आदर्शवाद के सिद्धान्त | principles of idealism in Hindi
आदर्शवाद के सिद्धान्त | principles of idealism in Hindi
आदर्शवाद के सिद्धान्त
पाश्चात्य एवं भारतीय दार्शनिकों के आदर्शवाद में कुछ न कुछ अन्तर मिलता है फिर भी उसके मूल में पाये जाने वाले सिद्धान्त सामान्यतया एक प्रकार के ही मिलते हैं। नीचे इन मूल सिद्धान्तों को दिया जा रहा है जिनको शैक्षिक दृष्टि से जानना जरूरी है क्योंकि इन सिद्धान्तों का काफी प्रभाव शिक्षा के अंगों पर पड़ा है। वे सिद्धान्त इस प्रकार है-
(i) आध्यात्मिक सत्ता का सर्वोपरि होने का सिद्धान्त- सभी आदर्शवादी इस बात से सहमत हैं कि विश्व, ब्रह्माण्ड का निर्माण एक सर्वोपरि आध्यात्मिक सत्ता के द्वारा होता है ऐसी सत्ता दिखाई नहीं देती परन्तु उसकी अनुभूति की जा सकती है। इस सर्वोपरि आध्यात्मिक सत्ता को ब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर, भगवान, नियामक, सृष्टिकर्ता जो भी नाम दिया जाये वह सही है। इस सिद्धान्त का दूसरा नाम अनेकता में एकता का सिद्धान्त भी है।
(ii) भौतिक जगत की असत्यता का सिद्धान्त- सभी आदर्शवादी यह स्वीकार करते हैं कि केवल आध्यात्मिक या विचार जगत ही सत्य है। हमारे सामने दृष्टिगोचर होने वाला जगत मिथ्या है। ‘ब्रह्मेव सत्यं जगत मिथ्या’ की उक्ति शंकराचार्य की थी। यह जगत नश्वर है, अनित्य है, अतः असत्य है। इस जगत का विचार शाश्वत, नित्य, अनादि, अनन्त है। मनुष्य में आत्मा अमर अजर, अनश्वर है जबकि शरीर नष्ट हो जाता है ।
(iii) आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व का सिद्धान्त-आदर्शवाद में आत्मा-परमात्मा सूक्ष्म रूप में सर्वव्याप्त हैं, आदि अन्त से परे हैं। परमात्मा सर्वोच्च है और आत्मा जो प्राणियों में पाई जाती है उसका अंश है। कुछ आदर्शवादी आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता भी स्वीकार करते हैं। स्थिति कुछ भी हो यह सत्य है कि आत्मा-परमात्मा का अस्तित्व होता है।
(iv) मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने का सिद्धान्त- मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेठ कृति है क्योंकि उसके पास आध्यात्मिक और भौतिक दोनों शक्तियाँ हैं। पशु-पक्षी और अन्य जीवों के पास केवल भौतिक शक्तियाँ ही होती है। आध्यात्मिक अनुभूति केवल मनुष्य को ही होती है। इसलिए वह रात्वं, शिवं, सुन्दरं को प्राप्त करने में समर्थ होता है। मनुष्य सभ्यता, संस्कृति, धर्म आध्यात्म के क्षेत्र में ऊँचा उठता है। यहीं उसकी सर्वश्रेष्ठता प्रकट होती है।
(v) विकासवादी सिद्धान्त- आदर्शवादियों का विश्वास है कि मनुष्य का विकास होने के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास भी होता है। मनुष्य की प्रवृत्ति, बुद्धि, विवेक और संकल्प (Instincts Intelligence, Wisdom, Will) का क्रमशः विकास होता है। शैशवावस्था में मूलप्रवृत्ति, बाल्यावस्था में बुद्धि, किशोरावस्था में विवेक और प्रौढ़ावस्था में संकल्प का विकास होता है तथा अन्त में वृद्धावस्था में अध्यात्म की और व्यक्ति बढ़ता है। यह आदर्शवाद का सिद्धान्त है।
(vi) आत्मानुभूति का सिद्धान्त- मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य अपने आपको जानना है। (To know thyself is the ultimate aim of human life) | आदर्शवाद के अनुसार सत्यं, ज्ञानं, आनन्द की अनुभूति होनी चाहिये। परमात्मा पूर्ण है और मानव आत्मा उसका अंश है अतएव मानव आत्मा का लक्ष्य पूर्णता की अनुभूति करना है। भारतीय आदर्शवाद इस पर अधिक बल देता रहा है। आज भी टूटे-फूटे रूप में ही सही हमारे देश में महात्माओं का यही सिद्धान्त रहता है जिसका उपदेश वे अपने शिष्यों को देते हैं।
(vii) मूल्यों एवं सद्गुणों को प्राप्ति का सिद्धान्त- मनुष्य की पूर्णता उस समय होती है जब वह आत्मानुभूति करता है। इस आत्मानुभूति के लिये मनुष्य को आध्यात्मिक मूल्यों एवं सद्गुणों (Values and Virtues) की प्राप्ति करनी चाहिए क्योंकि संसार की चीजें नाशवान हैं और मूल्य एवं सद्गुण ही शाश्वत एवं नित्य हैं। सत्यं, सुन्दरं, शिवं, सद्कर्म, धर्म, कर्तव्य ये ही आध्यात्मिक उन्नति के साधन हैं। इन्हें प्राप्त करके आत्मानुभूति होती है और अन्तिम लक्ष्य सिद्ध होता है। अतएव इस सिद्धान्त पर बल दिया गया है।
(viii) सद् विचार और सद् आचरण का सिद्धान्त- मूल्य एवं सद्गुण प्राप्त करने का व्यावहारिक ढंग है अच्छा विचार-चिन्तन । अच्छे विचार-चिन्तन के लिए सद् आचरण का होना आवश्यक है। कुछ आदर्शवादियों ने आत्मानुभूति के साथ आत्माभिव्यक्ति (Self Expression) के लिये भी जोर दिया है और यह सही है कि जब तक मनुष्य अच्छे कार्य नहीं करता है वह अच्छे विचार नहीं पा सकता है। अपने देश में ‘धर्म’ पर इसीलिए जोर दिया गया था और आज भी उसे महत्व दिया जा रहा है। सद् आचरण से अच्छे चरित्र का निर्माण होता है। ये सब सिद्धान्त रूप में आदर्शवाद स्वीकार करता है।
(ix) राज्य के सर्वोच्च सत्ता होने का सिद्धान्त- प्लेटो ने न्याय के आधार पर आदर्श राज्य की कल्पना की परन्तु वह सफल न रहा। बाद में हीगेल और फिश्टे ने राज्य एवं शासक को सर्वशक्तिसम्पन्न सिद्ध किया। ऐसा क्यों हुआ? अपने देश में कहावत है जैसे राजा वैसी प्रजा। अतएव स्पष्ट है कि राजा अन्य व्यक्तियों के लिए सद् विचार और सद् आचरण का आदर्श बने, तभी सारे राज्य में योग्य, सद्गुणी और सच्चरित्र मनुष्य बढ़ेंगे। एक दूसरे विचार से राजा आदर्श हो और वह ऐसी व्यवस्था करे कि सभी उत्तम साधन, पर्यावरण मनुष्य को प्राप्त और सुलभ हों जिससे कि व्यक्तियों को अपने धर्म- कर्तव्य करने की सुविधा-सरलता रहे और वे सच्चरित्र व्यक्ति बन सकें. अपने ज्ञान. विज्ञान, कला-संस्कृाते की वृद्धि कर सकें । अतएव इस प्रकार का सिद्धान्त आदर्श माना गया है।
(x) हस्यमयता और अलौकिकता का सिद्धान्त- आदर्शवाद परम सत्ता को असाधारण मानता है और उस सत्ता को समझना, जानना, प्राप्त करना सरल न होकर रहस्यमय बताता है। यही कारण है कि वह इस लोक से सम्बन्धित न होकर परलोक से सम्बन्ध रखता है। ऐसी दशा में वह अलौकिक या पारलौकिक माना गया है। अपने देश में ऐसा सिद्धान्त बहुत ही लोकप्रिय कहा जाता है।
(xi) अनुशासन का सिद्धान्त- आदर्शवाद के अनुसार शारीरिक और मानसिक अनुशासन अत्यन्त आवश्यक है। अपने देश में ब्रह्मचर्य शारीरिक अनुशासन का एक रूप है। दण्ड विधान भी एक तरह का अनुशासन है। मानसिक अनुशासन हमारे देश में सद् विचार-चिन्तन में पाया जाता है। मन पर नियंत्रण भी इसी प्रकार का अनुशासन है। सभी इच्छाओं-तृष्णाओं को दबाना अपने देश में इसीलिए महत्वपूर्ण कहा गया है। व्रत-उपासना भी मानसिक अनुशासन के साधन हैं। अतएव आदर्शवाद में अनुशासन का सिद्धान्त काफी प्रचलित है।
(xii) ज्ञान की सर्वोच्चता का सिद्धान्त- आदर्शवाद ज्ञान को सबसे पवित्र मानता है ऐसा सभी धर्मों में मिलता है। ज्ञान भी लौकिक एवं अलौकिक होता है। अलौकिक ज्ञान लौकिक ज्ञान की अपेक्षा उच्चतर होता है। अलौकिक ज्ञान परमात्मा का ज्ञान होता है और वही सर्वोच्च है। ज्ञान का अभाव हानिकर है और इससे मनुष्य में बहुत से विकार-दोष आ जाते हैं। ज्ञानी मूर्ख की अपेक्षा अधिक सम्मानित होता है, पूज्य होता है। अतएव ज्ञान मनुष्य को ऊँचा उठाता है। अस्तु, यह सिद्धान्त आदर्शवाद को मान्य है।
(xiii) मन की स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- मन आत्मा से भिन्न माना जाता है। मन मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का संचित नाम है। (Mind is the collective name of man’s inner powers)। इस मन के द्वारा मनुष्य अनुभव करता है और अनुभव के परिणामस्वरूप उसे ज्ञान प्राप्त होता है। अतएव मन ज्ञान विचार का साधन है। ऐसी स्थिति में आदर्शवाद में इस सिद्धान्त पर भी बल दिया गया है।
(xiv) विचार का सिद्धान्त- आदर्शवाद को कुछ विद्वान विचारवाद कहते हैं। इस कथन से स्पष्ट है कि आदर्शवाद वस्तु की अपेक्षा वस्तु के विचार को ही सब कुछ मानता है। विचार सूक्ष्मरूप है (Idea are abstract forms) । ईश्वर या आत्मा- परमात्मा ये सब सूक्ष्म रूप में होते हैं। अतएव ये सब केवल विचार हैं। आदर्शवाद इसीलिये विचार के सिद्धान्त में अत्यधिक विश्वास रखता है क्योंकि विचारों से ही सब कुछ समझा जाता है, अनुभव किया जाता है कार्यरूप में रखा जाता है। भौतिकता विचाराधीन होती है, (Objectivity is subject to idea) | बिना विचार के हमें वस्तु का बोध नहीं होता है और न तो उसका कोई अर्थ और प्रयोजन ही मालूम होता है। बिना विचार के इस प्रकार वस्तु सारहीन और अस्तित्वहीन होती है।
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