मुगल साम्राज्य के पतन का कारण | The reason for the decline of the Mughal Empire in Hindi
मुगल साम्राज्य के पतन का कारण
18 वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के दौरान मुगल साम्राज्य का पतन और विघटन हो गया। मुगल बादशाहों ने अपनी सत्ता और महिमा खोदी और उनका साम्राज्य दिल्ली के इर्द-गिर्द ही कुछ मील तक सीमित रह गया। अन्त में 1803 ई० में दिल्ली पर भी ब्रिटिश फौज का कब्जा हो गया तथा प्रतापी मुगल बादशाह एक विदेशी ताकत का पेंशन भोक्ता हो गया।
प्रो० इरविन और सरकार जैसे विद्वानों ने मुगल साम्राज्य के पतन को राजाओं और दरबारियों में व्यक्तिगत अवनति के सन्दर्भ में देखा है। सरकार ने अपने ग्रन्थ ‘हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब’ में परम्परागत रूप में मान्य कारण (हिन्दू-मुस्लिम विभेद) को भी सविस्तार प्रतिपादित किया है। हाल में सतीशचन्द्र ने इसका निर्णायक कारण मनसब और जागीर व्यवस्था को जारी रखने में मुगलों की असफलता को देखा है। साम्राज्य के केन्द्रीकृत राज्य व्यवस्था के रूप में रहने के लिए इस व्यवस्था का सक्षम रूप से कार्य करना आवश्यक था। दूसरी ओर इरफान हबीब ने मुगल साम्राज्य के पतन को इसी व्यवस्था के कार्य के परिणाम स्वरूप व्याख्यायित किया है। तदनुसार जागीरों के हस्तान्तरण ने शोषण को तीव्र किया और इस प्रकार के शोषण ने जमींदारों और कृषकों के विद्रोह को जन्म दिया। इन सब कारणों के साथ कभी-कभी एक और कारण भी जोड़ा जाता है वह है, राज्यों का उत्थान, जिसने एकीकृत साम्राज्य को विच्छिन्न करके नष्ट कर दिया।
मार्क्सवादी इतिहासकारों का कहना है कि 18 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में केवल साम्राज्य ही नष्ट नहीं हुआ बल्कि सफाविद, आटोमन साम्राज्य और उजबेक खानेर साम्राज्य का भी यही हस्न हुआ। इसका मुख्य कारण वाणिज्य एवं अर्थतत्र में परिवर्तन था। जिसके फलस्वरूप नवीन शक्तियों का उत्थान होना स्वाभाविक था और यही नवीन शक्तियाँ बड़े साम्राज्य के विनाश के लिए उत्तरदायी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस विकास ने पूर्वी देशों की आर्थिक स्थिति में गम्भीर रूप से उथल-पुथल मचा दिया और शासक वर्ग की समस्याओं को गहन किया। भारत और ईरान में भी विलासोपकरणों का मूल्य बढ़ गया और आखिर शासक, वर्ग के सदस्यों के लिए जीवन का अर्थ विलास में ही था। पहले वाली आय अब अपर्याप्त हो गयी थी। बढ़ी हुई कृषि शोषण का यह एक कारण था और जनशोषण का प्रयल अपर्याप्त हो गयी थी। उत्पादन विरुद्ध जाने लगा तब व्यक्तिगत के लाभ लिए होने वाले अन्धाधुन्ध दलीय क्रिया-कलापों का भी यही कारण बना रहा, जिन्होंने लम्बे गृह युद्धों को जन्म दिया। इस प्रकार मुगल साम्राज्य के पतन में राजनीतिक कारणों के अतिरिक्त बुनियादी कारकों के रूप में सामाजिक एवं आर्थिक कारक भी उत्तरदायी हैं।
सामाजिक कारण–
मुगल साम्राज्य के पतन में जमीदारों तथा अमीर वर्ग ने अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह पाम्य समाज के प्रतिनिधि थे। यद्यपि जमींदार कृषकों का शोषण करते थे और जमादार तथा कृषकों के मध्य सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण नहीं थे। तथापि मध्य युग में ऐसे अनेक क्षेत्र थे, जिनमें जमीदारों तथा कृषकों में सम्बध सौहार्दपूर्ण थे और केन्द्रीय सत्ता द्वारा उनमें से किसी एक के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करने पर दोनों ही विद्रोह कर सकते थे। बड़े-बड़े जमीदार स्वयं को स्वायत्त शासक समझते थे। इसके अतिरिक्त ये जमींदार सैनिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण थे। यद्यपि इन जमींदारों में आन्तरिक कलह निरन्तर हुआ करता था, जिससे समस्त जमींदारों को एक होकर केन्द्रीय सत्ता के विरुद्ध विद्रोह करना कभी भी सम्भव नहीं हो सका तथापि ये जमींदार मध्यकालीन शासकों हेतु सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण समस्या बन गये
जमीदारों की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए मुगल शासन ने जमींदारों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। उन्हें मनसब प्रदान किया जिससे वे शासन के प्रति स्वामि- भक्त बने रहें किन्तु इसका विपरीत प्रभाव पड़ा। जमींदार समझने लगे कि केन्द्रीय सत्ता कमजोर पड़ने लगी है और इन्होंने इसका लाभ उठाना आरम्भ कर दिया। आय का मुख्य साधन राजस्व ही होता था, जमींदारों ने राजस्व देने में बेईमानी शुरु कर दी, जिससे साम्राज्य की आर्थिक स्थिति डावांडोल होने लगी। इस समय क्षेत्रीय भावनाएँ भी जोर पकड़ रही थीं जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्रीय राज्य भी स्थापित हो रहे थे।
मुगल साम्राज्य के पतन में अमीरों का प्रमुख हाथ था। अकबर ने अपने शासन काल में अनेक अमीर बनाये थे। मुगल शासन को सुदृढ़ करने की नीति के तहत उसने काफी संख्या में हिन्दुओं, राजपूतों का उच्च मनसब देकर अमीर बनाये। इसके बाद में कई समस्याएं उत्पन हुई। एक तो यह कि जागीर का संकट उत्पन्न हो गया दूसरे अमीरों को वेतन जागीर से दिया जाता था तथा भ्रष्टाचार रोकने के लिए इनका स्थानान्तरण भी किया जाता था जिससे अमीर वर्ग असन्तुष्ट हो गया। इसके अतिरिक्त मुगल दरबार में बढ़ती हुई गुटबन्दी, स्वार्थपरता एवं अनुशासनहीनता ने मुगल साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया को तीव्र कर दिया।
आर्थिक कारण-
औरंगजेब के शासनकाल के समय मुगल साम्राज्य से सामाजिक संकट के साथ आर्थिक व प्रशासनिक संकट में वृद्धि हुई। यह समस्याएं मध्यकालीन सामाजिक परिस्थितियों में निहित थीं, किन्तु शासकीय नीतियों का भी प्रभाव पड़ा। यद्यपि अकबर ने अपने शासनकाल में इन आर्थिक व प्रशासनिक समस्याओं का सामना किया तथापि जहाँगीर एवं शाहजहाँ के काल में भी यह मुख्य समस्या रही। औरंगजेब के शासनकाल में ये समस्याएं उत्तरोत्तर जटिल होती गयीं। इस बढ़ते हुए आर्थिक शासनात्मक संकट का प्रभाव औरंगजेब की राजनीतिक व अन्य नीतियों पर भी पड़ा और 18 वीं शताब्दी का वही संकट मुगल साम्राज्य के पतन का महत्वपूर्ण कारण बन गया।
औरंगजेब के शासन के उत्तरार्द्ध में इस संकट का प्रमुख कारण जागीरों की बढ़ती हुई संख्या तथा मनसबों की वृद्धि ही था। इस समस्या के समाधान हेतु औरंगजेब से पूर्व भी प्रयत्न किया गया। एक उपाय यह भी किया गया कि कागज पर जागीर की आय बढ़ा दी गयी। इस प्रकार अमीरों से प्राप्त वास्तविक आय कम हो गयी। जिसका प्रभाव यह हुआ कि जागीरों का स्थानान्तरण अत्यन्त शीघ्रता से होने लगा। जागीरदारों को यह विश्वास ही न रहा कि उनकी जागीर उनके पास साल भर भी रह पायेगी या नहीं। फलतः जागीरदार कृषि कार्य भी व्यर्थ समझने लगे। इस प्रकार अपनी आय में वृद्धि के लिए उन्होंने कृषकों का शोषण भी प्रारम्भ किया, जिससे कृषकों का असन्तोष उभरा । इसका परिणाम जाट, सिख, बुन्देला तथा सतनामी विद्रोह के रूप में सामने आया । इस बढ़ते संकट को औरंगजेब मुगल साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया को गतिशीलता मिली।
राजनैतिक कारण-
मुगल साम्राज्य के पतन का एक मुख्य कारण राजनैतिक भी था। औरंगजेब के काल में मुगलों का संघर्ष न केवल जाटों, सिखों व पठानों के साथ हुआ वरन् राजपूत और मराठों के साथ भी हुआ जिसने मुगल साम्राज्य को खोखला करने में सक्रिय भूमिका निभाई। जाट या सिख संघर्ष को हम मात्र साम्प्रदायिक संघर्ष नहीं कह सकते । इन संघर्षों का आर्थिक पक्ष था या मुगल साम्राज्य के प्रति कृषकों का आक्रोश । किन्तु उन्हें स्पष्ट रूप से कृषक आन्दोलन नहीं कहा जा सकता। क्योंकि जाटों एवं राजपूतों के बीच संघर्ष राज्य और जमींदारी अधिकारों दोनों का था।
जाट और सिखों की भांति पठान आन्दोलन भी एक जनआन्दोलन या और उसमें भी एक स्वतव राज्य की स्थापना की प्रेरणा निहित थी। पठान आन्दोलन से मुगलों को सदैव काबुल की रक्षा की चिन्ता हो जाती थी। काबुल को मुगल भारत का बाहरी प्रवेश द्वार समझते थे। अकबर के समय में उजबेग, औरंगजेब के काल में ईरानी शाह द्वारा काबुल पर हमला होना अत्यधिक चिन्ता का विषय था। सामरिक व आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से मुगलों हेतु पठान कबायलियों के क्षेत्र में यातायात व्यवस्था अत्यधिक महत्वपूर्ण थी। फलतः विवश होकर औरंगजेब ने इन समस्त आन्दोलनों को नियन्त्रित कर लिया। किन्तु उन आन्दोलनों ने मराठा आन्दोलनों को पनपने तथा केन्द्रीय सत्ता की समस्याओं को जटिलतर बनाने का कार्य अवश्य किया।
राजपूत और मराठों की पृष्ठभूमि जाट, सिख और पठानों के संघर्ष से बहुत भिन्न थी। राजपूतों के मुगलों के साथ सम्बन्ध बहुत ही पुराने थे और इन्होंने मुगल साम्राज्य के सुदृढ़ीकरण में अत्यधिक सहयोग दिया। स्पष्ट रूप से राजपूत और मराठों का संघर्ष व्यक्तिगत तथा तत्कालीन और राजनैतिक था। यद्यपि सर यदुनाथ सरकार के मत में, “संघर्ष का मूल कारण औरंगजेब की यह नीति थी कि वह प्राचीन हिन्दू राज्यों और अधिकारकर भारत में इस्लामी राज्य की स्थापना करना चाहता था। किन्तु ऐतिहासिक तथ्यों से इस मत का खंडन हो चुका है। सिंहासनारोहण के समय औरंगजेब के राजपूतों के साथ सम्बन्ध अत्यन्त सौहपूर्ण थे।
माराठों की शक्ति 17वीं शताब्दी में निरन्तर बढ़ती गयी। जिस समय औरंगजेब सत्तारूढ़ हुआ उस समय शिवाजी की गतिविधियाँ अत्यन्त सन्देहात्मक थीं। वह निरन्तर अपनी शक्ति तथा साम्राज्य का विस्तार कर रहा था। वास्तव में यही मराठों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष का प्रमुख और महत्वपूर्ण कारण था। इसके अतिरिक्त सन् 1689 ई० में शम्भा जी का वध कराना भी औरंगजेब की राजनैतिक भूल थी यद्यपि इन त्रुटियों का बहुत कुछ कारण परिस्थितियाँ थीं तथापि इसने मराठा आन्दोलन को तीव्र कर दिया। अन्त में 1703 ई० में जब औरंगजेब सैन्य शक्ति से मराठा आन्दोलन दबाने में विफल हो गया तो उसने शाहू का प्रयोग करना चाहा किन्तु विफल रहा। इस प्रकार अन्त तक औरंगजेब मराठों को दबाने में सफल न हो सका। इस प्रकार इन तमाम राजनैतिक संघर्षों के कारण मुगल साम्राज्य की समस्त आन्तरिक दुर्बलताएँ स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी, जिसके कारण मुगल साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी हो गया।
एक अन्य कारण जो मुगल साम्राज्य के पतन का था वह यह कि भारतीय, विज्ञान तथा तकनीकी दृष्टि से अत्यन्त पिछड़े हुए थे। नौ सैनिक युद्ध कला में भारतीय नौसिखिये ही रहे। यद्यपि मुगल सम्राट युद्ध कला तथा अस्त्र-शों में सदैव नवीन अनुसंधानों को प्रोत्साहित करते रहे किन्तु वे समकालीन विकास की गति से सामंजस्य न स्थापित कर सके। इसके इस प्रकार झपाश्चात्य विज्ञान तथा सैन्य तकनीक के प्रति उदासीनता पतन का एक महत्वपूर्ण कारण बनी।
इस प्रकार औरंगजेब की मृत्यु के समय सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा प्रशासनिक दृष्टि से मुगल साम्राज्य जर्जरित हो गया था। इन समस्याओं के समाधान हेतु किसी असाधारण व्यक्ति की अपेक्षा थी। पर उत्तरकालीन मुगल साम्राज्य में इसका अभाव रहा। फिर भी मुगल शासन प्रणाली की यह विशेषता ही कही जाएगी कि औरंगजेब की मृत्यु के 50 वर्षों बाद तक मुगल शासन चलता रहा।
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