इतिहास / History

अकबर के साम्राज्य का विस्तार | अकबर के साम्राज्य का सुदृढीकरण

अकबर के साम्राज्य का विस्तार | अकबर के साम्राज्य का सुदृढीकरण

अकबर के साम्राज्य का विस्तार

साम्राज्य का सुदृढ़ीकरण एवं विस्तार

(Strengthening and Expansion of the Empire)

आंतरिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् अकबर ने साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई। वह एक महत्वाकांक्षी शासक था। भारत की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में जब मुगल राज्य चारों तरफ से अनेक स्वतंत्र राज्यों एवं विस्तारवादी शासकों से घिरा हुआ था, नवजात मुगल राज्य की सुरक्षा एवं इसके सुदृढ़ीकरण के लिए अकबर को भी विस्तारवादी नीति का सहारा लेना पड़ा। वह स्वतंत्र राज्यों को अपने प्रभाव में लेकर अथवा उन पर विजय प्राप्त कर भारत का एकछत्र सम्राट बनना चाहता था।

अकबर के सैनिक अभियानों का उद्देश्य- अकबर ने अपने राजनीतिक आदर्शों के अनुकूल एवं निश्चित उद्देश्यों से प्रेरित होकर साम्राज्यवादी एवं विस्तारवादी नीति अपनाई। मध्यकालीन इतिहासकार अबुलफजल के अनुसार, अकबर की विजय नीति का मुख्य उद्देश्य स्थानीय भारतीय शासकों के अत्याचारों से उत्पीडित जनता को अपने संरक्षण में लेकर उन्हें अत्याचारों एवं उत्पीड़नों से सुरक्षा प्रदान कर सुख एवं शांति का जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करना था। अबुलफजल के इस विचार को अनेक आधुनिक इतिहासकार वास्तविकता से परे मानते हैं। वस्तुतः, अबुलफजल की धारणा निराधार एवं अतिशयोक्तिपूर्ण है। कुछ अन्य इतिहासकारों ने अकबर की साम्राज्यवादी नीति को धार्मिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया है। यह मत भी असंगत प्रतीत होता है। अकबर की साम्राज्यवादी नीति का उद्देश्य वस्तुतः एक चक्रवर्ती राजा के आदर्शों का पालन करना था। जिन परिस्थितियों में अकबर का राज्यारोहण हुआ था, जिस समय मुगलों के भारत में अनेक प्रतिद्वंद्वी थे, अकबर अगर सभी प्रभावशाली राज्यों पर अपना अंकुश नहीं रखता तो स्वयं उसी को सत्ता खतरे में पड़ जाती। अतः, अपने राजवंश की सुरक्षा के लिए एवं राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को भारत की सत्ता से अलग रखने के लिए अकबर को विस्तारवादी नीति का सहारा लेना पड़ा। इस नीति को अपनाने के पीछे कुछ आर्थिक स्वार्थ भी छिपे हुए थे। हुमायूँ की मृत्यु के पश्चात् राजकोष रिक्त पड़ा हुआ था, प्रशासनिक व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी एवं सैनिक संगठन भी दुर्बल था। प्रशासनिक व्यवस्था को दुरुस्त करने एवं सेना का पुनर्सगठन करने के लिए अकबर को धन की भी जरूरत थी। यह धन अकबर को नए क्षेत्रों पर विजय करने से उपलब्ध हो सकता था। अतः, अकबर को विस्तारवादी नीति अपनानी पड़ी। एक इतिहासकार के अनुसार तो अकबर की साम्राज्य-लिप्सा के साथ लोकहित की भावना भी संश्लिष्ट थी। इस प्रकार अकबर ने एक सोची-समझी योजना के अंतर्गत साम्राज्य-विस्तार की नीति अपनाई और इसके कार्यान्वयन में वह सफल हुआ।

अकबर का साम्राज्य-विस्तार तीन विभिन्न चरणों में पूरा हुआ। अकबर ने बैरम खाँ की संरक्षकता में (1556-60) उत्तरी भारत के अनेक स्थानों पर विजय प्राप्त की। 1560-79 के बीच में अकबर का अधिकांश समय अफगान प्रतिद्वंद्वियों को हराने एवं राजपूत राज्यों से संबंध सनिश्चित करने में व्यतीत हुआ। 1579-1605 के मध्य अकबर को अपना ध्यान पश्चिमोत्तर सीमा एवं दक्षिण भारतीय राज्यों की तरफ देना पड़ा।

विस्तार का प्रथम चरण (1556-60)- पानीपत के द्वितीय युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरांत दिल्ली और आगरा पर मुगलों का आधिपत्य स्थापित हो गया। इस समय मुगलों को सबसे अधिक खतरा अफगानों से था। इसलिए, बैरम खाँ ने अफगानों के विरुद्ध अभियान आरंभ कर दिया। सिकंदर सूर को पराजित कर मानकोट के दुर्ग पर मुगलों ने अधिकार कर लिया इबाहीम सूर से मुगलों ने जौनपुर छीन लिया। इस प्रकार, संभल, लखनऊ और बनारस पर भी मुगल सत्ता स्थापित हो गई। मेवात, ग्वालियर और अजमेर भी बैरम खाँ के प्रयासों से मुगल राज्य में सम्मिलित कर लिए गए। फलस्वरूप अकबर का राज्य पूर्व में बिहार और दक्षिण में मालवा तक बढ़ गया। चुनार, रणथंभौर और मालवा विजय का भी प्रयास किया गया, परंतु इनमें सफलता नहीं मिली। इन पर अकबर ने बाद में अधिकार किया।

द्वितीय चरण (1560-79)- 1560 ई. तक अकबर बैरम खाँ के नियंत्रण से मुक्त हो चुका था। यद्यपि बैरम खां के पतन के पश्चात् भी अकबर को दरबारी प्रभाव का सामना करना पड़ा, तथापि अकबर ने विजय-कार्य जारी रखा। इस अवधि के दौरान अकबर ने अपना ध्यान मुख्यतः अफगानों के दमन एवं राजपूत राज्यों को अपने प्रभाव में लाने की ओर दिया। उसने मालवा, जौनपुर, चुनार, जयपुर, मेड़ता, गोंडवाना (गढ़कटंगा), मेवाड़ रणथंभौर, कालिंजर, गुजरात एवं बंगाल और बिहार पर विजय प्राप्त की।

मालवा- बैरम खाँ के प्रयासों से मुगल राज्य की सीमा मालवा तक पहुंच चुकी थी। मालवा अफगानों के प्रभाव में था। अकबर के समय में मालवा का शासक बाजबहादुर था। वह संगीत का महान प्रेमी था। बाजबहादुर और उसकी प्रेयसी रूपमती के प्रेम-संबंधी किस्से विख्यात थे। बाजबहादुर संगीत और रूपमती में इतना अधिक निमग्न रहता था कि उसे राजकाज की तरफ ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिलता था। अतः, मालवा विजय को सुगम जानकर अकबर ने मालवा पर चढ़ाई करने की योजना बनाई। मालवा पर आक्रमण करने के अन्य कारण भी थे। ग्वालियर और अजमेर पर विजय प्राप्त करने के बाद अकबर के राज्य की सीमा मालवा के निकट पहुंच गई थी। बैरम खाँ ने अपने समय में ही खान-ए-जमाँ को मालवा पर अधिकार करने को भेजा था, परन्तु बैरम के पतन के साथ ही मालवा विजय के लिए भेजी गई सेना को वापस बुला लिया गया। अकबर ने अपने हाथों में सत्ता लेते ही मालवा के विरुद्ध सैनिक अभियान आरम्भ कर दिया।

1560 ई० में अधम खाँ को मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा गया । बाजवहादुर मुगल सेना का सामना नहीं कर सका । राजधानी सारंगपुर के निकट हुए युद्ध में उसे पराजित होना पड़ा। अधम खाँ ने राजधानी पर अधिकार कर लिया। बाजबहादुर दक्षिण की तरफ भाग गया। मुगल प्रांतपतियों क्रमश: अधम खाँ और पीर मुहम्मद के अत्याचारों से त्रस्त जनता के सहयोग से बाजबहादुर ने पुनः मालवा पर अधिकार कर लिया। (1562 ई०) । अकबर ने अब अब्दुल्ला खान उजबेग को मालवा पर अधिकार करने को भेजा। इस बार भी बाजबहादुर को पराजित होकर भागना पड़ा। उसने पहले मेवाड़ के राणा उदय सिंह के यहाँ शरण ली और तत्पश्चात् गुजरात चला गया। अपना खोया राज्य प्राप्त करने में असफल होकर 1570 ई० में उसने नागौर में अकबर के समक्ष समर्पण कर दिया। अकबर ने उसे अपना मनसबदार बना दिया। मालवा की विजय अकबर के लिये अत्यंत लाभप्रद सिद्ध हुई। मालवा का समृद्ध एवं विशाल प्रति उसे प्राप्त हो गया। इसके साथ ही अफगानों का प्रभाव भी मालवा से समाप्त हो गया। मालवा पर अधिकार कर लेने से अकबर के लिए गुजरात एवं दक्षिण भारत की विजय का मार्ग सरल हो गया।

जौनपुर- जौनपुर में अभी भी अफगानों की सत्ता निर्मूल नहीं हुई थी। अकबर को मालवा अभियान में व्यस्त पाकर मुहम्मद आदिलशाह सूर के पुत्र शेर खाँ ने जौनपुर पर चढ़ाई कर दी । इसलिए अकबर ने जौनपुर के सूबेदार खान्जमाँ को तत्काल सैनिक सहायता भेजी। फलतः खानजमा अली कुली खाँ ने अफगानों को 1561 ई० में जौनपुर से मार भगाया। मुगल सत्ता वहाँ पुनः स्थापित की गई । खानजमाँ ने अधम खाँ के ही समान जौनपुर में व्यवहार किया। इसलिए अकबर स्वयं जौनपुर गया। भयभीत होकर खानजमाँ ने अकबर से क्षमा मांग ली। जौनपुर पर मुगल सत्ता दृढ़ता से स्थापित हो गई।

चुनार- चुनार का दुर्ग अत्यधिक महत्वपूर्ण था। यह उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच सीमा रक्षक का कार्य करता था। यहाँ भी अफगान सक्रिय थे। इसलिए 1561 ई० में आसफ खां के अधीन इस सुदृढ़ एवं सामरिक महत्व के दुर्ग पर अधिकार स्थापित किया गया। इससे अकबर को बिहार की तरफ बढ़ने एवं अफगानों का दमन करने में सहूलियत हुई।

जयपुर- 1562 ई० में अकबर ने राजपूतों को अपने प्रभाव में लेना आरंभ किया। इसकी शुरुआत जयपुर (आमेर या अंबर) के राज्य से हुई। जयपुर में कछवाहा राजपूतों का शासन था। यहाँ का शासक राजा भारमल था। जनवरी 1562 में जब अकबर ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के दरगाह के दर्शन के लिए अजमेर जा रहा था तब इस राजा ने मेवात के गवर्नर मुहम्मद शफुद्दीन हुसैन के विरुद्ध अकबर से सहायता की याचना की और स्वेच्छा से अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। इतना ही नहीं, उसने अपनी पुत्री का विवाह भी अकबर से कर दिया। बदले में अकबर ने उसे अपना मनसबदार बना दिया उसके पुत्र भगवान दास और पौत्र मानसिंह को मुगल सेवा में स्थान दिया गया। इस वैवाहिक संबंध ने कालांतर में अकबर की राजपूत नीति को प्रभावित किया। इस वैवाहिक संबंध से अकबर एवं राज्य को अनगिनत लाभ हुए। अकबर को अनेक योग्य राजपूत सेनानायकों प्रशासकों एवं राजनीतिज्ञों का सहयोग प्राप्त हुआ। अकबर का उत्तराधिकारी जहाँगीर भी इसी विवाह के परिणामस्वरूप पैदा हुआ। राजपूत शासक भी अब सुरक्षित और आश्वस्त महसूस करने लगे। अंबर के शासक के साथ अकबर के संबंध के दूरगामी परिणाम निकले।

मेड़ता- आमेर का पड़ोसी राज्य मेड़ता था। यह मेवाड़ के राणा उदय सिंह के अधीनस्थ था। मेड़ता का शासक जयमल था। अकबर मेवाड़ पर अधिकार करने के पूर्व इस राज्य पर कब्जा जमाना आवश्यक समझता था। इसलिए 1562 ई. में मुगल सेना ने मेड़ता पर आक्रमण कर दिया। जयमल और देवदास ने किले की रक्षा बहादुरी के साथ की परंतु उन्हें पराजित होना पड़ा। मेड़ता पर मुगलों का अधिकार हो गया।

गढ़कटंगा (गोंडवाना) की विजय- गढकटंगा अथवा गोंडवाना मध्य प्रदेश का एक शक्तिशाली राज्य था। 1548 ई० में अपने पति दलपतशाह की मृत्यु के बाद राज्य की वास्तविक बागडोर रानी दुर्गावती के हाथों में आ गई। उसने अपने अल्पवयस्क वीर पुत्र को गद्दी पर बिठा दिया एवं स्वयं संरक्षिका के रूप में शासन करने लगी। गढ़कटंगा की सीमा मुगल राज्य से मिलती थी। वहाँ की दुर्बल स्थिति एवं धन प्राप्त करने की संभावना को ध्यान में रखते हुए आसफ खाँ ने इस राज्य को जीतने की योजना बनाई। रानी ने अकबर से संधि करने का प्रयास किया परंतु वह विफल रही। अब उसने भी युद्ध की तैयारी आरंभ कर दी। उसने मुगलों का वीरतापूर्वक सामना किया। नरही के आरंभिक युद्ध में पराजित होकर मुगल सेना को पीछे हटना पड़ा। मुगलों ने नई सेना के साथ पुनः रानी पर आक्रमण किया। युद्ध में घायल होकर रानी ने आत्महत्या कर ली। रानी का पुत्र भी युद्ध में मारा गया। 1564 ई० में गोंडवाना पर मुगलों का अधिकार हो गया। यहाँ से उन्हें बेहिसाब धन मिला।

मेवाड़ पर आक्रमण- मेवाड़ में सिसोदिया राजपूत राज्य करते थे। इसकी राजधानी चित्तौड़ थी। यह राजपूत राज्यों में सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य था। मेवाड़ का राणा उदय सिंह था। उसने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। इसलिए 1567 ई० में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। उदय सिंह ने वीरतापूर्वक मुगलों का सामना किया परंतु विफल होकर वह जंगलों में जा छुपा । राजपूतों ने संघर्ष जारी रखा परन्तु अकबर चित्तौड़ पर अधिकार करने में सफल हुआ। राणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र महाराणा प्रताप ने भी मुगलों से लड़ाई जारी रखी। छापामार युद्ध-नीति का सहारा लेकर उसने मुगलों को परेशान कर डाला। 1576 ई० में हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध में पराजित होकर भी उसने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। वह मेवाड़ के अनेक भागों पर अधिकार करने में सफल हुआ परंतु चित्तौड़ को नहीं जीत सका। अकबर भी पूरे मेवाड़ पर अपना अधिकार स्थापित नहीं कर पाया।

रणथंभौर की विजय- 1567 ई० में चित्तौड़ पर विजय प्राप्त करने के उपरांत अकबर ने राजपूताना के एक अन्य प्रमुख राज्य रणथंभौर पर आक्रमण किया (1569 ई०)। यहाँ हाड़ा राजपूत राज्य करते थे। रणथंभौर का राजा राय सुरजन था। सुरजन ने पहले मुगल सेना का वीरतापूर्वक सामना किया परंतु मुगलों की शक्ति का विरोध निरर्थक समझकर उसने राजा भगवान दास और मानसिंह के समझाने पर अकबर से संधि कर ली। अनेक विद्वानों की धारणा है कि राय सुरजन ने अकबर से संधि नहीं की बल्कि उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

कालिंजर अभियान- रणथंभौर के अतिरिक्त अकबर ने 1569 ई० में ही कालिंजर का दुर्ग भी जीत लिया। यह एक अभेद्य दुर्ग माना जाता था। यह दुर्ग राजा रामचंद्र के अधीन था। चित्तौड़ और रणथंभौर की पराजय से भयभीत रामचंद्र ने मुगल सेनापति मजनून खान से युद्ध किए बिना ही उसे दुर्ग सौंप दिया। रामचंद्र को इलाहाबाद के निकट एक जागीर दे दी गई। कालिंजर पर विजय प्राप्त होने से उत्तरी भारत में अकबर की स्थिति सुदृढ़ हो गई।

मारवाड़ पर अधिकार- 1569 ई० तक राजपूताना के प्रमुख राजपूत शासक या तो अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुके थे अथवा उसके द्वारा पराजित किये जा चुके थे। इससे अकबर की धाक अन्य राजपूत राज्यों पर भी जम गई थी। इसलिए जब 1570 ई० में अकबर नागौर गया तो वहाँ पर जोधपुर, बीकानेर एवं जैसलमेर के शासकों ने उपस्थित होकर अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। बीकानेर और जैसलमेर से वैवाहिक संबंध भी स्थापित हुए। इस प्रकार मारवाड़ भी अकबर के प्रभाव में आ गया।

गुजरात पर आक्रमण- राजपूताना की विजय के पश्चात् अकबर ने अपना ध्यान गुजरात की ओर दिया। अकबर द्वारा गुजरात पर आक्रमण किए जाने के अनेक कारण थे। बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात् गुजरात की आंतरिक राजनीतिक स्थिति दयनीय हो गई थी। गुजरात का तत्कालीन शासक मुहम्मदशाह तृतीय राजनीतिक षड्यंत्रों के पश्चात् ही गद्दी प्राप्त कर सका था। इसलिए राज्य में अनेक असंतुष्ट दल थे। आंतरिक अव्यवस्था का लाभ उठाकर अनेक सरदारों ने राज्य के विभिन्न भागों पर अपना अधिकार जमा रखा था। इस स्थिति का लाभ उठाकर पुर्तगालियों ने भी अनेक महत्वपूर्ण बंदरगाहों पर कब्जा जमा रखा था। गुजरात का सुलतान नाममात्र का शासक था। वह वस्तुतः महत्वाकांक्षी और कुचक्री सरदारों के हाथ की कठपुतली था। राज्य में प्रशासनिक व्यवस्था नष्ट हो जाने से जनता भी पीड़ित थी। ऐसी स्थिति में अकबर आसानी से गुजरात पर विजय प्राप्त कर सकता था। गुजरात पर आक्रमण करने के अन्य कारण भी थे। अकबर गुजरात को अपना पैतृक राज्य समझकर उसे पुनः प्राप्त करना चाहता था। गुजरात पर अधिकार कर वह एक ही साथ उस राज्य में पुर्तगालियों, अफगानों एवं मिर्जाओं की बढ़ती शक्ति को नष्ट करना चाहता था। इसके अतिरिक्त अकबर गुजरात जैसे समृद्ध प्रांत से धन प्राप्त करने की भी आशा रखता था। गुजरात के वजीर एतमाद खान के निमंत्रण को बहाना बनाकर उसने गुजरात पर आक्रमण कर दिया। नवंबर 1572 में उसने अहमदाबाद पर बिना किसी विशेष प्रतिरोध के कब्जा जमा लिया। मुजफ्फरखाँ और अन्य अनेक सरदारों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। खान आजम मिर्जा अजीज कोका को उत्तरी गुजरात एवं एतमाद खान को दक्षिणी गुजरात का प्रशासक नियुक्त किया गया। अहमदाबाद के पश्चात् अकबर खंभात (कांबे) की तरफ बढ़ा जहाँ मिर्जाओं ने अपना आधिपत्य जमा रखा था और विद्रोह पर उतारू थे। खंभात पहुंचने पर पुर्तगाली एवं अन्य व्यापारियों ने अकबर के समक्ष उपस्थित होकर उसकी राजसत्ता स्वीकार की।

इसी समय मिर्जाओं के नेता इब्राहीम हुसैन मिर्जा ने विद्रोह कर दिया एवं भड़ौच पर अधिकार कर लिया । क्रुद्ध होकर अकबर ने एक ही साथ बड़ौदा एवं सूरत पर आक्रमण कर दिया। दिसम्बर, 1572 में सरनाल के युद्ध में अभूतपूर्व वीरता का प्रदर्शन करते हुए अकबर ने हुसैन मिर्जा को भागने पर मजबूर कर दिया। तत्पश्चात् सूरत पर घेरा डाल दिया गया। इस समय अकबर की स्थिति अत्यंत ही नाजुक थी। मिर्जा लगातार उपद्रव कर रहे थे, बंगाल में अफगान भी सिर उठा रहे थे परंतु अकबर ने दृढ़तापूर्वक परिस्थिति का सामना किया। लगभग एक माह के घेरे के पश्चात् 26 फरवरी, 1573 को अकबर सूरत पर अधिकार करने में सफल हुआ। गुजरात के प्रशासन की व्यवस्था कर अकबर राजधानी आगरा लौट गया।

गुजरात पर अकबर की यह विजय अस्थायी सिद्ध हुई। अकबर के वापस लौटते ही अबीसिनियनों, अफगानों और मिर्जाओं ने विद्रोह कर दिया। अफगानों और अबीसीनियनों ने डुदर पर अधिकार कर लिया और मुहम्मद मिर्जा ने, जो दक्षिण भाग गया था, खंभात और भड़ौच पर अधिकार कर लिया एवं अहमदाबाद को घेर लिया। इन्हें गुजरात की जनता का समर्थन भी प्राप्त था। अकबर इस समय फतेहपुर सीकरी में था एवं बंगाल पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था। गुजरात के विद्रोह को सूचना पाते ही वह तेजी से अहमदाबाद की तरफ बढ़ा। ग्यारह दिनों में ही वह अहमदाबाद पहुंच गया। विद्रोहियों को आशा नहीं थी कि अकबर इतना शीघ्र वहां पहुंच जाएगा। इन्हें संगठित होने का मौका दिए बिना ही साबरमती नदी पारकर अकबर ने दुश्मनों पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में विद्रोही बुरी तरह पराजित हुए। हुसैन मिर्जा और इख्तियार उल-मुल्क युद्ध क्षेत्र में ही मारे गए। अहमदाबाद पर पुनः अकबर का अधिकार स्थापित हो गया। (सितम्बर, 1573)। गुजरात की विजय अकबर की एक महान उपलब्धि थी। उसे एक समृद्ध प्रांत हाथ लगा, उसके साम्राज्य की पश्चिमी सीमा समुद्र तक फैल गई तथा अफगानों एवं मिर्जाओं की शक्ति समाप्त हो गई। गुजरात विजय से अन्य लाभ भी हुए। समुद्री व्यापार का विकास हुआ,टोडरमल द्वारा किए गए भूमि सुधारों को आदर्श रूप में साम्राज्य के अन्य भागों में अपनाया गया तथा अकबर को गुजरात में अनेक वैसे व्यक्तियों से मुलाकात हुई जिन्होंने उसकी धार्मिक नीति को प्रभावित किया।

बंगाल, बिहार में अफगानों का दमन- गुजरात पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् अकबर ने बंगाल और बिहार के अफगानों की तरफ अपना ध्यान दिया। शेरशाह के बाद बिहार के गवर्नर सुलेमान कारारानी ने अपनी सत्ता का विस्तार कर बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर अधिकार कर लिया था। वह एक स्वतंत्र शासक बन बैठा था लेकिन उसने अकबर से खुला संघर्ष नहीं किया एवं उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। अकबर भी राजपूताना एवं गुजरात की विजय एवं आंतरिक विद्रोहों में उलझे रहने के कारण सुलेमान कारारानी से युद्ध करने की स्थिति में नहीं था। इसलिए उसने सुलेमान कारारानी से अपनी-अपनी अधनीता स्वीकार कर एक संतोष की सांस ली। 1572 ई० में सुलेमान कारारानी की मृत्यु के साथ ही परिस्थितियाँ बदल गई। बंगाल के नए शासक दाउद ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। उसने खुतबा एवं सिक्के से अकबर का नाम हटा दिया एवं शाह की उपाधि धारण की। अपनी सेना को संगठित कर उसने मुगलों के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर दिया। उसने जामनिया पर अधिकार कर लिया । क्रुद्ध होकर अकबर ने मुनीम खाँ को दाउद पर आक्रमण करने का आदेश दिया एवं सैनिक सहायता भेजी। 1574 ई० में मुनीम खाँ के द्वारा पीछा किए जाने पर दाउद ने पटना में भागकर शरण ली। अकबर स्वयं पटना की तरफ बढ़ा । हाजीपुर पर अधिकार कर उसने पटना पर भी विजय प्राप्त की। मुजफ्फर खाँ तुरबाती को बिहार का गवर्नर नियुक्त किया गया। उसने बिहार में अफगानों एवं विद्रोही सरदार का सफाया आरंभ किया।

पटना में पराजित होकर दाउद बंगाल में अपनी राजधानी टांडा की तरफ भागा। अकबर के आदेश से मुनीम खाँ उसका पीछा करता हुआ टांडा पहुंचा एवं उस पर अधिकार कर लिया। उसने मिदनापुर, बर्दवान, सतगांव एवं अन्य स्थानों पर भी विजय प्राप्त की। 1575 ई० में मुगलमारी के युद्ध में पराजित होकर दाउद ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। उसे उड़ीसा में अकबर के अधीनस्थ शासक के रूप में राज्य करने की अनुमति प्रदान की गई। मुनीम खाँ को मृत्यु के पश्चात् बंगाल में पुनः अव्यवस्था छा गई। इसका लाभ उठाकर दाउद ने विद्रोह कर दिया। उसने भद्रक के मुगल गवर्नर की हत्या कर दी और टांडा पर पुनः अधिकार कर लिया। बिहार में उपद्रव आरंभ हो गए। बंगाल के नए गवर्नर हुसैन कुली-खान ए-जहाँ ने राजा टोडरमल की सहायता से अफगानों के विरुद्ध मोर्चा तैयार किया। उसने तेलियागढ़ी पर अधिकार किया एवं जुलाई, 1576 में दाउद को राजमहल (अक महल) के युद्ध में पराजित किया। दाउद को पकड़ कर उसकी हत्या कर दी गई। दाउद की हत्या के साथ हो बंगाल के स्वतंत्र राज्य का अंत हो गया। अफगानों का स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व भी हमेशा के लिए समाप्त हो गया। मुगलों को एक अन्य समृद्ध एवं समुद्री प्रांत हाथ लगा।

तृतीय चरण (1579-1605)- साम्राज्य विस्तार के तीसरे चरण में अकबर ने उड़ीसा और काश्मीर को विजय के अतिरिक्त पश्चिमोत्तर सीमावर्ती राज्यों और दक्षिण के रियासतों की तरफ अपना ध्यान मुख्य तौर पर दिया।

उड़ीसा में अफगानों का उन्मूलन- यद्यपि बंगाल और बिहार में अकबर ने अफगानों की शक्ति नष्ट कर दी थी तथापि उड़ीसा में उनका प्रभाव अभी भी बना हुआ था। दाउद खाँ की मृत्यु के बाद कुतलु खाँ ने उड़ीसा में अपनी शक्ति अत्यधिक बढ़ा ली थी। वह एक स्वतत्र शासक के समान व्यवहार कर रहा था। इसलिए अकबर ने अफगानों की बची-खुची शक्ति को समाप्त करने का निश्चय किया। उसने 1590 ई० में बिहार के गवर्नर राजा मानसिंह को कुतलु खां के दमन का कार्य सौंपा। जब तक राजा मानसिंह उड़ीसा पहुंचे तब तक कुतलु खां को मृत्यु हो चुकी थी। उसके पुत्र निसार खाँ को मानसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने को बाध्य कर दिया। निसार खाँ ने खुतबा एवं सिक्के में अकबर का नाम रखने, जगन्नाथ मंदिर पर अकवर का आधिपत्य स्वीकार करने एवं हिन्दुओं पर अत्याचार नहीं करने का वचन दिया। यह व्यवस्था अधिक दिनों तक नहीं चल सकी। अफगानों ने पुनः उपद्रव मचाना आरंभ कर दिया। इसलिए 1592 ई० में मानसिंह ने उड़ीसा पर पुनः आक्रमण किया। निसार खाँ को उड़ीसा से बाहर कर दिया गया। उड़ीसा को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। दक्षिण उड़ीसा में खुर्दा के राजा रामचन्द्र देव को ‘गजपति एवं ‘उड़ीसा के महाराजा’ के रूप में अकबर का अधीनस्थ शासक बहाल किया गया। इस व्यवस्था ने उड़ीसा में अफगानों को शक्ति समाप्त कर दी। अकबर को अब वहाँ के हिन्दुओं का समर्थन भी प्राप्त हो गया।

काबुल की विजय- उत्तर-पूर्वी भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर अकबर ने अब भारत की पश्चिमोचर सीमा की तरफ ध्यान दिया । काबुल में अकबर के विरुद्ध बराबर षड्यंत्र हो रहे थे। इन विद्रोहियों का नेता स्वयं अकबर का भाई हकीम मिर्जा था। हकीम मिर्जा की सहायता अकबर की नीतियों से असंतुष्ट अनेक मुगल पदाधिकारी भी कर रहे थे। वे अकबर के स्थान पर हकीम मिर्जा को भारत की गद्दी सौंपना चाहते थे। इस षड्यंत्र में ख्वाजा मंसूर भी सम्मिलित था।

हकीम मिर्जा आरंभ से ही अकबर का विरोध करता आ रहा था। उसने 1560-67 में भारत पर आक्रमण भी किया था, परंतु विफल होकर और अकबर से क्षमा माँगकर काबुल लौट गया था। उसने दूसरी बार 1581 ई० में पुनः पंजाब पर आक्रमण कर दिया, परंतु पराजित होकर वापस काबुल चला गया । अकबर ने इस बार मिर्जा हकीम का पीछा नहीं छोड़ा। मानसिंह के अधीन एक सेना काबुल भेजकर वह स्वयं भी काबुल पहुंचा। अनेक विद्रोहियों एवं उनके प्रमुख नेता मंसूर की हत्या करवा दी गई। इससे डरकर अन्य लोगों ने अकबर से क्षमा मांग ली। हकीम मिर्जा डर कर भाग खड़ा हुआ। काबुल का गवर्नर बख्तउन्निसा को बनाया गया। कुछ समय बाद हकीम पुनः काबुल वापस लौट आया। उसने प्रशासन भी संभाल लिया। बख्नउन्निसा नाममात्र की गवर्नर बनी रही। 1585 ई० में हकीम मिर्जा की मृत्यु के पश्चात् काबुल मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया एवं मानसिंह को वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया गया। मुगल साम्राज्य की सीमा अब काबुल तक विस्तृत हो गई एवं मध्य एशिया की तरफ से मुगल साम्राज्य पर आक्रमण की संभावना कम हो गई।

काश्मीर की विजय- काश्मीर के शासक अली शाहचक ने 1572 ई० में अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी, परंतु उसको मृत्यु के पश्चात् नए शासक यूसुफ ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने की कोशिश की। अकबर के बुलाने पर उसने अपने पुत्रों को तो अकबर के दरबार में भेज दिया परंतु वह स्वयं नहीं गया। इस पर क्रुद्ध होकर अकबर ने 1586 ई० में भगवान दास को काश्मीर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। यूसुफ खाँ और उसका पुत्र याकूब खाँ युद्ध में पराजित कर बंदी बना लिए गए। याकूब जेल से किसी प्रकार निकल भागा और मुगलों को परेशान करने लगा लेकिन मुगल सेना के सामने वह टिक नहीं सका। उसे आत्म-समर्पण करने को बाध्य होना पड़ा। कश्मीर पर मुगलों का अधिकार हो गया। इसे काबुल सूबा का एक सरकार बना दिया गया।

सिंघ पर अधिकार- अकबर ने काश्मीर के बाद 1591 ई० में सिंघ पर भी अधिकार कर लिया। सिंध का महत्व बहुत अधिक था। इसलिए अकबर इसे अपने नियंत्रण में लेना चाहता था। 1590 ई० में मुल्तान के गवर्नर मिर्जा अब्दुर्रहीम खानखाना को सिंध की राजधानी थट्टा पर आक्रमण करने का आदेश दिया गया। उस समय सिंध का शासक मिर्जा जानी था। उसने मुगल सेना का मुकाबला किया, परंतु पराजित होकर अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। उसने थट्टा और सेहवान के दुर्गों के साथ अपना राज्य अकबर को सौंप दिया। अकबर ने बाद में उसे थट्टा का दुर्ग लौटा दिया एवं अपना मनसबदार बना लिया।

बलूचिस्तान और कांधार अभियान- सिंध के बाद अकबर ने क्रमशः बलूचिस्तान और कांधार को भी अपने अधिकार में कर लिया। 1595 ई० में मुगल सेनापति मौर मासूम ने पन्नी अफगानों को परास्त कर सीबी का किला एवं मकरान सहित समूचा बलूचिस्तान हथिया लिया। इसी प्रकार, कांधार के ईरानी गवर्नर मुजफ्फर हुसैन मिर्जा ने, जिसकी ईरानियों से नहीं पटती थी, कांधार का किला मुगलों को सौंप दिया। मुजफ्फर हुसैन मिर्जा को मनसब प्रदान किया गया। इन विजयों के परिणामस्वरूप अकबर की पश्चिमोत्तर सीमा अत्यंत सुरक्षित हो पाई। उसका साम्राज्य भी काफी विशाल हो गया।

दक्षिण की विजय- उत्तरी भारत और सीमांत प्रदेश में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर अकबर ने दक्षिण भारत की तरफ अपना ध्यान दिया । दक्षिण पर आधिपत्य स्थापित किए बिना अकबर की विजय यात्रा अधूरी रह जाती, वह समस्त भारत का एकछत्र सम्राट नहीं बन पाता । दक्षिण अभियान के कई कारण थे। मालवा, गुजरात और उड़ीसा पर मुगल आधिपत्य से साम्राज्य की सीमा दक्षिण के राज्यों के निकट पहुंच गई। इनसे सदैव सीमा-संबंधी विवाद होते रहते थे। दक्षिण विजय का सामजिक एवं आर्थिक महत्व भी था। दक्षिण में पुर्तगाली भी अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे जिन्हें रोकना अति आवश्यक था। सबसे बड़ी बात थी कि अकबर भारत के विभिन्न वर्गों, जातियों तथा समुदायों को एक सूत्र में बांधकर सांस्कृतिक एवं प्रशासनिक एकता कायम करना चाहता था। यह कार्य राजनीतिक एकीकरण के बिना नहीं हो सकता था। दक्षिण की विजय अकबर के व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ही नहीं बल्कि एक प्रबुद्ध एवं महान शासक के आदर्शों के अनुकूल भी थी। दक्षिण भारत की राजनीतिक एवं सामाजिक-धार्मिक अव्यवस्था का लाभ उठाकर अकबर ने दक्षिण-विजय की योजना बनाई।

अकबर की दक्षिण-नीति उत्तर से कुछ भिन्न थी। वह दक्षिण के राज्यों से अपनी अधीनता स्वीकार करवा कर उन्हें अपना अधीनस्थ राज्य बनाना चाहता था। आरंभ में उसने इसी नीति के अनुकूल प्रयास भी किया, परन्तु इसमें विफल होकर उसने आक्रामक नीति अपनाई।

खानदेश और अकबर- अकबर ने सबसे पहले खानदेश की तरफ अपना ध्यान दिया, क्योंकि इसे दक्षिण का प्रवेशद्वार माना जाता था। 1504 ई० में ही खानदेश के शासक मुबारक शाह द्वितीय ने अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपने राज्य की मुगलों से सुरक्षा कर ली थी, परंतु 1577 ई० से अकबर इस राज्य को अपने अधिक प्रभाव में लेने के लिए प्रयास करने लगा। उसने खानदेश के लिए शासक अली खाँ पर मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के लिए दबाव डाला। अली खाँ ने अकबर की विशाल सेना का सामना करना आत्मघाती समझा। इसलिए उसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।

अहमदनगर की विजय- अकबर ने अब अपना ध्यान दक्षिण के दूसरे महत्वपूर्ण राज्य अहमदनगर की तरफ दिया। 1591 ई० में अकबर ने अहमदनगर के शासक बुरहान-उल-मुल्क के पास अपनी अधीनता स्वीकार करने का प्रस्ताव भेजा था जिसे उसने स्वीकार नहीं किया। 1593 ई० में उसकी मृत्यु के पश्चात् अहमदनगर राज्य में उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हुआ। अहमदनगर की अवस्था से दुखी एवं अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए राज्य के प्रमुख सरदार मिया मंझू ने शाहजादा मुराद और अब्दुर्ररहीम खानखाना के पास सहायता लिए सूचना भेजी। अतः, 1593 ई० में मुराद ने अहमदनगर पर आक्रमण कर दिया। चाँद बीबी ने दृढ़तापूर्वक मुगल सेना का सामना किया। मुराद भी चाँद बीबी की दृढ़ता के आगे अहमदनगर पर अधिकार करने में विफल रहा। इसलिए दोनों पक्षों ने संधि कर ली। अहमदनगर का राज्य बुरहन शाह को सौंप दिया गया जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। उसने बरार का इलाका मुगलों को सौंप दिया एवं पर्याप्त धन भी दिया।

यह संधि अस्थायी सिद्ध हुई। अहमदनगर राज्य के सदस्यों ने इसे मानने से इनकार कर दिया। इसलिए अकबर ने पुन: अहमदनगर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। 1597 ई० में अस्थी के युद्ध में मुराद विफल रहा। 1599 ई० में मुराद की मृत्यु के पश्चात् दानियाल ने अहमदनगर पर आक्रमण जारी रखा। अंतत: 1600 ई० में वह अहमदनगर पर अधिकार करने में सफल हुआ। चाँद बीबी की हत्या उसी के आदमियों ने कर दी। अहमदनगर के अल्पवयस्क सुलतान को गिरफ्तार कर ग्वालियर दुर्ग में कैद कर लिया गया। यद्यपि अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो गया तथापि उनकी विजय स्थायी सिद्ध नहीं हुई। खानदेश में विद्रोह हो जाने के कारण अकबर को अपना ध्यान उधर देना पड़ा।

खानदेश पर आक्रमण एवं असीरगढ़ की विजय- अकबर का अंतिम युद्ध खानदेश के साथ हुआ। वहाँ का राजा अली खाँ अकबर का अधीनस्थ शासक था। अहमदनगर के साथ हुए युद्ध में उसने मुगलों की तरफ से लड़ते हुए सोनपत नामक जगह में अपनी जान गंवाई, परन्तु अली खाँ के पुत्र एवं खानदेश के नए शासक ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। अतः, बाध्य होकर अकबर को खानदेश पर आक्रमण करने का निर्णय लेना पड़ा 1599 ई० में अकबर ने स्वयं खानदेश की राजधानी बुरहानपुर पर आक्रमण कर दिया। मीरन राजधानी की सुरक्षा नहीं कर सका। राजधानी छोड़कर उसने असीरगढ़ के दुर्ग में शरण ली। अकबर ने बुरहानपुर पर अधिकार कर लिया । अबुलफजल को खानदेश का गवर्नर नियुक्त किया गया। अकबर ने अब असीरगढ़ का दुर्ग घेर लिया। यह दक्षिण का सबसे अधिक सुदृढ़ दुर्ग माना जाता था। महीनों तक घेरा डाले रहने के पश्चात् भी जब मुगलों को दुर्ग लेने में सफलता प्राप्त नहीं हुई तब दोनों पक्षों में संधि वार्ता आरम्भ हुई। अकबर ने मीरन को सुरक्षा का आश्वासन दिया। अत: मीरन स्वयं अकबर के पास बातचीत करने के लिए गये। अकबर ने उसे धोखे से गिरफ्तार करवा लिया एवं दुर्ग-रक्षकों को धन का प्रलोभन देकर अपने पक्ष में कर लिया। मुगलों का प्रतिरोध कम हो गया। 1601 ई० में दुर्ग के पदाधिकारियों ने अकबर को किला सौंप दिया। मीरन बहादुर को पेंशन देकर ग्वालियर भेज दिया गया। इसके साथ ही खानदेश के फरुकी वंश के शासन का अंत हो गया। खानदेश मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।

अकबर की यह अंतिम विजय थी । सलीम के विद्रोह के कारण उसे राजधानी लौट जाना पड़ा। इस प्रकार अकबर ने अपने जीवनकाल में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसके साम्राज्य की सीमा उत्तर-पश्चिम में काबुल से लेकर पूर्व में बंगाल तक एवं दक्षिण भारत तक विस्तृत हो गई (देखें मानचित्र 3) । अकबर द्वारा सफलतापूर्वक इस विशाल साम्राज्य की स्थापना की प्रक्रिया में अनेक कारण सहायक बने। तत्कालीन भारत की राजनीतिक विश्रृंखलता ने अकबर के कार्य को सहज बना दिया । राजपूतों से मैत्री एवं उनके द्वारा अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेने से अकबर को अनेक योग्य राजपूत सेनानायकों का सहयोग एवं उनकी सेवा प्राप्त हो गई। राजा भगवानदास, मानसिंह जैसे योग्य सेनापतियों ने मुगल साम्राज्य के विस्तार एवं सुदृढीकरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अकबर के पास प्रचुर साधन भी थे जिनका अन्य शासकों के पास अभाव था। सबसे बड़ी बात थी-अकबर की दृढ़ इच्छा-शक्ति । कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अकबर ने अपना धैर्य नहीं खोया। अपनी सैनिक प्रतिभा एवं कूटनीतिज्ञता के बल पर वह मुगल साम्राज्य को स्थापना कर सका।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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