अर्थशास्त्र / Economics

भारत सरकार की खाद्य नीति | खाद्यानों उत्पादन नीति | खाद्यान्न वितरण नीति | खाद्यान्न आयात नीति  | भारत सरकार की वर्तमान खाद्य नीति का मूल्यांकन

भारत सरकार की खाद्य नीति | खाद्यानों उत्पादन नीति | खाद्यान्न वितरण नीति | खाद्यान्न आयात नीति  | भारत सरकार की वर्तमान खाद्य नीति का मूल्यांकन

भारत सरकार की खाद्य नीति

(Food Policy of the Government of India)

आयोजनकाल में खाद्य समस्या के समाधान के लिए सरकार ने तीन प्रकार की खाद्यान्न नीति अपनाई है (1) खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि की दिशा में प्रयास, (2) खाद्य पदार्थों की वितरण व्यवस्था से सम्बन्धित उपाय, और (3) खाद्यान्नों का आयात।

(क) खाद्यानों उत्पादन नीति

खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने की दृष्टि से सरकार ने तीन प्रकार के उपाय किये हैं :

  1. तकनीकी उपाय- आयोजनकाल में खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने के लिए यद्यपि तकनीकी उपायों के महत्व को प्रारम्भ से ही स्वीकार किया गया है लेकिन 1966 के बाद से कृषि विकास की नई युक्ति नीति के अन्तर्गत खाद्य समस्या को हल करने के लिए सरकार की इन उपार्यों पर निर्भरता बढ़ गई है। भारत में 1966-67 तक सरकार की ओर से सिंचाई की सुविधाओं के विस्तार पर अधिक बल दिया गया था, लेकिन इसके बाद उन्नत किस्म के बीजों, उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं, आधुनिक कृषि मशीनरी इत्यादि के उपयोग को बढ़ाने की ओर ध्यान दिया गया है। खेती में मशीनीकरण भी तेज गति से हो रहा है। ट्रैक्टरों, हार्वेस्टर मशीनों, पम्पसेटों, नलकूपों आदि का प्रयोग बढ़ रहा है। इन तकनीकी उपायों से खाद्यानों के उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ाने मे काफी सहायता मिली है।
  2. भूमि-सुधार- भारत में कृषि विकास के लिए भूमि सुधारों की आवश्यकता को सैद्धान्तिक रूप से सरकार ने बहुत पहले ही स्वीकार कर लिया था। अतः मध्यस्थों को समाप्त करने के लिए सभी राज्यों में कानून बनाये गये। विभिन्न राज्यों में जोतों की उच्चतम सीमाबन्दी की गई। लगान का नियमन हुआ। जमींदारों द्वारा काश्तकारों से ली जाने वाली बेगार आदि गैरकानूनी कर दी गई। इस प्रकार निश्चय ही भूमि सम्बन्धों में परिवर्तन हुए। परन्तु ये भूमि विशेष अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ा।
  3. प्रेरक मूल्य नीति– भारत सरकार की यह मान्यता रही है कि किसानों को उनकी फसलों का अच्छा मूल्य देने से खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ाने की प्रेरणा मिलेगी अर्थात् प्रेरक मूल्य नीति का अनुकूल प्रभाव पड़ेगा। इसलिए सरकार ने 1965 में कृषि कीमत आयोग गठित किया (अब इसका नाम कृषि लागत व कीमत आयोग है)। यह आयोग विभिन्न कृषि फसलों के लिए वसूली कीमतों व न्यूनतम समर्थन कीमतों की घोषणा करता रहा है।

(ख) खाद्यान्न वितरण नीति

भारत सरकार ने खाद्य समस्या के समाधान के लिए विवरण सम्बन्धी निम्नलिखित उपाय किये हैं :

  1. खाद्य क्षेत्रों की व्यवस्था- कीमतों में स्थिरता और खाद्यान्नों के युक्तिपूर्ण वितरण के लिए खाद्य क्षेत्रों की व्यवस्था की गई। यह प्रयोग द्वितीय विश्वयुद्ध काल में किया गया था। इसके बाद फिर मार्च 1964 में खाद्य स्थिति गम्भीर होने पर देश को आठ गेहूं क्षेत्रों में विभाजित किया गया। दक्षिण भारत के लिए चावल क्षेत्र बनाया गया। यह प्रयोग असफल होने पर प्रत्येक राज्य का अलग क्षेत्र बना दिया गया। खाद्य क्षेत्रों के निर्माण का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि जिन राज्यों में खाद्यान्नों का आधिक्य है, वहां से सरकार उसकी वसूली कर, केन्द्रीय सरकार के माध्यम से उन राज्यों को दे, जिनमें खाद्यान्नों का उत्पादन मांग से कम है। परन्तु राज्य सरकारों के असहयोग के कारण यह व्यवस्था ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर सकी। खाद्यान्नों के आधिक्य वाले राज्यों ने प्रायः अपने आधिक्य को कम बतलाकर इस व्यवस्था लागू करने में कठिनाई पैदा की है।
  2. प्रतिरोधक भंडारों का निर्माण तथा राज्य व्यापार- खाद्य स्थिति को ठीक करने के लिए यह आवश्यक है कि खाद्यान्नों की पूर्ति में निश्चितता हो। भारत में वर्षा की अनिश्चितता के कारण उत्पादन में स्थिरता तो सम्भव नहीं। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि अतिरिक्त उत्पादन वाले वर्षों में प्रतिरोधक भण्डारों (buffer stocks) का निर्माण किया जाए ताकि जिन वर्षों में उत्पादन कम हो, उन वर्षों में इन भण्डारों से खाद्यान्न निकाल कर संकट का सामना किया जा सके। इस नीति के द्वारा अनिश्चित व अनियमित उत्पादन होने पर भी पूर्ति को निश्चित व नियमित रखा जा सकता है। इन बात कों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने जनवरी 1965 में भारतीय खाद्य निगम की स्थापना की। यह निगम सरकार की ओर से खाद्यान्नों की खरीददारी, संग्रहण या स्थानान्तरण तथा वितरण का काम करता है। अक्टूबर 1992 में इस निगम के पास 1 करोड़ 73 लाख टन की भंडारण व संग्रहण व्यवस्था थी।
  3. खाद्यान्नों की वसूली और सार्वजनिक वितरण (Procurement of food- grains and public distribution)- बाजार की शक्तियों को नियमित करने के उद्देश्य से सरकार ने आंशिक वसूली की नीति को आपनाया है। वसूली के द्वारा, जो खाद्यान्न प्राप्त किये जाते हैं, उनकी बिक्री सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से की जाती है। यह प्रणाली उचित दर की दुकानों और राशन की दुकानों के माध्यम से काम करती हैं। 31 मार्च 1994 को देश में इस प्रकार की 424 लाख से ज्यादा दुकानें काम कर रही थीं।
  4. गेहूं तथा चावल के व्यापार का राष्ट्रीयकरण (Nationalisation of wholesale trade in wheat and rice)- यद्यपि 1957 में खाद्यान्न नीति समिति ने सुझाव दिया था कि खाद्यान्नों के मूल्यों में स्थिरता और उनके वितरण में नियमितता लाने के लिए सरकार को इनका व्यापार अपने हाथ में ले लेना चाहिए, फिर भी 16 वर्षों तक इस दिशा में कुछ भी नहीं किया गया। जब 1972-73 में खाद्य-स्थिति गम्भीर हो गई तो सरकार ने गेहूं और चावल का थोक व्यापार अपने हाथ में लेने का निर्णय कर डाला। परन्तु थोक व्यापारियों ने इस कार्यक्रम का घोर विरोध किया। इसके अलावा सरकार की भ्रष्ट तथा अकुशल प्रशासनिक व्यवस्था इस जिम्मेदारी को ठीक तरह निभाने में समर्थ नहीं थी और वास्तविकता यह है कि सरकार की इस योजना को सफल बनाने में विशेष दिलचस्पी भी नहीं थी। अतः 28 मार्च, 1974 को लोकसभा में खाद्य मन्त्री की एक घोषणा द्वारा इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया।
  5. थोक व्यापारियों से उगाही (Procurement from whole sellers)- खाद्यान्न के थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण समाप्त कर देने के बाद एक दूसरा प्रयोग किया गया। सरकार ने पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के खाद्यान्नों के थोक व्यापारियों और सहकारी समितियों से उनकी कुल खरीद का कुल 50 प्रतिशत उगाही करने की नीति अपनाई। सरकार की यह नीति ज्यादा सफल नहीं हुई। जमाखोर थोक व्यापारियों से भ्रष्ट कर्मचारियों की सहायता से सरकार के लिए उनकी वास्तविक खरीद का 50 प्रतिशत प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं था।

(ग) खाद्यान्न आयात नीति

(Import of Food grains)

भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के उद्देश्य से और जनसाधारण के असन्तोष को कम करने के लिए खाद्य पदार्थों की कीमतों में स्थिरता आवश्यक है, जो केवल उसी अवस्था में सम्भव है जब खाद्यान्नों की मांग और पूर्ति में सन्तुलन की स्थिति हो। 1956 तक सरकार ने खाद्यान्नों की मांग को पूरा करने के लिए विविध उपाय किये जिनमें अधिक अन्न उपजाओ आन्दोलन, खाद्यान्नों की कृषकों से वसूली और शहरी क्षेत्र में नियन्त्रित वितरण उल्लेखनीय है। अप्रैल 1956 में प्रतिरोधक भण्डार की की व्यवस्था के उद्देश्य से भारत सरकार ने पहला पी०एल० 480 समझौता किया जिसके अंतर्गत 31 लाख टन गेहूं और 1.9 लाख टन चावल के आयात का सौदा हुआ। यहां से भारत का अमेरिका से पी० एल0 480 के समझौते के अन्तर्गत खाद्यानों के आयात का युग प्रारम्भ हुआ। प्रतिरोधक भण्डार बनाने की बात भुला दी गई और प्रतिवर्ष भारी मात्रा में आयात किये गये जिनका उपभोग कर लिया गया। देश की आयातों पर निर्भरता कहाँ तक है, यह इससे स्पष्ट है कि 1975-76 में जब फसलें असाधारण रूप से अच्छी थीं, तब भी देश को काफी बड़ी मात्रा में खाद्यान्नों का आयात करना पड़ा। वास्तव में, स्वतन्त्रता से अब तक केवल आठ वर्षों (1972, 1978, 1979, 1980, 1985, 1987, 1992) को छोड़कर देश को प्रत्येक वर्ष खाद्यान्नों का आयात करना पड़ा।

एस0 चक्रवर्ती तथा रोजस्टाइन रौडन के अनुसार यदि कोई देश भारी मात्रा में खाद्यानों का आयात करता है, तो इससे उपभोक्ताओं को अल्पकाल मे लाभ होता है परन्तु इसका उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जब कृषि उत्पादन पर मूल्य में परिवर्तनों का प्रभाव पड़ता है तो आयातों के कारण कीमतों में आने वाली गिरावट से कृषकों को उत्पादन के लिए कोई प्रेरणा नहीं मिलेगी। यदि खाद्य सहायता दीर्घ अवधि तक रहती है तो कृषि का विकास सन्तोषजनक नहीं होगा और इस प्रकार देश कभी भी खाद्य पदार्थों की दृष्टि से आत्मनिर्भर नहीं हो सकेगा। पी0एल0 480 के अन्तर्गत खाद्य पदार्थों के आयात ने खाद्यान्नों की कीमतों को प्रेरणाजनक नहीं होने दिया। इससे यद्यपि उपभोक्ताओं को कुछ लाभ हुआ है, परन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि इससे कृषि विकास में बाधा पड़ी है। अमेरिका द्वारा भारत को पी0एल0 480 के अन्तर्गत खाद्यान्नों का निर्यात बन्द कर देने से यह समस्या हल हो गई है। यहां यह बताना भी अनुचित नहीं होगा कि अमेरिकी सरकार ने पी0एल0 48 के अन्तर्गत दी जाने वाली सहायता को ‘राजनैतिक हथियार’ के रूप में प्रयोग करने का प्रयास किया और भारत पर दबाव डाला कि वह कई अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर उसका साथ दे (जैसे वियतनाम पर अमेरिका का आक्रमण)। जब भारत सरकार ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया तो पी० एल0 480 कार्यक्रम को रद्द कर दिया गया। इससे यद्यपि अल्पकाल में खाद्यान्नों की कमी अवश्य हुई परन्तु दीर्घकाल में देश को इससे लाभ हुआ। सरकार की खाद्यान्नों के प्रति उदासीनता (जो पी0एल0 480 के अन्तर्गत आसानी से खाद्यान्न उपलब्ध हो जाने के कारण थी) टूट गयी और कृषि क्षेत्र में खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने के लिए कुछ गम्भीर प्रयास किये गये।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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