औद्योगिक समाजशास्त्र की परिभाषा

औद्योगिक समाजशास्त्र की परिभाषा | औद्योगिक समाजशास्त्र का क्षेत्र एवं विषय-वस्तु | औद्योगिक समाजशास्त्र के क्षेत्र का अनुस्थापन

औद्योगिक समाजशास्त्र की परिभाषा | औद्योगिक समाजशास्त्र का क्षेत्र एवं विषय-वस्तु | औद्योगिक समाजशास्त्र के क्षेत्र का अनुस्थापन | Definition of Industrial Sociology in Hindi | Scope and subject matter of industrial sociology in Hindi | Orientation to the field of Industrial Sociology in Hindi

औद्योगिक समाजशास्त्र की परिभाषा

मुख्यतः औद्योगिक समाजशास्त्र के बारे में विद्वानों के विचार एक दूसरे से भित्र हैं। कुछ विद्वान इसे कार्य का समाजशास्त्र (Sociology of Work) मानते हैं, क्योंकि औद्योगिक समाजशास्त्र का प्रधान आधार कार्य है। इसके विपरीत कुछ विद्वानों ने इसे आर्थिक उत्पादन, औद्योगिक प्रतिष्ठानों और श्रमिकों की समस्याओं का अध्ययन माना है। इस सन्दर्भ में निम्न परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं-

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(1) चार्ल्स बी० स्पॉल्डिंग “औद्योगिक समाजशास्त्र का ध्यान कारखाना स्टोर तथा कार्यालय के सामाजिक सम्बन्धों पर केन्द्रित है। इस दायरे में केवल उपरोक्त संगठनों के अन्दर भूमिकायें सम्पन्न करने वाले व्यक्तियों की अन्तःक्रियाओं को ही सम्मिलित नहीं किया जाता, बल्कि उन लोगों को भी शामिल किया जाता है जिनके अन्तर्गत उनके कार्य की भूमिकायें, जीवन के अन्य पक्षों से भी अन्तः सम्बन्धित होती है।”

(2) पार्कर, बाउन तथा अन्य- पार्कर तथा ब्राउन आदि के अनुसार, औद्योगिक समाजशास्त्र इस बात से सम्बन्धित है कि किस प्रकार आर्थिक उप-व्यवस्थाएँ अन्य उप-व्यवस्थाओं से सम्बन्धित हैं, किस प्रकार विशेष कार्य संगठन और भूमिकाओं के सन्दर्भ में इन उप-व्यवस्थाओं की संरचना निश्चित होती है और किस तरह लोग उन भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं।”

(3) जे. एच. स्मिथ (J.H. Smith)- जे.एच. स्मिथ के अनुसार, ‘औद्योगिक समाजशास्त्र उद्योग (या कार्य संगठन के किसी रूप) के साथ सामाजिक व्यवस्था के रूप में सम्बन्धित है जिसमें वे कारक (तकनीकी, आर्थिक, राजनीतिक) जो संरचना, कार्य तथा व्यवस्था के परिवर्तनों को प्रभावित करते हैं, सम्मिलित किये जाते हैं।”

(4) मिलर तथा फॉर्म- मिलर तथा फॉर्म के अनुसार, “औद्योगिक समाजशास्त्र सामान्य समाजशास्त्र का एक प्रमुख क्षेत्र हैं जिसको कार्य संगठनों का समाजशास्त्र या अर्थव्यवस्था का समाजशास्त्र कहना अधिक उपयुक्त हो सकता है।”

फॉर्म तथा मिलर का मत है कि कार्य सम्बन्धों का समाजशास्त्र उन अन्तसम्बन्धों का अध्ययन करता है जो कार्य तथा व्यक्ति के सामाजिक परिवेश के बीच पाये जाते हैं।

अतः इस प्रकार औद्योगिक समाजशास्त्र, कार्य के सन्दर्भ में विभिन्न व्यक्तियों द्वारा निर्वाह की जाने वाली भूमिकाओं का अध्ययन करता है। विभिन्न उद्योगों तथा व्यवसायों में लोग जो भूमिका सम्पन्न करते हैं, वे केवल उत्पादन तक ही सीमित नहीं हैं वे जीवन के अन्य पक्षों से भी सम्बन्धित हैं। आधुनिक उद्योग अन्तःक्रिया करने वाले व्यक्तियों का एक जटिल संकुल है। औद्योगिक समाजशास्त्र इसी का अध्ययन करता है।

औद्योगिक समाजशास्त्र का क्षेत्र एवं विषय-वस्तु

औद्योगिक समाजशास्त्र में औद्योगिक समाज का अध्ययन किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के औद्योगिक संगठन सम्मिलित हैं जिनके विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया जाता है। इसके क्षेत्र को विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से निर्धारित किया है-

मिलर तथा फॉर्म का मत- मिलर तथा फॉर्म के अनुसार औद्योगिक समाजशास्त्र के निम्नलिखित मुख्य क्षेत्र है-

(1) कार्य समूह तथा कार्य करने के मध्य विकसित होने वाले सम्बन्ध

(2) कार्य करने वाले व्यक्तियों के समूहों में कर्मचारियों की भूमिका।

(3) मशीन एवं यन्त्र वाले समाज का सामाजिक संगठन।

स्मिथ का मत-जे0एच0 स्मिथ ने औद्योगिक समाजशास्त्र का कार्य क्षेत्र बताते हुए इसे औद्योगिक और संगठनात्मक परिवेश में उन सामाजिक सम्बन्धों और विधियों का अध्ययन माना है जो व्यापक सामुदायिक सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं तथा स्वयं उनसे प्रभावित होते हैं।

नासों तथा फॉर्म का मत- नासों एवं फॉर्म ने औद्योगिक समाज के क्षेत्र में बताते हुए कहा है कि व्यावसायिक समाज विज्ञान की एक उप-शाखा है, जिसका स्वतन्त्र उप-क्षेत्र हैं। इस दृष्टि से औद्योगिक समाजशास्त्र के क्षेत्र को व्यावसायिक समाज विज्ञान के रूप में निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) कार्य की सामाजिक प्रकृति और उससे सम्बन्धित घटनाओं का अध्ययन जैसे विश्राम, अवकाश तथा बेरोजगारी आदि का अध्ययन।

(2) व्यक्तिगत व्यवसायों का अध्ययन।

(3) व्यावसायिक संरचना तथा व्यक्तिगत व्यवसाय की सामाजिक संरचना का अध्ययन।

(4) व्यावसायिक संरचना का विश्लेषण

(5) एक विशेष व्यवसाय का सामाजिक सदस्य के रूप में अध्ययन।

 बर्नस का मत- बर्नस ने औद्योगिक समाजशास्त्र के क्षेत्र को निम्नलिखित पाँच भागों में स्पष्ट किया है-

(1) नौकरशाही पर आधारित श्रमिकों की प्रवृत्तियों एवं व्यवहारों का अध्ययन।

(2) कार्यों का अध्ययन।

(3) व्यवहार करने वाले समूहों का अध्ययन और श्रमिकों एवं प्रबन्धकों के पारस्परिक व्यवहार का अध्ययन।

(4) औद्योधिक सम्बन्धों का विश्लेषण।

(5) व्यक्ति पर उद्योगवाद के प्रभाव का अध्ययन

स्पाल्डिंग का मत- स्पाल्डिंग के अनुसार औद्योगिक समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है, जो औद्योगिक समाज के संगठन तथा उसमें विभिन्न भूमिका निभाने वाले व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों और क्रिया-प्रतिक्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। औद्योगिक समाज के ये संगठन उद्योगों, कारखानों, गोदामों, क्रय-विक्रया केन्द्रों तथा प्रशासन कार्य आदि के क्षेत्रों के विभिन्न पहलुओं में देखे जा सकते हैं।

इस प्रकार विभिन्न विद्वानों के विचारों से स्पष्ट है कि औद्यागिक समाजशास्त्र की विषय-वस्तु औद्योगिक समाज है जिसमें सम्बन्धों का कोई प्रतिमान होता है, जिसे संगठन कहते हैं। उसमें विभिन्न संस्थाएँ, समितियाँ एवं समूह शामिल होते हैं। औद्योगिक समाजशास्त्र में संगठन की प्रक्रियाओं, संस्थाओं, समितियों एवं समूहों का अध्ययन किया जाता है। यह औद्योगिक समाज की समस्याओं का सैद्धान्तिक अध्ययन के साथ-साथ समस्याओं के समाधान वाँछित सुधारों एवं परिवर्तनों के विषय में सुझाव भी देता है।

औद्योगिक सामाजिक सम्बन्ध

औद्योगिक समाजशास्त्र की विषय-वस्तु औद्योगिक सम्बन्ध है। इन सम्बन्धों को अप्रलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है-

औद्योगिक सामाजिक सम्बन्ध

-1- आन्तरिक

  1. औपचारिक
  2. अनौपचारिक
  3. मिश्रित

-2- बाह्य

आन्तरिक औद्योगिक सम्बन्ध

जब सम्बन्ध एक उद्योग या कारखाने तक ही सीमित होते हैं तो उन्हें आन्तरिक सम्बन्ध कहा जाता है। एक उद्योग के प्रबन्धक एवं श्रमिकों के मध्य पारस्परिक सम्बन्ध इसके अन्तर्गत आते हैं। ये तीन प्रकार के हो सकते हैं-

(i) औपचारिक आन्तरिक सम्बन्ध- ये सम्बन्ध उद्योग के अन्तर्गत विभिन्न व्यक्तियों मध्य उनके कार्य के द्वारा निर्धारित होते हैं। ये सम्बन्ध कार्यात्मक व्यवस्था पर आधारित होते हैं, जैसे- प्रबन्धक एवं कर्मचारियों में तथा उत्पादन की प्रक्रिया में लगे कर्मचारियों के मध्य सम्बन्ध।

(ii) अनौपचारिक आन्तरिक सम्बन्ध- उद्योग के विभिन्न कर्मचारियों के मध्य निजी या वैयक्तिक सम्बन्धों को अनौपचारिक सम्बन्ध कहा जाता है, जैसे- समान कार्य करने वाले या एक जाति या धर्म के कर्मचारियों में मित्रता या शत्रुता के सम्बन्ध होना। जहाँ भी दो या दो से अधिक कर्मचारी कार्य करते हैं वहां अनौपचारिक सम्बन्धों का विकास स्वतः ही हो जाता है।

(iii) मिश्चित आन्तरिक सम्बन्ध- जन उद्योग के कर्मचारियों एवं प्रबन्धकों के मध्य सम्बन्ध न तो पूर्णतः औपचारिक होते हैं और न पूर्णतः अनौपचारिक तो उन्हें मिश्रित आन्तरिक सम्बन्ध कहते है। ऐसे सम्बन्धों को सामाजिक प्राविधिक (Socio Technical) या सामाजिक कार्यात्मक (Socio-Functional) भी कहा जाता है। ये सम्बन्ध आंशिक रूप से कार्य से सम्बन्धित होते हैं।

बाह्य औद्योगिक सम्बन्ध- उद्योग अथवा मिल का अन्य मिलों, सरकार, जनता तथा विभिन्न सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्ध होता है। इन सम्बन्धों को बाह्य सम्बन्ध कहा जाता है। उदाहरण के लिए विभिन्न प्रशिक्षण संस्थाओं से, राजकीय कार्यालयों से, उद्योग से सम्बन्धित संगठनों से होने वाले सम्बन्ध बाह्य सम्बन्ध ही होते हैं।

उपरोक्त विभिन्न प्रकार के औद्योगिक सम्बन्ध औद्योगिक समाजशस्त्र की विषयवस्तु के क्षेत्र में आते हैं।

औद्योगिक समाजशास्त्र के क्षेत्र का अनुस्थापन

वास्तव में समाजशास्त्र के दो प्रमुख कार्य हैं-

पहला सामाजिक संगठनों की प्रकृति की पूर्ण व्याख्या करना और दूसरा व्यक्ति को किसी समाज में समाजीकृत या अभियोजित करने की प्रक्रियाओं का विश्लेषण करना। अतः औद्योगिक समाजशास्त्र के क्षेत्र में भी दो ही बातें मुख्य हैं- प्रथम तो कारखाने (Factories) के सामाजिक संगठन का पूर्ण अध्ययन और दूसरा कर्मचारियों में समाजीकरण का अध्ययन यह एक सत्य है कि वास्तविक कार्य परिस्थितियों के विश्लेषण में कारखाने के सामाजिक संगठन और कर्मचारियों के सामाजिक अभियोजन के बीच एक अंतःसम्बन्ध होता है, क्योंकि सामाजिक संगठनों का परिचय अनुभूतियों एवं अभिवृत्तियों से ही मिलता है।

प्रत्येक सामाजिक जाल में कार्य संगूह सदा ही क्रिया करता है। अतः सामाजिक जाल गतिशील है परन्तु फिर भी अधिक सम्बन्धा सापेक्ष रूप से स्थिर सम्बन्धों का ही ढाँचा है। यद्यपि कारखानों के कर्मचारियों पर लोकरीतियों और तकनीकी रीतियों का प्रभाव रहता है परन्तु फिर भी इनका कभी-कभी विरोध होता रहता है जिसके पीछे आत्म-प्रकाशन और सुरक्षा के लिए किये जाने वाले निरन्तर संघर्षों की प्रतिक्रिया होती है। कारखानों के कर्मचारी एक ओर तो वह नवयुवक होते  हैं जो अपने योग्य पदों के महत्वाकांक्षी होते हैं और इनके लिए फड़फड़ाते रहते हैं और दूसरी ओर वृद्ध कर्मचारी होते हैं जो एक स्थिर कार्य जीवन बिताते रहते हैं उनमें किसी प्रकार की उत्तेजना नहीं होती। परन्तु फिर भी कारखानों में उपद्रव पाये जाते हैं। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि सामाजिक संगठन और सामाजिक अभियोजन के अन्तः सम्बन्ध में कुछ विशेष प्रकार के स्तर जन्म लेते हैं और इन्हीं स्तरों के आधार पर औद्योगिक समाज का सामाजिक विश्लेषण किया जाता है।

(1) सर्वप्रथम तो वह स्तर होता है जो औद्योगिक समाज की संरचना की व्याख्या करता है। और इस स्तर पर समाज को अर्द्ध-स्वायत्त (Semi-Autonomous) समझा जाता है।

(2) प्रत्येक कारखाने के कर्मचारी परिस्थिति और सुरक्षा को प्राप्त करने के लिये प्रयास करते रहते हैं जिसे एक अन्य सामाजिक स्तर का जन्म होता है। वास्तव में इस स्तर का सम्बन्ध कर्मचारी के समाजीकरण और औद्योगिक समाज में उत्पन्न होने वाली विभिन्न प्रकार की सामाजीकरण और औद्योगिक समाज में उत्पन्न होने वाली विभिन्न प्रकार की समस्याओं से होता है।

(3) कारखाने और स्थानीय समुदाय के बीच भी एक अन्तःसम्बन्ध होता है। उसका भी अध्ययन की दृष्टि से एक स्तर होता है। वास्तव में इसका प्रमुख कारण यह है कि स्थानीय समुदाय की संस्थायें कारखाने में प्रचलित प्रथाओं और परम्पराओं का प्रशिक्षण स्थान होती हैं अर्थात् कर्मचारी अपने कारखाने की परम्पराओं और प्रथाओं को बलात् स्थानीय समुदाय पर लाद देता है।

(4) राज्य, राष्ट्र और विश्व एवं कारखाना तथा समुदाय एक दूसरे से कुछ कड़ियों द्वारा जुड़े  होते हैं और यह शृंखला प्रतिवर्ष मजबूर होती है जिसका प्रमुख कारण प्रचार के आधुनिक साधन हैं जैसे रेडियों, अखबार आदि। इस प्रकार सरकार स्वयं कर्मचारियों की प्रतिदिन कार्यप्रणाली को अपने नियन्त्रण में रखती है। इस प्रकार राजनीतिक और सामाजिक विचारधारायें एक दूसरे से पूर्ण मिल जाती हैं और एक नये स्तर का निर्माण करती हैं और इसके कारण परिवर्तन करने वाले समुदाय का दबाव स्थानीय समुदाय और कारखाने पर पड़ता है।

वास्तव में औद्योगिक समाजशास्त्र का क्षेत्र विशेषज्ञों के लिए प्रशिक्षण और सामान्य शिक्षा को पोषित करने का आधार होता है। औद्योगिक समाज के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं-

पहला, व्यक्तियों को कार्य व्यवहार का ज्ञान कराना, दूसरा, धार्मिक, श्रम अथवा प्रबन्ध सम्बन्धी पदों के लिए व्यक्तियों को प्रशिक्षित करना और ऐसे व्यक्ति उत्पन्न करना जो वृहद और विशिष्ट दोनों प्रकार की रुचि रखते हो और अपने कार्य व्यवहार के ज्ञान में वृद्धि कर सकें। इन तीनों उद्देश्यों की प्राप्ति में जो भी समस्याये आती हैं, उन सबका अध्ययन औद्योगिक समाजशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है।

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