शिक्षाशास्त्र / Education

पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्त्व | पर्यावरण शिक्षा के मार्ग में आने वाली बाधाएं

पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्त्व | पर्यावरण शिक्षा के मार्ग में आने वाली बाधाएं | Need and importance of environmental education in Hindi | Obstacles coming in the way of environmental education in Hindi

पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्त्व

जनसंख्या में उत्तरोत्तर होने वाली वृद्धि तथा उसका पर्यावरण पर पड़ने वाला प्रभाव. उसके ठीक विपरीत पर्यावरण प्रदूषण का जनसंख्या पर पड़ने वाला प्रभाव, मानव के मानसिक, सामाजिक तनाव एवं अनेक प्रकार की बीमारियों को जन्म देने वाला है। आज यहां हम एक और तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या को रोकने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कम पर्यावरण सन्तुलन और मानव कल्याण के लिए भी कार्य करना होगा। इसी से हमें पर्यावरण शिक्षा के महत्त्व का पता लग जाता है।

हम जानते हैं कि मानव एवं प्रकृति के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध है। मानव जीवन के समस्त क्रियाकलाप प्रकृति की गोद में ही सम्पन्न होते हैं। हमारे चारों और जो भी प्रकृति है तथा मानव निर्मित वातावरण है, सभी मिलकर उसके पर्यावरण को संरचना करते हैं। दरे शब्दों में, जिस मिट्टी में पेड़-पौधे पनपते हैं, जिसधरती पर हम रहते हैं, जो पानी हम पीते है, जिस वायु में सांस लेते हैं, सारे जीवित जीवधारी तथा जिन वस्तुओं को खोकर हम भूख मिटाते हैं, व सभी वस्तुएं हमारे पर्यावरण का निर्माण करती हैं।

पर्यावरण प्रदूषण आज को ज्वलन्त समस् है। आने वाले समय में जहरीले विषाक्त एवं दमघोंटू वातावरण की कल्पना से ही मानवता सिहर उठती है। वास्तव में यह प्रदूषण भी मानव की वैज्ञानिक तकनीकी शक्तियों का मूल उत्पाद है। 20वीं शताब्दी में जनसंख्या वृद्धि के कारण समस्त नजाति के समक्ष प्रकृति तथा पर्यावरण को लेकर अस्तित्वहानता को स्थिति उत्पन्न होती जा रही है। यद्यपि पर्यावरण सन्तुलन की योग्यता प्राणियों में पाया जाता है, फिर भी सन्तुलन को एक निश्चित् सीमा है। इस सीमा से परे पर्यावरण अपने आप हो दूषित हो जाता है। जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप पृथ्वी पर सोमित स्रोत होने से उपभोग की तुओं में कमी आती जा रही है, मूल्य वृद्धि हो रही है, इस कारण पर्यावरण प्रदूषण के दो प्रमुख कारण —

  1. जनसंख्या वृद्धि
  2. प्रौद्योगिकी प्रगति।

जनसंख्या वृद्धि के सम्बन्ध में आज 150 वर्ष पूर्व मात्थम के विचार कितने सटीक प्रतीत होते हैं जब उसने घोथी कि यदि इसी ज्योमेट्रिक गति में जनसंख्या वृद्धि होती रही तो वह समय दूर नहीं है जहां हम ज्वालामुखी के कगार पर धकेल दिये जायेंगे। आज यह समय समस्त उपायों को करने के बाद भी हमारे सम्मुख उपस्थित हो गया है।

इसी प्रकार कॉलहग ने भी अपने प्रायोगिक अध्ययनों के द्वारा जनसंख्या वृद्धि के विस्फोटक परिणामों को प्रकट किया था कि जनसंख्या मार-काट, कलह, विस्फोटक मानसिक सन्तुलन की जन्मदात्री है। अब तो ऐसा भी अनुमान लगाया जा रहा है कि यह प्रगति मानव के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अवश्यम्भात्री चुनौती पैदा कर रही है

आज विश्व में इस प्रकार जनसंख्या वद्धि और आर्थिक प्रगति- दानों को दरें सामान्य से अपेक्षाकृत अधिक हैं। फलस्वरूप दिन-प्रतिदिन प्रदूषण को गति तीव्रतर होता जा रही है। आणविक विस्फोट, रासायनिक रिसाव खादें कीटनाशक दवाएं, औद्योगीकरण आदि इसके जनक हैं। जनसंख्या-वृद्धि ने नगरीकरण, वन-समापन, मलिन वस्तियों के उद्गम एवं प्रदूषण वातावरण का आविष्कार किया है।

वैसे भी विश्व को आधुनिक उपभोकावादी संस्कृति ने दुनिया के दिशासित राष्ट्रों के मध्य एक स्पर्धा पैदा कर दो है जिससे मानव जाति एवं श्वि शान्ति के चेहरे पर कालिख मां पुत गया है। स्त्र० श्रीमती इन्दिरा गांधी पर्यावरण शिक्षा सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में अपने विनाए इस प्रकार प्रस्तुत किये थे-

“आधुनिक युद्ध जैसी बेतुकी बात और कोई नहीं हो सकती। भयंकर हथियार जितनी शीघ्रता से विनाश करते हैं, उतनो शीघ्रता से और कोई हथियार कार्य नहीं करता क्योंकि ये भयंकर हथियार न केवल मारते हैं बल्कि जीवित, अजन्मे शिशुओं को भी जीवित रहते हुए भी मार देते हैं, विकृत, अपंग कर देते हैं। वे भूमि को विषाक्त कर देते हैं, कुरूपता, अनुर्वरता, बंजरता का लम्बा सिलसिला अपने पीछे स्थायी तौर पर छोड़ देते हैं। यह स्पष्ट है कि जो पर्यावरणात्मक संकट  हमारे आमने-सामने उपस्थित हैं, वे हमारे ग्रह के भविष्य को गम्भीर रूप से परिवर्तित कर देंगे। हममें कोई भी अप्रभावित नहीं रह सकता, चाहे वह अपनी कितनी भी हैसियत रखता, हो, शक्ति अथवा परिस्थितियां कुछ भी क्यों न हों।”

पर्यावरण शिक्षा का सर्वाधिक महत्त्व इस कारण भी बढ़ जाता है कि यह पर्यावरण प्रदूषण में जूझने का सबसे महत्त्वपूर्ण अस्त्र के रूप में कार्य करती है। आजकल पर्यावरण में निम्नलिखित प्रकार के प्रदूषणों ने अनेकानेक चुनौतियां मानव समुदाय के समक्ष उजागर की हैं-

(1) जल प्रदूषण,

(2) वायु प्रदूषण,

(3) भूमि प्रदूषण।

(1) जल प्रदूषण-

बढ़ती जनसंख्या के प्रभाव ने पेयजल का अभूतपूर्व संकट उत्पन्न कर दिया है। ग्रीष्मकाल में तो अब स्वच्छ पेयजल हेतु नगरीय आवश्यकताएं दिनों दिन इतनी वृहद होती जा रही हैं कि आगामी दस वर्षों में इसको पर्याप्त प्राप्ति असम्भव ही है।

यद्यपि पानी जीवन रक्षक है किन्तु प्रदूषित पेयजल प्राणघातक भी। विकासशील राष्ट्रों में 5 में से 4 बच्चे प्रदुषित पयेजल से उत्पन्न बीमारियों के ही शिकार होते हैं। जैसे- पेचिश, हैजा, पोलिया, पेट के कीड़े, अमोबाइसिस, आदि। इसके अतिरिक मलेरिया एवं अन्य बीमारियां भी इसी पानी की देन है।

शहरीकरण भी प्रदूषित जल का सबसे बड़ा करण है। अनियोजित सीवरेज, उद्योग प्रदूषण तथा कसाईखाना चमड़ा कर्म, कपड़े के कारखाने, आवश्यक जल को अपेय एवं प्रदूषित कर देते हैं जो अनेकानेक स्वास्थ्य के प्रति घातक रोगों के जन्मदाता कहे जा सकते हैं।

(2) वायु प्रदूषण-

व्यक्ति का जीवन-दान स्वच्छ वायु ही प्रदान करती है। इसीलिए इसे प्राचीन काल से ही प्राण वायु कहा जाता रहा है। यह निश्चित् गैसों का एक आनुपातिक मिश्रण होता है, जिसमें असन्तुलन होते ही यह प्रदूषित एवं साँस लेने योग्य नहीं रहती है। इसमें महत्वपूर्ण गैसें है-

नाइट्रोजन 70%

ऑक्सीजन 21%

अन्य गैसें 9%

वायु प्रदूषण के निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं-

(1) धूल, राख एवं अन्य ऐसे ही पदार्थों के कण ।

(2) गैसीय पदार्थ, जैसे-सल्फर ऑक्साइड, कल-कारखाने, परिवहन के साधनों में जलाये जाने वाले ईंधन से निकलने वाला धुआं।

(3) एक्स-रे परीक्षणों एवं परमाणु घरों से उत्पन्न रेडिऐशन।

इसके अतिरिक्त उजड़ते वन, कब्ती जमीनें, ऊजां संकट के विकल्पों के रूप में उनका हो रहा तीव्र दोहन आदि भी इस प्रदूषण के द्वितीयक स्रोत कहे जा सकते हैं।

(3) भूमि प्रदूषण-

अधिकाधिक खादों द्वारा, कृत्रिम उर्वरकों द्वारा, अधिकाधिक अन्न उगाने की चेष्टायें तथा भोजन की बढ़ती मांग भूमि को नंगा, कृत्रिम उर्वरकता से पूर्ण कर जल्द ही बंजर बना देती है जिससे उसकी अपनी मूल शक्ति दिनोंदिन क्षाण होती जा रही है। अतः रासायनिक खाद भविष्य की आबादी हेतु अभिशाप सिद्ध होंगे। इससे नदियों, नहरां, तालाबों में  रासायनिक रिसाव, कीटनाशक पहुँचते हैं, जो पूरी भूमि के साथ-साथ जल को भी नष्ट करते हैं तथा उसकी रासायनिक संरचना को असन्तुलित करके जहरीला बना रहे हैं।

(4) ध्वनि प्रदूषण –

मनुष्य की आधुनिक संस्कृति ने वातावरण को विस्तारक सम्प्रेक्षण माध्यमों द्वारा जो चमत्कार किया है, वही अब उसके सामान्य संवेदी अंगों हेतु अभिशाप बन चला है। यातायात का शोर, विस्तातरक यन्त्रों का शोर, लम्बो जनसंख्या का कोलाहल, रॉपक, पॉप, म्यूजिक, स्टीरियो, दूरदर्शन, रेडियो, लाउडस्पीकर तथा उन पर फिल्म, चर्म आदि कृत्यों का विस्तारण मानव समुदाय हेतु अभिशप्त प्रदूषण को जन्म दे रहे हैं। इससे ब्लड प्रेशर, तनाव, चिन्ता, भग्नाशा, उत्पीड़न तथा शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य में वृद्धि होती है।

आधुनिक समय में पर्यावरण प्रदूषण एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बन चुका है उसकी उद्घोषणा 1972 में मानवीय पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, स्टाकहोम में की गयी थी-

“जीवन एक है, विश्व एक है तथा ये सभी प्रश्न परस्पर सम्बन्धित हैं। जनसंख्या विस्फोट, गरीबी, अज्ञानता, रोग एवं हमारे परिवेश का प्रदूषण, परमाणु हथियारों का जमाव एवं विनाश के जैविकीय तथा रासायनिक साधन ये सभी दुष्चक्र के अंग हैं। इनमें से प्रत्येक बात महत्त्वपूर्ण है और ध्यान देने योग्य है किन्तु उनसे एक-एक करके निपटना बेकार होगा।”

आधुनिकता की अन्धी दौड़ तथा उपभोक्तावादी संस्कृति के फलस्वरूप विकसित देशों को 19 प्रतिशत आबादी दुनिया के उत्पादन का 2/3 भाग चट कर जाती है जबकि विकासशील देश की 364 जनता संसार की उपभोग्य सम्पत्ति का केवल 4.4% ही प्राप्त कर पाती है।

सीवर्ड के अनुसार दस सहस्रों आधुनिक शस्त्रों का आणुविक अम्बार, विश्व को अनेकों बार ध्वस्त करने के लिए पर्याप्त हैं। शस्त्रास्त्रों की दौड़ अभूतपूर्व गति से जारी है। अणु शस्त्र निर्माण प्रक्रिया पर होने वाला व्यय आशातीत है।

इस प्रकार पर्यावरण शिक्षा का महत्त्व अपनी संस्कृति के संरक्षण हेतु मानवीय मूल्यों के विकास हेतु प्राकृतिक वस्तुओं के नष्ट होने से बचाने के लिए आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में जून 1989 में टोरंटो सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए वहां के प्रधानमन्त्री ने कहा था-

“हम प्रकृति के साथ बहुत खतरनाक खेल चुके हैं।”

अब समय आ गया है कि हम अपनी मानसिकता में परिवर्तन लायें।”

इस सम्मेलन में विषैली गैसों, कोटनाशकों तथा रासायनिक उत्पादों के नियन्त्रण पर भी चल दिया गया था इस कार्यक्रम को अपनाने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय अपील को गयी।

भारत में 1986 में पर्यावरण संरक्षण कानून प्रस्तुत किया गया। इसी हेतु सरकार ने 20 सूत्रीय कार्यक्रमों में भी इसे विशेष स्थान प्रदान किया। प्रौद एवं सतत् शिक्षा का भी यह एक प्रमुख मुद्दा बनाया गया ताकि समस्त मानव समुदाय साक्षरता के साथ-साथ अपने पर्यावरण को पहचान उसके संरक्षण हेतु आवश्यक सभी उपायों में चेतनता लाये।

सातवीं योजना के अन्तर्गत भी पर्यावरण सम्बन्धी जागरूकता एवं प्रशिक्षण हेतु व्यापक प्रबन्ध किये गये जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर विश्व पर्यावरण दिवस तथा वन्य जीवन सप्ताह आदि कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार की गयो। पर्यावरण शिक्षा हेतु इस योजना में दो प्रकार के कार्यक्रमों को भी  अपनाया गया था –

  1. औपचारिक पर्यावरण शिक्षा,
  2. अनौपचारिक पर्यावरण शिक्षा।

औपचारिकेतर शिक्षा कार्यक्रमों में भी पर्यावरण शिक्षा को समान महत्त्व प्रदान किया गया था जोकि इसको वर्तमान स्थिति को अभिव्यक्त करता है। उसके अन्तर्गत भारत सरकार ने  गम्भीरतापूर्वक कदम उठाने हेतु निम्नलिखित कार्यक्रमों को प्राथमिकता प्रदान की थी—

  1. कूड़ा-करकट, गन्दगी एवं निष्प्रयोजन्य वस्तुओं को निश्चित स्थान पर एकत्रित करना यौगिक खादों का उनसे निर्माण करना, कचरे की समस्या का समाधान करना।
  2. नदियों, नहरों तथा बहते जल प्रवाहों में कोई गन्दगी, सौवेज आदि को गन्दगो न डालना।
  3. तीर्थ स्थलों पर अधजले शवों, हड्डियों को न डालना।
  4. अवशिष्ट औद्योगिक उत्पादों को नदियों में प्रवाहित न करना।
  5. स्वास्थ्य शिक्षा को बढ़ावा देना तथा उसमें पर्यावरण की भूमिका से परिचित कराना।
  6. यातायात वाहनों द्वारा उत्पन्न गैसों, ध्वनि को नियन्त्रित करने हेतु कानूनी नियन्त्रण करना।
  7. वृक्षारोपण कार्यक्रमों को प्राथमिकता प्रदान करना।
  8. पर्यावरण समस्या के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना तथा प्रत्येक शिक्षा स्तर पर इसे क्रियान्वित करना।

पर्यावरण शिक्षा के मार्ग में आने वाली बाधाएं-

पर्यावरण शिक्षा यद्यपि प्रत्येक स्तर पर लागू करके प्रत्येक नागरिक को इसका कर्त्तव्य-बोध कराया गया है। किन्तु पर्यावरण शिक्षा का वह मार्ग अभी भी कांटों से भरा है जिससे मानव उसके अस्तित्व की रक्षा एवं संरक्षण अपनी सन्तानों तथा प्रिय वस्तुओं की तरह करने में समर्थ हो सके। इसके कुछ प्रमुख कारण अग्रलिखित हैं-

  1. पर्यावरण शिक्षा का बहुआयामी प्रकृति का होना – पर्यावरण शिक्षा एक बहुआयामी प्रकृति का क्लिष्ट स्वरूप है जिसकी व्यापकता अनेकानेक विषयों, भावों, क्षेत्रों तथा भौगालिक परिस्थितियों तक है। इसके गहन अध्ययन हेतु इन समस्त विषयों का मूलभूत ज्ञान होना एक आवश्यक शर्त है। अतः प्रत्येक विषय एवं क्षेत्र से कुछ तथ्यों को सरल रूप से पिरोकर एक जगह रखना अथवा प्रत्येक विषय को पर्यावरण के सन्दर्भ में विवेचित करना प्रत्येक शिक्षक के वश की बात नहीं कहीं जा सकती। न ही इसे विशिष्ट विषय के रूप में छात्रों पर थोपा जा सकता है। ऐसी विषम परिस्थितियों में पर्यावरण शिक्षा का स्वरूप और भी जटिल हो जाता है।
  2. पर्यावरण शिक्षा प्रदान करने हेतु स्त्रोतों की समस्या- पर्यावरण शिक्षा के अन्तर्गत अध्ययन के लिए अनेक प्रकार के स्रोतों, उपकरणों, पत्र-पत्रिकाओं सन्दर्भ ग्रन्थों तथा विश्लेषणों की आवश्यकता होती है जोकि एक व्ययसाध्य प्रक्रिया है। आवश्यक धन के अभाव एवं संसाधनों की कमी से इन्हें पूरा करना मुश्किल होता है।
  3. पर्यावरण शिक्षा में सामाजिक बाधाएं- पर्यावरण शिक्षा के आधुनिक अध्ययन परिणाम अनेकों बार वर्तमान सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक क्रियाकलापों से मेल नहीं रख पाते हैं अतः इन दोनों में परस्पर टकराव की सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वैसे भी राष्ट्र की रूढ़िवादिता यदि कभी-कभी इस प्रयास में साधक प्रतीत होती है तो अनेकों प्रकार को भ्रान्तियों को भी जन्म देती है जिससे यह कार्यक्रम सफलतापूर्वक नहीं चलाया जा सकता। ऐसी दशा में पर्यावरण शिक्षा में कार्यरत शिक्षक, अनुदेशक, प्रशिक्षक, अधिकारी आदि सभी के समक्ष इसके प्रकार एवं प्रसार को गम्भीर समस्याएं आकर खड़ी हो जाती हैं।
  4. विद्यालय सम्बन्धी समस्याएं – पर्यावरण अध्ययन के निश्चित् परिणाम न होकर अनेकों परिणाम प्राप्त होते हैं जिनकी अपनी-अपनी सोभाएं होती हैं। इस प्रकार विज्ञान की निश्चित प्रकृति से अनिश्चित् रूप की और जाने में शिक्षकों को कठिनाई का बोध होता है। पर्यावरण सम्बन्धी कार्यों का मूल्यांकन भी अपेक्षाकृत कठिन तथा बहु-आयामी होता है तथा छात्रों पर इसका अतिरिक्त बोझ बढ़ता है।

ऐसी ही कुछ समस्यायें सतत् एवं औपचारिकेतर केन्द्रों पर चलाये जाने वाले पाठ्यक्रमों में आती हैं कि प्रादों में वर्तमान पर्यावरण के सम्प्रत्यय को सम्प्रपित करना एक कष्टप्रद तथा कठिन कार्य है, क्योंकि उनके आचार-विचार, मान्यताएं प्राचीन रूढ़ियों से गुड़ी हैं, जिन्हें वे आसानी से बदलने को तैयार नहीं हैं। उनके भोजन बनाने, ईंधन प्राप्त करने तथा अन्य कार्यों हेतु वनस्पतियों के दोहन के पुराने परम्परागत तरीके ही चले आ रहे हैं तथा उनके प्रति ही ये अपनी उत्तम अभिवृति का प्रदर्शन करते हैं जिससे उनके लिए पर्यावरण के सही दिशा निर्देशन हेतु काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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