हिंदी साहित्य का इतिहास

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के समीक्षा सिद्धांत | द्विवेदी जी की साहित्य सम्बन्धी विचारधारा | द्विवेदी जी की व्यावहारिक समीक्षा सम्बन्धी मूल दृष्टि

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के समीक्षा सिद्धांत | द्विवेदी जी की साहित्य सम्बन्धी विचारधारा | द्विवेदी जी की व्यावहारिक समीक्षा सम्बन्धी मूल दृष्टि

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के समीक्षा सिद्धांत

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में मानवता वाद के प्रतिष्ठाता है। यों कहना अधिक उपयुक्त है कि मानवतावाद ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का काव्य सिद्धान्त है। साहित्य उसके उद्देश्य, काव्य या साहित्य के मूल तत्व या उपकरण, साहित्य और जीवन- इन सभी साहित्य सम्बन्धी समस्याओं की व्याख्या में उनका मानवता वाद ही मूल केन्द्र बिन्दु है- उनके सारे काव्य सिद्धान्त इसी के चारों ओर प्रतिष्ठित हैं। यहाँ हम द्विवेदी जी के समीक्षा-सिद्धान्तों का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत करेंगे।

द्विवेदी जी की साहित्य सम्बन्धी विचारधारा

साहित्य का स्वरूप और परिभाषा- साहित्य के सम्बन्ध में द्विवेदी जी का दृष्टिकोण समझने के लिए हमें कुछ साहित्य सम्बन्धी कुछ प्रमुख व्याख्याओं पर दृष्टिपात करना चाहिए। कुछ महत्वपूर्ण व्याख्यायें इस प्रकार हैं-

“सारे मानव समाज को सुन्दर बनाने की साधन ही का नाम साहित्य है।”

“मनुष्य की मनुष्यता जब उच्छलित होने लगती है, तब उसके अन्दर का आनन्द बाहर प्रकाशित हो उठता है। तब काव्य बनता है कि और काव्य ही जब तथ्य-जगत के विभिन्न उपादानों का आश्रय लेता है तो अन्यान्य साहित्यांगों के रूप में प्रकट होता है।

ये दोनों व्याख्यायें दो विभिन्न स्तरों पर साहित्य के स्वरूप का विवेचन करती हैं ये दो स्तर हैं-

  1. प्रयोजनातीत आनन्दपरक भूमि। 2. मानवतावादी भूमि ।

ऊपर दी गयी प्रथम व्याख्या या परिभाषा साहित्य के स्वरूप का मानवतावादी भूमि पर उद्घाटन करती है। दूसरी परिभाषा साहित्य को प्रयोजनातीत आनन्द के रूप में स्वीकार करती है।

द्विवेदी जी ने साहित्य को व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है। उनके अनुसार मानवता को सुन्दर बनाने के सारे प्रयत्न साहित्य के अन्तर्गत आते हैं। चाहे उनका विषय आनन्ददायक भूमि पर प्रतिष्ठित हो, चाहे नैतिक मूल्यों पर आधारित है। इस रूप में वे नैतिक धार्मिक रचनाओं को भी साहित्य के अन्तर्गत मानते हैं।

मानवतावादी भूमि पर भी की है। इस रूप में साहित्य मानव में अन्तवैयक्तिक सम्बन्धों का प्रतीक है। वह केवल एक व्यक्ति की साधना नहीं, मानवता की सम्पूर्ण समाज की साधना है।

साहित्य का उद्देश्य द्विवेदी साहित्य का उद्देश्य लोकमंगल मानते हैं। इसीलिए उन्होंने साहित्य को लोकमंगल का विधायक कहा है। साहित्य के उद्देश्य के सम्बन्ध में उनके विचारों का स्पष्ट परिचय उनकी निम्नलिखित मान्यताओं से मिल जाता है-

“मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को पर दुःख कातर और संवेदन शील न बना सके उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।

“मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है।”

इस प्रकार मानव कल्याण को द्विवेदी जी साहित्य का लक्ष्य मानते हैं। प्रयोजनों की दुनिया से ऊपर, मनुष्य के हृदय के संवेदनशील और उदार बनाना साहित्य का ही कार्य है। इस रूप में द्विवेदी जी द्वारा निरूपित साहित्य का उद्देश्य स्थूल न रहकर प्रयोजनातीत आनन्द की सिद्धि तक भी जाता है।

साहित्य के तत्व- काव्य या साहित्य के तत्व या मूल उपादानों रस और भाव (अनुभूति), भाषा, शैली, छन्द और अलंकार के सम्बन्ध में भी द्विवेदी जी के विचार मानव-सापेक्ष्य है। यहाँ उनका संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है-

रस और भाव (सहानुभूति)- द्विवेदी जी काव्य के आन्तरिक अनुभूति को व्यंजना का प्रमुख मानते हैं और काव्यानन्द और रस को विशुद्ध मानसिक आनन्द कहते हैं। उनका रस सम्बन्धी दृष्टिकोण, जिसकी हम आगे चलकर व्याख्या करेंगे- भारतीय रस सिद्धान्त के सामान्यतः स्वीकार्य स्वरूप के ही अनुरूप है।

भाषा- द्विवेदी जी के विचार से लोक भाषा ही वास्तविक और सच्ची भाषा है। इसकी शैली सहज, प्रशन्न और आडम्बर-रहित होती है। लोक भाषा ही उनकी दृष्टि में हार्दिक उल्लास और सरस वाग्वैदग्ध्य आवाहन हुआ करती है। भाषा कविता का वाहन है, पर काव्य में भाषा प्रमुख नहीं है। वह केवल भाव की अनुगामिनी है।

शैली- साहित्य के अध्येता और आलोचक दोनों के लिए वे शैली का अध्ययन आवश्यक मानते हैं। शैली का रूप मुख्यतया कवि के स्वभाव संस्कार और शिक्षा-दीक्षा पर निर्भर है। शैली का युग पर प्रभाव भी पड़ता है। शैली के गुणों की दृष्टि से द्विवेदी जी ने सीधी सादी और निर्मल प्रतिपादन शैली की प्रशंसा की है, अतिरंजनापूर्ण शैली की नहीं।

छन्द- काव्य में छन्द केवल बाह्य उत्पादन नहीं है। उनका लक्ष्य मानव के वृहत्तर जीवन में सन्तुलन उत्पन्न करता है। वह मनुष्य की वाणी का आश्रय पाकर मनुष्य को भाव लोक में ले जाने में सहायक होता है। छन्द का अभाव सन्तुलन का अभाव उत्पन्न करता है। छन्द सूक्तियों में भी गति भर देते हैं। उनसे उत्पन्न आवेग और कम्पन आनन्दानुभूति के साधक बनते हैं। कवि की भावाभिव्यक्ति में छन्द से बड़ी सहायता मिलती है।

अलंकार- द्विवेदी जी अलंकारों को सहायक रूप में स्वीकार करते हुए उन्हें रस का साधक और बाधक दोनों मानते हैं। शब्दालंकारों में अर्थ-भार होने पर उनसे काव्यगत प्रभाव में वृद्धि हो जाती है। अन्यथा वे व्यर्थ हैं। इसी प्रकार अर्थालंकार जब आवेग के सहचर होकर आते हैं तो उनसे काव्य में एक विचित्र उर्जस्वित तेज की सृष्टि होती हैं। अलंकार की महत्ता इसी में है कि वे पाठक के हृदय में विषय की गाढ़ अनुभूति करायें।

साहित्य रूप- साहित्य की विभिन्न विधाओं, कहानी, उपन्यास, नाटक, प्रगीति आदि के सम्बन्ध में द्विवेदी जी के दृष्टिकोण की एकमात्र उल्लेखनीय विशेषता उनके स्वरूप की मानवतावादी व्याख्या है। कहानी को वे तभी महत्वपूर्ण मानते हैं, जब वह सामान्य मनुष्यवादी कठिनाइयों का चित्रण करें। इसी प्रकार उपन्यास को भी उन्होंने जीवन की जटिल समस्याओं की समाधान में सहायक साधन के रूप में स्वीकार किया है। नाटक उनकी दृष्टि में लोकमंगल से ही प्रेरित है। प्रगीति के व्यक्तिगत अनुभूति की प्रधानता को स्वीकार करते हुए उसके द्वारा हमारी अनुभूतियों का जागरण होने से, उन्होंने मानव जीवन से ही उसे सम्बन्ध स्वीकार किया है।

द्विवेदी जी का मानवतावाद- मानवतावाद द्विवेदी जी का काव्य सिद्धान्त है चूँकि हमारे सारे प्रयत्न के लिए ही है, अतः साहित्य भी उससे पृथक नहीं है। साहित्य मनुष्य को पशु-सुलभ वासनाओं से ऊपर उठकर मनुष्यता या मानवता के लक्ष्य की ओर ले जाता है।

मनुष्यता या मानवता का स्वरूप – प्रश्न उठता है कि मनुष्यता क्या है? द्विवेदी जी के विचार में “ऊपरी सतह पर धर्म, आचार, परम्परा, वंश-वैशिष्ट्य, वर्ग-मनोविज्ञान, आदि अनेक भेदों के होते हुए भी इनके नीचे मनुष्य सर्वत्र एक है।” यही एकता मनुष्यता मानवता है। साहित्य का उद्देश्य इसी एकता की मानवता की, अनुभूति कराना है। एकता की अनुभूति ही चरम मानवता है।

मानवता और साहित्य की उपयोगिता- साहित्य में प्रत्यक्षतः हमारे अध्ययन की सामग्री मनुष्य होता है। इसी मनुष्य को सब प्रकार से सुखी बनाना, उसे आर्थिक और राजनीतिक गुलामी से मुक्त करना, रोग-शोक के चंगुल से छुड़ाना ही सब शास्त्रों और विधाओं का प्रधान लक्ष्य है। यहीं द्विवेदी जी की मानवतावादी दृष्टि है जिसका आरोप उन्होंने साहित्य पर किया है। द्विवेदी जी की दृष्टि में साहित्य की सबसे बड़ी उपयोगिता इसी बात में है कि वह मनुष्य को मनुष्य बनाता है। साहित्य मनुष्य की प्रयोजनातीत सत्य की ओर उन्मुख करता है।

साहित्य और जीवन का शाश्वत सम्बन्ध- अपनी इस मानवतावादी दृष्टि में द्विवेदी जी ने साहित्य और जीवन का घनिष्ठ सम्बन्ध स्वीकार किया है। उसके अनुसार महान साहित्यकारों की रचनाएँ शाश्वत जीवन को स्पन्दित करती है।

साहित्य को द्विवेदी जी की सामाजिक चेतना- अर्न्तवैयक्तिक चेतना की देन मानते हैं। वह किसी एक व्यक्ति की मानसिक कल्पना नहीं है। बल्कि समूची मानसिक चेतना का अनुकरण है। साहित्य अपने समय के जीवन से इसीलिए प्रगाढ़ रूप से सम्बन्ध होता है। उनके अनुसार जीवन विच्छिन्न साहित्य वागिविलास मात्र रहकर समाप्त हो जाता है और जो साहित्य सहित के स्पंदों से प्राणवान बन जाता है। उसमें विकसित होने और बलिष्ठ होने की सम्भावनायें बढ़ जाती है।

राष्ट्रीयता और साहित्य- द्विवेदी जी की राष्ट्रीयता उनके मानवतावाद से समर्थित है। वे कहते हैं- “राष्ट्रीयता का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्र का अंश और इस राष्ट्र की सेवा के लिए इसको धन धान्य से समृद्ध बनाने के लिए इसके प्रत्येक नागरिक को सुखी और सम्पन्न बनाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सब प्रकार के त्याग एवं कष्ट स्वीकार करने चाहिए। वास्तव में द्विवेदी जी की दृष्टि राष्ट्रीयता पर स्थिर नहीं है। वह उस पर से होती हुई मानवता की ओर गई है। मानवता विरोधी राष्ट्रीयता उन्हें स्वीकार्य नहीं है।

द्विवेदी जी की व्यावहारिक समीक्षा सम्बन्धी मूल दृष्टि-

व्यावहारिक समीक्षा के सम्बन्ध में द्विवेदी जी के दृष्टिकोण का सारांश इस प्रकार है-

  1. काव्य की परीक्षा बृहत्तर मानव-भूमिका पर रखकर की जानी चाहिए।
  2. साहित्य में यह देखना चाहिए कि वह जीवन के लिए कितना उपयोगी है। यही साहित्य की एक मात्र कसौटी है।
  3. समीक्षा करते समय हमें यह देखना चाहिए कि किसी साहित्य में मनुष्य समाज के सच्चे रूप में उपस्थित किया गया है, अथवा नहीं।
  4. काव्य-समीक्षा विस्तृत विश्वजनीन नैतिक मानवतावादी दृष्टि और उदार चित्त से की जानी चाहिए।

द्विवेदी जी और रस- द्विवेदी जी ने रस के सम्बन्ध में सामान्यतः इसी दृष्टिकोण को सामने रखा है जो परम्परा से गृहीत है, परन्तु उसकी एक उल्लेखनीय मौलिकता है- रस की मानवतावादी व्याख्या इस व्याख्या में द्विवेदी जी रस को मागतिक भूमि पर प्रतिष्ठित करते हैं। काव्य ठोस वातावरण और जागतिक व्यापारों को भीतर भी एक रूपातीत सत्य को देखता है। यही रूप से परे की वस्तु रूपायित सत्य-रस है। द्विवेदी जी की दृष्टि काव्य में उसके शाधत तत्त्व पर लगी हुई है। लोकमंगल की सिद्धि इससे अभिप्रेत है। द्विवेदी जी ने बड़ी सफलतापूर्वक मानवतावादी दर्शन को साहित्य में रस-रूप में परिणत किया है और यह उनकी रस सम्बन्धी मौलिक विचारणा है।

रस के सम्बन्ध में अन्य बातें द्विवेदी जी की ज्यों का त्यों स्वीकार है, काव्य से साधारणीकरण का गुण वे स्वीकार करते हैं। काव्यानुभूति की व्याख्या में उन्होंने बतलाया है कि कवि का सुख-दुख कल्पना की सहायता से निखिल विश्व की मर्म-व्यथा की चिन्ता करके सर्वसाधारण के ग्रहण योग्य बन जाता है। तब हमें उसे अनुभूति अवस्था कहते हैं। कवि की अनुभूति प्रायः प्रगीतों में जो व्यक्तिगत होती है। पाठकों के भीतर वासना रूप में स्थित भावों का उद्द्बुद्ध करके रस संचार करती है-

द्विवेदी जी ने रस की अनिर्वचनीय, अनिवार्य, आनन्दात्मक मनोवैज्ञानिक भाव भूमि को भी स्वीकार किया है।

निष्कर्ष-

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के समीक्षा-सिद्धान्तों के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि उनकी मूल दृष्टि को आधारभूत सिद्धान्त के रूप में लिया है। इसीलिए उन्हें मानवतावादी समीक्षक कहा जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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