हिंदी साहित्य का इतिहास

हिंदी आलोचना | हिंदी आलोचना का उद्भव एवं विकास

हिंदी आलोचना | हिंदी आलोचना का उद्भव एवं विकास

हिंदी आलोचना

प्रत्येक युग का साहित्य युग विशेष की चेतना का प्रतिबिंवि होता है। उस युग की विचारणा, विधायें और शिल्पगत विशेषतायें उस काल के साहित्य में व्यक्त होती हैं। समीक्षक उन्हीं परिस्थितियों और इसके अतिरिक्त साहित्यकार की परंपरा उसके परिवेश और परवर्ती साहित्य पर पड़े प्रभाव का मूल्यांकन करता है। यही तीन सूत्र साहित्य समीक्षा के मापदंड बनते हैं। इस मूल्यांकन के लिए समीक्षक जिन मानदंड का निर्माण करता है, उसे समीक्षा के सिद्धांत के अंतर्गत लिया जाता है और साहित्यकार की कृति अथवा उसकी विशेषताओं का उद्घाटन व्यावहारिक समीक्षा के अंतर्गत आते हैं।

हिंदी में सैद्धांतिक समीक्षा का सूत्रपात संस्कृत काव्यशास्त्र के आधार पर रीतिकाल में हुआ। इसके पूर्व हिंदी में समीक्षा का बीजवपन नहीं हुआ था परंतु संस्कृत काव्यशास्त्र के आधार पर कवियों की सामान्य विशेषताओं का उद्घाटन भक्तिकाल में नाभादास ने किया था। नाभादास कृत भक्तकाल में भक्तिमाल के कवियों की विशेषताओं का जो विवेचन हुआ है, वह यद्यपि पद्यबद्ध और संक्षिप्त है पर उससे नाभादास की समीक्षा दृष्टि का परिचय मिलता है।

आधुनिक काल तक आते-आते गद्य का विकास बड़ी तेजी से होने लगा और खड़ी बोली में साहित्य सर्जना प्रारंभ हुई। अंग्रेजों के प्रभाव के कारण समालोचना की प्रवृत्ति बढ़ी तथा इसके प्रचार में पत्र पत्रिकाओं के आविर्भाव ने योगदान दिया। इसलिए इस काल में समीक्षा की विशेष प्रगति हुई। यद्यपि भारतेंदु युग में समीक्षा का अधिकांशतः आलोचक की अभिरुचि ही थी तभी इसी के आधार पर वह कवि विशेष को छोटा बड़ा सिद्ध करता था परंतु बीजवपन की दृष्टि से इस काल का महत्व कम नहीं माना जा सकता है। इस काल की आलोचना डॉ0 नगेंद्र ने तीन वर्गों में विभाजित किया है- 1. रीतयुगीन लक्षणों की परंपरा 2. टीकाओं में प्रचलित आलोचना और 3. इतिहास ग्रंथों में लिखित टिप्पणियां।

द्विवेदी युग हिंदी आलोचना का उन्मेष काल माना जा सकता है। यद्यपि इस काल में आलोचना का तात्त्विक एवं व्यावहारिक स्वरूप समन्वित होकर नहीं निकाला तथा समालोचना की सुदृढ़ सरणि भी नहीं विकसित हुई किंतु इस काल तक आलोचना की भावी रूपरेखा दृष्टिगोचर होने लगी थी। द्विवेदी युगीन समालोचना में नैतिकता और आदर्श का प्रबल आग्रह था। इसलिए काव्य विवेचन के क्रम में इसी प्रवृत्ति को महत्व दिया जा रहा था। इस काल में समीक्षा का विकास पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से ही विशेष रूप से हुआ तथा तुलनात्मक समीक्षा को अधिक महत्व दिया गया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित सरस्वती का इस काल की समीक्षा को व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण योगदान है।

द्विवेदी युग में आचार्य द्विवेदी ने काव्य समीक्षा के सिद्धांतों का संकेत भी दिया है। इससे सैद्धांतिक समीक्षा की नींव भी पड़ी। आचार्य द्विवेदी मूलतः आदर्शवादी समीक्षक थे। इसलिए उन्होंने काव्य में नैतिकता और भाषा की सहजता पर बल दिया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का आविर्भाव भी हिंदी समीक्षा के क्षेत्र में इसी युग में हो गया था। यद्यपि इस काल तक उनकी समीक्षा का सैद्धांतिक स्वरूप स्थिर नहीं हुआ था परंतु समीक्षा की सुदृढ़ भूमिका बनने लगी थी। शुक्ल जी ने पूर्व समीक्षकों पर व्यंग्य करते हुए लिखा- “समालोचना के लिए विस्तृत अध्ययन, सूक्ष्म अन्वीक्षण बुद्धि और मर्मग्राहिणी प्रज्ञा अपेक्षित है।” इनके अतिरिक्त डॉ० श्याम सुंदर दास, लाला भगवानदीन आदि ने भी इस काल की समीक्षा को सैद्धांतिक और वैज्ञानिक आधार प्रदान किया और परंपरित आदर्शों से हटकर तटस्थ समीक्षा दृष्टि का परिचय दिया।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रभाव स्वरूप उस युग में आलोचना की प्रवृत्ति पनपी उससे हिंदी में अनेक उच्च कोटि के समीक्षक प्रकाश में आये। इन आलोचकों ने काव्य प्रवृत्तियों के आधार पर समीक्षा को भी प्रस्तुत किया। इस प्रकार परवर्ती युगों में छायावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी मानववादी समीक्षकों की परंपरायें विकसित हुई। मर्यादावादी समीक्षकों में बाबू गुलाबराय आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, लक्ष्मीनारायण सुधांशु, भगीरथ मिश्र प्रमुख रहे हैं। लेकिन छायावादी साहित्य के कलात्मक मूल्यों की व्याख्या करने वाले अनेक समीक्षकों ने काव्य में लोकमंगल की भावना को उस रूप में नहीं ग्रहण किया जिस रूप में उसे आचार्य शुक्ल मान्यता देते थे।

आचार्य शुक्ल के पश्चात हिंदी समीक्षा को नयी दिशा देने वाले समीक्षकों में आचार्य नंददुलारे बाजपेयी प्रमुख हैं। बाजपेयी जी में लोकमंगल की शुक्ल प्रवर्तित अवधारणा को परवर्ती काव्य के मूल्यांकन में अपर्याप्त बनाया और छायावादी, साहित्य के अनुरूप सौंदर्यवादी स्वच्छंद दृष्टि को समीक्षा का आधार बनाया। छायावादी काव्य समीक्षा में काव्य में शिव और सुंदर को ही स्थान दिया गया है। पंत जी सत्य को शिव में समाहित मानते हैं तथा प्रसाद साहित्योंदेश्य ही सौंदर्य सृष्टि मानते हैं। शिल्प की दृष्टि से भी छायावादी साहित्य चिंतन के नये मान प्रस्तुत किये हैं। छायावादी कवि और समीक्षक नये विषय के लिए नई शैली को आवश्यक मानते हैं। प्रसाद जी ने छायावादी काव्य के शिल्प का विवेचन करते हुए लिखा- ध्वन्यात्मक, लाक्षणिक, सौंदर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचारवक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृति छायावाद की विशेषताएं हैं। छायावाद के अधिकांश समीक्षक इस नवीन शैली का समर्थन करते हैं।

छायावादी समीक्षा के समानांतर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की मानवतावादी दृष्टि भी हिंदी साहित्य चिंतन का नया आयाम बनी।

1936 ई0 में प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन के उपरांत कार्लमार्क्स की विचारधारा का प्रभाव हिंदी साहित्य पर पड़ा और प्रगतिवादी लेखन की नींव पड़ी। प्रारंभ में हिंदी साहित्य के परंपरावादी समीक्षकों ने इस प्रवृत्ति की आलोचना की परंतु अनेक नये आलोचकों ने साहित्य की नयी प्रवृत्ति का स्वागत किया और मार्क्सवादी साहित्य चिंतन की व्याख्या प्रस्तुत की।

साहित्य समीक्षा को परवर्ती पद्धतियों में व्यक्तिवादी अथवा मनोविश्लेषणात्मक समीक्षा का विकास प्रयोगवादी काव्य के संदर्भ में हुआ। मनोविश्लेषणवादी समीक्षकों पर फ्रायड, एडलर और युंग का पूरा प्रभाव है। फ्रायड के अनुसार कम शक्ति ही दमित होकर अचेतन मन की प्रबल ग्रंथि बनती है तथा वही नाना रूपों में अभिव्यक्ति पाती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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