रतीत होता है मानो उनसे जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध हो और वे अनादिकाल से परिचित हों। इन बहुत से वृक्षों में एक छोटा-सा वृक्ष भी है जिसके पत्ते चौड़े और बड़े हैं। वह फूलों से लदा है। ऐसा लगता है मानो मुस्कराकर बात करना चाह रहा हो।

लेखक आगे वर्णन करता है कि वह वृक्ष जाना-पहचाना लगता है। वह अनेक बार देखा भी गया है। परन्तु परिचय की प्रगाढ़ता होने पर भी वह नाम से विस्मृत हो रहा है। यद्धपि रूप देखकर नाम स्मरण हो जाता है, परन्तु ऐसा नहीं हो रहा है। वृक्ष सामने है, परन्तु उसका नाम याद नहीं हो रहा है। पद के होते हुए उसका अर्थ नहीं आ रहा है अन्त में इस प्रकार सोचते-सोचते लेखक मन से व्याकुल हो उठता है।

विशेष-

(i) कुटज के जन्म स्थान का उल्लेख।

(ii) छोटे-छोटे वाक्यों में सहज सरल भाषा।

(iii) भावात्मक शैली।

(iv) कुटज का मानवीकरण।

(v) तार्किक विवेचन।

  1. याज्ञवल्क्य ने जो बात धक्कामार ढंग से कह दी थी, वह अन्तिम नहीं थी। वे ‘आत्मनः’ का अर्थ कुछ और बड़ा करना चाहते थे। व्यक्ति का ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक ही सीमित नहीं है, वह व्यापक है। अपने में सब और सब में आप- इस प्रकार की एक समष्टि बुद्धि जब तक नहीं आती, तब तक पूर्ण सुख का आनन्द भी नहीं मिलता। अपने आपको दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब ‘सर्व’ के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता, तब तक ‘स्वार्थ’ खण्ड-सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय- कृपण बना देता है। कार्पण्य दोष से जिसका स्वभाव उपहत हो गया है, उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है, वह स्वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है।

सप्रसंग व्याख्या- प्रस्तुत गद्य-खण्ड हमारी पाठ्य पुस्तक में उद्धत ‘कुटज’ नामक निबन्ध से अवतरित है। इसके लेखक डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी हैं। लेखक याज्ञवल्क्य के उपदेश ‘आत्म वस्तु कामाय सर्वप्रियभवति’ के माध्यम से कहता है कि महर्षि ने जो बात कही थी उसके आत्मनः का अर्थ केवल अपने लिए नहीं है। इसमें अर्थ विस्तार है। वे आत्मनः के द्वारा कुछ और प्रकट करना चाहते थे। व्यक्ति की आत्मा केवल उसके अपने व्यक्तित्व तक ही नहीं सीमित होती अपितु यह एक व्यापक अर्थ लिये हुए है। अपने सबमें सबको समाहित करके देखना और सबमें अपना अस्तित्व ढूंढना ही ‘आत्मनः’ का आशय है। जब तक मानव में सामाजिक बोध नहीं होता और वह स्व के सीमित घेरे में बंद होता है तब तक उसका जीवन आनन्दमय नहीं होता। ‘स्व’ का ‘पर’ के लिए विसर्जन परिवर्तन ही सच्चा जीवन है। ‘स्व’ स्वार्थ का परित्याग ‘सर्व’ सबके लिए जब तक नहीं किया जाता तब तक जीवन एकांगी होता है। जिस प्रकार अंगूर स्वयं दलित होकर (आसव के रूप में) दूसरों को आनन्द प्रदान करता है उसी प्रकार मानव स्वार्थ को परित्याग कर जब तक परमार्थ के लिए न्यौछावा नहीं करता, तब तक उसके जीवन की वास्तविक सिद्धि नहीं होती । स्वार्थ द्वारा मोह का जन्म होता है और मोह से तृष्णा जागती है, जिससे मानव में मानवीय गुणों का अभाव होता है। इस दृष्टि से वह एक रूप में कृपण बन जाता है, उसकी दृष्टि धूमिल हो जाती है। वह साफ नहीं देख पाता। उसमें दृष्टि दोष उत्पन्न हो जाता है और वह स्वार्थ तथा परमार्थ की पहचान नहीं कर पाता।

विशेष – (i) ‘आत्मन’ की दार्शनिक व्याख्या। (ii) विश्लेषणात्मक शैली। (iii) ससह बोधगम्य भाषा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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