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भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है सन्दर्भः- प्रसंग- व्याख्या | भारन्तेन्दु हरिश्चन्द्र भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है

भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है सन्दर्भः प्रसंग- व्याख्या | भारन्तेन्दु हरिश्चन्द्र भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है

भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है

  1. हम नहीं समझते कि इनकों लाज भी क्यों नहीं आती कि उस सयम में जबकि इनके पुरखों के पास कोई भी सामान नहीं था तब लोगों ने जंगल में पत्ते और मिट्टी की कुटियों में बैठ करके बाँस की नालियों से जो ताराग्रह आदि वेध करके उनकी गति लिखी है वह ऐसी ठीक है कि सोलह लाख रुपये के लागत कि विलायत में जो दूरबीन बनी है उनसे उन ग्रहों को बेध करने में भी वही गति ठीक आती है और जब आज इस काल में हम लोगों को अंग्रेजी विद्या के और जनता की उन्नित से लाखों पुस्तकें और हजारों यंत्र तैयार हैं तब हम लोग निरी चुंगी के कतवार फेंकने की गाड़ी बच रहे हैं। यह समय ऐसा है कि उन्नति की मानो घुड़दौड़ हो रही है।

प्रसंग- भारतेन्दुजी ने लिखा है कि भारतवासी आलसी हो गए हैं। इस कारण भारत प्रगति की दौड़ में पिछड़ता जा रहा है। भारतवासियों ने अपने सुखमय और स्वर्णिम अतीत को भुला दिया है।

व्याख्या- भारतेन्दुजी कहते हैं कि मैं तो इस बात पर आश्चर्यचकित हूँ कि भारतवासियों अपनी वर्तमान दुर्दशा पर लज्जा क्यों नहीं आती। प्राचीनकाल में जब भारतीयों के पास विकास के  पर्याप्त साधन नहीं थे, उन्होंने अअपने ज्ञान और बुद्धि के बल पर अपने जीवन को सुखमय और उन्न बनाने का  प्रयास किया था। साधनहीनता की स्थिति में भी उन्होंने नक्षत्र-विज्ञान की खोज की तथा समय की गति के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। आज विदेशों में मूल्यवान् दूरवीक्षण यन्त्र बनाए गये हैं और उनके सहयोग के नक्षत्र-समूहों की गति परखी जा रही है, किन्तु भारतीयों द्वारा बनाए गये प्राचीन सिद्धान्तों में आज कोई परिवर्तन नहीं आया है। इसका कारण यह है कि हमारे पूर्वजों की जीवन में अकर्मण्यता नहीं थी। आज जबकि हम अंग्रेजी विद्या पढ़ रहे हैं, ज्ञान-विज्ञान पर आधारित अनेक प्रकार की पुस्तकों की रचना की जा चुकी है तथा विविध प्रकार के उपयोगी यन्त्र भी निर्मित किये गये हैं, ऐसी स्थिति में हम अनुपयोगी गाड़ी के समान तुच्छ हो गये हैं और हर क्षेत्र में विदेशियों पर आश्रित हैं।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) प्रस्तुत पंक्तियाँ अतीत के गौरव का भावात्मक चित्र प्रस्तुत करते हुए राष्ट्रीय एंव सांस्कृतिक चेतना को जागृत करती हैं। (2) लेखक ने भारतीयों के आत्मगौरव को जागृत करने के लिए प्रभावशाली व्यंग्य का प्रयोग किया है। (3) भारतीयों को कूड़ा फेकनेवाली गाड़ी की उपमा देते हुए उनके राष्ट्रीय गौरव को जगाने का प्रयास किया गया है। (4) भाषा- सरल एवं प्रभावपूर्ण। (5) शैली- भावात्मक एवं लाक्षणिक ।

  1. इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाय वही बहुत है। हमारे हिन्दुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं। यद्धपि फर्स्ट क्लास, सेकेण्ड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी हैं पर बिना इंजन सब नहीं चल सकती, वैसे ही हिन्दुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए का चुप साधि रहा बलवाना’ फिर देखिए हनुमान जी को अपना बल कैसे याद आता है। सो बल कौन याद दिलावे।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित “भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती हैं?’ निबन्ध से अवतरित हैं।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में भारतेन्दुजी ने भारतवासियों के आलस्य की चर्चा की है। उनके अनुसार भारतवासी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि उन्होंने केवल अनुगमन और अनुसरण को ही अपना लक्ष्य बनाया हुआ है।

व्याख्या- भारतेन्दुजी कहते हैं कि यह भारत का महान् दुर्भाग्य है कि यहाँ के निवासी (भारतीय) अत्यन्त आलसी हैं। इस आलसी स्वभाव के कारण ही हम उन्नति नहीं कर पा रहे हैं। यही हमारे पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है। वास्तव में भारतीयों को रेलगाड़ी के डिब्बों की संज्ञा दी जा सकती है। जिस प्रकार रेलगाड़ी में अच्छे से अच्छे और मूल्यवान् डिब्बे लगे रहने पर भी वे इंजन के अभाव में एक ही स्थान पर खड़े रहते हैं, उनमें गति उत्पन्न नहीं होती, उसी प्रकार भारतवासी विद्वान् भी है और शक्तिशाली भी, परन्तु उन्हें सही नेतृत्व नहीं मिलता। यदि उन्हें सही नेतृत्व मिल जाए तो वे बड़े से बड़ा कार्य कर सकते हैं। भारतीयों को इस बात की आवश्यकता है। कि कोई उन्हें उनके बल और पौरुष का स्मरण कराए और उनसे कहे कि कर्त्तव्य मार्ग पर आगे बढ़ो, मौन साधे क्यों खड़े हुए हो। इसके बाद उन्हें अपने बल का स्मरण उसी प्रकार हो जाएगा, जिस प्रकार जाम्बवान द्वारा याद दिलाए जाने पर हनुमानजी को अपने बल और शक्ति का स्मरण हो आया था। समस्या तो सही नेतृत्व की है। इसलिए भारतीयों को ऐसे नेता की आवश्यकता है, जो उनके बल और पौरुष का स्मरण कराकर उन्हें कर्त्तव्य मार्ग की ओर अग्रसर करे।

साहित्यिक सौन्दर्य (1) लेखक ने ‘श्रीरामचरितमानस’ की पंक्ति का ‘का चुप साधि रहा बलवाना’ का बड़ा ही सटीक प्रयोग किया है। (2) भारतवासियों की उपमा रेलगाड़ी से देकर स्थिति की बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की गई है। (3) इन पंक्तियों में सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग कर देशप्रेम की भावना से परिपूर्ण अभिव्यक्ति की गई हैं। (4) भाषा अन्य भाषाओं के शब्दों से युक्त, सरल, सरस, प्रवाहपूर्ण एवं मुहावरेदार (5) शैली- उद्धरण।

  1. हाय, अफसोस, तुम ऐसे हो गये कि अपने निज की काम की वस्तु भी नहीं बनासकते। भाइयों, अब तो नींद से चौंको, अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी ही बातचीत करो। परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा मत रखो। अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करों।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में भारतेन्दुजी ने भारतीयों में स्वदेशी की भावना विकसित करने पर वल दिया है। छोटे-छोटे प्रगतिशील देशों की कर्मठता एवं आत्मनिर्भरता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लेखक ने भारतीयों को भी इस दिशा में सचेष्ट होने के लिए प्रेरित किया है।

व्याख्या- भारतेन्दुजी भारतीयों में समाप्त होती जा रही स्वावलम्बन की भावना से व्याकुल होकर कहते हैं कि यह अत्यन्त खेद की बात है कि आज भारत के लोग इतने अकर्मण्य, मजबूर और परावलम्बी हो गए हैं कि वे अपनी दैनिक उपयोग की वस्तुओं का निर्माण भी स्वयं नहीं कर सकते और विदेशी वस्तुओं पर निर्भर रहते हैं। वे भारतीयों में चेतना उत्पन्न करने हेतु उन्हें यह अनुभूत कराते हैं कि वे अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक पीछे रह गए हैं और अज्ञानता के कारण उनकी चेतना सुप्त हो गई है। भारतेन्दुजी देशवासियों का आह्यान करते हुए कहते हैं कि वे अपनी अज्ञानता की नींद से अब जाग जाएँ और प्रत्येक दृष्टि से अपने देश की उन्नति से संलग्न हो जाएँ, ताकि राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाया जा सके और हमें किसी अन्य देश पर निर्भर न रहना पड़े। लेकिन यह तभी सम्भव है, जब प्रत्येक भारतीय अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा का परिचय दे। भारतीयों को केवल उन्हीं पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए, जो उनके लिए कल्याणकारी सिद्ध हो। उन्हें अन्धानुकरण करने के स्थान पर खेल खेलने चाहिए, जो स्वास्थ्यवर्द्धक हो तथा परस्पर वही बातें करनी चाहिए, जो उनके नैतिक उत्थान में सहायक हो और किसी की भावनाओं को पीड़ा न पहुँचाती हो। इसके अतिरिक्त यह परम आवश्यक है कि विदेशी भाषा के प्रति भारतीयों को अपना मोह त्यागना पड़ेगा, क्योंकि किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए अपनी भाषा तथा अपने राष्ट्र में ही निर्मित वस्तुओं का उपयोग अत्याश्यक है। इसीलिए अपने देश को स्वावलम्बी राष्ट्र के रूप में प्रगतिशील बनाने के लिए स्वदेशी वस्तुओं और अपने ही देश की भाषा का प्रयोग करना होगा।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) भारतीयों को अपनी सुप्त चेतना को जागृत कर स्वावलम्बी बनने की दिशा में प्रेरित किया गया है। (2) भाषा- सरल, सुबोध, व्यंग्यात्मक एवं प्रवाहपूर्ण है तथा उर्दु भाषा के साथ-साथ आंचलिक शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। (3) शैली- भावात्मक।

  1. जो लोग……………… फेंक दो।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत भारतीयों को देश के विकास में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए बलिदान और त्याग की प्रेरणा दी है।

व्याख्या- लेखक के अनुसार मनुष्य जिस देश या समाज में जन्म लेता है, यदि उनकी उन्नति में समुचित सहयोग नहीं देता तो उसका जन्म व्यर्थ है। देश-प्रेम की भावना ही मनुष्य को बलिदान और त्याग की प्रेरणा देती है। मनुष्य जिस भूमि पर जन्म लेता है और अपना विकास करता है, उसके प्रति प्रेम की भावना का उसके जीवन में सर्वोच्च स्थान होता है। जिन मनुष्यों में राष्ट्र के प्रति विशेष अनुराग होता है, उन्हें अपना सब कुछ बलिदान करते हुए राष्ट्र के विकास में आने वाली बाधाओं को जड़ से उखाड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। अपनी कमियों को दूर करते हुए राष्ट्रविरोधी षड्यन्त्रकारियों को परास्त कर दें। जो बातें देश की उन्नति में अवरोध बने उन्हें समूल नष्ट करते हुए देश को विकास के मार्ग पर अग्रसर करे।

साहित्यिक सौन्दर्य (1) प्रस्तु गद्यावतरण में लेखक ने भारत की उन्नति के लिए देशवासियों को बलिदान और त्याग की प्रेरणा दी है। (2) देश के विकास में आने वाली बाधाओं को जड़ से उखाड़ने का सुझाव दिया है। (3) भाषा- सरल एवं प्रवाहपूर्ण। (4) शैली- भावात्मक।

  1. यह समय……………ऐसा कहना चाहिए।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में भारतेन्दुजी ने भारतवर्ष की उन्नति के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। वर्तमान समय में प्रत्येक देश उन्नति के मार्ग पर अग्रसर है। छोटे-छोटे देश की कर्मठता का परिचय देते हुए अपने विकास में लगे है। ऐसे समय में भारतवर्ष को भी अपनी उन्नति का पूरा प्रयास करना चाहिए। किन्तु हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अपने देश के विकास की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। इसी प्रसंग में भारतेन्दुजी ने आगे लिखा है-

व्याख्या- इस वैज्ञानिक युग में जबकि उन्नति की दिशा में बढ़ना सभी के लिए बहुत सरल है, अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि प्रत्येक विकसित देश के नागरिक अपनी-अपनी उन्नति के लिए प्रयासरत हैं। यहाँ तक कि जापानी भी जो अधिक शक्तिशाली नहीं होते, अपनी उन्नति के लिए प्रयत्नशील हैं, क्योंकि शारीरिक दुर्बलता के होते हुए भी उनमें मानसिक साहस का अभाव नहीं है। विकास की इस दौड़ में यदि कोई देश एक बार पिछड़ जाएगा तो फिर वह आगे नहीं बढ़ सकता और विकास के अभाव में आन्तरिक कलह, गरीबी तथा असमानता के संघर्ष में ही अपनी ऊर्जा नष्ट कर देगा। लेखक का मत है कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में उन्नति के साधन इतनी सरलता से उपलब्ध हैं जैसे कि वे अनायास प्राप्त वर्षा का जल हो, किन्तु भारतवर्ष के लोग इतने अभागे एवं अज्ञानी हैं कि वे उन्नति के लिए उपलब्ध इन साधनों का उपयोग ही नहीं कर पा रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो लूट का माल बिखरा पड़ा हो और हमने आँखों पर पट्टी बाँध रखी हो अथवा वर्ष हो रही हो और हमने सिर पर छाता लगा रखा हो। जिस प्रकार आँखों पर पट्टी बाँधनेवाला लूट के माल को प्राप्त नहीं कर सकता और वर्षा में छाता लगाकर चलनेवाला वर्षा के जल का आनन्द नहीं उठा सकता, उसी प्रकार भारतवर्ष के लोग आलस्य अथवा अज्ञानवश उन्नति के सुलभ साधनों का न तो उपयोग कर पा रहे हैं और न हीं उन्हें उपलब्ध कर पा रहे हैं।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) प्रस्तुत अवतरण में भारत की उन्नति के लिए भारतेन्दुजी के हृदय की छटपटाहट द्रष्टव्य है। (2) भारतेन्दुजी ने कलात्मक ढंग से भारतवासियों को उनके पिछड़ेपन के लिए फटकार लगायी है। तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग हुआ है। (3) शैली-प्रतीकात्मक।

  1. ये सब तो समाज धर्म हैं। जो देश काल के अनुसार शोधे और बदले जा सकते हैं। दूसरी खराबी यह हुई है कि उन्हीं महात्मा बुद्धिमान ऋषियों के वंश के लोगों ने अपने बाप दादों का मतलब न समझकर बहुत से नये-नये धर्म बनाकर शास्त्रों में धर दिये। बस सभी तिथि व्रत और सभी स्थान तीर्थ हो गये। सो इन बातों को अब एक बेर आँख खोलकर देखकर समझ लीजिए कि फलानी बात उन बुद्धिमान ऋषियों ने क्यों बनायी और उनमें जो देश और काल के अनुकूल और उपकारी हों उनको ग्रहण कीजिए। बहुत सी बातें जो समाज विरुद्ध मानी जाती हैं किन्तु धर्मशास्त्रों में जिनका विधान है उनको चलाइए।

प्रसंग- भारतेन्दुजी ने स्पष्ट किया है कि भारतीय धर्मों से रूढ़ियों और अन्धविश्वासों ने प्रवेश कर लिया है। लोगों ने धर्म के वास्तविक अर्थ को नहीं समझा और इस बात पर भी विचार नहीं किया कि हमारे पूर्वजों ने विभिन्न कर्मकाण्डों की रचना क्यों की। लेखक का मत है कि आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार धर्म के रूप में भी परिवर्तन किया जाना चाहिए।

व्याख्या- भारतेन्दुजी कहते हैं कि विभिन्न पर्व, त्योहार, व्रत तथा अन्य रीति-रिवाज आदि सामाजिक धर्म कहलाते हैं। हमारे पूर्वजों ने इनकी रचना समाज के उत्थान के लिए की थी, बन्धन और अन्धविश्वास के लिए नहीं। इनके द्वारा प्रवृत्तियों सद्भाव की वृद्धि होती है। इसी कारण ये उत्सव प्रतिवर्ष धूमधाम के साथ मनाए जाते हैं। इनमें से अनेक सामाजिक धर्म रूढ़िवादी प्रवृत्तियों से ग्रस्त हो गए हैं। समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार उनमें परिवर्तन होने चाहिए। हमारे बुद्धिमान ऋषियों और मुनियों ने समाजोत्थान के लिए अनेक प्रकार के नियम बनाए थे, किन्तु आज उनकी सन्तानों ने उस नियमों में अनेक प्रकार के पाखण्ड और प्रपंच जोड़ दिए हैं।

इसका कारण यह है कि कुछ लोगों ने अपने पूर्वजों के आशय को ठीक-ठीक नहीं समझते और न ही समझने का प्रयास किया। उन्होंने सभी तिथियों को व्रत और सभी स्थानों को तीर्थ बनाकर देशवासियों को भ्रमित किया है। यदि हम इन कुरीतियों से बचना चाहते हैं तो हमें सतर्कता के साथ वास्तविकता को पहचानना होगा और यह भी समझा होगा कि हमारे पूर्वजों ने इन धार्मिक नियमों को किसलिए बनाया तथा वे कब और कैसे हमारे लिए सार्थक सिद्ध हो सकते हैं। हमारा कर्त्तव्य है कि हम केवल उन्हीं नियमों को स्वीकार करे, जो स्थान और समय के अनुसार हमारे नये उपयोगी एवं अनुकूल हों। उनके साथ ही प्राचीन धर्म और समाज पर आधारित कुल लाभदायक बातों को भी अपने जीवन में अपनाना चाहिए, चाहे समाज उनका विरोध ही क्यों न करता हो ।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) इन पंक्तियों ने आलोचनात्मक एवं उपदेशात्मक भाव निहित हैं। (2) समाज की धार्मिक रूढ़ियों पर तीव्र कटाक्ष किया गया है। (3) भाषा- सरल भाषा एवं मुहावरों के प्रयोग से वक्तव्य में प्रवाह उत्पन्न किया गया है। (4) शैली- भावात्मक।

  1. अपने लड़कों को ऐसी किताबें छूने भी मत दो। अच्छी से अच्छी तालीम दो। पिनशन और वजीफा या नौकरी का भरोसा छोड़ो। लड़कों को रोजगार सिखलाओ। विलायत भेजो। छोटेपन से मेहनत करने की आदत दिलाओं। सौ- सौ महलों के लाड़ प्यार दुनिया से बेखबर रहने की राह मत दिखलाओ। भाई हिन्दुओ! तुम भी मतमतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जप करें। जो हिन्दुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग किसी जाति का क्यों न हो, वह हिन्दू । हिन्दू की सहायता करो। बंगाली, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन ब्राह्मी, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरो जिसमें तुम्हारे यहाँ बढ़े, तुम्हारा रूपया तुम्हारे ही देश में रहे वह करो। देखो, जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली है, वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इंग्लैण्ड, फ्रांसीसी, जर्मनी, अमेरिका को जाती है। दीआसलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती हैं।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश भारतेन्दु द्वारा रचित “भारत वर्षोन्न्ति कैसे हो सकती है नामक निबन्ध से लिया गया है।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में ‘उन्नति’ करने के कुछ उपायों का वर्णन करते हुए श्री भारतेन्दु जी कहते हैं-

व्याख्या- हमें अपनी उन्नति करने के लिए अपने बालकों को श्रेष्ठ शिक्षा देनी चाहिए और पेंशन, छात्रवृत्ति तथा नौकरी की आशा छोड़कर इन्हें व्यापार और उद्योगों की ओर प्रेरित करना चाहिए। इस कार्य के लिए हमें उन्हें विदेश भेजने में भी नहीं हिचकना चाहिए। उनमें बचपन से ही परिश्रम करने की आदत डालनी चाहिए। हमें प्रान्तीय धार्मिक, साम्प्रदायिक तथा जातीय भेदभावों को भुलाकर एक हो जाना चाहिए। हमें ऐसे सभी कार्यो, कलापों तथा उद्योगों को करने में लग जाना चाहिए जिनसे हमारे देश की धन सम्पत्ति देश में ही बनी रहे।

जिस प्रकार गंगा का पानी हजारों धाराओं के माध्यम से समुद्र में चला जाता है उसी प्रकार आज देश की धन सम्पत्ति हजारों प्रकार से इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस आदि देशों को चली जाती है। आज हमारी दशा इतनी हीन हो गई है कि हमें दियासलाई जैसी छोटी चीज के लिए भी विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है। हमें प्रयत्नपूर्वक इस दशा को दूर करने में लग जाना चाहिए।

  1. अबकी चढ़ी इस समय में सरकार का राज्य पाकर और उन्नति का इतना समय भी तुम लोग अपने को न सुधारो तो तुम्हीं रहों और वह सुधारना भी ऐसा होना चाहिए कि सब बात में उन्नति हो। धर्म में, घर के काम में, बाहर के काम में, रोजगार में, शिष्टाचार में, चाल-चलन में, शरीर के बल में, मन के बल में, समाज में, बालक में, युवा में, वृद्ध में, स्त्री में, पुरूष में, अमीर में, गरीब में, भारतवर्ष की सब अवस्था, सब जाति सब देश में उन्नति करो। सब ऐसी बातों को छोड़ो जो तुम्हारे इस पथ के कंटक हों, चाहें तुम्हें लोग निकम्मा कहें या नंगा कहें, कृस्तान कहें या भ्रष्ट कहें। तुम केवल अपने देश की दीनदशा को देखों और उनकी बात मत सुनों।

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश भारतेन्दु द्वारा लिखित ‘भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है?’ से लिया गया है।

प्रसंग- देश की उन्नति के लिए उसका सब क्षेत्रों में विकास होना आवश्यक है। प्रस्तुत अवतरण में भारतेन्दु जी भारतवासियों को सर्वांगीण विकास के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं-

व्याख्या- हम भारतीयों को धर्म, गृह, बाह्य व्यापार, शिष्टाचार, सदाचार शरीर समाज आदि के क्षेत्रों में तथा बल-वृद्ध, युवा, स्त्री-पुरुष, धनी-निर्धन आदि में उन्नति तथा समृद्ध लाने का प्रयत्न करना चाहिए। हमें ऐसे सभी कार्यों तथा आचरणों को छोड़ देना चाहिए, जो हमारी उन्नति में बाधक हैं। चाहें ऐसा करने में हमें कोई आलसी, नंगा ईसाई अथवा भ्रष्ट क्यों न कहें। हमें तो केवल अपने देश की उन्नति की चिन्ता करनी चाहिए।

  1. चारों ओर आँख उठाकर देखिए तो बिना काम करनेवालों की ही चारों ओर बढ़ती है। रोजगार कहीं कुछ भी नहीं है। अमीरों की मुसाहबी, दलाली या अमीरों के नौजवान लड़कों को खराब करना या किसी की जमा मार लेना, इनके सिवा बतलाइए और कौन रोजगार है जिससे कुछ रुपया मिले। चारों ओर दरिद्रता की आग लगी हुई है। किसी ने बहुत ठीक कहा है कि दरिद्र कुटुम्ब इसी तरह अपनी इज्जत को बचाता फिरता है जैसे लाजवंती कुल की बहू फटे कपड़ों में अपने अंग को छिपाए जाती है। वही दशा हिन्दुस्तान की है।

संदर्भ- प्रस्तुत गद्यांश भारतेन्दु द्वारा रचित निबन्ध ‘भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ से लिया गया है।

प्रसंग- आलस्य का त्यागकर एक-एक क्षण का सदुपयोग करके उत्पादन वृद्धि हेतु कठिन परिश्रम की प्रेरणा इन पंक्तियों में लेखक ने दी है।

व्याख्या- जब हम अपने देशवासियों की ओर देखते हैं, तब हमें ज्ञात होता है कि यहाँ की बहुसंख्यक जनता के पास करने के लिए कोई काम नहीं है, अतः वहाँ सर्वत्र गरीबी फैली हुई है। गरीबी के कारण यहाँ के कुटुम्बियों को अपने सम्मान की रक्षा करना भी कठिन हो रहा है। जिस प्रकार कोई लज्जाशील नारी अपने कपड़ों के फटे होने के कारण अपने शरीर को छुपाने या ढकने का व्यर्थ प्रयास करती है वही हालत इस देश की है।

जनगणना की रिपोर्ट देखने से ज्ञात होता है कि इस देश की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और धन संपत्ति कम होती जा रही अतः हमें उन सभी उपायों को करना होगा, जो देश की धन सम्पत्ति बढ़ाने में सहायक हों। यह कार्य बुद्धि वैभव को बढ़ाये बिना किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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