द्विवेदी युगीन गद्य साहित्य

द्विवेदी युगीन गद्य साहित्य | द्विवेदी युगीन पत्रकारिता | द्विवेदी युगीन काव्य को इतिवृत्तात्मक काव्य की संज्ञा क्यों दी जाती है?

द्विवेदी युगीन गद्य साहित्य | द्विवेदी युगीन पत्रकारिता | द्विवेदी युगीन काव्य को इतिवृत्तात्मक काव्य की संज्ञा क्यों दी जाती है?

द्विवेदी युगीन गद्य साहित्य

आधुनिक हिन्दी साहित्य का वास्तविक शुभारम्भ भारतेन्दु युग में स्वीकार किया जाता है किन्तु उस युग के साहित्य में वह प्रौदता एवं परिपक्कता नहीं है जो द्विवेदी युग में परिलक्षित होती है। वास्तव में हिन्दी खड़ी बोली के गद्य और पद्य दोनों को परिष्कृत एवं परिमार्जित करने का श्रेय आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को है। सन् 1900 से 1918 तक का समय हिन्दी साहित्य के इतिहास में द्विवेदी युग के नाम से अभिहित किया जाता है। इस युग की समग्र साहित्यिक चेतना के सूत्रधार आचार्य द्विवेदी ही थे।

द्विवेदी जी के साहित्यिक योगदान को स्वीकार करते हुए आचार्य रामचन्द्रशुक्ल ने अपने साहित्येतिहास में लिखा है- पर जो कुछ हुआ वही बहुत हुआ और उसके लिए हमारा हिन्दी साहित्य पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी का सदा ऋणी रहेगा। व्याकरण की शुद्धता और भाषा की सफाई के प्रवर्तक द्विवेदी जी ही थे। सरस्वती के सम्पादक के रूप में उन्होंने आयी हुई पुस्तकों के भीतर व्याकरण और भाषा की अशुद्धियाँ दिखा दिखाकर लेखकों का बहुत कुछ सावधान कर दिया। गद्य की भाषा पर द्विवेदी जी के इस शुभ प्रभाव का स्मरण, जब तक भाषा के लिये शुद्धता आवश्यक समझी जायेगी, तब तक बैठा रहेगा।

द्विवेदी जी के आगमन से पूर्व हिन्दी गद्य के स्वरूप में एक विचित्र विशृंखलता दिखाई देती है। इसका वास्तविक कारण हिन्दी गद्य के निश्चित व्याकरण का अभाव ही माना जा सकता है। उस समय हिन्दी गद्य लेखक केवल हिन्दी प्रदेश में ही नहीं वरन पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र आदि सुदूर प्रान्तों में होने लगे थे। बंगला से गद्य पुस्तकों का अनुवाद भी हिन्दी में होने लगा था। परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक गद्य लेखक अपने प्रान्तीय प्रभाव से हिन्दी गद्य को मुक्त न कर सका। पंजाबी गद्य लखकों में उर्दू और फारसी का बाहुल्य था जबकि बंगला के लेखक कोमल-कान्त पदावली का प्रयोग अधिकर रहे थे बंगला से अनूदित हिन्दी ग्रन्थों में भी यही प्रवृत्ति कार्य कर रही थी।

इसी प्रकार पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र के अतिरिक्त संयुक्त प्रान्त में ही हिन्दी गद्य लेखन में समरूपता नहीं थी। अयोध्या सिंह उपाध्याय जहाँ एक ओर बनारस के आसपास तथा अवध के समीपवर्ती ग्रामों से शब्द भण्डार एवं पद-प्रयोग आत्मसात् कर रहे थे वहीं दूसरी ओर देवकीनन्दन खत्री तथा किशोरीलाल गोस्वामी सरल उर्दू मिश्रित हिन्दी में अपनी औपन्यासिक कृतियाँ प्रस्तुत कर रहे थे। इसी प्रकार काशी के कुछ संस्कृत आचार्य हिन्दी गद्य में तत्पुरुष शब्दों के हिन्दी में अधिक से अधिक भर देने के पक्ष में है। इस प्रकार आचार्य द्विवेदी के आगमन से पूर्व हिन्दी गद्य की अव्यवस्थित स्थित थी।

आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी गद्य को परिष्कृत एवं परिमार्जित करने के लिए कुछ अविस्मरणीय कार्य किये सरस्वती पत्रिका के सम्पादन के रूप में उन्होंने कुछ ऐसे कार्य किये जो सदैव स्मरणीय रहेंगे। आचार्य द्विवेदी ने सर्वप्रथम भाषा की अस्थिरता की ओर हिन्दी लेखकों का ध्यान आकर्षित किया। इसके अतिरिक्त वाक्य के मध्य में विराम चिन्हों के प्रयोग तथा लेखों को अनुच्छेदों में आबद्ध करने की आवश्यकता पर बल दिया। हिन्दी गद्य को व्यापक रूप प्रदान करने के लिए उन्होंने ‘प्रान्तीय’ शब्दों के स्थान पर ‘व्यापक’ शब्दों के प्रयोग पर अधिक बल दिया। वस्तुतः हिन्दी गद्य में जो कुछ भी एकरूपता आ सकी है उसका बहुत श्रेय पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी को ही है।

इस युग में हिन्दी साहित्य की प्रत्येक विधा का यथेष्टक विकास हुआ। विशेषतः आलोचना कविता एवं निबन्ध क्षेत्र में इस युग में प्रौढ़ता आई। इस युग की साहित्यिक अनेकरूपता के सम्बन्ध में डॉ० कृष्णलाल ने लिखा है- पच्चीस वर्षों में ही एक अद्भुत परिवर्तन हो गया। गद्य में घटना प्रधान, चरित्र प्रधान, भाव प्रधान, ऐतिहासिक तथा पौराणिक उपन्यास और कहानियों की रचना हुई। समालोचना और निबन्धों की अपूर्व उत्पत्ति हुई।

हिंदी साहित्य का इतिहास– महत्वपूर्ण लिंक

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