वैदिक और लौकिक संस्कृत का नामकरण

प्राचीन भारतीय आर्य भाषा | वैदिक और लौकिक संस्कृत का नामकरण | वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में अन्तर

प्राचीन भारतीय आर्य भाषा | वैदिक और लौकिक संस्कृत का नामकरण | वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में अन्तर

प्राचीन भारतीय आर्य-भाषा-

प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का समय भाषा- विज्ञानवेत्ताओं ने आर्यों के भारत प्रवेश से 500 ई0पू0 तक माना है। इस युग की भाषा संस्कृत कहलाती है। इसके दो रूप उपलब्ध होते हैं-

(1) वैदिक संस्कृत (Vedic Sanskrit) तथा

(2) लौकिक संस्कृत (Classical Sanskrit)।

वैदिक और लौकिक संस्कृत का नामकरण-

वैदिक संस्कृत के विषय में सामान्य जनों को भ्रम है कि वेदों की भाषा वही संस्कृत है जिसमें पुराणों तथा परवर्ती साहित्य की रचना हुई है। वेदों की भाषा को सुविधा के लिए संस्कृत कहा जाता है। वास्तव में वेदों की भाषा वैदिक भाषा है। उसी भाषा का संस्कार अर्थात् सुधार करके संस्कृत का निर्माण हुआ है। इस कारण इन दोनों भाषाओं के नामकरण पर विचार कर लेना आवश्यक है।

प्रो0 देवेन्द्रनाथ शर्मा ने लिखा है- “जिस भाषा में ऋग्वेद की रचना हुई है, वह बोलचाल की भाषा न होकर उस समय की परिनिष्ठित, साहित्यक भाषा थी। उसके समानान्तर लोक-भाषा भी रही होगी, किन्तु लिखित साहित्य के अभाव में उसे जानने का आज कोई साधन नहीं है। वैदिक भाषा से ही संस्कृत का विकास हुआ है। यों, एक मत यह भी है कि संस्कृत का विकास वैदिक के बदले तद्युगीन किसी बोली से हुआ है जो अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण बन गयी। संस्कृत शब्द से वैदिक का भी बोध होता है, किन्तु उससे भेद दिखाने के लिए संस्कृत के पहले लौकिक विशेषण लगा दिया जाता है। संस्कृत उस समय की शिष्ट भाषा थी जो बोलचाल के अतिरिक्त साहित्य-रचना का भी माध्यम थी। उसमें अभिव्यंजना की कुछ ऐसी विशेषताएँ आ गयीं कि हजारों वर्षों के बाद आज भी वह अपना महत्त्व बनाये हुए हैं।”

वैदिक और लौकिक संस्कृत नामकरण के सम्बन्ध में डॉ0 मंगलदेव शास्त्री ने लिख है- ‘अनेक विद्वान् वेदों की भाषा को संस्कृत नाम देकर वैदिक भाषा ही कहते हैं भारतवर्ष में प्रायः वैदिक भाषा को ‘वैदिक संस्कृत’ और पिछली संस्कृत को ‘लौकिक संस्कृत’ कहा जाता है।

वैदिक भाषा और लौकिक संस्कृत

संस्कृत भाषा के लिए ‘संस्कृत’ शब्द का प्रयोग प्राचीन समय में नहीं किया जाता था। पाणिनि की ‘व्याकरण’ तथा ‘निरुक्त’ में “पूर्व तु भाषायाम् ” (अष्टाध्यायी 8/2/98), “नेकि प्रतिषेधार्थियों भाषायामुभयमन्वध्यायाम्” (निरुक्त 1/4), इत्यादि स्थलों में लौकिक संस्कृत के लिए ‘भाष’ शब्द का ही प्रयोग किया गया है। यहाँ ‘भाषा’ शब्द का अर्थ स्पष्टतः ‘बोलचाल अथवा दैनिक व्यवहार की भाषा’ है। व्याकरण-महाभाष्य में “केषाम् शब्दानाम् “। “लौकिकानाम् वैदिकानाम् च” (प्रथम आह्निक के प्रारम्भ में) इत्यादि स्थलो में ‘वैदिक’ तथा ‘लौकिक’ शब्दों से वैदिक संस्कृत तथा लौकिक संस्कृत का ही अभिप्राय स्पष्ट किया गया है।

इस प्रकार यास्क और पाणिनि से पूर्व की संस्कृत को वैदिक संस्कृत कहा जाता है और इनके अनन्तर काव्य, नाटक आदि में प्रयुक्त होने वाली संस्कृत भाषा को ‘लौकिक संस्कृत’ कहा जाता है।

वैदिक भाषा का प्राचीनम रूप ऋग्वेद में सुरक्षित है। इसका क्रमिक विकास संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों में हुआ था। उपनिषदों और सूत्रों की भाषा व्याकरण रूपों की सरलता के कारण संस्कृत के बहुत समीप है। पाणिनि ने ‘अष्टाध्यायी’ में आर्य-भाषा के विकसित रूप का ‘संस्कृत’ रूप प्रस्तुत किया, जिसे हम लौकिक संस्कृत कह सकते हैं।

लौकिक संस्कृत में वाल्यमीकीय रामायण, महाभारत आदि आर्ष महाकाव्यों, महाकवि भास के नाटकों और कालिदास के महाकाव्य एवं नाटकों की रचना उपलब्ध होती है।

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