हिंदी साहित्य का इतिहास

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की समीक्षा पद्धति | द्विवेदी जी की समीक्षा की शैली | द्विवेदी जी की समीक्षा पद्धति की विशेषतायें | द्विवेदी जी की समीक्षा की शैली के प्रकार | द्विवेदी जी की समीक्षा की शैली के रूप

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की समीक्षा पद्धति | द्विवेदी जी की समीक्षा की शैली | द्विवेदी जी की समीक्षा पद्धति की विशेषतायें | द्विवेदी जी की समीक्षा की शैली के प्रकार | द्विवेदी जी की समीक्षा की शैली के रूप

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की समीक्षा पद्धति

हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में आवार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण अथवा मानवतावादी समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के पुरस्थता आलोचक के रूप में माने जाते हैं। शुक्लोत्तर हिन्दी समीक्षा की इस नई धारा के प्रतिकारता और व्यावहारिक प्रयोक्ता के रूप में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्व निर्विवाद है।

द्विवेदी जी की समीक्षा पद्धति की हम दो दृष्टियों से विचार कर सकते हैं- एक-

द्विवेदी जी की समीक्षा की शैली या प्रकार, दूसरे उनकी समीक्षा पद्धति की विशेषताओं का उद्घाटन समीक्षा शैली में उन्होंने विशेष रूप से मानवतावादी, स्वच्छन्दतावादी और ऐतिहासिक- समाजशास्त्रीय पद्धतियों का प्रयोग किया है। समीक्षा पद्धति की विशेषताओं में मानवतावादी सुदृढ़ पृष्ठभूमि तो है ही इसके अतिरिक्त गवेषणात्मक, ऐतिहासिक अनुसंधान आदि विशेषतायें भी मिलती हैं। समग्र रूप में द्विवेदी जी की समीक्षा पद्धति के निम्नलिखित रूप तथा विशेषतायें हैं-

द्विवेदी जी की समीक्षा की शैली, प्रकार या रूप

मानवतावादी समीक्षा पद्धति- प्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को प्रमुख रूप से मानवतावादी समीक्षक कहा जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि मानवतवादी दृष्टि से साहित्य की परीक्षा का उनका आग्रह। उनका यह मानवतावादी दृष्टिकोण लोकमंगलपरक तथा नैतिक है। इसके साथ ही वह सार्वदेशिक और सार्वकालिक भी है। उन्होंने हिन्दी की समीक्षा को अत्यन्त उदात नैतिक आधार भूमि दी है। उन्होंने स्पष्ट कहा है।

“काव्य और विज्ञान एक ही मानवीय चेतना के दो किनारों की उपज हैं, ये परस्पर विच्छिन्न नहीं है, परस्पर विरुद्ध तो नहीं ही हैं।” द्विवेदी जी ने काव्य में ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न स्वरूपों के उद्घाटन के द्वारा मानवतावाद की अभिव्यक्ति की है। साहित्य का मर्म नामक निबन्ध में उनकी मानवतावादी समीक्षा दृष्टि स्पष्ट है। इस निबन्ध केअन्त में उन्होंने कहा है-

“देश और काल की सीमाओं को बहुमूल्य नाम देकर मनुष्य की अन्तनिहित एकता के विरुद्ध सोचने का अभ्यास मानव विकास के इतिहास को न मानने की निशानी है। प्रयत्न करने से इस त्रुटि की पूर्ति हो सकती है। इसकी और मनुष्य जाति का उद्बुद्ध करना वांछनीय है। मनुष्य की जो सूक्ष्म और सहनीय साधन है, उसी का प्रकाश साहित्य है। उसके अध्ययन से यह उद्देश्य सहज साध्य होगा।

स्वच्छन्दतावादी समीक्षा पद्धति- इस प्रकार की समीक्षा पद्धति में काव्य की परीक्षा कवि के दृष्टिकोण से ही की जाती है। किन्हीं पूर्व स्थापित मान्यताओं की मर्यादा से वंचित न होकर इसमें आलोचक साहित्य के वास्तविक उद्देश्य और साहित्यकार की दृष्टिकोण की व्याख्या करता है। द्विवेदी जी की समीक्षा पद्धति में यही वैज्ञानिक दृष्टि मिलती है। छायावाद की समीक्षा करते हुए उन्होंने कवि की मौलिक उद्भावनाओं नवीन दृष्टिकोण की विशेष महत्ता प्रतिपादित की है। निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

“चित्तगत्त उन्मुक्तता बड़ी चीज है क्योंकि वह बड़ी सम्भावनाओं से भरी है। उसका स्वागत होना चाहिए। उसका स्वस्थ विकास हुआ तो भारतीय साहित्य का अध्ययन होगा और उसके मर्म को हम अच्छी तरह समझ सकेंगे।

द्विवेदी जी का यह दृष्टिकोण स्वच्छन्दतावादी समीक्षा पद्धति के निकट है।

ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय समीक्षा पद्धति- मानवतावादी दृष्टिकोण जहाँ साहित्य के मूल्यांकन की कसौटी है, वहाँ द्विवेदी जी की व्याख्यात्मक व्यावहारिक आलोचना की बातें महत्वपूर्ण हैं।

  1. साहित्य की भूमिका का अध्ययन,
  2. सांस्कृतिक गतिविधि का अध्ययन,
  3. लोक जीवन का अध्ययन और
  4. राजनीतिक हलचल (इतिहास) का अध्ययन।

द्विवेदी जी ने इन्हीं चार सूत्रों में साहित्य की व्याख्या को सामने रखकर की है। ये चारों सूत्र प्रायः संश्लिष्ट रूप में ही द्विवेदी जी की समीक्षा में कार्य करते हैं। डॉ० शम्भूनाथ सिंह ने उनकी इस पद्धति के सम्बन्ध : लिखा है-

“द्विवेदी जी ने उस ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय समीक्षा की नींव डाली है, जो साहित्य में अपने आप में स्वतंत्र मानकर नहीं चलती, बल्कि उसे संस्कृति की जीवन धारा का एक महत्वपूर्ण अंग मानती है। इस तरह तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति में सांस्कृतिक गतिविधि लोकजीवन राजनीतिक हलचल आदि के बीच रखकर ही साहित्य का परीक्षण करना साहित्य समीक्षा की समाजशास्त्रीय पद्धति है। कहना नहीं होगा कि हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में इस दिशा में पहला कदम उठाने वाले आचार्य द्विवेदी हैं।

द्विवेदी जी साहित्य समीक्षा में इसी पद्धति का प्रयोग किया है, उनके हिन्दी साहित्य का आदिकाल, हिन्दी साहित्य की भूमिका, ‘कबीर’ आदि आलोचना पुस्तकों से स्पष्ट है।

द्विवेदी जी की समीक्षा पद्धति की विशेषतायें-

ऊपर द्विवेदी जी की समीक्षा पद्धति के तीन प्रकारों- मानवतावादी, स्वच्छन्दतावादी और ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय का विवेचन हुआ है। इन समीक्षा पद्धतियों के अनुरूप जो विशेषतायें द्विवेदी जी की आलोचनाओं में मिलती है यहाँ हम उनका विवेचन करेंगे।

मानवतावादी जीवन दृष्टि- मानवतवाद में इसी जीवन दृष्टि का समावेश मिलता है, यहाँ हमारा आशय साहित्य की जीवन सम्बन्धी उपयोगिता और रस-सिद्धान्त की मानवतावादी व्याख्या से हैं। इन्हीं दोनों तत्वों से द्विवेदी जी की सम्पूर्ण सुरक्षा नियंत्रित है। साहित्य की परीक्षा करते समय उन्होंने जिन सिद्धान्तों को सामने रखा है उनमें से प्रमुख यह है साहित्य के उत्कर्ष या अपकर्ष के निर्णय की एकमात्र कसौटी यही हो सकती है कि वह मनुष्य का हित साधन करता है या नहीं। अन्यत्र उन्होंने कहा है – “साहित्य लोकमंगल का विधायक है। इससे उनकी मानवतावादी जीवन दृष्टि का स्पष्ट परिचय मिलता है।

ऐतिहासिक व्याख्या की प्रधानता – द्विवेदी जी की आलोचनाओं में ऐतिहासिक व्याख्या की प्रधानता है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि द्विवेदी मूल रूप में ऐतिहासिक व्याख्याता ही है। उनकी समीक्षाओं में ऐतिहासिक व्याख्या किस रूप में आती है- यह उनकी निम्नलिखित पंक्तियों में दृष्टव्य है-

“यदि उस युग (रोमांटिक आन्दोलन के युग) के इंग्लैण्ड की बाह्य परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाये तो एक और तथ्य भी प्रकट होगा। इंग्लैण्ड की साधारण जनता उन दिनों बहुत व्यवहार कुशल दुनियादारी में लगी थी। वह बिल्कुल ऊपरी सतह की बात है, किन्तु उस देश के विचारशील लोगों में एक प्रकार की मानसिक अशान्ति अत्यन्त स्पष्ट होकर प्रकट हुई थी। रोमांटिक साहित्य इसी प्रकार के कवि के चित्त के आन्तरिक सौन्दर्य के आदर्श और बाहरी जगत के एकदम विपरीत परिस्थिति के संघर्ष का परिणाम है। यहाँ रोमांटिक साहित्य की ऐतिहासिक व्याख्या हुई है।

सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का आधार – यह आधार ऐतिहासिक व्याख्या का साधन बनकर आता है। धार्मिक साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि स्पष्ट करके उन्होंने उसे साहित्यिक स्तर पर प्रतिष्ठित किया है। निर्गुण धारा के कवियों का अध्ययन सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर और तत्कालीन धार्मिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया गया है।

गवेषणात्मक और अनुसंधान की पप्रवृत्त- द्विवेदी जी की समीक्षा में गवेषणात्मक और अनुसंधान की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’ में द्विवेदी जी की आलोचना दृष्टि पूर्णतया गवेषणात्मक और अनुसंधानात्मक है। द्विवेदी जी अपनी स्थापनाओं की पुष्टि के लिए गवेषणा द्वारा तथ्यों की खोज करते हैं। ‘कबीर नाथ सम्प्रदाय मध्यकालीन धर्म साधना आदि पुस्तकों में भी उनकी अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति प्रधान है।

लोकसंग्रह और उपयोगितावाद- यह प्रवृत्ति मानवतावाद की देन है तो है द्विवेदी जी के स्वतंत्र साहित्यिक दृष्टिकोण का भी परिचायक है। उनकी समीक्षा दृष्टि में मनुष्य मात्र की मंगल भावना का आधार है।

उदार और वैज्ञानिक दृष्टि- शैली शिल्प की दृष्टि से द्विवेदी जी की समीक्षा पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता उनकी उदार वैज्ञानिक दृष्टि है। इस सम्बन्ध में भी डॉ० शम्भू नाथ सिंह ने कहा है, “आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की हिन्दी साहित्य को सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने हिन्दी समीक्षा को एक नई उदार और वैज्ञानिक दृष्टि दी है। द्विवेदी जी के पास वह दृष्टिकोण है जो उनके विशाल भारतीय वाग्मय के अध्ययन-मन्थन, वर्तमान विश्व समाज की समस्याओं और प्रश्नों के चिन्तन, मनन तथा शान्ति निकेतन के वातावरण और रवि बाबू और आचार्य छितिमोहन सेन जैसे उदार व्यक्तित्व वाले मनीषियों के सम्पर्क में निर्मित हुआ है।” मध्यकालीन सन्त काव्य तथा उससे भी पूर्व के धार्मिक साहित्य की समीक्षा में द्विवेदी जी की यही उदार वैज्ञानिक दृष्टि परिलक्षित होती है। उन्होंने समीक्षा में कट्टरता को कहीं प्रश्रय नहीं दिया है।

सन्तुलित सत्यान्वेष्टि दृष्टि- इससे हमारा आशय ऐतिहासिक व्याख्या में द्विवेदी जी सत्य समग्र मूर्ति को देखने और आग्रह तथा पूर्वाग्रह से मुक्त होकर वैज्ञानिक आधार पर समीक्षा करने की प्रवृत्ति से है। द्विवेदी जी संकीर्ण मतवादी आलोचक नहीं है। इतिहास के अध्ययन में उनकी सत्यान्वेषी दृष्टि ठीक-ठाक सत्य तथा तथ्य की खोज में ही प्रवृत्त होती है।

समीक्षा में ज्ञान विज्ञान के विभिन्न स्वरूपों का उपयोग- अपने उद्भट पाण्डित्य के बल पर द्विवेदी जी ने समीक्षा के क्षेत्र में ज्ञान विज्ञान की नाना शाखाओं, इतिहास, धर्मविज्ञान, पुराण विज्ञान, प्राच्य विधा, जीव-विज्ञान, मनोविज्ञान प्रजनन शास्त्र, नृतत्व शास्त्र, पुरातत्व विज्ञान, नीतिशास्त्र, कानून, राजनीति शास्त्र आदि का प्रभुत उपयोग किया है। भारतीय साहित्य की प्राण शक्ति निबन्ध में उनका भारतीय दर्शनपरक विवेचन इसका उदाहरण है।

सामंजस्यपूर्ण और सहिष्णु विचारधारा‍- द्विवेदी जी का दृष्टिकोण क्रान्तिकारी होते हुए।

भी सहिष्णु और सामंजस्वपूर्ण है। उन्होंने आलोचना के क्षेत्र में मानवतावाद की प्रतिष्ठा मनुष्य को मानव के रूप में देखने के लक्ष्य से ही की है और इसीलिए दानवत्व की ओर ले जाने वाले विज्ञान के कुप्रभावों का उन्होंने विरोध किया है। यहाँ उनका दृष्टिकोण अतिवादी न होकर सामंजस्यपूर्ण है।

गम्भीर गवेषणा-प्रधान शैली- द्विवेदी जी की समीक्षा की शैली उनके अगाध पाण्डित्य और विषय की गम्भीरता के अनुकूल गम्भीर गवेषण प्रधान है। सभी प्रकार की समीक्षाओं में उनका पाण्डित्य स्पष्ट है और इसीलिए शैली गम्भीर है। फिर भी उसमें कहीं अस्पष्टता नहीं, सर्वत्र गवेषणा की वैज्ञानिक सरलता है।

निष्कर्ष-

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी समर्थ ऐतिहासिक व्याख्याता और मानवतावादी समीक्षक हैं, यह उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में उनकी मानवतावादी समीक्षा पद्धति और ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय व्याख्या हिन्दी समीक्षा को उनकी अमूल्य देन है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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