अमरकांत की कहानी-कला | राष्ट्रीय चेतना और जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नई
अमरकांत की कहानी-कला | राष्ट्रीय चेतना और जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नई
अमरकांत की कहानी-कला
अमरकांत को प्रेमचंद की परंपरा का सच्चा उत्तराधिकारी माना जाता है। प्रेमचंद के समान ये भी सीधे जन-सामान्य से जुड़े हुए कलाकार हैं। इन्होंने अपनी कहानियों में मध्य वर्ग के व्यक्ति की पीड़ा, लाचारी और जिजीविषा कोपूरी शक्ति के साथ चित्रित किया है। वस्तुतः स्वाधीनता के बाद भारतरीय समाज में उपलब्ध अंतर्विरोधों का जितना सजीव चित्रण अमरकांत ने किया है, वह हिंदी- साहित्य में बेजोड़ है।
हर शोषित और पीड़ित व्यक्ति को इन्होंने अपनीपूर्ण सहानुभूति दी है। समय-समय पर जन्मते-मरते कहानी-आंदोलनों से अलग रहकर अमरकांत अपने निकट के जीवन के यथार्थ को कहानी में अभिव्यक्ति दे हैं। इनकी कहानियों की भाषा सहज, सरल और स्पष्ट है। कहानी में नाटकीय मोड़ और चरमावस्था की परवाह किये बिना ये अपनी कहानियों को सहज अंत देना ही पसंद करते हैं। अमरकांत अधिक न कहकर संकेतों में बात करना पसंद करते हैं। व्यंग्यात्मकता इनकी कहानियों की प्रमुख विशेषता है। करारे और चुभते व्यंग्य तथा मीठी-मीठी चुटकियाँ इनकी कहानी- कला को विशिष्टता प्रदान करते हैं। कहानी तत्वों के आधार पर अमरकांत की कहानियों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
- कथानक या कथावस्तु- अमरकांत की कहानियों की विषयवस्तु अत्यधिक सरल और सुस्पष्ट है। उनकी कहानियों के कथानकों में किसी प्रकार की जटिलता, बोझिलपन या अतिविशिष्टता नहीं है। उनकी कहानियों की कथावस्तु किसीप्रकार की आँचलिकता या घोर यथार्थवाद से कोसों दूर है। इनकी कहानियों में जीवन की विद्रुपता और विसंगति का अधिक भावपूर्ण चित्रण प्रस्तुत हुआ है। इस प्रकार से अमरकांत की कहानियाँ एक पारदर्शी जीवनी-दृष्टि को प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। वे एक निश्चित मनोदशा को इस प्रकार से चित्रित करते हैं कि उसमें किसी प्रकार से कोई भद्दापन या नग्नता के रूप में सामने नहीं आते हैं।
- पात्र और चरित्र-चित्रण- अमरकांत जी कुशल चित्रकार एवं शिल्पकार हैं। पात्र की स्थिति, उसका मनोविज्ञान, समाज और पात्र का पारस्परिक संबंध और व्यक्तित्व की विवशता एवं निरीहता का अंकन कर पाठकों के हृदय में उनके प्रति सहानुभूति उत्पन्न करना ही अमरकांत की कहानियों का लक्ष्य रहता है।
- देशकाल या वातावरण- अमरकांत ने जीवन और वातावरण को सूत्रवत जोड़कर अपनी कहानियों का सृजन किया है। उनकी कहानियों के परिवेश भारतीयता की मिसाल हैं।
राष्ट्रीय चेतना और जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नई’
हिंदी नाट्य परंपरा का यदि हम प्रारंभ से लेकर आज तक के इतिहास का अध्ययन करें तो हिंदी नाट्य लेखन पर एक आरोप बार-बार यह भी लगाया जाता है कि उनके कथ्यों में कितनी भी गहराई क्यों न मिलती हो, लेकिन उनका दायरा अत्यंत सीमित होता है। वह प्रायः स्त्री-पुरूष संबंधों, पारिवारिक कथ्यों और ज्यादा से ज्यादा से व्यक्ति और समाज के रिश्तों के आसपास सिमटकर रह जाता है। इन नाटकों में कभी भी राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय चेतना जैसे बड़े शाश्वत और सार्वकालिक सवालों को नहीं उठाया जाता। लेकिन इस स्थापना को एक अर्द्ध-सत्य के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है।
आधुनिक हिंदी नाट्य साहित्य के 150वर्षों से अधिक के इतिहासा पर दृष्टिपात करे तो हर दौर में जहाँ जीवन के तात्कालिक प्रश्नों औरसमस्याओं को नाटकों में कथ्य के स्तर पर समेटने की कोशिश है, वहीं राष्ट्रीय स्तर के सवाल भी नाटकों में अपने बराबर की पहचान बनाते रहे हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र के यहाँ यदि ‘विद्या सुंदर’, ‘चंद्रावली नाटिका’ और ‘सत्य हरिश्चंद्र’ जैसे चरित्र विशेष न टिकों की रचना मिलती है तो उसी के सामानान्तर ‘भारत दुर्दशा’, ‘नीलदेवी’ और ‘अंधेर नगरी’ जैसे नाटक भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिनका प्रमुख स्वर राष्ट्रीय चेतना है और वह भी हर बार एक नए रूप में। यूँ तो तीनों तत्कालीन अंग्रेजी शासन व्यवस्था के विरोधमें लिखे गए नाटक हैं लेकिन इनका दायरा मात्र विरोध तक सीमित रहकर उस प्रष्ट और विदेशी राजनीतिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा भी देता है।
बीसवीं शदी के प्रथम पच्चीस-तीस वर्षों में इसी राष्ट्रीय स्पर को नाटककार जयशंकर प्रसाद ने अपने सभी छोटे बड़े नाटकों में व्यापक स्तर पर उद्घाटित किया। भारतवासियों अपने वर्तमान को पहचानने, उसे बदलने की प्रेरणा देने और एक नई राज्य-व्यवस्था की प्रतिष्ठा करने के लिए वे अपने नाटकों के कथ्य भारत के स्वर्णिम अतीत से चुनकर लाए। ‘विशाख’, ‘अजातशत्रु’, ‘राज्यश्री’, ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कन्दगुप्त’ और ‘ध्वस्वामिनी’ जैसे नाटकों में शायद ही कोई ऐसा नाटक हो जो अतीत की गौरव-गाथा के माध्यम से वर्तमान राष्ट्रीय चेतना को रेखांकित न करता हो। यदि ‘आनंद मठ’ ने भारतीय समाज को वंदे मारतरम् जैसा राष्ट्रगान दिया तो जयशंकर प्रसाद ने भी अपने नाटक स्कंदगुप्त में ‘हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती’ जैसा पहला राष्ट्रगीत साहित्य, समाज और देश को समर्पित किया। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि हिंदी नाटकों में राष्ट्रीय चेतना के इस मूल स्वर के पीछे देश की आजादी के लिए किए जानेवाले संघर्ष, असहयोग और विद्रोह का भी कम योगदान नहीं था।
बीसवीं सदी के आगे पच्चीस वर्षों में रेडियो और फिल्म जैसे माध्यमों के आगमन ने इस चेतना के बहुमुखीी आयोमों और दिखाओं के द्वार खोल दिए। रेडियो में हरिकृष्ण प्रेमी, उदयशंकर, रामकुमार वर्मा जैसे सफल नाट्यलेखकों में छोटे-छोटे एकांकियों के रूप में राष्ट्रीय चेतना को उभारा तो फिल्मों में ‘पड़ोसी’, ‘डॉ० कोटनीस की अमर कहानी’, ‘आनंदमठ’, शहीद’ जैसी हिंदी फिल्में भी भुलाई नहीं जा सकती है। आजादी के बाद के पचास सालों में तो राष्ट्रीय चेतना बहुमुखी धाराओं में मुखरित होती दिखाई देती है। जगदीश चंद्र माथुर के ‘कोणार्क’ और ‘शारदीया’ में एक शिल्पी के प्रेम, कला और पीड़ा में अभिव्यक्ति पाती है। ज्ञानदेव अग्निहोत्री का नाटक ‘नेफा की एक शाम’ चीनी आक्रमण की पृष्ठभूमि में देश की समस्त जनता में फैली जागरूकता,, सजगता और चेतना कोप हचानने का बहुत सशक्त प्रयास है। इसी क्रम में हम असगरर वजाहत के नाटक ‘जिस लाहौर नहीं देख्या…’ का नाम ले सकते हैं, जिसमें प्रथम बार नाट्य विधा की दृष्टि से भारत-विभाजन की त्रासदी को कथ्य रूप में उठाया गया और हिंदू मुस्लिम दंगों और साम्प्रदायिक तनावों के बीच माई जैसे चरित्र के माध्यम से दोनों सम्प्रदायों को एक-दूसरे के नजदीक लाने का सफल प्रयास किया गया है।
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