भाषा विज्ञान

स्वन गुण | स्वन की सामान्य विशेषतायें

स्वन गुण | स्वन की सामान्य विशेषतायें

स्वन गुण

ध्वनियों की कुछ सामान्य विशेषतायें भी होती हैं। लय (स्वर-भेद), मात्रा, स्वराधात ऐसी ही विशेषतायें है। अनेक व्यक्ति ध्वनि विशेष का उच्चारण यद्यपि सामान्य रूप में करते हैं किन्तु उनमें सूक्ष्म भित्रता रहती है. इसका मुख्य ध्वनि का संघटन (structure) है। अनियों के उच्चारण में श्रवास के प्रयोग में भी भिन्नता होती है। इसलिए ध्वनियों की सामान्य रूप में न भी बदले लेकिन प्रत्येक के लय, सुर आदि में भेद हो जाता है। पहले कहा जा चुका है कि इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति अपने उच्चारण से ही पहचान लिया जाता है।

दूसरी विशेषता स्वराघात की है। प्रत्येक ध्वनि के उच्चारण में स्वतंत्रियों की झंकार अधिक या कम मात्रा में होती है। अधिक झंकार होने से स्वर ऊँचा होता है और कम शंकार से सुर नीचा होता है। स्वतंत्रियाँ यदि दीर्घाकार हैं तो इशंकार कम होती है। पुरुष की तंत्रियों स्त्रियों की अपेक्षा बड़ी होती हैं इसलिए उनका सुर स्त्रियों की अपेक्षा नीचा होता है। स्वर में तंत्रियों का योग होने के कारण तो गाने में बहुत अधिक व्यवहत होती हैं। अघोष व्यंजन की जगह संघोष व्यंजन भी गाने में अधिक सरल होते हैं। स्वर मंत्रियों के योग के साथ यदि स्वास जोर से एक बारगी बाहर फेंकी जाए तो उच्चारण एक प्रकार का होता है और सास को आरोह अवरोह के साथ निकलने में उच्चारण एक प्रकार का होता है। पहले प्रकार का उच्चारण बलात्मक स्वराघात और दूसरा गीसात्मक स्वराघात कहलाता है। बलात्मक स्वराघात में वास को निकालने में भेद हो जाते हैं। उच्चतम (highest, stress), उच्च (high); और निम्न (low) तीन भेद हैं। पहले का प्रयोग प्रायः भेद दिखाने के लिए, दूसरे का प्रयोग प्रत्येक शब्द के एक अक्षर पर और तीसरे का प्रयोग बड़े या समास शब्दों के एक या अधिक अक्षरों पर होता है। भारोपीय परिवार की आधुनिक भाषाएँ प्रायः बलात्मक स्वराघात का प्रयोग करती है। हिन्दी में भी बलात्मक स्वराघात का प्रयोग होता है। इसके कई रूप हैं। गीतात्मक स्वराघात के कई भेद होते हैं। चीनी भाषाएँ सुर भेदों में सबसे अधिक सम्पन्न हैं। चीनी की आदर्श विभाषा मन्दारी (Mandarin) के चार सुरभेद होते हैं। उच्च सम (high level), उच्च आरोह (high rising), निम्न आरोह (low rising) और निम्न अवरोह (low falling) जैसे ‘फू’ का पहले सुरभेद के अनुसार, मनुष्य, पति, दूसरे के अनुसार ‘धन’, ‘सुख’, तीसरे के अनुसार साधक और चौथे के अनुसार ‘धनी’ अर्थ होगा। इन्हीं चारों के उच्च और निम्न भेद के अनुसार कैन्टन के समीप फोकियन (Fokien) विभाषा में आठ सुरभेद होते हैं। इण्डोचीन की तई (Tai) में 10 सुरभेद होते हैं। अफ्रीका की भाषाओं में भी सुरभेद का प्रयोग मिलता है। होटेदांट में तीन सुरभेद बाँटू की दुआल विभाषा में भी तीन होते हैं। यथा ‘स्व’ का उच्च में में निम्न में ‘बादल’ और आरोह में जिमीकंद अर्थ होगा। वैदिक संस्कृत और ग्रीक में भी सुरभेद के उदाहरण मिलते हैं। भारोपीय परिवार की प्राचीन भाषाओं में गीतात्मक स्वराघात का प्रयोग होता था। संस्कृत में उदात, अनुदात्त और स्वरित, तीन मेद थे। उदात में उच्च अनुदात्त में निम्न और स्वरित में सम उच्चारण होता था। इनको चिह्नित भी किया जाता था। ग्रीक में ऐक्यूट (actue), ग्रेव (grave) और सरकमफ्लेक्स (circumflex) का भेद था। पहला उच्च, दूसरा निम्न और तीसरे में सम उच्चारण होता था। भारोपीय परिवार की आधुनिक लिथुएनी भाषा में गीतात्मक स्वाराधांत अब भी पाया जाता है।

गीतात्मक और बलात्मक स्वराघात एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न ही है। दोनों एक दूसरे से किसी अंश में सम्बन्धित भी हैं। सुर के साथ बलात्मक रूप का प्रयोग और बलात्मक के साथ सुर का प्रयोग हो सकता है। बलात्मक स्वराघात का प्रभाव ध्वनि परिवर्तन पर पड़ता है। शब्द के जिस स्वर पर यह होता है वह स्वर सुरक्षित रहता है और उसके आस-पास के स्वर जिन पर यह नहीं होता, उनका लोप या परिवर्तन हो जाता है अपश्रुति (ablaut) के उदाहरणों में इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसमें स्वरों के मात्रा और गुण सम्बन्धी (quantitaive and qualitative) दोनों प्रकार के परिवर्तन मिलते हैं आ। अ, जैसे काम से कमाई (कमाई)।

प्रत्येक ध्वनि के उच्चारण में कुछ समय लगता है। उच्चारण के समय की माप मात्रा (mora) के द्वारा की जाती है। इसका विभाजन ह्रस्व, दीर्घ आदि रूपों में किया जाता है। स्त, दीर्घ रूपों को चिह्नित करके दिखाया जाता है। अंग्रेजी में ह्रस्व के लिये कोई चिन्ह नहीं हैं, कुछ दीर्घ के लिये स्वर और व्यंजन के ध्वनि-चिह्न को बाद लिख दिये जाते है। जैसे पिक (Pick), पीक (Peak), हिन्दी में हस्व, दीर्घ आदि मात्राओं का प्रयोग होता है। संस्कृत में ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत तीन प्रकार की मात्राओं का विधान है। किन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि दीर्घ मात्रा में हस्व की अपेक्षा दुगुना समय लगता है और प्लुत में तिगुना या इससे कम अथवा अधिक। यह आवश्यक नहीं है कि विविध भाषाओं की मात्रा में समय की माप एक समान हो। एक भाषा में जो मात्रा दीर्घ है वही दूसरी भाषा में ह्रस्व हो सकती है। ह्रस्व और दीर्घ का भेद कभी-कभी सुनने पर भी निर्भर करता है। कोई स्वर ह्रस्व होते हुए भी अपनी विशेषता के कारण दीर्घ जान पड़ता है और दीर्घ ह्रस्व हो जाता है। पुकारने में शब्द के अन्तिम स्वर स्वर-भाग को श्वास के साथ देर तक उच्चरित किया जा सकता है। ऊष्म व्यंजन, श, ष, स भी इसी प्रकार कम या अधिक समय तक उच्चारित हो सकते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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