इतिहास / History

महात्मा बुद्ध की जीवनी | महात्मा बुद्ध की जीवनी के स्रोत | बौद्ध धर्म की उत्पत्ति एवं विकास

महात्मा बुद्ध की जीवनी | महात्मा बुद्ध की जीवनी के स्रोत | बौद्ध धर्म की उत्पत्ति एवं विकास

जीवन-चरित जानने के स्रोत

महात्मा बुद्ध के जीवन चरित का बोध हमें विविध बौद्ध-ग्रन्थों में प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों में ‘ललित विस्तार’ ‘महावस्तु’ अश्वघोष रचित ‘बुद्ध-चरित’ तथा ‘अभिनिष्क्रमण’ सूत्र (जिसका केवल चीनी रूप ही प्राप्त हो सका है) आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों में महात्मा बुद्ध के जीवन चरित का रूप प्राप्त होता है वह प्रायः अतिरंजना से भरा हुआ है तथा यह इस धर्म के अनुयायियों की महात्मा बुद्ध के प्रति विशेष श्रद्धा का ही परिणाम है। इन ग्रन्थों का नीर क्षीर विवेक दृष्टि से अवलोकन करने पर महात्मा बुद्ध के जिस वास्तविक जीवन चरित को निर्धारित किया जा सकता है, उसका वर्णन निम्नलिखित है-

महात्मा बुद्ध की जीवनी

वंश-बौद्ध आख्यानों में महात्मा बुद्ध को राजा का पुत्र कहा गया है। उनके कुल को उत्तम तथा ‘अविच्छिन क्षत्रिय वंश’ बताया गया है। शाक्यों का यह कुल कोसल की राजधानी साकेत से निर्वासित होकर हिमालय की तराई वाले प्रदेश में कपिलवस्तु की स्थापना करके बस गया था। शाक्यों ने यहाँ पर गणतन्त्रीय जनपद की स्थापना की तथा यहाँ पर कुलीन शाक्य राजा शासन करते थे! शाक्यों का गोत्र गौतम था। महात्मा बुद्ध को ‘आंगिरस’ कहा गया है जो गौतम गोत्र का उपभेद था।

माता-पिता- सिंहली ग्रन्थों में महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन तथा माता का नाम महामाया बताया गया है। उनकी विमाता का नाम प्रजापति बताया गया है।

जन्म-स्थान- महात्मा बुद्ध के जन्म स्थान का निश्चितीकरण अशोक द्वारा 250 ई० में स्थापित स्तम्भ लेख के आधार पर किया जा सकता है। इस स्तम्भ लेख पर ‘हित बुधे जाते साक्य मुनीत’ (अर्थात् यहाँ पर बुद्ध शाक्य मुनि का जन्म हुआ) शब्द उत्कीर्ण है। नेपाल के विथरी जनपद में नौतनवा से 19 किलोमीटर दूर स्थित इस स्थान को लुम्बिनी (लुमनी) या आधुनिक ‘रुक्मिनदेई’ या ‘रूपनदेहि’ कहा जाता है।

जन्म-तिथि- सिंहली अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक की सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के विवेचनात्मक अध्ययन द्वारा महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि 567 ई० पू० स्वीकार की गई है।

जन्म- बौद्ध साहित्य के अनुसार राजा शुद्धादन की आयु के 45वें वर्ष में उनकी पत्नी महामाया गर्भवती हुई। ‘मज्झिम निकाय’ के अनुसार “दस मास तक बोधिसत्व को गर्भ में रखने के पश्चात् जब प्रसव वेदना का समय निकट आया तो महामाया की इच्छा अपने मातृकुल के नगर देववह जाने को हुई। राजा शुद्धोदन ने अनुमति दे दी तथा कपिलवस्तु तक का मार्ग साफ करवा कर कदली से सुशोभित, मंगल कलश, ध्वज पताकाओं से अलंकृत करके, रानी को पालकी में बैठा कर भेजा। मार्ग में विश्राम करने के लिये वे लुम्बिनि उद्यान में रुकी तथा शाल वृक्ष के नीचे उसकी शाखा पकड़े खड़ी ही हुई थी कि प्रसववेदना शुरू हो गई। महान धार्मिक विभूति ने भौतिक जगत में अपनी आँखे खोल दी- राजा शुद्धोदन तथा महामाया को पुत्र रल प्राप्त हो गया।

भविष्य विचार- पुत्र जन्म होने से पूर्व महात्मा बुद्ध की माता ने अद्भुत स्वप्न देखे थे। जब उन्होंने पति शुद्धोदन को इन स्वप्नों का वृत्तान्त सुनाया, तो शुद्धोदन ने आठ प्रमुख भविष्य वेत्ताओं से इस विषय में प्रश्न किये। इन सभी विद्वानों ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र रल प्राप्त होगा. यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा और यदि उसने गृह त्याग किया तो सन्यासी बन कर अपने ज्ञान प्रकाश द्वारा सारे विश्व को आलोकित कर देगा। जातकों के अनुसार जिस स्थान पर महामाया ने पुत्र को जन्म दिया-उसी स्थान पर उसी समय एक सरिता फूट निकली। इस सरिता के जल में स्नान करने पर नवजात शिशु ने सात वाक्य कहे, जिनका सार था, “यह मेरा अन्तिम जन्म है तथा इसके पश्चात् मैं भौतिक जगत का भवसागर पार कर लूँगा। इस जीवन में मैं उन समस्त मूल्यों की स्थापना करूँगा जो श्रेष्ठ तथा कल्याणकारी हैं।”

प्रारंभिक जीवनपाँचवें दिन नामकरण संस्कार द्वारा शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया। पुत्र जन्म के सातवें दिन महामाया का देहान्त हो गया तथा सिद्धार्थ के लालन-पालन का भार उनकी विमाता तथा मौसी महाप्रजापति गौतमी ने ग्रहण किया। भविष्य वक्ताओं की बात को ध्यान में रखते हुए, राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट् बनाना चाहा तथा उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये उचित शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया। सिद्धार्थ ने शीघ्र ही घुड़सवारी, शस्त्र प्रयोग तथा राज विधा में निपुणता प्राप्त कर ली परन्तु स्वभावतः वह किसी चिन्ता में डूबा रहता था। सिद्धार्थ प्रायः अपने निवास स्थान से दूर जम्बू वृक्ष की छाया में बैठकर ध्यान मग्न हो जाता तथा संसार के कष्टों एवं विपदाओं के विषय में सोचा करता। पिता शुद्धोदन को इस बात की आशंका सदैव सताती रहती थी कि सिद्धार्थ सन्यासी न बन जाये।

भोग विलास में लिप्त करने का प्रयत्न- सिद्धार्थ के मन को सांसारिक प्रवृत्ति में जकड़ने के लिये, उनके पिता शुद्धोदन ने तीनों ऋतुओं के अनुकूल राजप्रासादों का निर्माण कराया-परन्तु इनका आकर्षण व्यर्थ सिद्ध हुआ। एक रात्रि को अतीव सुन्दरी गणिकाओं के बीच उनको अकेला छोड़ दिया गया। इस गणिकाओं ने अनेक हाव-भाव प्रदर्शन द्वारा सिद्धार्थ को प्रेमपाश में जकड़ना चाहा-परन्तु यह भी व्यर्थ सिद्ध हुआ। सिद्धार्थ सो गये तथा गणिकाएँ भी क्लान्त होकर सो गईं। आधी रात बीतने पर सिद्धार्थ की आँखें खुली तो उन्होंने देखा कि जागृतावस्था में जो गणिकाएँ बड़ी सुन्दर लग रही थीं अब कान्तिविहीन एवं कुरूप लग रही हैं। किसी के केश उलझे हैं तो कोई दुःस्वन देखकर भयभीत हो रही है। सिद्धार्थ चिन्तित हो उठे तथा अपने महल को लौट गये।

विवाह- शुद्धोदन अपने प्रयलों में लगे रहे। अब उन्होंने विवाहपाश का प्रयोग किया। बौद्ध साहित्य में सिद्धार्थ की पत्नी के अनेक नाम प्राप्त होते हैं- यथा, ‘भट्टकक्षा’, ‘विम्बा’, ‘गोपा’ तथा ‘यशोधरा’ ! वस्तुतः उनकी पत्नी के नामों में भिन्नता है परन्तु उनकी पत्नी केवल एक ही थी।

चार प्रमुख सत्यों से साक्षात्कार- एक दिन नगर भ्रमण के लिये रथ पर विचरण करते हुए सिद्धार्थ ने एक कृशकाय वृद्ध को देखा। वृद्ध के शरीर पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थी तथा शीत के कारण उसके दाँत किटकिटा रहे थे। लकड़ी का सहारा लेकर वह घिसटता हुआ चल रहा था। सिद्धार्थ ने सोचा कि युवावस्था में शरीर पर गर्व करने वाला मनुष्य वृद्धावस्था के अपार कष्टों से अनभिज्ञ रहता है। मनुष्य अज्ञानी है। यह प्रथम सत्य दर्शन था।

एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक व्यथित रोगी को देखा। रोगी का शरीर ज्वर से तप रहा था, तथा उसके मुख पर मृत्यु का भय था। सिद्धार्थ ने सोचा, “धिकार है ऐसे शरीर एवं स्वास्थ्य को, जिसका नाश रोग द्वारा होता है।” यह द्वितीय सत्य दर्शन था।

तीसरे अवसर पर सिद्धार्थ ने एक मृतक की अर्थी को ले जाते हए देखा। मृतक के सम्बन्धी रो रहे थे। सिद्धार्थ ने सोचा, “जीवन के प्रति आकर्षण व्यर्थ है। जब मृत्यु से इतना दुख होता है तो आसक्ति ही क्यों पैदा की जायन जीवन के प्रति आसक्ति होगी और न मृत्यु से दुख होगा।’ यह तृतीय सत्य दर्शन था।

एक अन्य अवसर पर सिद्धार्थ ने एक प्रसन्नचित सन्यासी को देखा। सौम्य, सरल, शान्त, तेजस्वी सन्यासी बन्धनहीन तथा दुखरहित प्राणी की भाँति विचरण कर रहा था। इस दृश्य ने सिद्धार्थ को बहुत प्रभावित किया तथा उनके हृदय में प्रवृत्ति मार्ग की निस्सारता तथा निवृत्ति मार्ग की सन्तोषी भावना उत्पन्न कर दी। यह चतुर्थ सत्य दर्शन, सिद्धार्थ के जीवन का अर्थ बन गया।

पुत्र जन्म- विवाह के दस वर्ष पश्चात् सिद्धार्थ को पुत्ररत्ल प्राप्त हुआ । पुत्र जन्म का समाचार पाते ही उनके मुख से ‘राहु’ शब्द निकला-जिसका अर्थ है ‘बन्धन’ । उन्होंने सोचा कि यह एक बन्धन है। उनके इस पुत्र का नाम राहुल रखा गया।

अभिनिष्क्रमण (गृहत्याग)- इसके विपरीत कि सांसारिक बन्धन उन्हें प्रभावित करें, सिद्धार्थ ने सांसारिक बन्धनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारम्भ कर दिया। उन्हें प्रत्येक सुख विष ज्वाला के समान प्रतीत होने लगा और उन्होंने मन ही मन गृह त्याग का निश्चय कर लिया। तब एक महान रात्रि का आगमन हुआ और 29 वर्ष के युवा सिद्धार्थ के चरण, ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े। ‘ललित विस्तार’ के अनुसार “जिस कमरे में उनकी पत्नी पुत्र के मस्तक पर हाथ रख कर सो रही थी, उसकी देहली पर खड़े होकर उन्होंने बालक की ओर अन्तिम बार देखा और महल का त्याग करके अपने घोड़े कंथक पर सवार होकर नगर से बाहर निकल गये।”

ज्ञान की खोज में- गृहत्याग के उपरान्त सिद्धार्थं ज्ञान की खोज में भटकने लगे। बिम्बिसार, उद्रक, आलार कालाम नामक सांख्योपदेशक आदि से मिलते हुए, वे उरुबेला की सुरम्य वनस्थली में जा पहुंचे। यहाँ पर उन्हें कौण्डिन्य आदि पाँच साधक मिले। उन्होंने ज्ञान प्राप्ति के लिये घोर तपस्या प्रारम्भ कर दी। परिणामस्वरूप उनका शरीर अस्थिपंजर तथा त्वचा मात्र रह गया। अब उनमें इतनी भी शक्ति नहीं थी कि दो पग चल पाते। इस कठोर तपस्या द्वारा भी जब उनकी ज्ञानपिपासा शान्त नहीं हुई तो उन्होंने भोजन ग्रहण कर लिया। उनके पाँच साथियों ने उन्हें पथभ्रष्ट समझ कर साथ छोड़ दिया। ‘मज्झिम निकाय’ में सिद्धार्थ द्वारा घोर तपस्या को त्याग देने का कारण बताते हुए कहा गया है कि गौतम ने कुछ स्त्रियों के गाने की ध्वनि सुनी। गीत का भावार्थ था कि “अपनी वीणा के तार को ढीला मत करो, वरना वह ध्वनिविहीन हो जायेगा। अपनी वीणा के तार को इतना मत कसो, वरना वह टूट जायेगा।” गौतम ने इस को समझ कर कठोर तपस्या का त्याग कर दिया।

ज्ञान प्राप्ति- अथक परिश्रम तथा घोर तपस्या द्वारा ज्ञान प्राप्ति में असफल होने पर गौतम ने अपने स्वभावानुसार चिन्तन करना शुरू कर दिया। वे गया के निकट वट वृक्ष के नीचे आसन जमाकर बैठ गये और निश्चय किया कि ‘चाहे मेरे प्राण निकल जायें, मैं तब तक समाधिस्थ रहूँगा, जब तक ज्ञान प्राप्त न कर लूँ! सात दिवा और सात रात्रि बीतने पर भी उनका घोर चिन्तन तथा अखण्ड समाधि निरन्तर रहे। आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और इसी दिन वे ‘तथागत’ हो गये। जिस वट वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, वह आज भी ‘बोधिवृक्ष‘ के नाम से प्रसिद्ध है। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था 35 वर्ष की थी।

प्रथम ज्ञानदान- ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त महात्मा बुद्ध को अपने दो गुरुओं यथा आलार और  उद्रक की याद आई-परन्तु वे अब तक स्वर्गवासी हो चुके थे। फिर उन्हें अपने उन पाँच साथियों का ध्यान आया, जिन्होंने उन्हें पथभ्रष्ट समझ कर त्याग दिया था। किन्तु इसी समय तपस्सु तथा काल्लिक नामक दो शुद्र उनके पास आये। महात्मा बुद्ध ने ज्ञानदान द्वारा उन्हें बौद्ध धर्म का सर्वप्रथम अनुयायी बना लिया।

धर्म-चक्र प्रवर्तन- बोध गया से चलकर वे सारनाथ पहुंचे तथा वहाँ पर अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश देकर अपना शिष्य बना लिया। महात्मा बुद्ध के धर्म प्रचार क्रम का यह प्रथम उपदेश, बौद्ध परम्परा में ‘धर्म चक्र प्रवर्तन’ के नाम से विख्यात है। काशी में प्रचार करने के उपरान्त वे उरुवेला, राजगृह, मगध आदि प्रदेशों में होते हुए, कपिलवस्तु पहुंचे। अपने सम्बन्धियों आदि के अतिरिक्त अनेकानेक जनों को प्रवज्या देकर वे पुनः राजगृह पहुँचे। प्रतीत होता है कि मगध को उन्होंने अपना प्रमुख प्रचार केन्द्र बनाया था। मगध के अतिरिक्त वेकाशी, कोसल तथा वज्जि जनपदों में आते जाते रहे।

प्रचार लगन- महात्मा बुद्ध की कार्य-क्षमता अद्भुत थी। वे जहाँ कहीं भी जात, अथाह सागर की भाँति जनसमुदाय उनके दर्शनार्थ उमड़ आता था। इनमें साधारणजन से लेकर राजे-महाराजे भी होते। वर्षाकाल को छोड़ कर, शेष सभी ऋतुओं में वे प्रचार कार्य के लिये भ्रमण करते रहते थे। एक बार उन्होंने अपने शिष्य सारिपुत्र से कहा था, ‘अशन, पान, खादन, शयन, मलमूत्र त्याग के समय को छोड़ कर, निद्रा एवं विश्रान्ति के समय के अतिरिक्त तथागत की धर्मदेशना सदा अखण्ड रहेगी।’

अन्तिम काल तथा रुग्णता- जीवन काल के 79वें वर्ष में वे राजगृह से चल कर वैशाली पहुँते तथा वेलुग्राम में कठिन रोग से पीड़ित हो गये। वे रुके नहीं तथा चलते-चलते पावा पहुँचे तथा वहाँ पर चुन्द कम्मार पुत्त (लुहार) के यहाँ भोजन करते ही उनके उदर में तीव्र पीड़ा होने लगी। इसी अवस्था में वे हिरण्यवती नदी के तट पर पहुँच कर रुक गये। उन्होंने सोचा कि उनका अन्त होने पर कहीं चुन्द को दोष न दिया जाये। अतः उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य आनन्द से कहा, “वह भोजन तथागत के भौतिक शरीर का अन्तिम भोजन होना निश्चित था।” विश्रामोपरान्त वे हिरण्यवती नदी को पार करके कुसीनारा पहुंचे तथा कुसीनारा के परिव्राजक को अपना अन्तिम उपदेश दिया। महात्मा बुद्ध की रुग्णता को जान कर भिक्षु बड़े चिन्तित हुए। भिक्षुओं की इस मनोदशा को समझ कर तथागत ने कहा-

“तुम सोचते हो कि तुम्हारा आचार्य तुमसे विदा माँग रहा है। पर ऐसा मत सोचो। जो सिद्धान्त और नियम मैंने बताये हैं वही तुम्हारे परम आचार्य हैं। पुत्रो सुनो! जो आता है वह जाता है। तुम बिना रुके प्रयत्न किये जाओ।”

महात्माबुद्ध के अन्तिम शब्द- अपना अन्तिम समय निकट आया जान कर, तथागत ने उपस्थित भिक्षुओं से कहा-

“हो सकता है, किसी के मन में कोई शंका या सन्देह रह गया हो। भिक्षुओ उसे पूछ लो। किसी के मन में पीछे ऐसा न हो कि हम शास्ता के रहते हुए, न पूछ सके।”

यह सुनकर समस्त भिक्षु चुप रहे। दूसरी बार, फिर तीसरी बार उन्होंने ये ही शब्द दुहराये और तब उनके मुख से अन्तिम शब्द निकले–“हदं दानि भिक्खवे, आमंतयामि वो, वयधम्मा संखारा, अपंमादेन सम्पादेंथाति”।

अर्थात्, “हे भिक्षुओ, इस समय आज तुम से इतना ही कहता हूँ कि जितने भी संस्कार हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित होकर अपना कल्याण करो।”

……और वे निर्वाण प्राप्त कर गये। यह 487 ई० पू० की घटना है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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